डॉ भीमराव आंबेडकर जीवनी हिंदी | भीमराव आंबेडकर पर निबंध in hindi

डॉ भीमराव आंबेडकर जीवनी हिंदी

डॉ. भीमराव रामजी आम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्यप्रदेश के महू नगर में समाज की अस्पृश्य समझी जाने वाली 'महार' जाति में हुआ था। एवं डॉ. भीमराव आंबेडकर का निधन 6 दिसम्बर 1956 को हुआ था। इनके पिता रामजी सकपाल सेना में सूबेदार थे जो चौदह वर्ष तक सैनिक स्कूल में मुख्य अध्यापक रहे। सेना से अवकाश प्राप्त कर लेने के पश्चात वे महाराष्ट्र के सतारा नगर में रहने लगे। जब बालक भीमराव केवल 6 वर्ष के थे, तभी उनकी माता भीमाबाई का स्वर्गवास हो गया । इसलिए वे मातृ सुख से वंचित रहे।

डॉ भीमराव आंबेडकर जीवनी हिंदी | भीमराव आंबेडकर पर निबंध in hindi

बाल्यावस्था 

जन्म से ही अछूत होने के कारण भीमराव को बाल्यावस्था में सामाजिक उपहास तथा तिरस्कार का शिकार होना पड़ा। कक्षा में उन्हें पीछे सबसे अलग बैठाया जाता था । बैठने के लिए टाट पट्टी भी उन्हें अपने घर से ही लानी पड़ती थी। अन्य बालकों को उनका स्पर्श न हो जाए इसलिए उन्हें हिदायत दी गई थी कि वे कक्षा प्रारंभ होने के कुछ देर बाद आएं और समाप्त होने के कुछ कुछ समय पूर्व ही चले जाएं। अछूत होने के कारण उन्हें पाठशाला में पानी पिलाने के लिये भी कोई तैयार नहीं था। अध्यापक उनकी कापी तक नहीं छूते थे और यंहा तक कि उनके बाल काटने के लिए कोई तैयार नहीं था। 

अतः उनकी बहन को ही उनके बाल काटने पड़ते थे । भीमराव न तो अपने सहपाठियों के साथ उठ बैठ सकते थे और न उनसे मेल- जोल बढ़ा सकते थे । इन सब बातों का बालक भीमराव पर गहरा प्रभाव पड़ा और उनके मन में हिन्दू धर्म के प्रति तिरस्कार की हद तक क्षोभ की भावना उत्पन्न हो गई। इसी समय उन्होंने निश्चय किया कि वे अछूतों को सवर्णों की दासता से मुक्ति दिलाने तथा उनके उद्धार के लिए अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर देंगे ।

शिक्षा 

डॉ. आम्बेडकर की हाई स्कूल तथा इंटर की शिक्षा बंबई के एल्फिस्टन कॉलेज में हुई। तत्पश्चात् महाराजा बड़ौदा की छात्रवृत्ति की सहायता से उन्होंने सन् 1912 में अंग्रेजी और फारसी विषयों के साथ बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की और बाद में वे बड़ौदा में नौकरी करने लगे । लेकिन जातीय अवमानना के कारण उन्हें विवश होकर नौकरी छोड़ना पड़ी । इसी समय उनके पिता का देहान्त हो गया और वे आर्थिक संकट में पड़ गए परंतु उन्होंने धैर्य नहीं छोड़ा । विद्यार्जन में उनकी रुचि देखकर बड़ौदा के तत्कालीन नरेश सयाजीराव गायकवाड़ ने उन्हें छात्रवृत्ति देकर अमेरिका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय में अध्ययन के लिए भेजा । वहाँ से उन्होंने सन् 1915 में एम.ए. तथा सन् 1917 में अर्थशास्त्र में पी. एच. डो. की उपाधि प्राप्त की। 

अमेरिका से वापस लौटने पर उन्हें बड़ौदा राज्य का सैन्य सचिव नियुक्त किया गया ताकि आगे चलकर उन्हें राज्य का वित्तमंत्री बनाया जा सके । इतनी विद्वत्ता के बावजूद 'महार' होने के कारण डॉ. आम्बेडकर को अस्पृश्यता का शिकार होना पड़ा। यहां तक कि उन्हें रहने के लिए किसी हॉटल में जगह भी नहीं मिल सकी। उनके अधीनस्थ कर्मचारी भी कार्यालय की फाइलें उनके हाथों में न देकर दूर से हो फेंकते थे । इस अपमान को उनका स्वाभिमानी मन सहन नहीं कर सका और उन्होंने नौकरी छोड़कर समाज से अस्पृश्यता के निवारण का संकल्प लिया तथा इस दिशा में कार्य प्रारम्भ कर दिया।

दलित आंदोलन का प्रारम्भ 

दलित वर्ग का पक्ष प्रस्तुत करने के उद्देश्य से डॉ. आम्बेडकर ने सन् 1920 में 'मूक नायक' नामक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया। इस पत्रिका के माध्यम से उन्होंने तत्कालीन हिन्दू समाज की वर्ण-व्यवस्था, दलितों एवं बहिष्कृतों के प्रति होने वाले दुर्व्यवहार, अन्याय तथा शोषण तथा इनके निराकरण की आवश्यकता की ओर समाज का ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास किया। दलितों की स्थिति का चित्रण करते हुए डॉ. आम्बेडकर ने 'मूक नायक' के प्रथम अंक में लिखा, "हिन्दू समाज एक बहु मंजली इमारत की तरह है जिसके अन्दर प्रवेश करने के लिए न कोई सीढ़ी है और न बाहर आने के लिए कोई द्वार है । समाज एक ओर जहां विश्वास करता है कि जड़ पदार्थों में भी भगवान है, वहीं दूसरी ओर वह यह भी कहता है कि कुछ लोग, जो उसी के अपने अंग हैं, स्पर्श किये जाने योग्य नहीं हैं।" 

डॉ. आम्बेडकर ने अनुभव किया कि समाज कार्य में जुट जाने के पहले उन्हें अभी और अधिक ज्ञानार्जन करने की आवश्यकता है। अतः अपनी ज्ञान पिपासा शांत करने के लिए वे सन् 1920 में लंदन गए जहां से उन्होंने सन् 1923 में बी. एस. सी. तथा बेरिस्टर एट लॉ की उपाधियां प्राप्त कीं।

इंग्लैंड से स्वदेश वापस लौटने के बाद डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर ने बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना की जिसका मुख्य उद्देश्य दलितों, अछूतों तथा बहिष्कृतों में शिक्षा के प्रसार द्वारा उनमें नवचेतना जाग्रत करना था ताकि वे अपनी आर्थिक गरीबी तथा सामाजिक प्रवंचना से उबर सकें। दलितों में जाग्रति उत्पन्न करने के उद्देश्य से उन्होंने सन् 1927 में 'बहिष्कृत भारत' पत्रिका का प्रसारण शुरू किया जिसका संपादन उन्होंने स्वयं किया । इस पत्रिका के माध्यम से उन्होंने दलितों में शिक्षा के प्रति रुचि तथा अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों के प्रति जागरूकता उत्पन्न करने की कोशिश की । बहिष्कृतों के कल्याण के लिए उन्होंने शालाएं तथा छात्रावास स्थापित किये। डॉ. आम्बेडकर द्वारा स्थापित सिद्धार्थ कॉलेज, मिलिन्द कॉलेज तथा पीपुल एजूकेशन सोसाइटी को शिक्षा के क्षेत्र में उनका अविस्मरणीय योगदान माना जाता है ।

डॉ. भीमराव रामजी आम्बेडकर का व्यक्तित्व बहु आयामी था । वे वर्तमान शताब्दी के एक महान चिन्तक, विचारक, समाज सुधारक, राजनेता, शिक्षाविद तथा न्याय शास्त्री माने जाते हैं । उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन मानव अधिकार, सामाजिक न्याय तथा दलितो के उद्धार के लिए समर्पित कर दिया । अपने प्रियजनों तथा अनुयायियों में वे "बाबा साहेब" के नाम से लोकप्रिय रहे।

वर्ण-व्यवस्था : एक अभिशाप

डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर का सामाजिक चिंतन जीवन के प्रत्यक्ष अनुभव पर आधारित होने के कारण अत्यंत व्यावहारिक, सटीक एवं तर्कसंगत था। इसलिए उनके तर्क अकाट्य तथा वैज्ञानिक विश्लेषण पर आधारित होते थे। भारतीय समाज में सदियों से प्रचलित चातुर्वर्ण व्यवस्था तथा ब्राह्मण वर्ग की श्रेष्ठता के प्रति उनका विरोध केवल जाति विशेष के प्रति वैमनस्य अथवा दुर्भावना से प्रेरित न होकर ठोस सामाजिक न्याय के सिद्धातों पर आधारित था । उनका मानना था कि भारत में वर्षों से चली आ रही वर्ण- व्यवस्था आदिकालीन धर्मशास्त्रों पर आधारित थी जिनमें मनु द्वारा रचित मनुस्मृति के विधान को प्रधानता दी गई थी। वे सभी रचनाकार ब्राह्मण वर्ग के होने के कारण उनके द्वारा रचित विधानों में ब्राह्मणों को प्रधानता दी जाना स्वाभाविक ही था। धर्म शास्त्रों का गहन अध्ययन करने के पश्चात डॉ. आम्बेडकर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि उक्त धार्मिक विधान किसी युक्ति युक्त तर्क पर आधारित न होकर केवल निहित ब्राह्मण वर्गीय स्वार्थ से प्रेरित होने के कारण वर्तमान भारतीय परिप्रेक्ष्य में उनका कोई औचित्य नहीं है। इसीलिए उन्होंने मनु द्वारा प्रतिस्थापित वर्ण भेद को खुली चुनौती देते हुए मानवीय अधिकारों पर आधारित एक नये समाजिक विधान की आवश्यकता पर बल दिया ताकि भारतीय समाज के दलित और शोषित वर्ग का उद्धार और पुनर्स्थापन हो सके।

डॉ. आम्बेडकर के मतानुसार भारतीय समाज में रूढ़िगत वर्ण-व्यवस्था ने वर्ग-भेद तथा असमानताओं को जन्म दिया था जिनके कारण समाज निरंतर पतन की ओर बढ़ता रहा । उनका दृढ़ विश्वास था कि जिस समाज में सामाजिक चेतना न हो और जो स्वयं को सामयिक परिवर्तनों के अनुरूप ढालने में समर्थ न हो, वह समाज कभी भी प्रगति नहीं कर सकता है । 

बाबासाहेब, इंग्लैंड के अपने विद्यार्जन काल में अंग्रेजी उदारवादी लोकतांत्रिक प्रणाली से प्रभावित हुए बिना नहीं रहे और भारत वापस लौटने पर उन्होंने वर्ण भेद की रूढ़ियों में जकड़े हुए भारतीय समाज की दयनीय दशा पर क्षोभ व्यक्त करते हुए सामाजिक क्रांति द्वारा उसमें परिवर्तन लाने का दृढ़ संकल्प किया। उन्होंने अस्पृश्यों तथा दलितों को संगठित कर उनमें स्वावलंबन और आत्मविश्वास जगाने का प्रयास किया ताकि वे स्वंय को उच्च वर्ग के शोषण और अन्याय से बचा सकें। 

इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने अस्पृश्यता निवारण, महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने तथा हिन्दू समाज में व्याप्त अंधविश्वास तथा रूढ़िवादी कुरीतियों के विरुद्ध जन आंदोलन का नेतृत्व करना स्वीकार किया जिससे दलितों की मुक्ति का अभियान चलाया जा सका ।

बहिष्कृतों के उत्थान के लिए डॉ. आम्बेडकर के योगदान के संदर्भ में यह उल्लेख कर देना आवश्यक है कि वे एक अध्यवसायी व्यक्ति थे । भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों तथा वर्ण-व्यवस्था के दुष्परिणामों से उत्पन्न सामाजिक असमानताओं से जूझते हुए भी वे अपना अधिकांश समय अध्ययन और लेखन कार्य में व्यतीत करते थे । उनकी विशेषता यह थी कि वे किसी विषय पर अपना मत व्यक्त करने के पहले उस पर पूरी तरह सोच- विचार कर लेते थे क्योंकि उनका मानना था कि किसी भी विचार को जन-समर्थन प्राप्त होने के लिए उसका तर्कसंगत और सटीक होना नितांत आवश्यक है।

वर्ण भेद के विरुद्ध दलितों को आव्हान 

डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर ने अस्पृश्यों तथा दलितों को अपनी परंपरागत दासता और हीनता की भावना त्यागकर समाज के अन्य वर्गों के समान स्वतंत्रता व मानव अधिकार हासिल करने का आव्हान किया। उन्होंने श्रेष्ठतम माने जाने ब्राह्मण वर्ग की स्वार्थयुक्त पाखंडवादी प्रवृत्तियों की भर्त्सना करते हुए ऐतिहासिक आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि शूद्रों की उत्पत्ति उच्चवर्णीय ब्राह्मणों के मस्तिष्क की उपज है तथा इसका कोई तार्किक या वास्तविक आधार नहीं है। भारत में सदियों से चली आ रही वर्ण- व्यवस्था, जातपात, छुआछूत आदि की उत्पत्ति का विश्लेषण करते हुए उन्होंने यह सिद्ध कर दिखाया कि ये सभी सवर्णों द्वारा धर्म की आड़ में प्रस्थापित कुटिलतापूर्ण चालें थीं जिनके आधार पर वे दलितों को उनके मानवीय अधिकारों से वंचित रखते हुए अबाध रूप से उनकी सेवाओं का उपयोग करते रहे । 

अपनी सुविख्यात कृति 'हू वेयर दि शूद्रान्ग' (1946) में उन्होंने यह बात स्पष्ट रूप से कही है कि अछूतों की उत्पत्ति समाज के प्रभुत्व भारी धर्मकांडी ब्राह्मणों की वैचारिक देन है जिसका कोई वास्तविक आधार या प्रमाण धर्मशास्त्रों में नहीं है । इसीलिए उन्होंने इस प्रतिष्ठित कहे जाने वाले वर्ग द्वारा रचित धर्म-ग्रंथों के खोखलेपन को उजागर करने में कोई संकोच अनुभव नहीं किया। उन्होंने अनेक बार यह स्पष्ट किया कि वे ब्राह्मणों के विरुद्ध अछूतों के आंदोलन का नेतृत्व इसलिए कर रहे हैं ताकि धर्म के नाम पर व्यवहारगत सामाजिक अन्याय और भेदभाव के खिलाफ लोकमत तैयार किया जा सके और अस्पृश्यों का मनोबल ऊंचा उठाते हुए उनमें आत्मसम्मान की भावना जाग्रत हो । 

उल्लेखनीय है कि बाबासाहेब ने हिन्दू संस्कृति तथा धर्म ग्रंथों का अन्वेषणात्मक अध्ययन किया तथा यह निष्कर्ष निकाला कि इनमें जीवन के प्रति यथार्थवादी दृष्टिकोण का नितांत अभाव है। हिन्दू धर्मशास्त्रों ने भारत में एक ऐसे रूढ़िवादी समाज की संरचना की है जिसमें 'सर्वहित सुखायं' को कोई स्थान नहीं है । हिन्दू धर्म की इन बुराइयों से क्षुब्ध होकर ही डॉ. आम्बेडकर ने सन् 1935 में धर्म-परिवर्तन का निर्णय लिया और दो दशकों तथा विभिन्न धर्मों का सूक्ष्म तुलनात्मक अध्ययन करने के पश्चात उन्होंने अन्ततोगत्वा 14 अक्टूबर 1956 को अपने पाँच लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार किया क्योंकि उन्होंने यही धर्म एकमात्र ऐसा धर्म पाया था जिसके अन्तर्गत मानव मात्र की स्वतंत्रता और समानता को सर्वोपरि माना गया है ।

दलितों के उद्धार तथा परंपरागत दासता से उन्हें मुक्ति दिलाने के लिए किये गए प्रयासों के संदर्भ में यदि डॉ. आम्बेडकर को वर्तमान समय का 'युग पुरुष' कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी । वे एक विवेकशील, सहृदय, चरित्रवान, कर्मठ तथा विद्वान व्यक्ति होते हुए भी अपने सार्वजनिक जीवन में उन्हें लोगों की निंदा और आलोचना का शिकार होना पड़ा । इसका एकमात्र कारण यह था कि वे एक अछूत परिवार में जन्मे थे और इसी बहिष्कृत तथा उत्पीड़ित वर्ग के उत्सर्ग के कार्य में लगे हुए थे जिससे उच्चवर्णीय बहुजनों के वर्चस्व पर कुठाराघात हो रहा था। यहां तक कि उच्च वर्ण के उनके विरोधी नेताओं ने उन पर देशद्रोही तथा समाज-विरोधी होने का आरोप भी लगाया। इस सब के बावजूद डॉ. आम्बेडकर अपने उद्देश्य से विचलित नहीं हुए तथा अपने अंतिम समय तक बहिष्कृतों के कल्याण कार्य में जुटे रहे। 

उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से विश्व के सामने यह सिद्ध कर दिखाया कि व्यक्ति का निर्मल चरित्र, निःस्वार्थ सेवाभाव तथा आत्मविश्वास उसकी प्रगति के मार्ग में आनेवाली सभी बाधाओं को पीछे ढकेलकर उसका मार्ग प्रशस्त करते हैं। यही कारण है डॉ. आम्बेडकर के विचारों को बहुजनों का समर्थन प्राप्त न होने पर भी अन्ततः उन्हें देश के भविष्य के निर्माताओं में अग्रणीय स्थान प्राप्त हुआ तथा सामाजिक क्रांति के प्रतीक के रूप में ख्याति प्राप्त हुई ।

दलितों को जनसाधारण की भांति अधिकार दिलाने के लिए बाबासाहेब ने अनेक आंदोलनों का नेतृत्व किया। इस दिशा में उनका पहला आंदोलन सन् 1927 में महाराष्ट्र के महाड़ ग्राम के तालाब से अछूतों को पीने का पानी भरने का अधिकार दिलाने के लिए प्रारंभ किया गया था । अछूतों को सामाजिक न्याय दिलाने के लिए यह उनका प्रथम संघर्ष था । इसी प्रकार उन्होंने सन् 1930 में नासिक के कालाराम मंदिर में अछूतों के प्रवेश को लेकर शांतिपूर्ण सत्याग्रह प्रारम्भ किया ताकि उच्चवर्गीय कहे जाने वाले लोगों में मानव- समानता की भावना जाग्रत हो। वे चाहते थे कि समाज के लोग जातीय पूर्वाग्रर को त्यागकर अछूतों को बराबरी का दर्जा दें और उन्हें विश्वास था कि यह समस्या कैवल बहुजन समुदाय के हृदय परिवर्तन से ही सुलझ सकती थी ।

डॉ. आम्बेडकर ने शासकीय सेवाओं में दलित जातियों के लोगों को भर्ती किये जाने की जोरदार पहल की। सन् 1930 में जब वे स्टार्टे समिति के सदस्य थे, उन्होंने दलित वर्ग के लोगों को सेना तथा पुलिस में भर्ती किये जाने की सिफारिश की थी ताकि उनकी आर्थिक व सामाजिक उन्नति संभव हो सके ।

दलित-आंदोलन के संदर्भ में 20 अगस्त 1932 के दिन का विशेष महत्व है क्यों इस दिन तत्कालीन भारत-सचिव रेमजे मक्डोनेल्ड ने प्रथम बार दलितों के लिए प्रथक निर्वाचन के अधिकार की घोषणा की थी। इस घोषणा द्वारा दलितों को अल्पसंख्यक मान लिया गया और यहीं से उनका राजनीतिक अस्तित्व प्रारम्भ हुआ। डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर के निरंतर प्रयासों से दलितों को भारत की राजनीतिक गतिविधियों में भागीदारी का अवसर प्राप्त हुआ। परंतु गांधी जी ने इसे अंग्रेजों द्वारा भारतीय समाज में फूट डालने की एक कुटिल राजनीतिक चाल मानते हुए इसके विरोध में येरवडा जेल में अनशन शुरू कर दिया। इसके परिणाम स्वरूप 'पूना समझौतें' के अन्तर्गत डॉ. आम्बेडकर ने राष्ट्र हित को ध्यान में रखते हुए कुछ शर्तों के साथ संयुक्त निर्वाचन के लिए सहमति दे दी। तथापि इसमें संदेह नहीं कि दलित आंदोलन में यह एक ऐतिहासिक उपलब्धि थी।

बीसवीं सदी के चौथे दशक तक डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर एक सुविख्यात कानूनविद तथा कर्मठ राजनेता के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। उनकी प्रतिभा को देखते हुए सन् 1942 में उन्हें भारत के गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी के सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया। वे इस पद पर सन् 1946 तक बने रहे तथा इस अवधि में उन्होंने मजदूरों के अधिकारों की रक्षा के लिए अनेक कानूनों की रूपरेखा तैयार को ।

भारत के संविधान के निर्माण में डा. आम्बेडकर का योगदान

भारत के संविधान के निर्माण में डा. आम्बेडकर का विशेष योगदान रहा है । उनकी विद्वत्ता, कानूनी-ज्ञान तथा दूरदर्शिता से प्रभावित होकर संविधान-निर्माण समिति ने 27 अगस्त 1947 को उन्हें भारत का संविधान बनाने वाली प्रारूप-समिति का अध्यक्ष मनोनीत किया । उन्हीं की पहल के फलस्वरूप संविधान में यह स्पष्ट उल्लेख किया गया कि, "सभी प्रकार अस्पृश्यता समाप्त की जाती है तथा अस्पृश्यता के आधार पर किसी को अयोग्य ठहराना अपराध होगा।" उन्होंने संविधान के आमुख (Preamble) में स्वतंत्रता, समता, धर्मनिरपेक्षता और न्याय का उल्लेख कर भारतीय गणतंत्र में वास्तविक लोकतंत्रात्मक शासन पद्धति लागू की, जो निःसंदेह देश के लिए उनकी अनुपम देन है । 

संविधान के अन्तर्गत नागरिकों के मूल अधिकार तथा राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के समावेश द्वारा उन्होंने सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को संविधानिक मान्यता दिलाई जो लोकतंत्र की आधार शिला है। इन प्रावधानों को संविधान में समाविष्ट कर डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर ने लोकहित और वैयक्तिक हित में टकराव की स्थिति को टालकर एक दूसरे के अनुपूरक बनाने की चेष्टा की है। उल्लेखनीय है कि भारत का गत 40 वर्षों का संविधानिक विधिशास्त्र इन्हीं मूलभूत सिद्धातों की व्याख्या तथा अर्थान्वयन के आधार पर ही विकसित हुआ है। विधि के क्षेत्र में डॉ. आम्बेडकर के अभूतपूर्व योगदान की सराहना करते हुए अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय ने उन्हें सन् 1952 में एल.एल.डी. की उपाधि से सम्मानित किया तथा 1953 में उस्मानिया विश्वविद्यालय ने उन्हें डी. लिट. की उपाधि प्रदान की ।

भारत के संविधान निर्माण में डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर के योगदान तथा उनके असाधारण कानूनी-ज्ञान से प्रभावित होकर उन्हें पं. नेहरू के मंत्रिमण्डल में विधिमंत्री नियुक्त किया गया । अपने चार वर्षों के मंत्रित्वकाल में उन्होंने अपनी कुशाग्र बुद्धि तथा विलक्षण सूझबूझ का परिचय देते हुए ऐसे अनेक कानून पारित किये जो जन-कल्याण से संबंधित थे । परंतु अनुसूचित जातियों तथा पिछड़े वर्गों के प्रति सरकार की कथित उपेक्षापूर्ण नीति से क्षुब्ध होकर बाबा साहेब ने अक्टूबर 1951 को मंत्रिमण्डल से त्यागपत्र दे दिया। 

डॉ. आम्बेडकर ने मंत्रिमण्डल में शामिल होने के कारणों को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि इसके दो मुख्य कारण थे- प्रथम यह कि उन्हें मंत्री बनाए जाने का प्रस्ताव बिना किसी शर्त के किया गया था, दूसरे यह कि उनके विचार से अनुसूचित वर्गों के हितों की रक्षा सरकार से बाहर रहने के बजाय सरकार में रहकर ज्यादा अच्छी तरह से हो सकती थी । अपने त्यागपत्र के कारणें के बारे में बाबा साहेब ने कहा कि वस्तुतः वे अनुसूचित वर्गों के लिए संविधान में रखे गए प्रावधानों से कतई संतुष्ट नहीं थे, लेकिन उन्होंने उन्हें इस आशा से स्वीकार कर लिया कि सरकार उन्हें प्रभावशाली ढंग से लागू करने में कुछ दृढ़ता दिखाएगी । परंतु खेद है कि इन दलित वर्गों की दशा में कोई अंतर नही आया है और पूर्व की भांति वे अत्याचार, दमन और भेदभाव के शिकार बने हुए हैं, संभवतः पहले से भी कहीं अधिक ।

अस्पृश्यों और दलित वर्ग के उत्थान तथा भारतीय हिन्दू समाज से छूआछूत और वर्ण भेद के अभिशाप को समाप्त करने के लिए डॉ. आम्बेडकर ने कानूनी पहल भी की थी । भारत की स्वतंत्रता के आरम्भिक चरण में जो जमींदारी उन्मूलन कानून बनाए गए उन्हें न्यायालय की अधिकारिता से बाहर रखा गया था ताकि सरकार को भूमि अधिग्रहण करने तथा उसकी अधिकतम सीमा निर्धारित करने में कठिनाई न हो। 

लेकिन इस कानून का वास्तविक लाभ संपन्न वर्ग के सवर्ण कृषकों को ही मिला तथा खेती करने वाले अनुसूचित जाति के लोग भूमि पर मालिकाना हक प्राप्त नहीं कर सके। डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर ने सरकार का ध्यान इस ओर भी दिलाया कि कार्यपालन अधिकारी इस कानून का किस प्रकार दुरुपयोग कर रहे हैं तथा दलित भूमिधारियों के मूल अधिकारों का हनन कर उनके प्रति किस प्रकार अन्याय हो रहा है। डॉ. आम्बेडकर ने सरकार से आग्रह किया कि वह अनुसूचित जाति के कृषकों को उनकी भूमि पर केवल भूमिधारी का हक देने के बजाय, उन्हें भूमि का स्वामी घोषित करे ।

अस्पृश्यता निवारक कानून 

इसी प्रकार अस्पृश्यता निवारण विधेयक पर बहस के समय बोलते हुए डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने इसे अधिक प्रभावी बनाने के लिए अनेक उपाय सुझाए । सर्वप्रथम उन्हें इस विधेयक के शीर्षक पर ही आपत्ति थी। उनके विचार से इस विधेयक का शीर्षक 'नागरिक अधिकार (अस्पृश्यता) रक्षा कानून' होना चाहिए था ताकि अस्पृश्यों को नागरिकों के रूप में इस अधिकार का फायदा मिल सके। वस्तुतः वे इस विधेयक के शीर्षक से "अस्पृश्यता" शब्द पूर्णतः हटाकर इसके स्थान पर "अनुसूचित जाति" शब्द को प्रतिस्थापित किये जाने के पक्ष में थे क्योंकि 'अस्पृश्य' शब्द को वे समाज के लिए लांछनास्पद मानते थे । 

उल्लेखनीय है कि सन् 1955 में जब अस्पृश्यता निवारण अधिनियम पारित किया गया उस समय डॉ. आम्बेडकर के उक्त सुझाव पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया लेकिन भारत की संसद ने सन् 1976 में इस कानून को संशोधित करके इसके शीर्षक को बदलकर 'नागरिक अधिकार (संरक्षण) अधिनियम, 1955 कर दिया। इससे यह स्पष्ट होता है कि डॉ. आम्बेडकर ने जिन विचारों का सूत्रपात किया वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने कि उनके समय में थे ।

अस्पृश्यता निवारण संबंधी उपयुक्त विधेयक का सूक्ष्म अध्ययन करने के पश्चात डॉ. आम्बेडकर ने अनुभव किया कि उसमें इस प्रकार का कोई प्रावधान नहीं था कि अस्पृश्यों द्वारा अपने अधिकारों के प्रयोग के समय यदि सवर्ण का बहुजन समुदाय विरोधस्वरूप उनका सामाजिक बहिष्कार करते हैं, तो इन बहिष्कार करने वालों को क्या दंड दिया जाएगा । 

इस संदर्भ में अनुसूचित जातियों, दलित तथा पिछड़े वर्ग की जातियों की आर्थिक व सामाजिक स्थिति की जांच करने हेतु गठित की गई ठक्कर बप्पा समिति का हवाला देते हुए उन्होने कहा कि ग्रामीण क्षेत्रों में पिछड़े वर्ग के सदस्य गाँव के रूढ़िवादी लोगों के शोषण का शिकार हैं। यदि दलित वर्ग के लोग अपने अधिकार माँगने की कोशिश करते हैं तो समाज के बहुसंख्यक लोगों द्वारा उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाता है और आम रास्ते से उनको आना-जाना रोक दिया जाता है या दुकानदार उन्हें दैनिक आवश्यकता की वस्तुएं बेचने से इन्कार कर देते हैं और इस प्रकार उन्हें जोवन निर्वाह करना दूभर हो जाता है । 

अतः डॉ. आम्बेडकर का तर्क था कि यदि सरकार वास्तव में दलितों को उनके वैधानिक अधिकार दिलाने की इच्छुक है तो इस प्रकार के सामाजिक बहिष्कार पर शास्ति द्वारा रोक लगानी चाहिए। उन्होंने सुझाव दिया कि बर्मा में सन् 1922 में लागू किये गये 'एण्टी बॉयकॉट कानून' जैसा कानून भारत में भी लागू करना उचित होगा ताकि न केवल सामाजिक बहिष्कार, बल्कि उसके दुष्प्रेरण को भी अपराध मानकर दंड दिया जा सके।

अस्पृश्यता संबंधी कानून को अधिक प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर ने सुझाव दिया कि इसके अन्तर्गत किये गये अपराध शर्मनीय नहीं होने चाहिए, अर्थात ये आपसी समझौते द्वारा निपटाये जाने योग्य नहीं होने चाहिए ताकि संभ्रांत धनी वर्ग का अपराधी व्यक्ति व्यथित अछूत को कुछ पैसे देकर समझौते द्वारा दंडित होने से न बच निकले। डॉ. आम्बेडकर के विचार से उक्त कानून में यह प्रावधान रखा जाना अत्यंत आवश्यक था । उनका यह भी मानना था कि इस प्रस्तावित कानून में दंड की मात्रा अपेक्षाकृत कम है जिसे अधिक कठोर बनाया जाना चाहिए जिससे इस अपराध की गंभीरता के प्रति लोगों में भय उत्पन्न हो ।

नारी उत्थान एवं हिन्दू कोड बिल 

डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर नारी की समानता तथा उसके अधिकारों के प्रबल समर्थक थे । इस संबंध में उन्होंने भारत के संविधान के अनुच्छेद 39 में प्रावधान रखा कि रोजगार तथा पारिश्रमिक की दृष्टि से महिलाओं तथा पुरुषों में किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं बरता जाएगा । इस क्षेत्र में उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान हिन्दू कोड बिल तैयार करना था जिसे 5 फरवरी 1951 को संसद में पेश किया गया था। बाबासाहेब के अनुसार इस विधेयक का मुख्य उद्धेश्य हिन्दू समाज को एक संगठन सूत्र में बांधकर सभी को उनके संविधानिक अधिकार दिलाना था। लेकिन रूढ़िवादी विचारधारा के समर्थक सदस्यों ने इस प्रस्तावित विधेयक का कड़ा विरोध किया जिससे क्षुब्ध होकर डॉ. आम्बेडकर ने मंत्रीमंडल से त्यागपत्र दे दिया। 

उल्लेखनीय है कि इसके पूर्व भी डॉ. आम्बेडकर द्वारा यह विधेयक 11 अप्रेल 1947 को सदन में प्रस्तुत किया गया था लेकिन चार वर्ष बाद उसे खत्म कर दिया गया । बाबासाहेब इस विधेयक के प्रति सरकार की उदासीनता से दुःखी हुए क्योंकि सदन में पेश किये जाने के बाद पूरे एक वर्ष तक इस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। बाद में इसे एक विशेष समिति को सौंपकर सरकार ने चुप्पी साध ली। जब दूसरी बार फरवरी 1951 को यह विधेयक सदन के विचारार्थ आया तो इस पर केवल तीन दिन की बहस हुई और बाद में इसमें से 'विचाराधीन' वाला वाक्य (क्लॉज) काट कर इसे अनिर्णीत छोड़ दिया गया। इस विधेयक को पारित कराने में सरकार की ओर से दृढ़ता की कमी के कारण बाबासाहेब को अत्यधिक मानसिक पीड़ा हुई । 

उन्होंने स्पष्ट किया कि वस्तुतः वे सरकार की विदेश नीति तथा अनुसूचित जातियों तथा पिछड़े वर्ग के प्रति व्यवहार से असंतुष्ट थे और पहले ही त्याग पत्र दे देते लेकिन हिन्दू कोड बिल पारित हो जाने की आशा से वे मंत्री मंडल में बने रहे क्योंकि वे इसे सामाजिक सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि मानते थे। इस कानून से भारतीय समाज में व्याप्त लिंग के आधार पर असमानता बहुत अंश तक समाप्त हो जाती और इससे महिलाओं के आर्थिक सुधार का मार्ग भी प्रशस्त हो जाता । 

उल्लेखनीय है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी हिन्दू कोड बिल के महत्व को स्वीकार करते हुए कहा था कि "यह विधेयक देश को भावी आर्थिक और सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए एक बुनियादी प्रस्ताव है।" परंतु संभवतः प्राथमिकताओं के आधार पर या सदन का खुलकर समर्थन प्राप्त न कर सकने के कारण वे इसे शीघ्र पारित नहीं करा सके । यद्यपि यह बिल डॉ. आम्बेडकर के जीवनकाल में पारित न हो सका परंतु कालान्तर में इसे विभिन्न नामों से चार अलग-अलग खण्डों में पारित किया गया ।

डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर का संपूर्ण जीवन दलितों के उद्धार के लिए संघर्ष में बीता। इसलिए वे जीवन का बड़े से बड़ा त्याग करने में कभी नहीं हिचकिचाए। इस शताब्दी के तीसरे दशक में वे एकमात्र ऐसे भारतीय थे जो देश के सबसे अधिक शिक्षाप्राप्त व्यक्ति थे। इतनी योग्यता तथा उच्च शिक्षा के आधार पर वे चाहते तो किसी भी उच्च पद को प्राप्त कर ऐश्वर्यमय जीवन बिता सकते थे, लेकिन उन्होंने इन सब का मोह त्यागकर अपना जीवन शोषित समाज को सवर्णों के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने में लगा दिया। उन्हीं के शब्दों में- "यह मेरी दृढ़ प्रतिज्ञा है कि मैं उन शोषित लोगों की सेवा में अपना जीवन बलिदान कर दू जिनमें मैं पैदा हुआ था, जिन लोगों के बीच रहकर मैं बड़ा हुआ था जिनमें मैं रह रहा हूं। मैं अपनी कर्तव्य परायणता से एक इंच भी नहीं हटूंगा और न मैं उस आलोचना की चिन्ता करूंगा जो मेरे प्रतिद्वंद्वी कर रहे हैं।"

निःस्वार्थ सेवाभाव 

अपने जीवन में डॉ. आम्बेडकर ने धन, वैभव, पद कीर्ति, राजसत्ता आदि सभी को दलितोद्धार से तुच्छ समझा। उनके जीवन में अनेक ऐसे अवसर आये जब उन्होंने बड़े से बड़े पद को त्यागने में जरा भी हिचकिचाहट अनुभव नहीं की। जब वे अमेरिका से अर्थशास्त्र की डिग्री लेकर भारत लौटे, तो उन्हें बम्बई सरकार ने अर्थशास्त्र का प्रोफेसर नियुक्त करने का प्रस्ताव रखा परंतु उन्होंने अपने जीवन के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए इसे स्वीकार नहीं किया।

बाद में इंग्लैंड से कानून की शिक्षा प्राप्त कर वापस आने पर उन्हें जिला न्यायाधीश बनाने का प्रस्ताव इस आश्वासन के साथ किया गया कि तीन वर्ष बाद उन्हें उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त कर दिया जाएगा लेकिन अपनी दयनीय आर्थिक परिस्थिति के बावजूद बाबासाहेब ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया क्योंकि उनका मानना था कि इससे उनका आर्थिक जीवन तो संपन्न हो जाएगा परंतु अपने दलित बांधवों के उत्थान एवं कल्याण का काम रुक जाएगा। सन् 1942 में उन्हें एक बार पुनः उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के पद पर नियुक्त किये जाने का प्रस्ताव दिया गया था लेकिन उन्होंने इसे दृढ़ता से अस्वीकार कर दिया ।

डॉ. भीमराव आम्बेडकर के आलोचकों ने सन् 1946 में उनके द्वारा गवर्नर जनरल की कौंसिल की सदस्यता स्वीकार करने तथा बाद में मंत्री मंडल में शामिल होने को उनकी राजनीतिक अवसरवादिता निरूपित किया। उन पर यह आक्षेप भी लगाया कि वे मंत्री पद की लालसा से कांग्रेस में भी शामिल हो गए । परंतु इस संबंध में अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए बाबासाहेब ने जोर देकर कहा कि उन्होंने ये पद केवल इसलिए स्वीकार किये थे क्योंकि वे सरकार में रहकर अपनी मातृभूमि तथा देश के दलित बांधवों की सेवा अधिक सक्रिय रूप से कर सकते थे ।

राजनीतिक सत्ता में दलितों की भागीदारी पर जोर 

अपने जाति बांधवों तथा दलितों से भी बाबासाहेब की यही अपील थी कि यदि वे वास्तव में अपनी दीन-हीन दशा से उभरना चाहते हैं तो उन्हें अपनी संपूर्ण शक्ति चुनावों में अपने ही उम्मीदवार को जिताने में लगा देनी चाहिए ताकि राजनीतिक सत्ता में उनकी भागीदारी हो सके । जब तक दलित वर्ग में जाग्रति उत्पन्न नहीं होती तब तक उनकी दशा में सुधार असंभव है। उन्होंने अस्पृश्यों का ध्यान इस ओर दिलाने का प्रयास किया कि संविधान के अन्तर्गत अनुसूचित जाति तथा जन-जातियों के लिए आरक्षण केवल दस वर्षों के लिए रखा गया है। 

यदि इन दस वर्षों में बहिष्कृतों ने स्वयं को एक शक्तिशाली समुदाय के रूप में संगठित नहीं किया तो वे देश की राजनीतिक सत्ता में कोई स्थान प्राप्त नहीं कर सकेंगे और अपनी दीन-हीन स्थिति से नहीं उभर पायेंगे। अतः उन्हें अभी से संगठन कार्य में जुट जाना चाहिए। आगामी चुनाव में अनुसूचित जातियों के संघ के चुनाव चिन्ह के रूप में 'हाथी' का चयन किये जाने के औचित्य पर प्रकाश डालते हुए डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने स्पष्ट किया कि हाथी हमारी (बहिष्कृतों) भांति अपने पैरों पर खड़े होने के लिए लम्बा समय अवश्य लेता है लेकिन एक बार खड़ा हो जाने के बाद उससे सरलतापूर्वक घुटने नहीं टिकवाए जा सकते हैं ।

डॉ. आम्बेडकर का लेखन कार्य 

बाबासाहेब आंबेडकर एक प्रबुद्ध अध्ययनशील व्यक्ति थे । उनका प्रत्येक कथन ठोस तथ्यों और यथार्थ पर आधारित होता था। उन्हें अकारण किसी की आलोचना करना कभी नहीं सुहाता था । उन्होंने विश्लेषणात्मक वैज्ञानिक पद्धति अपनाते हुए भारत के समाज, संस्कृति और धर्मग्रथों का अध्ययन किया और इनके प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाते हुए अपने विचारों को भाषणों और रचनाओं के माध्यम से जनता के समक्ष प्रस्तुत किया वे एक निर्भीक और स्पष्टवादी वक्ता थे जो तर्क के आधार पर अपनी बात लोगों के मन में बैठाने की चेष्टा करते थे। 

डॉ. आम्बेडकर का अध्ययन बहुत व्यापक था तथा उन्होंने भारतीय संस्कृति एवं धर्मशास्त्र के अलावा अर्थशास्त्र, राजनीति तथा दर्शनशास्त्र में भी गहरी रुचि दर्शायी एक प्रतिष्ठित विधिवेत्ता तथा न्याय शास्त्री के रूप में तो उन्हें विश्व ख्याति प्राप्त थी। भारतीय सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक व्यवस्था के बारे में उनके विचार अत्यंत व्यावहारिक थे। उनकी रचनाओं एवं कृतियों में भारतीय सामाजिक जीवन के विविध पहलुओं का सटीक चित्रण मिलता है ।

पिछले कुछ वर्षों से डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर के प्रकाशित एवं अप्रकाशित भाषणों, लेखों तथा पुस्तकों के संकलन तथा प्रकाशन का कार्य महाराष्ट्र शासन ने अपने हाथ में लिया है । 

बाबासाहेब की विभिन्न कृतियों में निम्नलिखित विशेष उल्लेखनीय है-

  1. एन्हीलीशन ऑफ कास्ट, 1936.
  2. मिस्टर गांधी एण्ड इमेन्सिपेशन ऑफ अनटचेवल्स (1943).
  3. हू वेयर दि शूद्राज ? हाउ दे केम टु बि दि फोर्थ वर्ण इन इण्डो-आर्यन सोसाइटी, 1946.
  4. दि अनटचेबल्स, 1948.
  5. कस्टम्स इन इण्डिया, देयर मेकेनिजम, जेनेसिस एण्ड डेवलपमेंट (1977 में प्रकाशित).
  6. दि राइज एण्ड फॉल ऑफ हिन्दू वूमन (1977 में प्रकाशित).
  7. व्हाट कॉग्रेस एण्ड गांधी हेव डन फॉर अनटचेबल्स, 1946.

उल्लेखनीय है कि डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर के लेखों तथा भाषणों का प्रकाशन छः ग्रंथों में हो चुका है और यह कार्य अभी पूर्णतः सम्पन्न नहीं हुआ है। लगभग इतने ही ग्रंथ अभी और प्रकाशित होने हैं । सन् 1982 में 'सोर्स मटीरियल ऑन डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर एण्ड दि मूव्हमेंट ऑफ अनटचेबल्स' नामक ग्रंथ प्रकाशित हुआ है जिसमें डॉ. आम्बेडकर द्वारा संचालित दलित आन्दोलन से संबंधित संपूर्ण सामग्री का सामावेष है ।

बहिष्कृत भारत और मूकनायक 

पत्रकारिता के क्षेत्र में डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने सक्रिय योगदान किया । उन्होंने 'मूकनायक' तथा 'बहिष्कृत भारत' नामक दो मराठी पाक्षिक पत्रिकाएं क्रमशः सन् 1920 तथा 1927 में प्रारंभ कीं तथा इनका संपादन स्वंय किया। इन पत्रिकाओं के संकलित अंशों को महाराष्ट्र राज्य के शिक्षा विभाग द्वारा सन् 1990 में प्रकाशित किया गया है जिसमें डॉ. आम्बेडकर के दलित-आंदोलन संबंधी भाषणों तथा परिचर्चाओं आदि का समावेश है।

बाबासाहेब ने सन् 1930 में 'जनता' शीर्षक से एक अन्य पत्रिका भी प्रारंभ की जिसका नाम सन् 1956 में बदलकर 'प्रबुद्ध भारत' कर दिया गया। तथापि इन दोनों पत्रिकाओं का संपादन डॉ. आम्बेडकर ने स्वयं कभी नहीं किया। यह दुर्भाग्य का विषय है कि पत्रकारिता के क्षेत्र में इतना ठोस कार्य करने पर भी डॉ. आम्बेडकर को 'पत्रकार' के रूप में ख्याति नहीं मिल सकी । यही नहीं मराठी पत्राचार के इतिहास पर उपलब्ध साहित्य में बाबासाहेब के 'मूकनायक', 'बहिष्कृत भारत', 'जनता' तथा 'प्रबुद्ध भारत' जैसे लोक जाग्रति हेतु समर्पित पत्रिकाओं का कहीं उल्लेख नहीं है यह दुःखद और आश्चर्यजनक है ।

महाराष्ट्र में पत्रिकारिता की एक उज्जवल परंपरा रही है जिसमें लोकमान्य तिलक, आगरकर, खाडिलकर, आचार्य अत्रे, ज्योतिबा फुले आदि सुविख्यात पत्रकारों ने अपनी सशक्त लेखनी द्वारा महाराष्ट्र की सामाजिक प्रगति में उल्लेखनीय योगदान किया है । राजनीतिक क्षेत्र में भी सत्य और न्याय की प्रतिस्थापना के प्रयास में इन महान विभूतियों ने अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया । त्याग, परोपकार और लोक सेवा की इसी परंपरा का निर्वाह करते हुए बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में डॉ. आम्बेडकर जैसे कर्मठ समाज सुधारक ने पत्रकारिता के माध्यम से जन जाग्रति लाने का संकल्प किया। उन्होंने अपनी पत्रिकाओं में दलितों तथा बहिष्कृतों के विरुद्ध समाज के उच्च-वर्ण के लोगों द्वारा किये जा रहे अन्याय, अत्याचार व शोषण को उजागर करते हुए अछूतों को अपने अधिकारों के लिये आंदोलन छेड़ने का आव्हान किया ।

बाबासाहेब के यौवन काल में भारत की राजनीतिक स्थिति अत्यंत स्फोटक थी । राष्ट्रवादी भारतीय नेता ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध एक जुट होकर संघर्ष कर रहे थे। अंग्रेजी शासक भारतीय समाज में फूट डालकर राज्य करने की कुटिल नीति अपना रहे थे । राष्ट्रवादी सांप्रदायिक आधार पर निर्वाचन पद्धति का कड़ा विरोध कर रहे थे। डॉ. आम्बेडकर भी स्वंतत्रता आंदोलन से प्रभावित हुए बिना नहीं रहे । उन्होंने पत्रकारिता के माध्यम से बहिष्कृतों को भारत के स्वतंत्रता-आदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए प्रेरित किया क्योंकि वे भी भारतीय समाज के एक अभिन्न घटक थे।

डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने 'मूकनायक' की शुरूआत 5 जुलाई 1920 से की लेकिन इस पत्रिका के बारह अंक प्रकाशित होने के बाद वे विद्यार्जन के लिए इंग्लैंड चले गये और इस पत्रिका के संपादन का भार उनके सहयोगी श्री ज्ञानदवे घोलप पर आ पड़ा। इस पत्रिका का मूल उद्देश्य दलितों में नवचेतना जाग्रत करना था भारतीय समाज में वर्ण-व्यवस्था के कारण व्याप्त असमानताओं तथा विषमताओं की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करना था।

मूकनायक में छपे लेखों में प्रायः सवर्णों द्वारा बहिष्कृतों के प्रति किये जा रहे दु'व्यवहार, शोषण तथा अत्याचार आदि का उल्लेख रहता था ताकि स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानने वाले ब्राह्मणों के मिथ्या आचरण का पर्दाफाश हो सके और दलित वर्ग इनके विरुद्ध आवाज उठाने का मनोबल जुटा सके। बाबासाहेब का कहना था कि किसी भी समाज में व्याप्त दोषों, कुरीतियों या विषमताओं को जनता के समक्ष प्रस्तुत करने तथा लोकमत तैयार करने के लिए पत्र-पत्रिकाओं जैसा कोई अन्य सक्षम माध्यम नहीं हो सकता है। 'मूकनायक' को सर्वश्रेष्ठ विशेषता यह थी कि वह भारतीय समाज के एक ऐसे वर्ग के लिए समर्पित था जो सदियों से अशिक्षित और उपेक्षित रहा है ।

उल्लेखनीय है कि 'मूकनायक' आज सामान्य पाठकों के लिए उपलब्ध नहीं है । कुछ शोधार्थियों का कहना है कि बाबासाहेब के इंग्लैंड प्रस्थान के साथ ही यह पत्रिका बंद पड़ गई लेकिन डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर रिसर्च इन्स्टीटयूट, राजगृह के संग्रहालय में उपलब्ध 'मूकनायक' की प्रतियों के अनुसार 19 वें अंक तक इसका प्रकाशन हुआ, यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है। बाबासाहेब की अनुपस्थिति में यह पत्रिका तीन वर्ष और चली परंतु सन् 1923 में इसका प्रकाशन बंद हो गया। निरंतर प्रयास किये जाने के बावजूद इस पत्रिका के कुछ अंक (अंक क्र. 4, 7, 8, 9, 11, तथा 12) आज भी उपलब्ध नहीं है ।

'मूकनायक' के प्राथमिक अंकों में महाराष्ट्र के अस्पृश्य वर्ग द्वारा कोल्हापुर तथा नागपुर में आयोजित किये गये अधिवेशनों का वृतांत प्रकाशित किया गया था जिसकी अध्यक्षता छत्रपति साहू महाराज ने की थी तथा दलित वर्ग को अपनी हीन भावना त्यागकर प्रतिष्ठित वर्ग के वर्चस्व के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया था। बाबासाहेब की कर्तव्य निष्ठा के प्रति अपना विश्वास प्रकट करते हुए छत्रपति साहू महाराज ने कहा कि यह एक ऐसा अद्भुत प्रतिभाशाली व्यक्तित्व है जो दलितों के उत्थान तथा भारतीय समाज से अस्पृश्यता के कलंक को समूल उखाड़ फेंकने के लिए कृतसंकल्प है, इसके समज कार्य से दलितों का उद्धार सुनिश्चित है ।

एक सफल पत्रकार के रूप में बाबासाहेब का व्यक्तित्व सन् 1927 में उनके द्वारा प्रारंभ किए गए 'बहिष्कृत भारत' नामक पत्रिका से उभर कर सामने आया। इंग्लैंड से भारत लौटने के बाद डॉ. आम्बेडकर ने 19 मार्च 1927 को महाड़ में 'कुलाबा जिला बहिष्कृत परिषद' की स्थापना की जिसके तत्वावधान में दलित एवं बहिष्कृत वर्ग की दशा में सुधार करने तथा उनमें नवचेतना जाग्रत करने का कार्य एक सामाजिक आंदोलन के रूप में हाथ में लिया गया।

इस कार्य को गति देने के उद्देश्य से बाबासाहेब ने अप्रेल 1927 में 'बहिष्कृत भारत' शीर्षक से पाक्षिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया और इसके संपादन का दायित्व उन्होंने स्वंय संभाला । एक वर्ष की अवधि में हो इस पत्रिका ने समूचे महाराष्ट्र में हिन्दू समाज के प्रतिष्ठित ब्राम्हण वर्ग द्वारा दलितों के प्रति किये जाने वाले शोषण के विरूद्ध | तूफान खड़ा कर दिया । डॉ. आम्बेडकर ने दलितों को सलाह दी कि वे संगठित होकर सवर्णों द्वारा उनके प्रति किये जा रहे अन्याय व शोषण का विरोध करें जिससे दलित- क्रांति को गति मिल सके।

'बहिष्कृत भारत' लगभग दो वर्षों तक नियमित रूप से प्रकाशित होता रहा। इसी बीच मुंबई विधान सभा के सदस्य के रूप में डॉ. आम्बेडकर ने विविध विषयों पर विद्वत्तापूर्ण भाषण दिये, फिर भी बहिष्कृत भारत के माध्यम से उन्होंने मराठी में अपना लेखन-कार्य जारी रखा । अपने लेखों में उन्होंने दलितों की दयनीय दशा तथा उनके उद्धार के बारे में लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। 

इस पत्रिका का संपादन स्वयं किये जाने का कारण स्पष्ट करते हुए डॉ. बाबासाहेब ने लिखा है, "बहिष्कृत भारत की आर्थिक स्थिति इतनी सुदृढ़ नहीं थी कि इसके लिए किसी व्यक्ति को संपादक के रूप में नियुक्त किया जा सके, और दलितों में ऐसा स्वार्थत्यागी योग्य शिक्षित व्यक्ति भी उपलब्ध नहीं था, जो इस कार्य को अवैतनिक रूप से सम्पन्न कर सके। इसके अतिरिक्त सावर्जनिक कार्य में वांछित रुचि के अभाव में इस पत्रिका को अन्य लेखकों का उतना सहयोग नहीं मिल सका जो सामान्यतः अपेक्षित था। इस परिस्थिति में पत्रिका के 24-25 पृष्ठ स्वयं लिखकर तैयार करने की संपादकीय जिम्मेदारी भी मुझे ही निभाना आवश्यक था।"

'बहिष्कृत भारत' में प्रकाशित बाबासाहेब के अग्रलेखों में उनके चितन, अद्वितीय तर्क शक्ति तथा लेखन कौशल की अनुभूति सहज ही हो जाती है। हिन्दू धर्मशास्त्रों का गहन अध्ययन और विश्लेषण करके उन्होंने प्रतिष्ठित ब्राम्हण वर्ण द्वारा स्वयं की श्रेष्ठता बनाये रखने के लिए अपनाई गई धार्मिक व सामाजिक रूढ़ियों का तर्क के आधार पर विरोध किया और दलितों से आग्रह किया कि वे उन्हें तिलांजलि देकर स्वयं का उद्धार करें। उन्होंने अपने लेखों में जातिभेद, अस्पृश्यता, अंधविश्वास तथा कुप्रथाओं के विरूद्ध प्रचार किया और दलितों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया। डॉ. आम्बेडकर के विचार से किसी भी समाज की उन्नति के लिए लोगों का शिक्षित होना परम आवश्यक था । अतः दलितों में भी शिक्षा का प्रसार किया जाना आवश्यक था ।

अपनी पत्रिकाओं के माध्यम से डॉ. बाबासाहेब ने भारत के आर्थिक तथा सामाजिक प्रश्नों के अलावा राजनीतिक प्रश्नों पर भी अपने विचार निर्भीकता से रखे। उन्होंने मुस्लिमों की भांति अनुसूचित जाति के दलितों के लिए भी निर्वाचन में पृथक सीटों की मांग की । महाराष्ट्र की 'महार' कही जाने वाली बहिष्कृत जाति के उत्थान के लिए बाबासाहेब ने जनमत संग्रह का प्रयास किया तथा इस संबंध में बंबई विधान सभा में एक विधेयक भी प्रस्तुत किया । इसी प्रकार निर्धन गरीब कृषकों को जमींदार के शोषण से बचाने के लिए उन्होंने एक विधेयक पेश किया था। उनके इस आंदोलन को महार, मांग, चमार, कुनबी, तेली, माली, मराठे आदि सभी जातियों का समर्थन प्राप्त था ।

एक निडर और स्पष्टवादी लेखक होने के कारण डॉ. आम्बेडकर का सामाजिक जीवन अत्यंत संघर्षपूर्ण रहा । उनके आलोचकों ने उन्हें समाज के बहिष्कृत वर्ग को गुमराह करने वाला व्यक्ति निरूपित किया। परंतु बाबासाहेब इन आलोचनाओं से विचलित नहीं हुए और उन्होंने अपना दलित आंदोलन यथावत जारी रखा । डॉ. आम्बेडकर की एक विशेषता यह थी कि वे ऐतिहासिक घटना क्रमों को राष्ट्रहित के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करते थे, अतः इस अर्थ में उनका लेखन दलितों के उत्थान द्वारा राष्ट्र निर्माण के लिए समर्पित था । बाबासाहेब की भाषा सरल, सहज एवं उद्बोधक होते हुए भी उसमें उपहास, व्यंग, टीका, मुहावरे आदि का प्राचुर्य था जो उनके प्रगाढ़ ज्ञान तथा प्रखर बुद्धि का द्योतक था ।

महाराष्ट्र शासन द्वारा आम्बेडकर साहित्य का प्रकाशन 

बाबासाहेब के समस्त साहित्य का प्रकाशन महाराष्ट्र शासन कर रहा है । इस संबंध में अब तक उनके आठ अंग्रेजी ग्रंथ प्रकाशित किये जा चुके हैं। इसके अतिरिक्त छः अन्य खण्डों का प्रारूप भी संपादन मंडल के पास प्रकाशन हेतु तैयार है । आम्बेडकर साहित्य के अध्ययन से ही संबंधित एक अन्य प्रकाशन 'सोर्स मटीरियल ऑन डॉ. आम्बेडकर' का भी प्रकाशन किया गया है जिसके अन्तर्गत बाबासाहेब का 'बहिष्कृत भारत' तथा 'मूकनायक' का प्रथम खंड प्रकाशित हुआ है।

उल्लेखनीय है कि डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर का मराठी लेखन इन्ही दो पत्रिकाओं के माध्यम से प्रकाशित हुआ जिसमें उनके द्वारा दलितों के लिए चलाए गए सुधारवादी आन्दोलन का दिग्दर्शन भलीभांति हो जाता है।

डॉ. आम्बेडकर प्रकाशन समिति द्वारा आम्बेडकर जन्मशती के वर्ष में 'बहिष्कृत भारत' तथा 'मूकनायक' पत्रिकाओं के संकलित अंशों के प्रकाशन की सराहना करते हुए महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शरद पवार ने यह आशा व्यक्त की कि आम्बेडकर साहित्य में इस कृति का ऐतिहासिक महत्व होगा ।

डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर द्वारा प्रारंभ की गई दलितों से संबंधित सामाजिक क्रांति भारत के इतिहास में अभूतपूर्व घटना है। इस संदर्भ में दिये गए उनके मरीठी भाषणों, लेखों तथा परिचर्चाओं का मूल्यांकन तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में निष्पक्षता से किया जाना चाहिए । महाराष्ट्र सरकार ने आम्बेडकर साहित्य के प्रकाशन के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि इसका प्रचार-प्रसार डॉ. आम्बेडकर की एक बड़े नेता के रूप में वैयक्तिक परिचय या प्रसिद्धि के लिये नहीं किया गया है बल्कि भावी सामाजिक घटकों के लिए विचारों की पू'जी के रूप में जो आवश्यक है, उसे संजोये रखने की नीयत से किया जा रहा है ।

डॉ. आम्बेडकर का सामाजिक चिंतन 

डॉ. आम्बेडकर एक विद्वान विचारक और बुद्धिवादी लेखक थे । वे एक निर्भीक वक्ता, कुशल लेखक व पत्रकार एवं अदम्य साहस के धनी थे। उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य संस्कृति और परम्परा के नाम पर अमानवीयता को प्रोत्साहन देने वाले तत्वों को समूल नष्ट करना था । इस संदर्भ में उन्होंने कहा, "मैं घृणा करता हूं अन्याय से, अत्याचार से, बनावटी गौरव और वैभव से, बकवास से और व्यर्थ के बिवाद से, और मेरी घृणा की लपेट में वे सभी व्यक्ति आते हैं जो इन सब बातों से ग्रस्त हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि वे समाज के श्रेष्ठ वर्ग द्वारा दलित वर्ग के प्रति किये जा रहे अत्याचारों को समाप्त कराने के लिए दृढ़ संकल्प हैं । 

बाबासाहेब का मानना था कि दलित और सवर्ण समाज के दो हाथों के समान हैं, यदि मनुष्य का एक हाथ क्षतिग्रस्त होता है, तो वह पंगु हो जाएगा, इसी प्रकार दलित वर्ग की अनदेखी होने पर समाज की व्यवस्था पंगु हो जाएगी। अतः समाज में वर्ण भेद नहीं होना चाहिए । सच तो यह है कि दलितों और सवर्णों के परस्पर सहयोग से ही देश की प्रगति संभव है । बाबासाहेब ने अपने जीवन की संध्या बेला में बौद्ध धर्म स्वीकार कर भगवान बुद्ध की शरण ग्रहण की तथा दो माह भी पूरे नहीं हो पाए थे कि मानवता का यह सजग प्रहरी 6 दिसंबर 1956 को इस संसार से चल बसा । दलितों और बहिष्कृतों के लिए उनके बलिदान एवं समर्पण के लिए उन्हें 'भारत रत्न' के सर्वोच्च सम्मान से अलंकृत किया गया है जो उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है। इसमें संदेह नहीं कि सामाजिक क्रांति के प्रतीक के रूप में डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर का नाम भारत के इतिहास में सदैव अमर रहेगा ।

Post a Comment

Previous Post Next Post