*** भारतीय शिक्षा आयोग ***
1857 में भारतीयों ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी (ब्रिटिश) शासन के विरुद्ध आन्दोलन शुरु किया। इस आन्दोलन को 1857 की क्रान्ति के नाम से जाना जाता है। इस आन्दोलन को दबाने के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारत के शासन की बागडोर कम्पनी के स्थान पर स्वयं सम्भालने का निर्णय लिया। 1 नवम्बर 1858 को ब्रिटेन की तत्कालीन साम्राज्ञी महारानी विक्टोरिया ने इस आशय का एक आदेश जारी किया और तभी से इस देश में ब्रिटिश सरकार का सीधा शासन लागू हुआ।
लार्ड कैनिंग (Lord Canning) को बिटिश भारत का पहला गवर्नर जनरल एवं वायसराय (Governor General and Viceroy) नियुक्त किया गया। इसके बाद 1861 में ब्रिटेन सरकार ने, भारतीय वैधानिक अधिनियम (Indian Legislative Act) पास किया जिसके अनुसार भारत के प्रत्येक प्रान्त में विधान परिषदों (Legistative Councils) का गठन किया गया जिनमें भारतीयों को भी प्रतिनिधित्व दिया गया। धीरे-धीरे भारत में ब्रिटिश शासन सुदृढ़ हो गया।
भारत में ब्रिटिश शासन को सुदृढ़ करने के बाद सरकार का ध्यान भारतीय शिक्षा पर गया। इधर भारत में भारतीय और उधर इंग्लैण्ड में ईसाई मिशनरी भारतीय शिक्षा में परिवर्तन की माँग कर रहे थे। इस हेतु ईसाई मिशनरियों ने इंग्लैण्ड में 'जनरल काउन्सिल ऑफ ऐजूकेशन इन इण्डिया' संस्था का गठन भी किया था और उसके माध्यम से ये ब्रिटिश सरकार पर भारत की शिक्षा नीति में परिवर्तन करने के लिए बराबर दबाव डाल रहे थे।
बात दरअसल यह थी कि वुड डिस्पेच में घोषित शिक्षा नीति 1854 के तहत भारतीय शिक्षा में ईसाई मिशनरियों का प्रभुत्व समाप्त हो गया था। 1880 में लार्ड रिपन (Lord Rippon) भारत के नए गवर्नर जनरल और वायसराय नियुक्त हुए। अनुकूल अवसर जानकर 'जनरल काउन्सिल ऑफ एजूकेशन इन इण्डिया' के एक प्रतिनिधि मण्डल ने लॉर्ड रिपन से भेंट की और उन्हें अपनी समस्याओं से अवगत कराया और उनसे भारतीय शिक्षा नीति में परिवर्तन करने का निवेदन किया।
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लार्ड रिपन ने उन्हें भारतीय शिक्षा नीति पर पुनर्विचार करने का आश्वासन दिया। वैसे भी इस देश में 1854 की शिक्षा नीति लागू हुए 25 वर्ष से अधिक हो चुके थे, उस पर पुनर्विचार होना आवश्यक था। अतः लॉर्ड रिपन ने 3 जनवरी, 1882 को 'भारतीय शिक्षा आयोग' का गठन किया। इस आयोग में 20 सदस्य रखे गए थे जिनमें 7 सदस्य भारतीय थे। वायसराय की तत्कालीन काउन्सिल के सदस्य सर विलियम हण्टर (Sir William Hunter) इस आयोग के अध्यक्ष थे। इसलिए इस आयोग को हप्टर आयोग (Hunter Commission) भी कहा जाता है।
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आयोग का कार्यक्षेत्र
लॉर्ड रिपन को सबसे अधिक चिन्ता भारत में प्राथमिक शिक्षा के विकास की थी इसलिए उन्होंने आयोग को निम्नलिखित समस्याओं का अध्ययन करने और उन पर अपने सुझाव देने का आदेश दिया-
- वुड डिस्पेच द्वारा घोषित शिक्षा नीति, 1854 का पालन किस सीमा तक हुआ है और उक्त नीति में क्या परिवर्तन आवश्यक है।
- भारत में प्राथमिक शिक्षा को क्या स्थिति है और उसके सुधार एवं विकास के लिए क्या उपाय करने चाहिए।
- क्या सरकार द्वारा माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा पर अधिक ध्यान देने के कारण प्राथमिक शिक्षा के विकास में बाधा पड़ी है।
- भारत को शिक्षा व्यवस्था में राजकीय स्कूलों की क्या भूमिका है। इस सम्बन्ध में सरकार की क्या नोति होनी चाहिए।
- भारत को शिक्षा व्यवस्था में मिशन स्कूलों की क्या भूमिका है। इस सम्बन्ध में सरकार की क्या नोति होनी चाहिए।
- भारत में शिक्षा के प्रसार में व्यक्तिगत प्रयासों की क्या भूमिका है। इस सम्बन्ध में सरकार की क्या नीति होनी चाहिए।
आयोग का प्रतिवेदन
आयोग ने 7 सप्ताह तक कलकत्ता में शिक्षा सम्बन्धी पूर्व सरकारी दस्तावेजों, विशेषकर वुड डिस्पेच का गहराई से अध्ययन किया। उसके बाद इसके सदस्यों ने 7 माह तक भारत के विभिन्न भागों का भ्रमण किया और तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था का समग्र रूप से अध्ययन किया। उसके बाद सब बिन्दुओं पर विचार-विमर्श किया और अन्त में प्रतिवेदन तैयार कर मार्च 1883 में उसे सरकार को प्रेषित कर दिया। यह प्रतिवेदन 770 पृष्ठों का एक विस्तृत दस्तावेज है जिसमें तत्कालीन भारतीय शिक्षा के सभी पहलुओं पर विस्तार से सुझाव दिए गए हैं।
भारतीय शिक्षा आयोग की सिफारिशें
यूँ भारतीय शिक्षा आयोग की नियुक्ति मुख्य रूप से वुड डिस्पेच में घोषित शिक्षा नीति 1854 के क्रियान्वयन एवं परिणामों का अध्ययन करने और भारत में प्राथमिक शिक्षा की तत्कालीन स्थिति का अध्ययन करने और उसमें सुधार और विकास के उपाय खोजने हेतु की गई थी परन्तु उसने तत्कालीन भारतीय शिक्षा का सम्पूर्ण रूप से अध्ययन किया और उसके समस्त पहलुओं पर अपने सुझाव दिए। अतः यहाँ उनका क्रमबद्ध विवरण प्रस्तुत है।
वुड डिस्पेच में घोषित शिक्षा नीति, 1854 के सम्बन्ध में सुझाव
आयोग ने सामान्यतः वुड डिस्पेच में घोषित शिक्षा नीति 1854 का समर्थन किया। उसने यह अवश्य अनुभव किया कि इस नीति का क्रियान्वयन निष्ठा के साथ नहीं किया गया था। साथ ही उसने इस नीति में परिवर्तन हेतु कुछ सुझाव भी दिए।
इनमें दो सुझाव मुख्य थे-
(1) सरकार प्राथमिक शिक्षा का उत्तरदायित्व स्थानीय निकायों (नगर पालिका और जिला परिषदों) पर छोड़ दे और माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा का उत्तरदायित्व व्यक्तिगत संस्थाओं और संगठनों पर छोड़ दे।
(2) सरकार सहायता अनुदान प्रणाली में उदार नीति अपनाए।
अतः इस सम्बन्ध में आयोग ने ये निम्न सुझाव भी दिए कि-
- विद्यालयों के शिक्षकों के वेतन और छात्रों की छात्रवृत्तियों के साथ-साथ विद्यालयों के भवन निर्माण, प्रयोगशाला और पुस्तकालय आदि के लिए भी अनुदान दिया जाए।
- सहायता अनुदान के नियम सरल एवं उदार बनाए जाएँ।
- सहायता अनुदान के नियमों को प्रान्तीय आवश्यकताओं के अनुकूल बनाया जाए।
- सहायता अनुदान के नियम अलग-अलग मदों के लिए अलग-अलग बनाए जाएँ।
- सहायता-अनुदान के सभी नियमों से शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत सभी व्यक्तियों, विशेषकर प्रधानाचार्यों को अवगत कराया जाए, इनका प्रकाशन कराया जाए।
- किसी विद्यालय के किसी भी मद हेतु प्राप्त सहायता अनुदान प्रार्थना पत्र पर निर्णय लेने से पूर्व विद्यालय का निरीक्षण किया जाए।
- विद्यालयों को सहायता अनुदान स्वीकृत करने में किसी प्रकार का भेद-भाव न बरता जाए।
- विद्यालयों को सहायता अनुदान की धनराशि समय से पहुंचाई जाए।
- जिन विद्यालयों को सहायता अनुदान दिया जाए उनके आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न किया जाए।
- किसी विद्यालय को सहायता अनुदान देना अकारण बन्द न किया जाए।
प्राथमिक शिक्षा के सम्बन्ध में सुझाव
आयोग ने प्राथमिक शिक्षा के सम्बन्ध में जो सुझाव दिए थे उन्हें निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध कर सकते हैं-
1. प्राथमिक शिक्षा का प्रशासन एवं वित्त- आयोग ने प्राथमिक शिक्षा के प्रशासन और वित्त का भार स्थानीय निकायों को सौंपने का सुझाव दिया और स्पष्ट किया कि ये संस्थाएँ अपने-अपने क्षेत्र में प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना करेंगी, उनमें शिक्षकों की नियुक्ति करेंगी, उनके शिक्षकों के वेतन का भुगतान करेंगी और अन्य सब व्यय वहन करेंगी। आयोग ने इन स्थानीय निकायों की शिक्षा हेतु वित्त व्यवस्था के सम्बन्ध में यह सुझाव दिया कि ये अलग से प्राथमिक शिक्षा कोष का निर्माण करेंगी और इस कोष को केवल प्राथमिक शिक्षा पर व्यय करेंगी। प्रान्तीय सरकारें उन्हें कुल व्यय का अथवा भाग अनुदान के रूप में देंगी।
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2. प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्य- आयोग ने प्राथमिक शिक्षा के दो मुख्य उद्देश्य निश्चित किए-
- जन शिक्षा का प्रसार।
- व्यावहारिक जीवन की शिक्षा।
3. प्राथमिक शिक्षा की पाठ्चचर्या- आयोग को दृष्टि से प्राथमिक शिक्षा जीवन के व्यावहारिक पक्ष से सम्बन्धित होनी चाहिए।
इस सम्बन्ध में उसने निम्नलिखित सुझाव दिए-
- प्राथमिक शिक्षा की पाठ्यचर्या प्रान्तों की अपनी परिस्थिति के अनुकूल होनी चाहिए, उसमें प्रान्तीय भाषा और प्रान्तीय व्यवहार मानदण्डों की शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए।
- प्रत्येक प्रान्त की प्राथमिक शिक्षा की पाठ्यचर्या में व्यावहारिक गणित, बहीखाता, सरल विज्ञान और आरोग्य विज्ञान के सामान्य ज्ञान को अनिवार्य रूप से रखा जाए।
- स्थानीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए कृषि, पशुपालन, कताई, बुनाई आदि में से किसी एक की सामान्य शिक्षा दी जाए।
4. प्राथमिक शिक्षा का माध्यम- आयोग ने सुझाव दिया कि प्राथमिक शिक्षा का माध्यम देशी भाषाएँ (प्रान्तीय भाषाएँ) होनी चाहिए। उसने यह भी सुझाव दिया कि सरकार को इन भाषाओं के विकास के लिए प्रयत्ल करना चाहिए।
5. प्राथमिक शिक्षा हेतु शिक्षकों का प्रशिक्षण- आयोग ने प्राथमिक शिक्षा में सुधार हेतु प्राथमिक विद्यालयों में प्रशिक्षित शिक्षकों को नियुिक्ति पर बल दिया और प्राथमिक शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालयों (नार्मल स्कूलों) की संख्या बढ़ाने का सुझाव दिया। आयोग की सम्मति में प्रत्येक विद्यालय निरीक्षक के क्षेत्र में कम से कम एक शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय अवश्य होना चाहिए।
6. प्राथमिक देशी पाठशालाओं को प्रोत्साहन- आयोग ने प्राथमिक शिक्षा में प्रसार के लिए देशी पाठशालाओं को प्रोत्साहन देने पर बल दिया। आयोग ने देखा कि देशी पाठशालाओं को भारतीय बड़े साहस और उत्साह से चला रहे थे और ये उस समय बड़ी लोकप्रिय थीं, बस इनका स्तर थोड़ा निम्न था।
आयोग ने इन पाठशालाओं के स्तर को उठाने और इन्हें प्रोत्साहित करने के लिए चार सुझाव दिए-
- सभी देशी पाठशालाओं को भवन निर्माण और अध्यापकों के वेतन भुगतान के लिए अनुदान दिया जाए।
- इनमें अध्ययनरत निर्धन छात्रों को छातवृत्तियाँ दी जाएँ।
- इनकी पाठ्यचर्या में कोई हस्तक्षेप न किया आए, परन्तु उपयोगी विषयों को सम्मिलित करने का सुझाव अवश्य दिया जाए।
- इन विद्यालयों के शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाए।
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माध्यमिक शिक्षा के सम्बन्ध में सुझाव
आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के सम्बन्ध में जो सुझाव दिए उन्हें हम निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध कर सकते हैं-
1. माध्यमिक शिक्षा का प्रशासन एवं वित्त- आयोग ने सुझाव दिया कि माध्यमिक शिक्षा का भार कुशल एवं धनी व्यक्तियों को सौंप दिया जाए। परन्तु जिन क्षेत्रों में व्यक्तिगत प्रयासों से माध्यमिक स्कूल न खोले जा सकें उनमें सरकार स्वयं माध्यमिक स्कूल खोले, परन्तु ऐसा स्कूल किसी भी जिले में एक से अधिक न खोला जाए। साथ ही यह सुझाव दिया कि व्यक्तिगत प्रयासों से चलाए जा रहे माध्यमिक स्कूलों को सहायता अनुदान देने में उदारता बरती जाए और किसी प्रकार का भेद-भाव न किया जाए।
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2. माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य- आयोग के प्रतिवेदन से माध्यमिक शिक्षा के दो ही उद्देश्य स्पष्ट होते हैं-
- सामान्य जीवन की तैयारी।
- उच्च शिक्षा में प्रवेश की तैयारी।
3. माध्यमिक शिक्षा की पाठ्यचर्या- आयोग ने माध्यमिक स्तर पर दो पाठ्यक्रम चलाने का सुझाव दिया-
अ-पाठ्यक्रम (A-Course) और ब-पाठ्यक्रम (B-Course)
(a) अ-पाठ्यक्रम- यह पाठ्यक्रम साहित्यिक पाठ्यक्रम होगा। यह पाठ्यक्रम उन बच्चों के लिए होगा जो उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहते हैं। इस पाठ्यक्रम में साहित्यिक विषयों को स्थान दिया जाएगा और अंग्रेजी का अध्ययन अनिवार्य होगा।
(b) ब-पाठ्यक्रम- यह पाठ्यक्रम जीवनोपयोगी पाठ्यक्रम होगा। यह पाठ्यक्रम उन बच्चों के लिए होगा जो माध्यमिक शिक्षा के बाद जीवन में प्रवेश करना चाहेंगे, अपनी रोजी-रोटी कमाना चाहेंगे या फिर उच्च व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त करना चाहेंगे। इस पाठ्यक्रम में व्यावसायिक विषयों को स्थान दिया जाएगा और अंग्रेजी का अध्ययन अनिवार्य होगा।
4. माध्यमिक शिक्षा का माध्यम- आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के माध्यम के सम्बन्ध में अपना कोई सुझाव नहीं दिया, इसका अर्थ है कि उसने वुड डिस्पेच में घोषित अंग्रेजी को माध्यम बनाए रखने का समर्थन किया।
5. माध्यमिक शिक्षकों का प्रशिक्षण- आयोग ने माध्यमिक शिक्षा का स्तर उठाने के लिए माध्यमिक विद्यालयों में प्रशिक्षित शिक्षक नियुक्त करने पर बल दिया और प्रशिक्षित शिक्षकों की पूर्ति के लिए शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय खोलने को सिफारिश की।
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उच्च शिक्षा के सम्बन्ध में सुझाव
आयोग ने उच्च शिक्षा के सम्बन्ध में जो सुझाव दिए उन्हें निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध किया जा सकता है-
1. उच्च शिक्षा का प्रशासन एवं वित्त- आयोग ने सुझाव दिया कि सरकार को उच्च शिक्षा का भार भी भारतीय जनता पर छोड़ देना चाहिए। राजकीय महाविद्यालय केवल उन्हीं स्थानों पर खोले जाएँ जहाँ की जनता इन्हें खोलने में असमर्थ हो और जहाँ इनकी माँग हो। आयोग ने गैरसरकारी महाविद्यालयों की वित्त व्यवस्था के सम्बन्ध में सुझाव दिया कि सरकार इन महाविद्यालयों को सभी मदों के लिए उदारतापूर्वक अनुदान दे। साथ ही यह सुझाव दिया कि यह अनुदान महाविद्यालयों में शिक्षकों और शिक्षार्थियों की संख्या और उनकी आवश्यकताओं के आधार पर दिया जाए।
2. उच्च शिक्षा के उद्देश्य आयोग की सम्मति में उच्च शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य होने चाहिए-
- उच्च ज्ञान की प्राप्ति ।
- नैतिक उत्थान, प्रकृति धर्म और मानव धर्म का ज्ञान।
- नागरिकों के कर्तव्यों का ज्ञान।
3. उच्च शिक्षा की पाठ्यचर्या- आयोग ने उच्च शिक्षा की पाठ्यचर्या को व्यापक बनाने का सुझाव दिया जिससे छात्र अपनी रुचि के विषयों का चुनाव कर सकें। उसने दूसरा सुझाव नैतिक शिक्षा को अनिवार्य करने का दिया और इसके लिए विशेष प्रकार की पुस्तकें तैयार करने का सुझाव दिया जिनमें प्रकृति धर्म और मानव धर्म के सिद्धान्तों का प्रतिपादन हो।
4. उच्च शिक्षा का माध्यम- उच्च शिक्षा के माध्यम के विषय में आयोग ने कोई सुझाव नहीं दिया, इसका अर्थ है कि उसने उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी बनाए रखना उचित समझा।
5. प्राध्यापकों की नियुक्ति- आयोग ने सुझाव दिया कि महाविद्यालयों में प्राध्यापकों की नियुक्ति करते समय यूरोपीय विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त भारतीयों को प्राथमिकता दी जाए।
स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में सुझाव
आयोग ने स्वीकार किया कि उस समय भारत में रवी शिक्षा की बहुत कमी थी। उसने भारत में स्त्री शिक्षा के विकास के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए-
- स्थानीय निकायों को बालिकाओं की प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था के लिए शिक्षा व्यय का एक निश्चित प्रतिशत निश्चित करना चाहिए और जहाँ आवश्यक हो, वहाँ बालिकाओं के लिए अलग से बालिका स्कूल खोलने चाहिए।
- सरकार को बालिका विद्यालयों को अनुदान देने के नियम सरल बनाने चाहिए और उन्हें उदारता से अनुदान देना चाहिए।
- बालिकाओं की शिक्षा निःशुल्क होनी चाहिए।
- निर्धन छात्राओं को छात्रवृत्तियाँ दी जानी चाहिए।
- बालिकाओं के लिए छात्रावासों का प्रबन्ध होना चाहिए।
- बालिका विद्यालयों में यथा सम्भव महिला शिक्षिकाओं की नियुक्ति होनी चाहिए। इसके लिए अलग से महिला शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय खोले जाएँ।
- बालिका विद्यालयों के निरीक्षण हेतु यथा सम्भव महिला निरीक्षिकाओं की नियुक्ति की जाए।
- शिक्षा की वार्षिक रिपोर्ट में बालिका शिक्षा की प्रगति अलग से दर्शाई जाए जिससे तत्काल तद्नुकूल कदम उठाए जा सकें।
मुसलमानों की शिक्षा के सम्बन्ध में सुझाव
आयोग ने अनुभव किया कि उस समय मुसलमान शिक्षा के क्षेत्र में बहुत पिछड़े थे। उसने उनकी शिक्षा के प्रसार के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए-
- मुसलमान बच्चों के लिए अलग से स्कूल खोले जाएँ।
- मुसलमान बच्चों के लिए स्कूल खोलने वालों को प्रोत्साहित किया जाए।
- मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों के स्कूलों में हिन्दुस्तानी के साथ फारसी को शिक्षा का माध्यम बनाया जाए।
- मुसलमान बच्चों को विशेष छात्रवृत्तियाँ दी जाएँ।
- शिक्षा की वार्षिक रिपोर्ट में मुसलमान बच्चों की शिक्षा की प्रगति को अलग से दर्शाया जाए जिससे तद्नुकूल तत्काल कदम उठाए जा सकें।
पिछड़ी एवं निम्न जातियों के बच्चों की शिक्षा के सम्बन्ध में सुझाव
आयोग ने पिछड़ो और निम्न जातियों के बच्चों की शिक्षा के विस्तार हेतु निम्नलिखित सुझाव दिए-
(1) स्थानीय निकायों द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों में बिना जाति भेद-भाव के सभी बच्चों को प्रवेश दिया जाए।
(2) पिछड़ो एवं निम्न जातियों के बच्चों के लिए सरकार अलग से विद्यालय खोले ।
(3) पिछड़ी एवं निम्न जातियों के बच्चों के स्कूलों में यथा सम्भव पिछड़ी एवं निम्न जाति के शिक्षक नियुक्त किए जाएँ।
(4) पिछड़ी एवं निम्न जातियों के बच्चों की शिक्षा निःशुल्क हो।
(5) पिछड़ी और निम्न जातियों के बच्चों को विशेष छात्रवृत्तियाँ दी जाएँ।
पिछड़े क्षेत्रों के बच्चों की शिक्षा के सम्बन्ध में सुझाव
उस समय भारत के अनेक क्षेत्र बहुत पिछड़े थे। कुछ क्षेत्रों के व्यक्ति तो एकदम आदि जीवन जी रहे थे। इन क्षेत्रों में अभी तक शिक्षा का प्रकाश नहीं पहुंचा था। इन क्षेत्रों के बच्चों की शिक्षा के सम्बन्ध में आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए-
- इन क्षेत्रों में सरकार स्वयं स्कूल खोले ।
- इन क्षेत्रों में शिक्षा को व्यवस्था करने वालों को प्रोत्साहित किया जाए।
- इन क्षेत्रों के स्कूलों में क्षेत्रीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा दी जाए।
- इन क्षेत्रों में सभी स्तरों की शिक्षा निःशुल्क हो।
- इन क्षेत्रों में छात्रों को विशेष छात्रवृत्तियाँ दी जाएँ।
धार्मिक शिक्षा के सम्बन्ध में सुझाव
धार्मिक शिक्षा के सम्बन्ध में आयोग ने दूहरी नीति अपनाई उसकी सम्मति में-
- सरकारी स्कूलों में किसी भी प्रकार की धार्मिक शिक्षा न दी जाए।
- गैरसरकारी स्कूलों में प्रबन्धकों की इच्छा से किसी भी प्रकार की धार्मिक शिक्षा दी जा सकती है।
- धार्मिक शिक्षा देने वाले विद्यालयों को अनुदान देते समय उनकी शैक्षिक उपलब्धियों को देखा जाए।
भारतीय शिक्षा में ईसाई मिशनरियों की भूमिका के सम्बन्ध में सुझाव
जैसा कि प्रारम्भ में ही कहा गया है ईसाई मिशनरी भारतीय शिक्षा में अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहते थे। वे चाहते थे कि भारतीयों की शिक्षा पर उनका नियन्त्रण हो और इसी आशा और विश्वास के साथ वे लाई रिपन से मिले थे। लॉर्ड रिपन ने आयोग को इस सम्बन्ध में अपना सुझाव देने का आदेश भी दिया था। परन्तु आयोग ने ईसाई मिशनरियों की आशा पर पानी फेर दिया।
इस सम्बन्ध में उसने निम्नलिखित सुझाव दिए-
- किसी भी स्थिति में भारतीयों की शिक्षा का भार ईसाई मिशनरियों पर न छोड़ा जाए।
- ईसाई मिशनरियों द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों और भारतीयों द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों में किसी प्रकार का भेदभाव न बरता जाए।
- इन सभी स्कूलों के लिए सहायता अनुदान की शर्ते समान हों।
- भारत में शिक्षा का प्रसार तभी सम्भव है जब भारतवासी इस कार्य के लिए आगे आएँ इसलिए यदि इन दोनों (ईसाई मिशनरियों और भारतीयों) में से किसी को प्रोत्साहित करना हो तो भारतीयों को किया जाए।
भारतीय शिक्षा आयोग का मूल्यांकन अथवा गुण-दोष विवेचन
किसी भी वस्तु, विचार अथवा क्रिया का मूल्यांकन कुछ आधारभूत मानदण्डों के आधार पर किया जाता है। शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है, विकास की प्रक्रिया है। अतः किसी भी शैक्षिक विचार अथवा क्रिया का मूल्यांकन समाज विशेष की परिस्थितियों, उसकी आकांक्षाओं और सम्भावनाओं के आधार पर ही किया जा सकता है। यहाँ हम भारतीय शिक्षा आयोग की सिफारिशों का मूल्यांकन भारत की तत्कालीन परिस्थितियों, उसकी आकांक्षाओं और सम्भावनाओं के आधार पर ही करेंगे और साथ ही यह भी देखेंगे कि उसकी सिफारिशों का भारतीय शिक्षा पर क्या प्रभाव पड़ा, आधुनिक भारतीय शिक्षा के विकास में उसका क्या योगदान रहा।
अंग्रेजों ने प्रथम बार भारतीय शिक्षा पर किसी आयोग का गठन किया था। इस आयोग की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इसके 20 सदस्यों में से 7 सदस्य भारतीय थे। सम्भवतः इन सात सदस्यों के प्रभाव से ही इस आयोग की सिफारिशें भारतीयों के अनुकूल थीं। पर जब हम उसकी सिफारिशों को उपर्युक्त कसौटी पर कसते हैं तो उसमें कुछ कमियाँ भी नजर आती हैं।
अतः यहाँ इस आयोग की सिफारिशों की अच्छाइयों (गुणों) और कमियों (दोषों) का वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत है।
भारतीय शिक्षा आयोग के गुण
(1) इस आयोग का सबसे बड़ा गुण यह है कि इसने वुड डिपेच में घोषित शिक्षा नीति 1854 के केवल उन्हीं तत्त्वों पर अपनी मुहर ठोकी जो भारतीयों के हित में थे।
(2) इस आयोग ने प्राथमिक शिक्षा का भार स्थानीय निकायों पर छोड़कर जन शिक्षा का मार्ग प्रशस्त किया।
(3) इस आयोग ने माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा का भार कुशल और धनी भारतीयों पर छोड़कर माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा के प्रसार का मार्ग प्रशस्त किया।
(4) इस आयोग ने व्यक्तिगत प्रयासों में भारतीयों के प्रयासों को अधिक प्रोत्साहन दिया। इसके परिणाम स्वरूप भारतीय इस क्षेत्र में आगे आए।
(5) इसी के साथ इसने भारतीय शिक्षा से ईसाई मिशनरियों के प्रभुत्व को समाप्त करने का सुझाव दिया। इससे भारतीय अपनी सभ्यता एवं संस्कृति की रक्षा करने में सफल हुए।
(6) इस आयोग ने सहायता अनुदान की शर्तें सरल और उदार बनाने की सिफारिश की। इससे विद्यालयों की स्थापना और उनके संचालन में बड़ा सहयोग मिला।
(7) इस आयोग ने पहली बार विभिन्न स्तरों की शिक्षा के उद्देश्य अलग-अलग निश्चित किए। इससे किसी भी स्तर की पाठ्यचर्या का निर्माण करने में सरलता हुई।
(8) इस आयोग ने भिन्न-भिन्न स्तरों की शिक्षा की पाठ्यचर्या को रूप-रेखा भी प्रस्तुत की। इसने माध्यमिक शिक्षा की पाठ्यचर्या को साहित्यिक और व्यावसायिक दो वर्गों में विभाजित कर एक बड़ा कार्य किया; शिक्षा को रोजगारपरक बनाया।
(9) इस आयोग ने प्राथमिक शिक्षा का माध्यम क्षेत्रीय भाषाओं को बनाकर जन शिक्षा का मार्ग प्रशस्त किया।
(10) इस आयोग ने स्त्री शिक्षा, मुसलमान बच्चों की शिक्षा, पिछड़ी जाति के बच्चों की शिक्षा और पिछड़े क्षेत्रों के बच्चों की शिक्षा के सम्बन्ध में ठोस सुझाव दिए।
(11) धर्म शिक्षा के सम्बन्ध में इसने जिस दोहरी नीति की सिफारिश की वह उस समय भी विवशता थी और आज भी विवशता है।
(12) इस आयोग ने प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए विद्यालय और महाविद्यालय खोलने की सिफारिश की जो आगे चलकर बहुत लाभकारी सिद्ध हुई।
भारतीय शिक्षा आयोग के दोष
(1) इस आयोग ने सरकार का शैक्षिक उत्तरदायित्व सीमित कर शिक्षा के क्षेत्र में भारी उथल-पुथल की।
(2) शिक्षा को स्थानीय निकायों और व्यक्तिगत हाथों में सौंपने से उसका स्तर गिरा, उसकी गुणवत्ता कम हुई।
(3) इस आयोग ने स्थानीय निकायों को शिक्षा के लिए अलग कोष बनाने का सुझाव तो दिया परन्तु वह कोष कैसे बनाया जाए और कैसे खर्च किया जाए, इस सम्बन्ध में कोई सुझाव नहीं दिए। परिणाम यह हुआ कि ये निकाय उतना कार्य नहीं कर सके जितना इन्हें करना चाहिए था।
(4) इस आयोग ने स्थानीय निकायों को प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था के लिए दिए जाने वाले सरकारी अनुदान की कोई न्यूनतम सीमा निश्चित नहीं की। इससे कार्य को गति नहीं दी जा सकी।
(5) इस आयोग ने माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा की संस्थाओं को अनुदान देने की शर्तों को सरल तो बनाया परन्तु उसमें परीक्षाफल जोड़ दिया। यह इसका बहुत बड़ा दोष था। इससे परीक्षा प्रधान शिक्षा को बढ़ावा मिला।
(6) इस आयोग ने उच्च शिक्षा की संस्थाओं में प्राध्यापकों की नियुक्ति में यूरोपीय विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों को वरीयता देने की सिफारिश की। परिणामतः उच्च वर्ग के व्यक्ति ही नियुक्त हुए।
(7) इस आयोग ने अनिवार्य एवं निःशुल्क सामान्य शिक्षा के लिए कोई सुझाव नहीं दिया। यह इसका एक अन्य बड़ा दोष था।
(8) आयोग ने मुसलमान बच्चों के लिए अलग स्कूल खोलने का सुझाव दिया। यह साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देना था।
(9) आयोग ने पिछड़ी और निम्न जातियों के बच्चों के लिए अलग से स्कूल खोलने और उनमें जहाँ तक सम्भव हो पिछड़ी और निम्न जाति के शिक्षक नियुक्त करने का सुझाव दिया, यह सुझाव वर्ग भेद को बढ़ाने का सुझाव ही कहा जाएगा।
(10) आयोग ने माध्यमिक स्तर पर दो वर्ग बनाने की बात तो कही, पर व्यावसायिक शिक्षा के सम्बन्ध में कोई सुझाव नहीं दिए। यह भी इसका एक दोष रहा।
भारतीय शिक्षा आयोग का भारतीय शिक्षा की नीति-रीति पर प्रभाव
(1) तत्कालीन सरकार ने इस आयोग के प्रायः सभी सुझावों को स्वीकार किया और उसके आधार पर कार्य करना शुरु किया।
(2) सरकार ने प्राथमिक शिक्षा का कार्यभार स्थानीय निकायों को सौंप दिया। इससे लाभ कम और हानि अधिक हुई।
(3) सरकार ने माध्यमिक और उच्च शिक्षा संस्थाओं का कार्यभार व्यक्तिगत हाथों में सौंप दिया। इससे लाभ यह हुआ कि देश में माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा का प्रसार तेजी से हुआ परन्तु हानि यह हुई कि उसके स्तर में गिरावट आई।
(4) सरकार ने सहायता अनुदान की शर्तों को सरल बनाया, इससे संस्थाओं को आर्थिक अनुदान प्राप्त करने में सरलता हुई, जगह-जगह संस्थाएँ खोली गई और उन्हें चलाया गया।
(5) इस आयोग की सिफारिश के आधार पर व्यक्तिगत प्रयासों में भारतीयों को प्रोत्साहित किया गया, इससे भारतीयों ने अपनी शिक्षा की व्यवस्था में रुचि ली, उसके प्रचार एवं प्रसार में भागीदार बने। देश में शैक्षिक जागरुकता उत्पन्न हुई।
(6) दूसरी तरफ भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में ईसाई मिशनरियों के प्रभुत्व को कम किया गया। इससे ईसाइयों के प्रति भारतीयों में जो विरोध उत्पन्न हो रहा था, वह शान्त हुआ।
(7) और इस आयोग की सिफारिशों के दूरगामी प्रभाव भी काफी सन्तोष जनक रहे।
- पहली बात तो यह है कि उसके सुझाव 1883 से 1904 तक, पूरे 20 वर्ष तक माने गए। इसके बाद 1904 में लॉर्ड कर्जन ने नई शिक्षा नीति की घोषणा की।
- दूसरी बात यह है कि प्राथमिक स्कूलों और उनमें पढ़ने वाले छात्रों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हुई। और चौंकाने वाला तथ्य यह है कि स्कूलों की संख्या की अपेक्षा छात्रों की संख्या अधिक बढ़ी। परन्तु ये दोनों वृद्धियाँ जनसंख्या वृद्धि की दर की तुलना में कोई विशेष उत्साहवर्द्धक नहीं थीं।
- माध्यमिक स्कूलों की संख्या और उनमें पढ़ने वाले छात्रों की संख्या में तो अपेक्षाकृत बहुत ही अधिक वृद्धि हुई। और चौंकाने वाला तथ्य यह है कि स्कूलों की संख्या की अपेक्षा छात्रों की संख्या अधिक बढ़ी। परन्तु ये दोनों वृद्धियाँ जनसंख्या वृद्धि की दर की तुलना में कोई विशेष उत्साहवर्द्धक नहीं थी।
- उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी प्रसार होना शुरु हुआ। 1880 में बाल गंगाधर तिलक ने पूना में 'फरग्यूसन कॉलिज' की स्थापना की और 1886 में आर्य समाज ने लाहौर में 'दयानन्द ऐंग्लो वैदिक कॉलिज' की स्थापना की। 1887 में कलकत्ता, बम्बई और मद्रास विश्वविद्यालयों में विज्ञान की उच्च शिक्षा की व्यवस्था की गई। 1898 में श्रीमती एनीबेसेंट ने बनारस में 'सेन्ट्रल हिन्दू कॉलिज' की स्थापना की। इस बीच उच्च शिक्षा की कई अनेक संस्थाओं की स्थापना भी की गई, परिणामस्वरूप इनकी संख्या में भी वृद्धि हुई। और इनमें पढ़ने वाले छात्रों की संख्या में भी वृद्धि हुई और चौंकाने वाला तथ्य यह है कि कॉलिजों की संख्या की अपेक्षा छात्रों की संख्या अधिक बढ़ी। परन्तु ये दोनों वृद्धियाँ जनसंख्या वृद्धि की दर की तुलना में कोई विशेष उत्साहवर्द्धक नहीं थीं।
शिक्षा की प्रगति-1882 से 1902
वर्ष |
प्राथमिक |
माध्यमिक |
उच्च |
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स्कूलों की संख्या |
छात्रों की संख्या |
स्कूलों की संख्या |
छात्रों की संख्या |
वि. वि. की संख्या |
कालिजों की संख्या |
छात्रों की संख्या |
|
1881-82 1901-02 |
82,916 93,604 |
20,61,541 30,76,671 |
3,916 5,124 |
2,14,077 5,99,129 |
4 5 |
68 179 |
5,399 23,009 |
निष्कर्ष
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इस आयोग ने सामान्यतः वुड डिस्पेच में घोषित शिक्षा नीति 1854 का ही समर्थन किया था। पर साथ ही कुछ सुझाव एकदम नए दिए थे; जैसे प्राथमिक शिक्षा का भार स्थानीय निकायों को सौंपना और माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा का भार कुशल और धनी व्यक्तियों और अच्छी निजी संस्थाओं को सौंपना। इन सुझावों का दूरगामी प्रभाव पड़ा। यदि निष्पक्ष दृष्टि से देखें तो इससे लाभ अधिक हुए और हानि अपेक्षाकृत कम हुई और जो हानियाँ हुई वह नीति के कारण नहीं, स्थानीय निकायों और व्यक्तिगत संस्थाओं के कारण हुई, उनकी लापरवाही के कारण हुईं।