अकबर की भू-राजस्व व्यवस्था
अकबर की भू-राजस्व व्यवस्था की पृष्ठभूमि अफगान शासक शेरशाह के द्वारा स्थापित की जा चुकी थी। शेरशाह इस मामले में अकबर का पथ-प्रदर्शक था।
राजा टोडरमल का नेतृत्व
अकबर के राज्य काल में राजा टोडरमल ने भूमि का जो पवन्य किया उसकी आज भी प्रशंसा की जाती है। इस व्यवस्था ने काया ही पलट कर रख दी। सन 1582 में राजा टोडरमल दीवान-ए-अशरफ नियुक्त किये गये थे। उस समय राजस्व की स्थिति खराब हालत में भी प्रतिवर्ष राजस्व का सही अनुमान नहीं लग पाता था। उसने भू-राजस्व प्रपाली में निम्नलिखित क्रान्तिकारी परिवर्तन किये-
(1) भूमि की पैमाइश- भूमि की पैमाइश कराने में टोडरमल से पहले रस्सी का उपयोग होता था जो मौसम के अनुकूल घट-बढ़ सकती थी। उसने इस प्रथा को समाप्त करके लोहे के छल्लों और बाँसों की जरीबें बनवाईं, उससे भूमि की पैमाइश कराई। जो भूमि कृषि योग्य थी इसका पता करके उसका विवरण रखा गया।
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(2) भूमि का विभाजन- भूमि को चार भागों में विभाजित किया गया-
(i) पौलिज- इस प्रकार की जमीन में प्रतिवर्ष नियमित रूप से कृषि की जाती थी और लगान वसूल किया जाता था यह प्रथम श्रेणी की भूमि थी।
(ii) पड़ती- इसको फसल उगाने के उपरान्त कुछ समय के लिए परती छोड़ दिया जाता था यह द्वितीय किस्म की जमीन थी। यह पौलज के समान उपजाऊ जमीन नहीं थी।
(iii) चाचर- यह बहुत कम उपज देती थी। इसको तीन या चार साल के लिए कुछ दिन फसल उठाने के उपरान्त छोड़ देते थे।
(iv) बंजर - यह सबसे नीची किस्म की जमीन थी। इसको पाँच अथवा इससे अधिक साल के लिए परती छोड़ दिया जाता था।
(3) औसत उपज का अनुमान- औसत उपज का अनुमान निकालने के लिए एक नवीन विधि अपनाई गई। सम्पूर्ण भूमि का नाम और वर्गीकरण करके उसकी वार्षिक उपज का मध्यमान निकाला गया। "पौलज, पड़ती तथा चाचर-तीनों प्रकार की भूमि के प्रति बीघा उपज का योग लगाकर और उनको तीन से भाग देकर औसत निकाला गया और उसी को प्रत्येक सूबे की औसत उपज निर्धारित कर दिया गया।" जब औसत उपज का मध्यमान निश्चित हो गया तब भू-राजस्व निर्धारित कर दिया। शेरशाह उपज का 1/4 भाग भू-राजस्व लेता था। टोडरमल ने 1/3 भाग निर्धारित किया।
(4) राजकोष में जमा करना- लगान को राजकोष में नकद के रूप में जमा करने पर बल दिया गया। उसने विगत दस सालों के भावों का औसत निकाला और उसी के आधार पर राज्य का भाव निर्धारित कर दिया। यह सही है कि लगान गल्ले के रूप में मान्य किया जाता था तथापि नकद भुगतान को प्रोत्साहित किया गया। जब सूखा पड़ जाता था तो लगान माफ कर दिया जाता था और किसानों को तकाबी दी जाती थी।
(5) राजस्व वसूली-विभिन्न व्यवस्थाएँ- इस काल में राजस्व वसूली की नीचे लिखी प्रणालियों का प्रचलन था-
(i) जब्ती- कृषक अपने खेत में जो गल्ला बोता था, उसकी किस्म के अनुसार एक निश्चित धनराशि सरकार के यहाँ जमा करनी होती थी। इस प्रणाली का प्रचलन बिहार, इलाहाबाद, मुल्तान, दिल्ली, आगरा अवध और गुजरात के कुछ हिस्सों में था।
(ii) मल्लावक्स- यह प्रणाली प्राचीन भारत में प्रचलित रही थी। पकी हुई फसल को काटकर उसे तीन हिस्सों में विभाजित कर देते थे। कभी-कभी तौल के आधार पर भी फसल विभाजित कर ली जाती थी। इस विधि का प्रचलन काबुल, काश्मीर आदि में था।
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(iii) नसक -इस प्रणाली के अन्तर्गत कृषक और सरकार के मध्य सीधा सम्बन्ध स्थापित किया गया था। जमींदार को बिचौलिये की भूमिका नहीं निभानी होती थी। कृषक द्वारा सरकार को सीधा लगान दिया जाता था। इसको रैयतवारी प्रथा कहते हैं।
(6) कृषक हितकारी नियम- उसने कृषकों के लिये नीचे लिखे नियम बनाये-
(i) वह नहीं चाहता था कि कर्मचारी कृषकों का शोषण करें इस निमित्त उसने दो प्रकार के पत्र तैयार कराये -'पट्टा' और 'कबूलियत'। इसमें धरती की नाम, किस्म आदि दर्ज रहते थे।
(ii) लगान वसूल करने वाले कर्मचारियों की चारित्रिक रिपोर्ट केन्द्रीय सरकार के पास जाती थी।
(iii) जब संकटकाल उपस्थित हो जाता था तो कृषकों को तकाबी दी जाती थी।
(iv) जो लोग भूमि प्रबन्ध में काम करते थे, उनके वेतन में वृद्धि कर दी गई ताकि वे कृषकों को तंग नहीं करें।
(v) किसानों से रुपया वसूली के बाद उन्हें रसीद दी जाती थी।
(vi) राजस्व कर्मचारियों को निर्देश दिये गये थे कि वे कृषकों को परेशान नहीं करें।
(vii) सैनिकों को आदेश दिये गये थे कि फसलों का हानि न पहुँचाएँ। यदि उनके आवागमन के कारण फसल को हानि पहुँचती थी तो सरकार की ओर से किसान को मुआवज़ा दिया जाता था।
(viii) किसानों को भूमि की उन्नति के लिए जरूरत पड़ने पर सरकार बीज आदि देती थी।
भूमि और राजस्व के लाभ एवं परिणाम
राजा टोडरमल की इस व्यवस्था से सरकार और कृषक दोनों को लाभ पहुँचा।
सरकार को लाभ
(1) राज्य की आय निश्चित हो गई। अब उसके घटने-बढ़ने का विशेष डर नहीं रहा।
(2) लगान सुविधापूर्वक वसूल किया जाने लगा।
(3) राजकोष में भी मालगुजारी जमा की जाने लगी।
(4) सरकारी कर्मचारियों पर नियन्त्रण रखा गया।
किसानों को लाभ
(1) कृषकों का जमीन पर अधिकार हो गया। उन्हें भूराजस्व के अलावा अन्य करों से मुक्ति प्राप्त की गई।
(2) कृषक अब खजाने में रुपया जमा कर सकते थे, नीचे के कर्मचारियों के भ्रष्टाचार और शोषण से उन्हें मुक्ति प्राप्त हो गई।
(3) भूमि का स्वामित्व मिल जाने से वे उपज बढ़ाने में रुचि लेने लगे, इससे समृद्धि हुई तथा सरकार का राजस्व और बढ़ गया।
(4) आपत्तिकालीन स्थिति में सरकार की ओर से तकाबी का प्रबन्ध हो जाने के कारण अब किसानों को प्राकृतिक प्रकोपों का भय नहीं रहा।
(5) लगान निश्चित हो गया। अतः उपज बढ़ाने का प्रयास कृषक करने लगा।
निष्कर्ष- अकबर की भू-राजस्व व्यवस्था से कृषक और सरकार दोनों ही लाभान्वित हुए। सरकार की निश्चित नीति कृषक जान गये और वे निश्चित समय पर अदा करने लगे और आवश्यक कर हटा दिये गये प्रजा खुश थी।
वी. स्मिथ लिखते हैं- "In short (revenue) system was an admirable one. The principles were sound and the practical instruction of officials all the could be desired."