धर्म क्या है | धर्म की परिभाषा एवं विशेषतायें | Dharm Kya Hai

धर्म की परिभाषा

आदिकाल से धर्म की परिभाषा ऋषि-मुनियों, धर्मशास्त्रियों ने पृथक् पृथक् व अपने-अपने विचारों के आधार पर प्रस्तुत की है। इसलिये आज भी धर्म की एक निश्चित एवं सर्वमान्य परिभाषा देना सम्भव नहीं है। फिर भी विभिन्न विचारकों ने धर्म की विभिन्न प्रकार की विवेचना की है। 

जो इसमें मुख्यत: निम्नलिखित हैं-

(1) गैरट के अनुसार- "धर्म आदिकालीन मानव की बौद्धिक कल्पनाओं का प्रतिफल है।"

(2) हॉबल के अनुसार- "धर्म अलौकिक शक्ति के ऊपर विश्वास पर आधारित है, जो आत्मवाद और मन को सम्मिलित करता है।"

(3) टायलर के शब्दों में- "धर्म आध्यात्मिक सत्ताओं में और पिशाचों में विश्वास का नाम है।"

इस प्रकार धर्म के विषय में अनेक धारणाएँ हैं धर्म के प्रति मानव विश्वास रखता है। उसके ये विश्वास अतार्किक तथा उद्देश्यतापूर्ण होते हैं। धर्म को न कहीं देखा जा सकता है। इसके बावजूद भी अधिकांश व्यक्ति इस पर विश्वास करते हैं। धर्म की अभिवृद्धि पूजा आराधना और प्रार्थना के द्वारा की जाती है।

धर्म की विशेषताएँ

धर्म की विभिन्न विवेचनाओं के आधार पर कुछ विशेषताएँ सामने आती हैं जिनका विवेचन अग्र प्रकार से किया जा सकता है-

(1) धर्म में अनेक प्रकार के विश्वासों का समावेश होता है।

(2) धर्म को देखा नहीं जा सकता और न ही इसे विज्ञान के द्वारा प्रमाणित किया जा सकता है।

(3) धर्म अलौकिक शक्ति में विश्वास नहीं रखता।

(4) धर्म अनेक प्रकार की समस्याओं के बारे में विचार प्रस्तुत करता है।

(5) धर्म से सम्बन्धित विश्वास अतार्किक और उद्वेग पूर्ण होते हैं।

(6) अलौकिक शक्ति पर विश्वास करने के कारण व्यक्ति उसकी पूजा आराधना तथा प्रार्थना करता है।

(7) धर्म से सम्बन्धित सभी वस्तुएँ, प्राणी पवित्र समझे जाते हैं।

(8) भिन्न-भिन्न धर्मों में पूजा तथा आराधना की सामग्री भी अलग-अलग है।

(9) धर्म अनुकूलन स्थापित करता है।

(10) धर्म विश्वासों तथा क्रियाओं की एक संगठित व्यवस्था है।

नगरीय धर्म की विशेषताएँ

नगरीय धर्म की विशेषताओं को निम्न प्रकार उल्लेखित किया जा सकता है-

(1) धर्म निरपेक्षता 

नगर में निवास करने वाले व्यक्ति प्रायः अन्य व्यक्तियों के धर्म में हस्तक्षेप नहीं करते। विभिन्न प्रकार के धर्म और सम्प्रदाय नगरों में अपने-अपने तरीकों से आध्यात्मिक शक्तियों के प्रति आस्था व्यक्त करते हैं। भारत के नगरों में असंख्य हिन्दू, मुसलमान, जैन, सिख, ईसाई आदि धर्मों के अनुयायी रहते हैं। लेकिन परस्पर धार्मिक हस्तक्षेप नहीं करते। यहाँ धार्मिक पृथकता पायी जाती है।

(2) धार्मिक कट्टरता में कमी

नगरीय धर्म में उतनी कट्टरता देखने को नहीं मिलती जितनी कि ग्रामीण क्षेत्रों में देखने को मिलती है। नगरीय वातावरण के व्यक्ति सदैव नवीन विचारों को ग्रहण करने के लिए तत्पर रहता है। इसलिये धार्मिक उत्सवों एवं अन्य धार्मिक संस्कारों में समय खान-पान सम्बन्धी भेदभाव नहीं समझा जाता।

(3) धर्म सामाजिक नियन्त्रण के साधन के रूप में महत्वहीन

नगर में कुछ समय पूर्व तक व्यक्ति धर्म के आदर्शों के अनुसार कार्य करते थे क्योंकि वे लौकिक शक्ति से डरते थे किन्तु परिवर्तित परिस्थितियों के साथ नगर में धार्मिक प्रभाव कम होता जा रहा है। परिणामस्वरूप नगर में धर्म सामाजिक नियन्त्रण नहीं रह गया है।

(4) धार्मिक कार्यों को सम्पन्न करने की अवधि में कमी 

नगरों में धार्मिक कार्यों को कम समय दिया जाता है। मिल्टन सिंगर ने मद्रास (चेन्नई) नगर के अध्ययन द्वारा भी निष्कर्ष निकाला है कि नगरों में धार्मिक क्रिया-कलापों को सम्पन्न कराने की अवधि गाँवों की अपेक्षा कम होती है। गाँवों में धार्मिक उत्सवों को सम्पन्न कराने वाले लोग पेशेवर होते हैं किन्तु नगरों में वंशागत पेशेवर नहीं होते। नगरों में व्यक्ति धार्मिक कार्यों में कम-से-कम समय देना चाहता है। नगरों में सत्य नारायण की कथा का भी संक्षिप्तिकरण हो गया है। शहरों में मनुष्य कथा एवं हरि कीर्तन में भी कम-से-कम बैठना चाहता है।

(5) आधुनिक उपकरणों का उपयोग 

नगरों में जो धार्मिक कार्य सम्पन्न कराये जाते हैं उनमें आधुनिक उपकरणों का उपयोग किया जाना चाहिये। हनुमान चालीसा, रामायण तथा सत्यनारायण की कथा के ग्रामोफोन रिकॉर्ड बनाये जाते हैं। धार्मिक कार्यों के लिए अखबार, अन्य विज्ञापन के साधनों का प्रयोग किया जाता है।

(6) संस्कार में औपचारिकता

नगरों में विज्ञान का अधिक प्रभाव रहता है। यहाँ के लोगों का दृष्टिकोण वैज्ञानिक हो गया है, इसलिये नगरीय संस्कारों में औपचारिकता का तत्व अधिक मिलता है। विवाह संस्कार, यज्ञोपवीत आदि को लोग इस कारण सम्पन्न करते हैं कि उनका कोई विकल्प नहीं है और वे धर्म की वृहत परम्परा से सम्बद्ध हैं। इस प्रकार नगरों में संस्कारों के प्रति वास्तविक आस्था न होकर औपचारिकता मात्र है।

(7) भौतिकवाद का आर्थिक प्रभाव 

आज भारतीय नगरों में भौतिकवाद की ही चमक-दमक दृष्टिगोचर होती है। वही व्यक्ति सफल माना जाता है। जिसके पास भौतिक सम्पन्नता है। इसलिये नगर का जीवन आर्थिक रूप से अत्यधिक प्रतियोगितापूर्ण है। इस प्रकार के वातावरण में व्यक्ति के मन में प्रथम तो धार्मिक विचार उत्पन्न नहीं होता और उत्पन्न होता भी है तो द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के कारण शीघ्र ही प्रभावित भी हो जाता है।

(8) खानपान सम्बन्धी प्रतिबन्धों में कमी

नगर का वातावरण संकुचित न होकर विस्तृत होता है, यहाँ अनेक धर्मों के व्यक्ति एक साथ बैठकर खाना खाते हैं। हिन्दू-मुसलमानों के साथ बैठकर भोजन करते हैं। छूआछूत का प्रतिबन्ध लगभग समाप्त हो गया है। यही नहीं बल्कि विभिन्न धर्मावलम्बियों में खान-पान की उतनी कट्टरता नहीं होती जितनी की ग्रामीण क्षेत्रों में देखने को मिलती है।

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