अकबर की धार्मिक नीति का मध्यकालीन भारतीय इतिहास में विशेष महत्व है, क्योंकि उसकी आर्थिक नीति उसकी प्रशासनिक व्यवस्था का मुख्य केन्द्र थी। अकबर की धार्मिक नीति बाबर व हुमायूँ की नीतियों से पूर्णत: भिन्न थी। बाबर व हुमायूँ ने अपने काल में सल्तनकालीन शासकों की नीतियों का पालन किया। उसकी नीति हिन्दुओं पर अत्याचार व असहिष्णुता की नीति थी। अकबर ने पहले तो इसी नीति को अपनाया परन्तु बाद में उसके धार्मिक विचारों में काफी परिवर्तन हुआ।
अत: अकबर के धार्मिक विचारों के अनुरूप उसके शासन काल को चार भागों में बाँट सकते हैं-
1. 1556 ई. 1563 ई. तक- इस काल में अकबर पर वैरम खाँ का प्रभाव रहा। अतः उसने धर्मान्धता की नीति का पालन किया।
2. 1563 ई. से 1575 ई. तक- इस काल में अकबर के धार्मिक विचारों में परिवर्तन होने लगा।
3. 1575 ई. से 1562 ई. तक- इस काल में वह विभिन्न धर्मों के सम्पर्क में आया।
4. 1582 ई. से 1605 ई. तक- इस समय उसने पूर्ण सहिष्णुता की नीति अपनाई तथा दीन-ए-इलाही की स्थापना की।
अकबर द्वारा धर्म सहिष्णुता की नीति अपनाने के कारण
(1) राजपूतों का प्रभाव
अकबर ने विभिन्न राजपूतों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये तथा उन्हें ऊँचे-ऊँचे पदों पर भी नियुक्त किया। इस प्रकार वह निरन्तर राजपूतों के सम्पर्क में रहा तथा उसकी विचारधाराओं का भी उस पर प्रभाव पड़ा, जिससे उसमें धर्म सहिष्णुता की भावना का संचार हुआ।
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(2) शिक्षकों का प्रभाव
अकबर को शिया शिक्षक अब्दुल लतीफ और सुन्नी शिक्षक मुनीम खाँ ने शिक्षा प्रदान की थी। ये दोनों ही उदार प्रवृत्ति के थे। इन दोनों के प्रभाव में रहने के कारण उसके धार्मिक विचारों में परिवर्तन होना स्वाभाविक था।
(3) आनुवंशिक प्रभाव
अकबर के पिता हुमायूँ और दादा बाबर के विचारों में सल्तनतकालीन कट्टरता नहीं थी। हुमायूँ की पत्नी व अकबर की माँ हमीदा बानू बेगम उदार विचार वाली महिला थी। अत: अकबर को यह गुण पैतृक रूप से प्राप्त हुए।
(4) धार्मिक नेता बनने की आकांक्षा
अकबर राजनैतिक क्षेत्र के साथ-साथ धार्मिक क्षेत्र में भी सर्वोच्चता प्राप्त करना चाहता था, ताकि राजनीति में धार्मिक नेताओं में हस्तक्षेप न हो। इस सम्बन्ध में इतिहासकार लेनपूल ने लिखा है-" अकबर ने इस बात का अनुभव किया कि कट्टरपंथी मुसलमान किसी धर्म गुरु, धर्म ग्रन्थ या परम्परा का सहारा लेकर मार्ग में पहुँचाते हैं तब उसने हेनरी अष्टम के समान धर्म का अध्यक्ष बनने का निश्चय कर लिया।"
(5) भक्ति आन्दोलन
अकबर पर भक्ति आन्दोलन का भी प्रभाव पड़ा। इस आन्दोलन के कारण विभिन्न विद्वानों ने धर्म में व्याप्त कुरीतियों व आडम्बरों की आलोचना की। इन विभिन्न आन्दोलनों का प्रभाव उस पर पड़ा।
(6) धार्मिक चिन्तन
अकबर अत्यधिक धार्मिक चिन्तन करता था। बदाँयूनी व अबुल फजल दोनों ने ही लिखा है कि अकबर घण्टों अकेले बैठकर सांसारिक एवं धार्मिक विषयों पर सोचता एवं मनन करता रहता था। इतना चिन्तन करने से उसे धार्मिक मामलों का ज्ञान हो गया व वह धर्म सहिष्णु बन गया।
दीन-ए-इलाही की स्थापना
मार्च 1582 ई. में अकबर ने सभी धर्मों के आचायर्यों व राज्य के अन्य प्रमुख व्यक्तियों की सभा का आयोजन किया। जहाँ उसने दीन-ए-इलाही धर्म को स्थापना की। दीन का अर्थ 'धर्म' व इलाही का अर्थ 'ईश्वर' होता है। इसका अर्थ 'ईश्वर का धर्म' हुआ। इसमें प्रत्येक धर्म की अच्छी-अच्छी बातों को लिया गया था।
दीन-ए-इलाही धर्म की विशेषताएँ एवं सिद्धान्त निम्नलिखित थे-
- ईश्वर एक है और अकबर उसका पैगम्बर है।
- दीन-ए-इलाही के अनुयायी के लिये माँस भक्षण वर्जित था।
- दीन-ए-इलाही के मानने वाले सम्राट अकबर को साष्टांग करते थे।
- दीन-ए-इलाही के सदस्य अग्नि तथा सूर्य के उपासक थे।
- दीन-ए-इलाही के मानने वालों को अपनी वर्षगांठ के दिन प्रीतिभोज देना पड़ता था।
- इस धर्म के मानने वाले अपने जीवन काल में ही अपना मृत्यु-भोज कर सकते थे।
- इस धर्म के मानने के लिए रविवार का दिन पवित्र माना जाता था। उस दिन सम्राट नये सदस्यों की भर्ती करता था और उसको धार्मिक दीक्षा देता था।
- इस धर्म समर्थकों को कसाइयों, मछुओं तथा बहेलियों के साथ भोजन करने की अनुमति नहीं थी।
- इस धर्म के मानने वाले जब एक-दूसरे से मिलते थे, तो एक कहता था, "अल्लाह हो अकबर' तथा दूसरा बोलता था, "जल्लाह जलाल हूँ।"
- दाढ़ी रखना प्रतिबन्धित था।
- अनुयायियों को उनकी इच्छानुसार जलाया या दफनाया जाता था।
दीन-ए-इलाही की आलोचना
दीन-ए-इलाही के सम्बन्ध में विभिन्न बातें कहीं गई हैं। कुछ लोगों का कथन है कि दीन-ए-इलाही अकबर की मूर्खता का परिचायक है। बदायूँ के अनुसार- दीन-ए-इलाही इस्लाम धर्म का विरोधी धर्म था। उसने कहा ही है, "मुसलमानों के साथ अकबर ने अमानुषिक व्यवहार किया और ऐसे नियम घोषित किये जो कि, इस्लाम धर्म के विरुद्ध थे।" इस सम्बन्ध में सर वूलजले हेग ने भी कहा है-" अपने सलाहकारों की सहायता लेकर उसने एक धार्मिक सम्प्रदाय का प्रचार किया था क्योंकि उसके थोथे घमण्ड ने उसे ऐसा करने पर मजबूर किया था, किन्तु कुछ लोगों ने दीन-ए-इलाही को कोई नया धर्म नहीं माना।" लेनपूल ने कहा है- "यह धार्मिक विचारधारा में एक प्रयोग मात्र था। यह हिन्दू-मुसलमानों को एकसूत्र में बाँधने वाली राजनीतिक की आवश्यकता थी, इस धर्म द्वारा अकबर राष्ट्रीय एकता स्थापित करना चाहता था।"
दीन-ए-इलाही के परिणाम
(1) धार्मिक सहिष्णुता- धर्म के नाम पर हुए अत्याचारों का दमन हो गया व देश में हिन्दू मुस्लिम द्वेष की भावना जाती रही।
(2) हिन्दू-मुस्लिम एकता- इस धर्म के कारण हिन्दू-मुस्लिम परस्पर एक-दूसरे के सम्पर्क में आये और उनमें एक-दूसरे के प्रति एकता की भावना जागृत हुई।
(3) धार्मिक कुरीतियों का अन्त- सती प्रथा, बाल-विवाह, बहु विवाह आदि कुरीतियों का अन्त हो गया।
(4) धार्मिक सिद्धान्तों की व्याख्या तथा स्पष्टीकरण- इस धर्म के प्रचार से प्रजा अन्धविश्वास दूर हो गया। बहुत से धार्मिक सिद्धान्तों का स्पष्टीकरण हो गया और सर्वसाधारण भी प्रत्येक सिद्धान्त से परिचित हो गये।
(5) राष्ट्रीयता की उत्पत्ति- एक ही धर्म का प्रचार होने के कारण एक से रीति-रिवाज व्यवहार में आने लगे। इससे देश में राष्ट्रीयता की भावना विकसित हुई।
(6) विचारों की संकीर्णता का अन्त- छोटी-छोटी धार्मिक बातों को लेकर जो झगड़े होते थे, वे समाप्त हो गये, क्योंकि सभी धर्मों के सिद्धान्तों पर तर्कपूर्ण विचार किया जाता था।
दीन-ए-इलाही की असफलता के कारण
(1) राजनीतिक चाल- इस धर्म के चलाने में सार्वजनिक हित न होकर एक राजनैतिक चाल थी।
(2) सर्वव्यापी होने के अयोग्य- दावत, भोजन आदि को धार्मिक सिद्धान्तों का रूप देना भी अनुचित था।
(3) कट्टरपंथी व्यक्तियों का विरोध- कट्टर हिन्दू और मुसलमान इस धर्म के घोर विरोधी थे।
(4) अहंकार से युक्त- अहंकार की भावना व्याप्त होने के कारण अकबर ने साष्टांग प्रणाम (सिजदा) को भी धर्म का अंग बना लिया था।
(5) सदस्यों की संख्या- इस धर्म को मानने वाले बहुत कम व्यक्ति थे। केवल सम्राट के चापलूसों ने ही धर्म को माना।
निष्कर्ष (Conclusion)- इस प्रकार अकबर का उद्देश्य धार्मिक न होकर राजनैतिक व सांस्कृक्तिक था। अकबर के लिए यह आवश्यक था कि वह हिन्दू व मुसलमानों में पारस्परिक सौहार्द स्थापित करके एक राष्ट्रीय साम्राज्य की स्थापना करे। डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव ने लिखा है-" अकबर का श्रेष्ठ राजनीतिक उद्देश्य हिन्दू धर्म और इस्लाम को एकसूत्र में बाँधना था तथा अपने राज्य में दोनों सम्प्रदायों की सांस्कृक्तिक और राजनीतिक एकता स्थापित करना था। इस धर्म का प्रवर्तन राष्ट्रीय विचारधारा थी।"