चन्देलकालीन मन्दिर स्थापत्य कला का वर्णन
गुना जिले में चन्देरी टम्पा के अन्तर्गत कुछ उत्तर प्रतिहार कालीन मन्दिर प्रकाश में आये हैं। इन मन्दिरों की तिथि 11-12 वीं शताब्दी है और रूनवासों, बेस्त्रो तथा मड़खेरा में स्थित हैं। ये सभी मन्दिर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं।
इस क्षेत्र में सर्वाधिक चन्देलकालीन मन्दिर विद्यमान है। खजुराहो के मन्दिर विश्वविख्यात हैं। इनके अतिरिक्त महोबा, रहलिया, गैराहा (झाँसी) बानपुर, मदनपुर, दुधई, चाँदपुर, देवगढ़ कालिंजर आदि स्थानों पर इस काल के मन्दिर स्थित हैं।
खजुराहो के मन्दिर वैष्णव, शैव, शक्ति, सौर तथा जैन सम्प्रदाय से सम्बन्धित हैं। ये ऊँची जगती पर बने हुए हैं और उनके चारों ओर किसी प्रकार का घेरा नहीं है। इनका निर्माण पूर्व पश्चिमाभिमुखी धुरी पर हुआ है। मन्दिर के तीन मुख्य अंग हैं- गर्भगृह, मण्डप और अर्द्धमण्डप । सोपान मार्ग से चढ़कर मकरतोरण द्वार से अर्द्धमण्डप में प्रवेश मिलता है। अर्द्धमण्डप प्रायः आयताकार है जो बड़े मन्दिरों में मण्डप के रूप में और अधिक विस्तृत हो गया है। महामण्डप में पाश्र्वीय पक्षावकाश हैं और प्रत्येक पक्षावकाश में एक गवाक्ष है। प्रकाश आने हेतु प्रदक्षिणा पथ में एक गवाक्ष पीछे की ओर रहता है। गर्भगृह और मण्डप के बीच अन्तराल है। अधिकष्टान और जंघा भाग को विभिन्न अभिप्रायों तथा मूर्तियों से अलंकृत किया गया है। कुछ मन्दिरों में कक्षासन गवाक्ष भी देखे जा सकते हैं।
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यहाँ के कुछ मन्दिर पंचायतन शैली के हैं। मन्दिरों की छतों को पर्वत शिखरों की भाँति प्रदर्शित किया गया है जो अर्द्धमण्डप से अपने निचले स्वरूप से प्रारम्भ होकर गर्भगृह पर अपनी अधिकतम ऊँचाई प्राप्त कर लेती है। खजुराहो के मन्दिरों का सौन्दर्य इनके उरुश्रंगों में है जो पूँजीभूत होकर अन्तत: एक बड़े शिखर के रूप में परिणत होते हैं। इसके ऊपर चन्द्रिकाएँ, आमलक, कलख और बीजपूरक हैं।
खजुराहो का विश्वनाथ मन्दिर पंचायतन शैली का सान्धार प्रासाद है। वास्तु विन्यास की दृष्टि से यह कन्दरिया महादेव जैसा मन्दिर है। तलच्छंद में यह' क्रॉस' जैसा है। इसमें अर्द्धमण्डप, मण्डप, महामण्डप, अन्तराल, गर्भगृह और प्रदक्षिणापथ क्रमशः एकीकृत होकर पूर्ण विकसित देवायतन का भव्य समन्वित स्वरूप प्रस्तुत करते हैं। जंघा पर तीन समानान्तर मूर्ति-पंक्तियों को प्रदर्शित किया गया है। इस मन्दिर की समूची संयोजना में अंकृत स्तम्भ कक्षासन, गवाक्ष, उत्तुंग शिखर सभी कुछ अवलोकनीय हैं। यह उत्तर भारत के सुन्दरतम मन्दिरों में एक है। मण्डप में लगे लेख से ज्ञात होता है कि इसे चन्देल राजा धंग ने बनवाया था और इसमें मरकत शिवलिंग किया गया था।
महोबा का ककरामठ मदानसागर के बीचों-बीच में बना हुआ है। यह पूर्ण विकसित खजुराहो के मन्दिरों के समान है, परन्तु इसकी बाह्य दीवारों में मूर्तियाँ नहीं लगी हैं। इसी प्रकार पूर्ण विकसित सूर्य मन्दिर रहलिया (हमीरपुर) में है जो अब लगभग धराशायी हो चुका है। गैर हा (जिला-झाँसो) का भी पूर्ण विकसित देवालय है और ऊँची जगती पर बना हुआ है। यह कीर्तिवर्मन के समय में बना है और शिव मन्दिर है। बानपुर का मन्दिर चतुष्कोणीय अधिष्ठान पर निर्मित है। इसके गर्भगृह में सर्वतोभद्र सहस्रकूट का प्रतिष्ठापन है। मदनपुर के जैन मन्दिरों में मुख्य देवालय का गर्भगृह वर्गाकार है और इसमें दो अन्तराल हैं। यह मन्दिर बारहवीं शताब्दी का है।
मन्दिर निर्माण का यह क्रम अनवरत रूप से चलता रहा। बुन्देलों के समय के भी कई मन्दिर विभिन्न स्थलों पर स्थित हैं। तत्कालीन जैन मन्दिरों में सीरोनखुर्द, अहार (टीकमगढ़), द्रोणगिरि (छतरपुर) आदि के देवालय उल्लेखनीय हैं। ब्राह्मण धर्म के मन्दिरों में ओरछा का चतुर्भुज मन्दिर अद्वितीय है। इसे स्थानीय जनश्रुति के अनुसार महाराजा की मूर्ति को पधारने के लिए 16वीं शताब्दी में बुन्देल राजा मधुकरशाह ने बनवाया था। बाद में इसे अच्छी प्रकार बनवाने का श्रेय वीरसिंह देव को है। ऊँची टोरिया पर स्थित इस मन्दिर तक पहुँचने के लिए सोपान पथ है। मन्दिर वास्तुकला की विकसित परम्परा में इस देवालय के सभी अंग विद्यमान है पर प्रदक्षिणा पथ नहीं है। प्रकाश आने के बड़े-बड़े शिखर हैं। इसमें शिखरों और गुम्बदों की सुन्दर संयोजना हुई है। मन्दिर के प्रत्येक भाग पर पृथक् वातायन हैं और खजुराहो मन्दिरों की भाँति गर्भगृह के ऊपर का सबसे ऊँचा शिखर है। इस शिखर भाग में अन्दर जाने के लिए सोपान हैं। मन्दिर की बाह्य और भीतरी दीवारें सादी हैं। गर्भगृह का द्वार भी पहले जैसा अलंकृत नहीं है। चौखट के ऊपर दशावतार का चित्रण किया गया है। मन्दिर के महामण्डप के ऊपर जाने के लिए कई सोपान है और भूल भुलैया जैसा स्वरूप प्रस्तुत करते हैं। यह मन्दिर अपनी विशालता और भव्यता के लिए प्रख्यात हैं।
ओरछा (टीकमगढ़) का लक्ष्मी मन्दिर भी स्थापत्य की दृष्टि से सुन्दर है। इसे 1618 ई. में वीरसिंह देव ने बनवाया था। यह बाहर से देखने में त्रिकोण लगता है पर भीतर से चौकोर है। इसके बाहरी दालानों में चित्रकारी है।
पुरातात्विक उत्खननों से मिले अवशेषों से यह ज्ञात होता है कि हड़प्पा संस्कृति से लेकर अर्वाचीन काल तक दुर्ग बनाने की परम्परा विद्यमान रही है। साहित्य में विभिन्न प्रकार के दुर्गों की चर्चा है। मानसार में सैनिक प्रयोजन के लिए बनाये गये दुर्गों को सात श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है-गिरि दुर्ग, वन दुर्ग, सलिल दुर्ग, पंकदुर्ग, रथ दुर्ग, देव दुर्ग और मिश्र दुर्ग। इनके निर्माण के लिए स्थापत्य सम्बन्धी निर्देश भी वास्तु ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं। एक विवरण के अनुसार वे गोल, वर्गाकार या आयताकार बनाये जा सकते हैं। उनके आस-पास परिखा (चाहरदीवारी) एवं वप्र (घेरा) होना चाहिए। प्रवेश व बहिर्गमन के लिए कई द्वार (प्रतोली) हों। इसके अन्दर प्रदक्षिणा सोपान तथा गूढ़ भिट्टि सोपान ( गुप्त रास्तों को जाने वाली सीढ़ियाँ) बनाये जाने चाहिए। घेरे वाली दीवार (परिखा) के बीच शिखर बने हों जिन पर युद्ध सामग्री रखी जा सके। अन्दर तालाब तथा सभी प्रकार के लोगों के लिए आवासीय भवन निर्मित हों।
बुन्देलखण्ड में दुर्गों और गढ़ियों की बहुत बड़ी संख्या है। ये प्रायः सामरिक दृष्टि से बनाये गये हैं और इन्हें गिरी दुर्ग के अन्तर्गत माना जा सकता है।
इस क्षेत्र के दुर्गों को दृष्टि में रखकर इनकी स्थापत्य सम्बन्धी कतिपय समान विशेषताओं का उल्लेख किया जा सकता है। दुर्ग ऊँची पहाड़ियों पर बने हुए हैं। यह स्थिति उनके सामरिक महत्व को उजागर करती है। अधिक ऊँचाई पर असम्बद्ध किसी पहाड़ी पर बना दुर्ग सैनिक स्थापत्य कला की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण होता है। किले के चारों ओर परकोटा बनाया जाता था। बड़े दुगर्गों में कई कोटे या परकोटे होते हैं। इन्हें कटे हुए पत्थरों को बेतरतीब रखकर चूने से जोड़कर बनाया गया है। इस ऊँची दीवार के बीच-बीच में गुर्ज बने हुए रहते हैं। कई दीवारें एक के बाद एक सुरक्षात्मक दृष्टि से बनायी जाती थीं। ऊँची दीवारों के ऊपर डिजायनदार कटाव रहता है। बाहरी दीवार के चारों ओर खाई (परिखा) रहती है। यह व्यवस्था आवश्यकतानुसार दुर्ग विशेष में बदली हुई भी मिलती है। देवगढ़ दुर्ग में बेतवा नदी की ओर कालपी में यमुना नदी की ओर कोई दीवार नहीं बनायी गयी है। झाँसी किले में केवल एक ओर खाई है।
बड़े किलों में एक से अधिक द्वार मिलते हैं। बाहरी द्वारा ऐसे रखे जाते थे जहाँ कोई एकाएक भारी आक्रमण न कर सके। किले के अन्दर विभिन्न वर्गों के लोगों की आवास व्यवस्था हेतु छोटे-बड़े भवन बनाये जाते थे। कुछ दुर्गों में राजमहल अब भी विद्यमान हैं। इनमें कहीं-कहीं तलघर भी देखे जा सकते हैं। दुर्ग में मन्दिरों का निर्माण भी किया जाता था। जल व्यवस्था हेतु बड़े दुर्गों में पक्के तालाब बनाये गये हैं। कुछ किलों में गुप्त मार्ग भी बने हुए हैं जो किसी निश्चित महत्वपूर्ण स्थान तक पहुँचते हैं। किले के साथ कहीं-कहीं नगर परकोटा भी बनाया गया है जिसके अन्दर नगरवासी रहते थे। भारतीय दुर्गों में कालिंजर का नाम अत्यन्त प्रसिद्ध है। इसने अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं। सामरिक महत्व का दुर्ग होने के कारण एक के बाद एक राजवंश अथवा शासक आकृष्ट होता रहा। यह आक्रमणकारियों द्वारा अनेक बाद लूटा गया और ऐसी विनाशलीला हुई कि किले के अन्दर कोई खास इमारत तक सुरक्षित नहीं बची है। इसके अन्दर अपनी जीर्ण दशा में एक भवन बचा है जिसे स्थानीय लोग अमानसिंह मिल कहते हैं। यह अमानसिंह कौन था और यह महल कब बना, यह ज्ञात नहीं है। इसमें निर्माण कार्य बराबर चलता रहा। यह किला भूमितल से लगभग 800 फीट ऊँचा एकाकी पहाड़ी पर बना हुआ है। इसमें प्रवेश पाने हेतु दो द्वार हैं- एक उत्तर में कालिंजर नगर की ओर तथा दूसरा दक्षिण पूर्व पर पन्ना की ओर। पन्ना द्वार अव बन्द कर दिया गया है। नगर की ओर एक के बाद एक कुल सात प्रवेश द्वार है जिनके अलग-अलग नाम है। इसी क्रम में अन्तिम 'बड़ा दरवाजा' कहलाता है। किले के अन्दर कई तालाब है और नीलकण्ड महादेव का चन्देलकालीन मन्दिर है।
अजयगढ़ का दुर्ग कालिंजर की अपेक्षा छोटा है, परन्तु कला और इतिहास दोनों दृष्टियों से यह बड़ा महत्वपूर्ण है। महाभिलेखों में इसे 'जयपुर दुर्ग' की संज्ञा दी गई है। यह भी लगभग 700 फीट ऊँची पहाड़ी पर स्थित है। यह त्रिकोणाकार किला लगभग 3 मील की परिधि में स्थित है। इसमें दो द्वार हैं। इस किले के अन्दर कई मन्दिर तथा तालाब है।
मध्य प्रदेश के कुड़ार गाँव के निकट गढ़, कुण्डार नाम का दुर्ग अपनी भव्यता के लिए प्रसिद्ध है। यह ऊँची पहाड़ी पर जंगलों के मध्य स्थित है। मुख्य प्रवेश द्वार एक है जिससे लगी हुई दीवार से सम्बद्ध पूर्व दिशा में कोने पर एक बुर्ज है। इसी के किले का आभास होता है। अन्दर एक ओर पाँच मंजिला भवन है और उसके आगे खुला भाग छूटा हुआ प्रतीत होता है। मूलतः यह चन्देलकालीन दुर्ग है जो बाद में खंगार राजाओं के अधिकार में आ गया था। इसके बाद बुन्देल राजाओं ने इस पर आधिपत्य जमा लिया।
महोबा, देवगढ़, मड़फा (बाँदा), मनियागढ़ तथा कालपी में चन्देलकालीन दुर्ग थे पर अब वे पूरी तरह ध्वस्त हो गये हैं।
बुन्देल राजाओं ने भी अनेक किले और गढ़ियाँ बनवायीं। प्रत्येक राज्य के जागीरदार का अपना किला था। इसमें झाँसी दुर्ग यद्यपि वास्तुकला की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण नहीं है पर उसके साथ प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के पिरोये हुए सूत्र ने उसे भावनात्मक दृष्टि से महान बना दिया है। अत: इसका उल्लेख आवश्यक है। बांगरा नामक ऊँची पहाड़ी पर स्थित झाँसी किला सन् 1613 ई. में ओरछा के राजा वीरसिंह देव के द्वारा बनवाया गया था। किले के परकोटे के बीच-बीच में ऊँचे गुर्ज और कंगूरे बने हुए हैं। दीवारों के ऊपर छोटे और बड़े छिद्र दूर तथा अति निकट की मार करने के लिए बनाये गये हैं। मोटे तौर पर इस किले के निर्माण और विस्तार कार्य को तीन चरणों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथमत: बुन्देल राजाओं द्वारा किया गया निर्माण कार्य; द्वितीय चरण में मराठा शासकों द्वारा किये गये परिवर्तन और परिवर्द्धन तथा तृतीय चरण के अन्तर्गत अंग्रेजों द्वारा की गयी तब्दीलियाँ शामिल हैं। कई द्वारों के निर्माण में किसी पूर्व मध्यकालीन मन्दिर के भग्नावशेषों को पुनः प्रयुक्त किया गया है। इस प्रकार दुर्ग के प्राचीर में लगाया हुआ 12वीं शताब्दी का एक अभिलेख भी प्राप्त हुआ था।
इस ऐतिहासिक किले से महारानी लक्ष्मीबाई का सम्बन्ध रहा है। किले के प्रांगण में तोपची गुलाम गौसखाँ, मोतीबाई तथा अश्वारोही खुदाबख्श की समाधियाँ स्थित है। किले की अधिकांश इमारतें भग्नावस्था में हैं परन्तु शिव मन्दिर तथा गणेश मन्दिर अधिक सुरक्षित दशा में विद्यमान हैं। इसके साथ नगर के चारों ओर परकोटा था जिसमें कई द्वार और खिड़कियाँ थीं और इनके पृथक् पृथक् लाभ हैं।
बुन्देलखण्ड के अनेक स्थानों पर छोटे दुर्ग हैं जिन्हें स्थानीय लोग गढ़ी भी कहते हैं। झाँसी जिले के टीड़ी फतेहपुर नाम स्थान में एक बड़ी गढ़ी है, परन्तु अब प्राय: ध्वस्त हो गयी है। इसके अन्दर बना हुआ मन्दिर अब भी अच्छी हालत में है जिसके अन्दर चित्रकारी बनी हुई है।
टीकमगढ़, समथर, बिजना के किले अभी भी आवासित होने के कारण अच्छी दशा में हैं इस क्षेत्र में महलों में चन्देरी, ओरछा तथा दतिया के महल विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। चन्देरी का कुशल महल, अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यह 116 फीट की वर्गाकार इमारत है। इसकी संयोजना 'क्रॉस' जैसी हुई है। वस्तुतः कुशक महल बराबर दूरी पर स्थित बराबर माप के चार महलों का संयुक्त रूप है और वे सभी एक चौड़े रास्ते से जुड़े हुए हैं। ऊपर का भाग टूट गया है पर इसमें गुम्बद नहीं थे। सम्भवतः प्रत्येक कोने पर एक छतरी थी। प्रवेश द्वार महराबदार हैं और उन्हें महराबदार आलों से सजाया गया है और सभी महल तीन मंजिल के हैं।
पहली मंजिल की छत में आड़ी-तिरछी महराबों का सिलसिला है और दूसरी मंजिल की छत ढलवाँ है। तीसरी मंजिल की छत सपाट है और भार वहन करने के लिए टेकों तथा खम्भों का प्रयोग किया गया है। कुल मिलाकर इसके स्थापत्य में सादगी है। इसकी तिथि 15वीं शताब्दी आँकी जाती है।
ओरछा का रामराजा मन्दिर चन्देरी के कुशक महल जैसा ही है। इसका आँगन आयताकार और चन्देरी के कुशक महल के निर्माण के लगभग एक शताब्दी बाद यह निर्मित हुआ था।
दूसरा महल' राजमन्दिर' कहलाता है। इसे मधुकरशाह ने 1535 ई. में बनवाया था। इसके ऊपर कई छोटे-छोटे खुले हुए मण्डप बने हुए हैं। यह महल रामराजा मन्दिर की अपेक्षा अधिक भव्य लगता है।
ओरछा में सबसे सुन्दर भवन जहाँगीर महल है। इसे वीरसिंह देव ने मुगल सम्राट जहाँगीर के साथ मैत्री सम्बन्धों की यादगार में बनवाया था। यह 220 फीट की वर्गाकार जगह में बना हुआ है। आठ सुन्दर गुम्बदों पर यह वर्गाकार भवन स्थित है। बीचों-बीच में 120 फीट का वर्गाकार आँगन है। इसके चारों ओर इमारत बनायी गयी है। आँगन में छज्जों की सजावट हाथियों की आकृति वाले टेकों से की गयी है। आँगन के मध्य में फुब्बारा है। ऊपर के कमरे व कगार आँगन को घेरे हुए हैं। सभी कमरों के आगे लटकता हुआ छज्जा है। ऊपर की छत में कोनेदार रास्ते बने हुए हैं। सुन्दर विभिन्न प्रकार की जालियाँ बनी हुई हैं। जालियों के ऊपरी भाग में सर्पाकार डिजाइन हैं। इसका मुख्य दरवाजा पूर्व की ओर को है जो सामान्यता: अब बन्द रहता है। इसके नीचे तलघर भी है। इसमें कहीं-कहीं रंगीन पलस्तर भी प्रयुक्त किया गया है। कुछ कमरों में चित्र बने हुए थे जो अब मिट गये हैं। इस भवन में अनुभवी वास्तुविदों की परिपक्वता एवं कुशलता का सुन्दर प्रतिबिम्बन हुआ है।
बुन्देल महाराजा वीरसिंह कला एवं स्थापत्य के अपने इन प्रयासों से सन्तुष्ट नहीं हुए। उन्होंने एक और वास्तु सम्बन्धी प्रयोग 1620 ई. के आसपास दतिया में एक भव्य महल बनवाकर पूरा किया। यह महल जहाँगीर महल से थोड़ा छोटा है। ग्रेनाइट की चट्टानों को काटकर भवन निर्माण का धरातल तैयार किया गया। प्रत्येक कोने पर तथा प्रत्येक ओर मध्य में बड़े-बड़े गुम्बद हैं। मध्य भाग के ऊपर एक वर्गाकार वीथिका बनी है। मुख्य द्वार पूर्व की ओर है जो पूर्णरूपेण अलंकृत है। इसकी ऊँचाई और सामने की गयी पच्चीकारी ने भवन की भव्यता में और भी चार चाँद लगा दिये हैं। एक द्वार उत्तर दिशा को भी है।
इस भवन की पाँच मंजिलें हैं बीच में बड़ा आँगन है। टेकदार छज्जे, झरोखेदार खिड़कियाँ, गुम्बदों का चकाचौंध बेलबूटे और पच्चीकारी, भवन का उन्नत स्वरूप सभी कुछ एक प्रभावोत्पादक वातावरण उपस्थित करते हैं। यहाँ महल स्थापत्य का निखार उभर कर सामने आया है। दुर्भाग्य से यह भव्य भवन कभी आवासित नहीं हो पाया।