द्वैध शासन, हर्टाग समिति और वुड-ऐबट रिपोर्ट का वर्णन

द्वैध शासन

1914 के प्रथम युद्ध के बाद संसार की राजनीति में एक नए युग का शुभारम्भ हुआ। सभी पराधीन देश स्वतन्त्रता की माँग करने लगे। भारत में तो यह मांग बहुत पहले से की जा रही थी। इस युद्ध की समाप्ति के बाद इस माँग ने तेजी पकड़ी। महात्मा गाँधी के नेतृत्व में स्वतन्त्रता आन्दोलन को एक नई गति मिली। महात्मा गाँधी ने 1917 में चम्पारन में अंग्रेजों के अत्याचार के विरुद्ध आन्दोलन किया।

     उसके बाद उन्होंने 1919 में असहयोग आन्दोलन शुरु किया। अंग्रेजों ने समय की नब्ज को पहचाना और उसी वर्ष 1919 में ब्रिटिश पार्लियामैन्ट ने 'भारत सरकार अधिनियम, 1919' (Government of India Act, 1919) पारित किया। यह अधिनियम 1921 में लागू हुआ। इस अधिनियम से भारत में द्वैध शासन की शुरुआत हुई।

    द्वैध शासन प्रणाली में सभी विषय दो भागों में बाँट दिए गए- संरक्षित (Reserved) और हस्तान्तरित (Transfered)। संरक्षित विषय वे विषय थे जिनका प्रशासन केन्द्रीय सरकार (गवर्नर जनरल और उसकी काउंसिल) के द्वारा होता था और हस्तान्तरित विषय वे विषय थे जिन्हें केन्द्रीय सरकार ने प्रान्तीय सरकरों को हस्तान्तरित कर दिया था और जिनका प्रशासन प्रान्तीय सरकारें करती थीं। 

    संरक्षित विषय पूर्णरूप से केन्द्रीय सरकार के नियन्त्रण में थे और हस्तान्तरित विषय केन्द्र एवं प्रान्तीय सरकारों के संयुक्त नियन्त्रण में थे। इसीलिए इस प्रणाली को द्वैध शासन प्रणाली कहा जाता है। इस अधिनियम में शिक्षा को हस्तान्तरित विषयों में रखा गया था, परन्तु केन्द्रशासित प्रदेशों की शिक्षा व्यवस्था, केन्द्र द्वारा स्थापित बनारस, अलीगढ़ और दिल्ली विश्वविद्यालयों की व्यवस्था और यूरोपीय बालकों की शिक्षा की व्यवस्था को संरक्षित विषयों के अन्तर्गत रखा गया था।

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    हर्टाग समिति, 1927-29

    भारतीय नेता द्वैध शासन व्यवस्था से सहमत नहीं थे। परिणाम यह हुआ कि गाँधी जी द्वारा 1919 में चलाए गए असहयोग आन्दोलन में तेजी आ गई। इस समय असहयोग आन्दोलन और राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन की आँधी, दोनों एक साथ चल रही थीं। अतः ब्रिटिश सरकार ने भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक स्थिति को समझते हुए और तदानुकूल भारत में अपनी शासन नीति निश्चित करने के उद्देश्य से 8 नवम्बर, 1927 को 'साइमन कमीशन' (Simen Commission) की नियुक्ति की। इस कमीशन से भारतीय शिक्षा के सम्बन्ध में भी अपने सुझाव देने के लिए कहा गया। साइमन कमीशन ने भारत में शिक्षा सम्बन्धी समस्याओं और माँगों का अध्ययन करने के लिए एक सहायक समिति का गठन किया। 

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    हर्टाग (Sir Philip Hartog) को इस समिति का अध्यक्ष बनाया गया। अध्यक्ष के नाम पर इस समिति को 'हर्टाग समिति' कहा जाता है। हर्टाग इससे पूर्व कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग, 1917 के सदस्य के रूप में कार्य कर चुके थे और ढाका विश्वविद्यालय के कुलपति रह चुके थे। उन्हें भारतीय शिक्षा के विषय में पहले से ही पर्याप्त जानकारी थी। उनकी अध्यक्षता में इस समिति ने तत्कालीन भारतीय शिक्षा की नीति, प्रशासन और स्वरूप का बड़ी बारीकी से अध्ययन किया और उसके बाद 11 सितम्बर, 1929 को अपना प्रतिवेदन साइमन कमीशन को प्रस्तुत कर दिया।

    हर्टाग समिति की सिफारिशें

    हर्टाग समिति के सुझावों को हम तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं- प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी, माध्यमिक शिक्षा सम्बन्धी और उच्च शिक्षा सम्बन्धी ।

    प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी सुझाव

    हर्टाग समिति अपने अध्ययन से इस परिणाम पर पहुँची कि पिछले 50 वर्षों में प्राथमिक शिक्षा के प्रसार की गति जनसंख्या वृद्धि की दृष्टि से बहुत धीमी रही थी और साक्षरता प्रतिशत बढ़ने के स्थान पर घटा था। उसने यह भी देखा कि प्राथमिक स्तर पर अपव्यय (Wastage) और अवरोधन (Stagnation) बहुत अधिक था। समिति की रिपोर्ट के अनुसार, प्राथमिक शिक्षा समाप्त करने के पूर्व ही बच्चे का स्कूल से हट जाना अपव्यय है और किसी बच्चे का एक कक्षा में एक वर्ष से अधिक रूकना अवरोधन है। समिति ने प्राथमिक शिक्षा की इस समस्या के कारणों का पता लगाया और साथ ही इस स्तर पर अपव्यय और अवरोधन को रोकने के उपाय सुझाए। 

    यह भी पढ़ें-

    शिमला सम्मेलन, 1901, भारतीय विश्वविद्यालय आयोग, 1902 और कर्जन शिक्षा नीति, 1904 

    समिति की रिपोर्ट में प्राथमिक स्तर पर अपव्यय एवं अवरोधन के निम्नलिखित कारण बताए गए हैं-

    • प्रत्येक ग्राम में प्राथमिक विद्यालय नहीं हैं, छात्रों को दूर-दूर पढ़ने जाना होता है, वे स्कूलों में प्रवेश तो लेते हैं पर बीच में ही छोड़ देते हैं।
    • प्राथमिक विद्यालयों का वितरण भी ठीक नहीं है, पिछड़े क्षेत्रों में इनकी संख्या बहुत कम है।
    • प्राथमिक विद्यालयों का पाठ्यक्रम बच्चों के हितों को पूरा नहीं करता, बच्चे प्रवेश तो ले लेते हैं परन्तु जब उन्हें कोई लाभ नहीं होता तो उनके अभिभावक उन्हें स्कूलों से हटा लेते हैं। 
    • प्राथमिक विद्यालयों में अमनोवैज्ञानिक शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाता है, जिनमें बच्चे रुचि नहीं लेते। 
    • प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षण सामग्री का अभाव है, शिक्षण को रुचिकर नहीं बनाया जा रहा।
    • प्राथमिक विद्यालयों के अधिकतर शिक्षक न तो न्यूनतम शैक्षिक योग्यता प्राप्त हैं और न शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त हैं।
    • ग्रामों के विद्यालयों के लिए शिक्षक उपलब्ध नहीं होते, शिक्षिकाओं की तो और भी अधिक कमी है।
    • अधिकतर प्राथमिक स्कूल एक अध्यापकीय हैं।
    • दूर-दराज के प्राथमिक विद्यालय अनियमित रूप से चलते हैं।
    • अधिकतर भारतवासी निर्धन हैं, वे अपने बच्चों को प्रारम्भ से ही मजदूरी कराने के लिए विवश हैं।
    • अधिकतर भारतवासी अशिक्षित हैं, वे शिक्षा के महत्व को नहीं समझते।
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    समिति ने प्राथमिक स्तर पर अपव्यय एवं अवरोधन को रोकने के लिए निम्न सुझाव दिए-

    • प्राथमिक शिक्षा का भार पूर्णतया स्थानीय निकायों पर न छोड़ा जाए।
    • प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य करने में शीघ्रता न की जाए।
    • प्राथमिक विद्यालय निरीक्षकों की संख्या में वृद्धि की जाए।
    • जिन प्राथमिक विद्यालयों की व्यवस्था ठीक नहीं है, उन्हें बन्द कर दिया जाए।
    • प्राथमिक शिक्षा की न्यूनतम अवधि 4 वर्ष की जाए।
    • प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में जीवनोपयोगी विषयों को स्थान दिया जाए।
    • प्राथमिक विद्यालयों को मनोरंजन, ग्राम सुधार और प्रौढ़ शिक्षा का केन्द्र बनाया जाए।
    • प्राथमिक विद्यालयों में योग्य एवं प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति की जाए।
    • प्राथमिक अध्यापकों के प्रशिक्षण के स्तर को ऊँचा उठाया जाए, सेवारत अध्यापकों के लिए विशेष कोर्स शुरु किए जाएँ।
    • प्राथमिक अध्यापकों की सेवा शतों में सुधार किया जाए, उनके वेतन बढ़ाए जाएँ।
    • प्रारम्भ से ही अपव्यय और अवरोधन को रोकने के लिए प्रयत्न किया जाए।

    माध्यमिक शिक्षा सम्बन्धी सुझाव

    समिति ने माध्यमिक शिक्षा में दो बड़ी कमियाँ पाई एक माध्यमिक शिक्षा का परीक्षा प्रधान होना और दूसरी माध्यमिक परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने वाले छात्रों के प्रतिशत में निरन्तर वृद्धि होना। समिति की सम्मति में इन दोनों कमियों के निम्नलिखित कारण थे-

    • मिडिल स्कूलों का निम्न शैक्षिक स्तर।
    • माध्यमिक शिक्षा में विस्तार।
    • कक्षा 10 में पहले कक्षोन्नति में उदारता।
    • उपयुक्त शैक्षिक योग्यता और शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त अध्यापकों की कमी।
    • विश्वविद्यालयी उच्च शिक्षा के प्रति कम आकर्षण।

    समिति ने माध्यमिक शिक्षा के उपर्युक्त दोषों को दूर करने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए-

    • मिडिल स्कूलों के पाठ्यक्रम में सुधार किया जाए, उसमें जीवनोपयोगी विषयों को स्थान दिया जाए और उसे विस्तृत किया जाए।
    • मिडिल स्तर पर सार्वजनिक परीक्षा होनी चाहिए। उत्तीर्ण छात्रों को उनकी योग्यता एवं आवश्यकतानुसार उद्योगों की शिक्षा दी जाए।
    • माध्यमिक स्कूलों के पाठ्यक्रम में व्यावसायिक और तकनीकी विषयों का समावेश किया जाए।
    • हाई स्कूल स्तर पर वैकल्पिक पाठ्‌यक्रमों की व्यवस्था की जाए, छात्रों को अपनी रुचि के अनुसार विषयों के चयन की छूट दी जाए।
    • माध्यमिक विद्यालयों में उच्च शैक्षिक योग्यता प्राप्त और प्रशिक्षित अध्यापकों की नियुक्ति की जाए। 
    • माध्यमिक विद्यालयों के लिए शिक्षक प्रशिक्षण को उचित व्यवस्था की जाए। सेवारत शिक्षकों के लिए अभिनव पाठ्यक्रम (Refresher Courses) चलाए जाएँ।
    • शिक्षकों के वेतन बढ़ाए जाएँ, उनकी सेवाशतों में सुधार किया जाए और उन्हें बीच में न निकाला जाए।

    उच्च शिक्षा सम्बन्धी सुझाव

    समिति ने तत्कालीन उच्च शिक्षा की संख्यात्मक प्रगति को तो सन्तोषजनक बताया, परन्तु उसके गुणात्मक स्तर में गिरावट के प्रति चिन्ता व्यक्त की। साथ ही उसने यह स्पष्ट किया कि यह शिक्षा केवल सैद्धान्तिक है, इससे शिक्षित बेरोजगारी बढ़ रही है। 

    समिति ने उच्च शिक्षा को इन कमियों के निम्नलिखित कारण बताए- 

    • विश्वविद्यालयों और उनसे सम्बद्ध महाविद्यालयों के बीच उचित तारतम्य नहीं है।
    • विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के पाठ्यक्रम सैद्धान्तिक है।
    • विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में ऑनर्स कोर्स सही ढंग से नहीं चलाए जा रहे हैं।
    • विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में पुस्तकालयों को उचित व्यवस्था नहीं है।
    • विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में इण्टरमीडिएट पास किसी भी छात्र-छात्रा को प्रवेश दे दिया जाता है।
    • विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में छात्रों की संख्या उनकी क्षमता (Capacity) से अधिक है।

    समिति ने उच्च शिक्षा के उपर्युक्त दोषों को दूर करने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए-

    • देश में कुछ विश्वविद्यालय केवल शिक्षण और शोध संस्थानों के रूप में ही विकसित किए जाएँ।
    • सभी विश्वविद्यालयों में पुस्तकालयों, प्रयोगशालाओं और शोधकार्यशालाओं की उचित व्यवस्था की जाए।
    • कुछ विश्वविद्यालयों में ऑनर्स कोर्स चलाए जाएँ, इनका स्तर सामान्य कोर्स से ऊँचा हो।
    • विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में औद्योगिक और तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था की जाए, उच्च शिक्षा को रोजगारपरक बनाया जाए।
    • विश्वविद्यालयों में रोजगार कार्यालय (En (Employment Bureau) खोले जाएँ जो छात्रों को नौकरी के अवसरों की जानकारी दें और नौकरी प्राप्त करने में सहायता करें।
    • विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में छात्रों के प्रवेश के नियम कठोर बनाए जाएँ, केवल योग्य और सक्षम छात्रों को ही प्रवेश दिया जाए।
    • सम्बद्ध कॉलिजों के प्राध्यापकों की नियुक्ति का उत्तरदायित्व विश्वविद्यालयों पर हो, केवल योग्य प्राध्यापक ही नियुक्त किए जाएँ।

    हर्टाग समिति का मूल्यांकन

    हर्टाग समिति से पहले इस देश की शिक्षा के विषय में कई बार सोचा-समझा जा चुका था और उसके सुधार के लिए सुझाव दिए जा चुके थे। हर्टाग समिति के लिए कुछ भी नया कहने को शेष नहीं था, इसके प्रतिवेदन में पुरानी बातों को ही दोहराया गया है। अगर उसकी कोई विशेषता है तो यह कि-

    • इसने वुड के घोषणा पत्र में उठाई प्राथमिक शिक्षा की समस्या अपव्यय और अवरोधन के कारणों की खोज की और उसके समाधान के उपाय सुझाए।
    • माध्यमिक स्तर की शिक्षा को परीक्षा प्रधान के स्थान पर व्यवसाय प्रधान बनाने पर बल दिया।
    • उच्च शिक्षा में व्यावसायिक एवं तकनीकी विषयों पर बल देकर शिक्षित बेरोजगारी को बढ़ने से रोका।

    परन्तु इस समिति के कुछ सुझाव न तब सार्थक थे और न आज सार्थक हैं; जैसे-

    • प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य करने में शीघ्रता न की जाए।
    • मिडिल स्कूलों के पाठ्यक्रमों में धनोपार्जन सम्बन्धी कौशलों का समावेश किया जाए।
    • किसी भी स्तर की शिक्षा, विशेषकर उच्च शिक्षा के प्रसार करने के स्थान पर उसके स्तर को उठाया जाए। 

    अब विचार करें इस समिति के सुझावों के प्रभाव पर। सरकार ने इस समिति के सुझावों को अपने ढंग से देखा-समझा और कहा कि शिक्षा के किसी भी स्तर पर गुणात्मक सुधार पहले किया जाए। भारतीय जनता ने इसका विरोध किया। भारतीयों के अनुसार शिक्षा का प्रसार पहले किया जाना चाहिए था। और दोनों के अपने-अपने तर्क थे। सरकार को एक बहाना मिल गया, उसने शिक्षा के प्रसार के लिए कोई कार्यक्रम नहीं बनाए और अफसोस यह है कि उसके गुणात्मक सुधार के लिए भी कोई ठोस कार्य नहीं किए। हाँ, व्यक्तिगत स्तर पर भारतीयों ने कुछ ऐसी संस्थाएँ अवश्य चालू कीं जिनके लिए न सरकार से कोई मान्यता ली और न आर्थिक सहायता। इनसे बच्चों को साक्षर अवश्य बनाया जा सका। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 1931 से 1937 के बीच प्राथमिक विद्यालयों की संख्या में कोई वृद्धि नहीं हुई और आर्थिक अभाव के कारण माध्यमिक विद्यालयों की संख्या कम हो गई। किसी भी स्तर की शिक्षा में कोई गुणात्मक सुधार भी नहीं हुआ। इस प्रकार इस समिति के सुझाव भारतीय शिक्षा के प्रसार में बाधक सिद्ध हुए।

    यह भी पढ़ें-

    भारतीय शिक्षा आयोग (हण्टर कमीशन), 1882 | [Indian Education Commission, 1882] 

    वुड-ऐबट रिपोर्ट, 1936-37

    केन्द्रीय शिक्षा सलाहाकार बोर्ड (CABE) ने अपनी दिसम्बर, 1935 की बैठक में भारतीय शिक्षा में सुधार पर विस्तार से विचार किया और इस सन्दर्भ में कई प्रस्ताव पारित किए। उनमें से सबसे अधिक महत्त्व का प्रस्ताव था-छात्रों के लिए उच्चतर माध्यमिक स्तर पर प्राविधिक विषयों की शिक्षा की व्यवस्था की जाए। भारत सरकार ने समिति के इस प्रस्ताव पर अपनी रिपोर्ट देने के लिए द्विसदस्यी समिति की नियुक्ति की। इसके एक सदस्य थे- एस० एच० बुड (S.H. Wood) जो उस समय इंग्लैण्ड में शिक्षा परिषद के डायरेक्टर ऑफ इन्टैलीजैन्स (Director of Intelligence, Board of Education, England) थे, और दूसरे सदस्य थे-ए० ऐबट (A. Abbou) जो इसी परिषद के अवकाश प्राप्त चीफ इन्सपेक्टर ऑफ टैक्नीकल स्कूल्स (Ex. Chief Inspector of Technical Schools, Board of Education, England) थे।

    समिति का कार्यक्षेत्र

    भारत सरकार ने इस समिति को निम्नलिखित 4 तथ्यों की जानकारी करने और उनके सम्बन्ध में अपनी सम्मति देने के लिए कहा-

    • क्या वर्तमान सामान्य प्राथमिक, माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में किसी प्रकार की व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था की जा सकती है, यदि हाँ तो उसका क्या स्वरूप होना चाहिए।
    • भारत में वर्तमान औद्योगिक एवं व्यावसायिक शिक्षा संस्थाओं की क्या स्थिति है, इनमें क्या सुधार किया जाना आवश्यक है।
    • क्या भारत में नई औद्योगिक एवं व्यावसायिक शिक्षा संस्थाओं की स्थापना को आवश्यकता है, ( यदि हाँ तो इन्हें किस रूप में स्थापित किया जाए।
    • भारत में ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों के लिए किस प्रकार की शिक्षा उपयोगी होगी, उसकी व्यवस्था कैसे की जानी चाहिए।

    समिति का प्रतिवेदन

    वुड और ऐबट दोनों नवम्बर, 1936 से मार्च 1937 तक भारत में रहे। उन दोनों ने तत्कालीन दिल्ली, पंजाब और संयुक्त प्रान्त का भ्रमण कर तत्कालीन भारतीय शिक्षा का अध्ययन किया। वुड ने सामान्य शिक्षा की स्थिति का अध्ययन किया और ऐबट ने व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा का। इसके बाद वे इंग्लैण्ड चले गए। वहाँ दोनों ने पहले संयुक्त रूप से विचार-विमर्श किया, उसके बाद अपनी-अपनी रिपोर्ट तैयार की और जून, 1937 में उसे भारत सरकार को प्रेषित कर दिया। इस रिपोर्ट का शीर्षक है- 'वोकेशनल एजूकेशन इन इण्डिया विद ए सेक्शन ऑन जनरल एजूकेशन एण्ड एडमिनिस्ट्रेशन' (Vocational Education in India with a Section on General Education and Administration) । 

    यह रिपोर्ट दो भागों में विभाजित है- वुड द्वारा लिखित- 'सामान्य शिक्षा एवं प्रशासन' (General Education and Administration) और ऐबट द्वारा लिखित- व्यावसायिक शिक्षा' (Vocational Education)।

    वुड-ऐबट रिपोर्ट के सुझाव

    वुड-ऐबट रिपोर्ट दो भागों में विभाजित है-सामान्य शिक्षा एवं प्रशासन और व्यावसायिक शिक्षा। यहाँ दोनों भागों में दिए गए मुख्य सुझाव क्रमशः प्रस्तुत हैं-

    सामान्य शिक्षा सम्बन्धी सुझाव

    जैसा कि प्रारम्भ में ही कहा गया है सामान्य शिक्षा और प्रशासन का अध्ययन श्री वुड ने किया था और उन्होंने ही इस सम्बन्ध में रिपोर्ट तैयार की थी। वुड महोदय ने सामान्य शिक्षा के सम्बन्ध में जो सुझाव दिए उन्हें हम दो भागों में बाँट सकते हैं-प्रशासनिक और शैक्षिक। 

    अतः सामान्य शिक्षा के प्रशासन के सम्बन्ध में वुड ने तीन सुझाव दिए थे- 

    • प्राथमिक, मिडिल और माध्यमिक शिक्षा का कार्यकाल 44 वर्ष का रखा जाए और स्नातक शिक्षा का 3 वर्ष का।
    • प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था करने वाले स्थानीय निकायों के शैक्षिक कार्यों पर कड़ी निगाह रखी जाए।
    • प्राथमिक, मिडिल और माध्यमिक विद्यालयों का नियमित रूप से निरीक्षण कराया जाए। इसके लिए निरीक्षकों की संख्या बढ़ाई जाए।

    और सामान्य शिक्षा के शैक्षिक स्वरूप के सम्बन्ध में युड ने निम्नलिखित सुझाव दिए थे-

    • पूर्व प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था की जाए और इन स्कूलों में प्रशिक्षित महिला अध्यापिकाओं की नियुक्ति की जाए। 
    • प्राथमिक शिक्षा में पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा बच्चों की स्वाभाविक रुचियों और क्रियाओं के विकास पर अधिक ध्यान दिया जाए।
    • बालिकाओं को शिक्षा के लिए विशेष प्रबन्ध किए जाएँ।
    • प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षक कम से कम मिडिल पास हों और तीन वर्षीय शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त हों।
    • प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षकों के लिए तीन वर्षीय प्रशिक्षण कोर्स को व्यवस्था की जाए। साथ ही प्रशिक्षित सेवारत शिक्षकों के लिए अल्पकालीन अभिनव पाठ्यक्रमों (Refresher Courses) की व्यवस्था की जाए।
    • मिडिल स्तर पर अंग्रेजी के अध्ययन पर बल न दिया जाए।
    • ग्रामीण मिडिल स्कूलों के पाठ्यक्रम स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार बनाए जाएँ।
    • हाईस्कूल तक की शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाएँ हों।
    • उच्च माध्यमिक स्तर पर अंग्रेजी अनिवार्य रूप से पढ़ाई जाए।
    • सभी विद्यालयों में रचनात्मक हस्तकार्य एवं ललित कलाओं को पाठ्यक्रम का अनिवार्य अंग बनाया जाए। इनके शिक्षण के लिए विशेष प्रशिक्षण प्राप्त शिक्षकों की नियुक्ति की जाए।
    • माध्यमिक अध्यापकों के प्रशिक्षण की उचित व्यवस्था की जाए। सेवारत प्रशिक्षित अध्यापकों के लिए अल्पकालीन अभिनव पाठ्यक्रम (Refresher Courses) की व्यवस्था की जाए।

    व्यावसायिक शिक्षा सम्बन्धी सुझाव

    इस क्षेत्र का अध्ययन श्री ऐबट ने किया था और उन्होंने ही इस सम्बन्ध में रिपोर्ट तैयार की थी। सर्वप्रथम ऐबट ने तीन तथ्यों पर प्रकाश डाला-

    • ऐबट ने स्पष्ट किया कि व्यावसायिक शिक्षा का उद्देश्य उद्योगों के लिए कुशल कर्मकार, इन्जीनियर, तकनिशियन और संगठनकर्ता तैयार करना है, बेरोजगारी दूर करने के लिए तो औद्योगिक विकास करना आवश्यक होता है।
    • ऐबट ने स्पष्ट किया कि सामान्य और व्यावसायिक, दोनों प्रकार को शिक्षा का अपना-अपना महत्त्व है; सामान्य शिक्षा देश की संस्कृति के विकास में सहायक होती है और व्यावसायिक शिक्षा उसकी भौतिक उन्नति में सहायक होती है। दोनों को समान महत्त्व दिया जाना चाहिए।
    • ऐक्ट ने स्पष्ट किया कि सामान्य एवं व्यावसायिक शिक्षा के उद्देश्य भिन्न-भिन्न होते हैं इसलिए उनके लिए अलग-अलग विद्यालय होने चाहिएँ।

    ऐबट ने व्यावसायिक शिक्षा के सम्बन्ध में जो सुझाव दिए, उन्हें हम दो भागों में बाँट सकते हैं- प्रशासनिक और शैक्षिक। 

    प्रशासनिक सुझावों में मुख्य सुझाव थे-

    • प्रत्येक प्रान्त में एक 'व्यावसायिक शिक्षा सलाहकार समिति (Advisory Council for Vocational Education) का गठन किया जाए। यह समिति विभिन्न प्रकार की व्यावसायिक शिक्षा के स्वरूप को निर्धारित करेगी और क्षेत्र के उद्योगों की माँग और व्यावसायिक शिक्षा में तालमेल बनाएगी।
    • प्रत्येक प्रान्त में व्यावसायिक निर्देशन की उचित व्यवस्था की जाए।
    • प्रत्येक प्रान्त में शिक्षित नवयुवकों को सलाह देने के लिए 'रोजगार सलाहकार समिति' की स्थापना की जाए।

    और व्यावसायिक शिक्षा के स्वरूप के सम्बन्ध में ऐबट के मुख्य सुझाव थे-

    (1 ) प्रत्येक प्रान्त में 4 प्रकार की पूर्णकालीन व्यावसायिक शिक्षा संस्थाएँ स्थापित की जाएँ-

    • (i) व्यापारिक विद्यालय (Trade Schools) - प्राथमिक शिक्षा उत्तीर्ण छात्रों के लिए, अवधि 4 वर्ष। 
    • (ii) निम्न व्यावसायिक विद्यालय (Jr. Vocational Schols) - मिडिल पास छात्रों के लिए, अवधि 3 वर्ष।
    • (iii) उच्च व्यावसायिक विद्यालय (Sr. Vocational Schools) हाई स्कूल पास छोत्रों के लिए, अवधि 2 वर्ष ।
    • (iv) प्रौद्योगिक महाविद्यालय (Technical Colleges)- इण्टर पास छात्रों के लिए, अवधि 2 से 3 वर्ष।

    (2) प्रत्येक प्रान्त में उद्योगों में लगे व्यक्तियों के लिए विभिन्न प्रकार के अंशकालीन (Part Time) विद्यालय खोले जाएँ।

    (3) 50 हजार से ऊपर जनसंख्या वाले औद्योगिक क्षेत्रों में जूनियर और सीनियर, दोनों प्रकार के व्यावसायिक विद्यालय खोले जाएँ।

    (4) किसी भी क्षेत्र में व्यापायिक शिक्षा का स्वरूप (पाठ्यक्रम) उस क्षेत्र के उद्योगों के स्वरूप और ने उनकी माँगों के अनुसार होना चाहिए।

    (5) जहाँ तक सम्भव हो व्यावसायिक विद्यालय बहुउद्देशीय (Poly Technical) हौं ।

    (6) व्यावसायिक स्कूलों में पाठ्यक्रम पूरा करने वाले छात्रों को प्रमाणपत्र दिए जाएँ।

    (7) व्यावसायिक स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए व्यावसायिक शिक्षक प्रशिक्षण कॉलिजों (Vocational Teacher Training Colleges) की स्थापना की जाए।

    विशेष

    यूँ ऐबट सामान्य स्कूलों में व्यावसायिक शिक्षा देने के पक्ष में नहीं थे फिर भी उन्होंने भारत की तत्कालीन स्थिति को ध्यान में रखते हुए निम्नलिखित सुझाव दिए-

    • भारतीय ग्रामों का मुख्य व्यवसाय कृषि है अतः ग्रामीण क्षेत्रों के मिडिल और हाई स्कूलों में कृषि शिक्षा अनिवार्य की जाए।
    • कुछ ग्रामों में अलग से कृषि स्कूल खोले जाएँ।
    • नगरीय क्षेत्रों के मिडिल और हाई स्कूलों में कृषि शिक्षा को ऐच्छिक विषय के रूप में स्थान दिया जाए।
    • किसी भी क्षेत्र के मिडिल और हाई स्कूलों में क्षेत्रीय माँगों के अनुसार कला-कौशलों के शिक्षण की व्यवस्था की जाए।

    वुड-ऐबट रिपोर्ट का मूल्यांकन

    यूँ वुड और ऐबट ने केवल तत्कालीन भारत के दिल्ली, पंजाब और संयुक्त प्रान्त की ही शिक्षा व्यवस्था का अध्ययन किया था, परन्तु उन्हें इस क्षेत्र का इतना अनुभव था कि उन्होंने इतने भर से यहाँ की शिक्षा व्यवस्था को समझ लिया और साथ ही देश को तत्कालीन आवश्यकताओं और उनकी पूर्ति की सम्भावनाओं का भी अनुमान लगा लिया। परन्तु उन्होंने सामान्य शिक्षा और प्रशासन के विषय में ऐसा कोई सुझाव नहीं दिया जो इससे पहले न दिया गया हो। वैसे भी उनमें से कोई सुझात उल्लेखनीय नहीं है। हाँ, व्यावसायिक शिक्षा सम्बन्धी कुछ सुझाव बड़े महत्त्व के थे; जैसे-

    • व्यावसायिक शिक्षा को सामान्य शिक्षा से अलग करना।
    • उसके लिए प्रत्येक प्रान्त में व्यावसायिक शिक्षा समिति का गठन करना।
    • भिन्न-भिन्न स्तर के व्यावसायिक विद्यालयों की स्थापना करना।
    • भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यावसायिक पाठ्यक्रमों का निर्माण करना ।।
    • व्यावसायिक विद्यालयों के शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था करना।

    परन्तु साथ ही उसके कुछ सुझाव युक्तिसंगत नहीं थेः जैसे-

    • सिद्धान्तः यह मानना कि व्यावसायिक विद्यालय सामान्य विद्यालयों से अलग होने चाहिएँ और व्यावहारिक रूप में ग्रामीण क्षेत्र के विद्यालयों में कृषि की शिक्षा को अनिवार्य करना।
    • एक तरफ भिन्न-भिन्न स्तर और प्रकार के व्यावसायिक विद्यालयों की स्थापना का सुझाव और दूसरी तरफ ग्रामों में कृषि स्कूल खोलने का सुझाव ।
    • एक तरफ क्षेत्रीय आवश्यकताओं की माँग के अनुसार व्यावसायिक विद्यालयों की स्थापना का सुझाव और दूसरी ओर तनुकूल कला-कौशल विद्यालयों की स्थापना का सुझाव । 

    अब थोड़ा विचार करें इसके प्रभाव पर। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट 1937 में प्रस्तुत की थी। अभी सरकार इसके सुझावों के आधार पर कोई योजना भी नहीं बना पाई थी कि 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध छिड गया। युद्ध को समाप्ति पर सरकार को अनेक नई समस्याओं का सामना करना पड़ा। तत्कालीन गवर्नर जनरल ने "केन्द्रीय शिक्षा सलाहाकार बोर्ड" को युद्धोत्तर शिक्षा के स्वरूप को निश्चित करने का कार्यभार सौंपा। 

    इस बोर्ड ने भारत में व्यावसायिक शिक्षा के स्वरूप को निश्चित करने के सन्दर्भ में वुड-ऐबट रिपोर्ट का अध्ययन किया और उसके आधार पर व्यावसायिक शिक्षा के सम्बन्ध में अपने सुझाव दिए। तब से आज तक वुड-ऐबट रिपोर्ट व्यावसायिक शिक्षा के स्वरूप को निश्चित करने में हमारा मार्गदर्शन कर रही है। देश भर में फैले जूनियर और सीनियर व्यावसायिक विद्यालय, पॉलिटेक्निक और इन्जीनियरिंग कॉलिजों के निर्माण की नींव सर्वप्रथम वुड-ऐबट रिपोर्ट में ही रखी गई थी। बस यही इसका भारतीय शिक्षा के विकास में योगदान है।

    यह भी पढ़ें-

    जानिए 1854 के वुड का घोषणा पत्र के बारे में सब कुछ। वुड का घोषणा पत्र, 1854 - (Wood Despatch, 1854) 

    द्वैध शासन (1921 से 1937) काल में शिक्षा की प्रगति

    1921 में भारत में द्वैध शासन लागू हुआ और 1937 तक लागू रहा। इस शासन व्यवस्था में शिक्षा को हस्तान्तरित विषयों में रखा गया था, उसे प्रान्तीय मन्त्रियों के हाथों में सौंप दिया गया था। इन मन्त्रियों को अपने प्रान्तों की शिक्षा के स्वरूप को निश्चित करने का अधिकार तो था परन्तु शिश्क्षा के लिए धनराशि आवंटित करने और उसे अपनी योजनानुसार व्यय करने का अधिकार नहीं था। परिणाम यह हुआ कि वे कोई योजना क्रियान्वित नहीं कर सके और 1921 से 1937 तक शिक्षा के क्षेत्र में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई। हाँ, राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन और भारतीय जनता के व्यक्तिगत प्रयासों से कुछ स्कूल-कॉलिज अवश्य खोले गए। यहाँ इस काल में हुई शिक्षा की प्रगति का क्रमबद्ध वर्णन प्रस्तुत है।

    प्राथमिक शिक्षा में प्रगति

    इस काल में प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में बहुत कम प्रगति हुई, न उसका कोई विशेष प्रसार हुआ और न उसके स्तर में कोई विशेष सुधार हुआ। प्राथमिक स्कूलों की संख्या लगभग 7 हजार बढ़ी और उनमें पढ़ने वाले बच्चों की संख्या लगभग 41 लाख बढ़ी और यह बच्चों की जनसंख्या वृद्धि के अनुपात में कम थी। यही कारण है कि 6 से 11 आयुवर्ग के प्राथमिक स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों का प्रतिशत 1937 में केवल 25% रह गया। देखें प्रगति तालिका अग्र पृष्ठ पर।

    माध्यमिक शिक्षा में प्रगति

    इस काल में सरकार की ओर से कोई माध्यमिक स्कूल नहीं खोले गए। परन्तु राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन के फलस्वरूप जनता के व्यक्तिगत प्रयासों से काफी संख्या में माध्यमिक स्कूल खोले गए। आँकड़े बताते हैं कि इस काल में माध्यमिक स्कूलों की संख्या लगभग 5-5 हजार बढ़ी और उनमें पढ़ने वाले बच्चों की संख्या लगभग 11-8 लाख बढ़ी। परन्तु ये बढ़े हुए माध्यमिक स्कूल आज के स्तर के माध्यमिक स्कूल नहीं थे, कुछ अपने ही प्रकार के थे; जैसे-राष्ट्रीय स्कूल ।

    उच्च शिक्षा में प्रगति

    इस काल में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कुछ प्रगति अवश्य हुई। पहली बात तो यह है कि इस काल में 5 नए विश्वविद्यालय खोले गए, 1922 में दिल्ली विश्वविद्यालय, 1923 में नागपुर विश्वविद्यालय, 1926 में आन्ध विश्वविद्यालय, 1927 में आगरा विश्वविद्यालय और 1929 में अन्नम् विश्वविद्यालय की स्थापना की गई।और दूसरी बात यह है कि इस काल में पुराने विश्वविद्यालयों का पुनर्गठन भी किया गयाः मद्रास विश्वविद्यालय में विज्ञान को शिक्षा और शोध कार्य की व्यवस्था की गई, बम्बई विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर और औद्योगिक शिक्षा की व्यवस्था की गई, इलाहाबाद विश्वविद्यालय को पूर्ण रूप से शिक्षण विश्वविद्यालय बना दिया गया, पंजाब विश्वविद्यालय में ऑनर्स कोर्स शुरू किए गए और लगभग सभी विश्वविद्यालयों में सैनिक शिक्षा प्रारम्भ की गई। महाविद्यालयों की संख्या भी 2007 से बढ़कर 366 हो गई और उच्च शिक्षा में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या भी लगभग (64) हजार बढ़ गई। देखें शिक्षा की प्रगति तालिका।

    स्त्री शिक्षा में प्रगति

    उस समय भारत में स्त्री साक्षरता प्रतिशत केवल 3% था। तभी 1921 में 'शारदा ऐक्ट' पास हुआ जिसके अनुसार 14 वर्ष से कम आयु की बच्चियों की शादी करना कानूनी अपराध घोषित हुआ। इससे प्राथमिक स्कूलों में पढ़ने वाली बच्चियों का बीच में छोड़कर चले जाना कुछ कम हुआ। राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन में भी बालिकाओं की शिक्षा के लिए आवाज उठाई गई। 1926 में महिलाओं ने 'अखिल भारतीय महिला समिति' का गठन किया। इस समिति ने स्त्री शिक्षा की माँग के नारे को बुलन्द किया। परिणामतः सरकार और जनता दोनों का ध्यान इस ओर गया। परन्तु इस काल में बालिकाओं की शिक्षा के लिए जो भी कार्य हुए वे न के बराबर ही थे।

    व्यावसायिक शिक्षा में प्रगति

    इस काल में व्यावसायिक शिक्षा के क्षेत्र में अवश्य ही कुछ प्रगति हुई। कलकत्ता, बम्बई, मद्रास, बंगलौर, टाटानगर, कानपुर, राँची, धनबाद और अहमदाबाद में नए तकनीकी स्कूल खोले गए। इसी बीच 4 इन्जीनियरिंग कॉलिजों की स्थापना की गई, 6 विश्वविद्यालयों और 14 महाविद्यालयों में विधि की शिक्षा प्रारम्भ की गई और 7 नए मेडिकल कॉलिजों की स्थापना की गई।

    प्रौढ़ शिक्षा में प्रगति

    सरकार ने तो तब तक प्रौढ़ शिक्षा के बारे में कभी सोचा नहीं था परन्तु हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने निरक्षरता को देश के लिए बड़ा अभिशाप बताया और उसे दूर करने के लिए आवाज उठाई। गाँधी जी ने प्राथमिक पाठशालाओं को प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र बनाने पर बल दिया और समाज सेवा कार्यक्रम में रात्रि पाठशालाओं द्वारा निरक्षरों को साक्षर बनाने का कार्यक्रम शुरु किया। उस समय देश में लगभग ४९ प्रतिशत व्यक्ति निरक्षर थे। इस काल में निरक्षरों के इस विशाल समूह को साक्षर बनाने के लिए जो भी कार्य किए गए वे ऊँट के मुँह में जीरा साबित हुए। परन्तु एक बात अवश्य है कि इस काल में प्रौढ़ शिक्षा आन्दोलन की शुरुआत अवश्य हो गई थी।

    इस काल में हुई शिक्षा प्रगति को निम्नांकित तालिका में एक नजर में देखा-समझा जा सकता है-

    शिक्षा की प्रगति-1921 से 1937

    समय

    प्राथमिक

    माध्यमिक

    उच्च

     

    स्कूलों की संख्या

    छात्रों की संख्या

    स्कूलों की संख्या

    छात्रों की संख्या

    वि.वि. की संख्या

    कालेजों की संख्या

    छात्रों की संख्या

    1921-22

    1936-37

    1,05,017

    1,12,244

    61,09,752

    1,02,24,288

    7,530

    13,056

    11,06,803

    22,87,872

    12

    17

    207

    366

    66,258

    1,26,288

    निष्कर्ष 

    कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इस काल में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई। हाँ, उच्च शिक्षा और व्यावसायिक शिक्षा के क्षेत्र में सन्तोषजनक प्रगति अवश्य हुई। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में 5 नए विश्वविद्यालयों, 4 नए इन्जीनियरिंग कॉलिजों और 7 नए मेडिकल कॉलिजों की स्थापना उल्लेखनीय है। और सबसे अधिक उल्लेखनीय बात यह है कि इस काल में भारतीयों का ध्यान प्रौढ़ शिक्षा की तरफ भी गया। इस काल को प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम शुरु करने का श्रेय जाता है।

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