मौलिक अधिकार का अर्थ एवं परिभाषा
भारतीय संविधान में सबसे बड़ी देन नागरिकों के मूल अधिकारों को पाना व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक शर्त है। संसार का कोई भी राष्ट्र उस समय तक उन्नति नहीं कर सकता जब तक उसके नागरिक सुखी तथा समृद्ध जीवन व्यतीत न करें। ऐसा केवल अधिकारों की रक्षा द्वारा ही सम्भव है। हमारे संविधान में प्रत्येक भारतवासी को धर्म, जाति, लिंग तथा जन्म-स्थान के भेदभाव बिना समानता के अधिकार प्रदान किये गये हैं।
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मौलिक अधिकार के बारे में डॉ. अम्बेडकर ने कहा था कि, "भारत में इन अधिकारों को विधान मण्डलों या सरकार की इच्छा पर छोड़ देना उचित नहीं था। अतः ये वे अधिकार हैं जिनके बिना जनता अपनी उन्नति नहीं कर सकती। "
मौलिक अधिकारों का आशय स्पष्ट करते हुए डॉ. पुखराज जैन ने लिखा है कि, "मौलिक अधिकार वे होते हैं जो व्यक्ति के लिए मौलिक तथा अपरिहार्य होने के कारण संविधान के द्वारा नागरिकों को प्रदान किये जाते हैं और व्यक्ति के इन अधिकारों में राज्य के द्वारा भी हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता।"
व्यक्ति के लिए मौलिक अधिकार नितान्त जरूरी हैं। इनकी कमी से व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर सकता। इन अधिकारों को मौलिक इसलिए कहा जाता है क्योंकि इन्हें देश की मौलिक विधि अर्थात् संविधान में स्थान दिया गया है।
पतंजलि शास्त्री ने मूल अधिकारों के सम्बन्ध में लिखा है, कि "मौलिक अधिकारों की यह मुख्य विशेषता है कि वे राज्य द्वारा पारित विधियों से ऊपर हैं।"
पायली के शब्दों में- "मौलिक अधिकार एक ही समय पर शासकीय शक्ति से व्यक्ति स्वातन्त्र्य की रक्षा करते हैं और शासकीय शक्ति द्वारा व्यक्ति की स्वतन्त्रता को सीमित करते हैं।"
इस प्रकार मौलिक अधिकार व्यक्ति तथा राज्य के बीच समन्वय स्थापित कर राष्ट्रीय एकता तथा शक्ति की वृद्धि करते हैं।
ए. एन. पालकीवाला के अनुसार- "मौलिक अधिकार राज्य के निरंकुश स्वरूप से साधारण नागरिकों की रक्षा करने वाला कवच है।''
इस प्रकार मौलिक अधिकार नागरिकों को कल्याण तथा न्याय और व्यवहार की सुरक्षा प्रदान करते हैं। ये राज्य के हस्तक्षेप से व्यक्ति की स्वतन्त्रता की रक्षा करते हैं।
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शिक्षा का मौलिक अधिकार तथा शिक्षा का अधिकार 2009
संविधान के अनुच्छेद 45 में कहा गया था कि संविधान लागू होने के दस वर्ष के अन्दर (1960 तक) प्राथमिक शिक्षा का पूर्ण रूप से सार्वभौमीकरण अथवा सर्वसुलभीकरण किया जाएगा, किन्तु ऐसा नहीं हो सका। 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति के भाग- 5 (एक संकल्प) में कहा गया कि यह भी सुनिश्चित किया जाएगा कि वर्ष 1990 तक लगभग 11 वर्ष की आयु वाले सभी बच्चे पाँच वर्ष की औपचारिक अथवा अनौपचारिक शिक्षा प्राप्त कर लें।
1992 की संशोधित शिक्षा नीति में यह लक्ष्य परिवर्तित कर दिया गया तथा कहा गया कि बच्चों को सन्तोषप्रद, गुणवत्ता युक्त, निःशुक्ल तथा अनिवार्य शिक्षा प्रदान की जाए। इस उद्देश्य को पूर्ति के लिए एक राष्ट्रीय मिशन आरम्भ किया जाएगा।
दुर्भाग्यवश उपर्युक्त कोई भी निर्धारित लक्ष्य प्राप्त नहीं किए जा सके। वर्ष 2002-03 में 6-14 वर्ष की आयु के लगभग 13 करोड़ बच्चे विद्यालयों के दूर थे। इन सब स्थिति के समझते हुए केन्द्र सरकार ने शिक्षा के मूलभूत अधिकार को समझते हुए वर्ष 2009 में शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 पारित किया। इस अधिकर के अन्तर्गत 6 से 14 वर्ष तक की आयु के बालकों को अनिवार्य तथा निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की गयी है।
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शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 की मुख्य विशेषताएँ
इसकी मुख्य विशेषताओं को हम निम्नलिखित के माध्यम से समझ सकते हैं।
बच्चों के लिए मुफ्त तथा अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
- भारत के 6 से 14 वर्ष आयु वर्ग के बीच आने वाले सभी बच्चों की मुफ्त तथा अनिवार्य शिक्षा।
- प्राथमिक शिक्षा खत्म होने से पहले किसी भी बच्चे को रोका नहीं जायेगा, निकाला नहीं जायेगा या बोर्ड परीक्षा पास करने की आवश्यकता नहीं होगी।
- ऐसा बच्चा जिसकी उम्र 6 साल से ऊपर है, जो किसी स्कूल में दाखिल नहीं है अथवा है भी तो अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी नहीं कर पाया है, तब उसे उसकी उम्र के लायक उचित शिक्षा में प्रवेश दिया जाएगा; बशर्ते कि सीधे तौर से दाखिला लेने वाले बच्चे के समकक्ष आने के लिए उसे प्रस्तावित समय सीमा के भीतर विशेष ट्रेनिंग दी जानी होगी, जो प्रस्तावित हो। प्राथमिक शिक्षा हेतु दाखिला लेने वाला बच्चा को 14 साल की उम्र के बाद भी प्राथमिक शिक्षा के पूरा होने तक मुफ्त शिक्षा प्रदान की जाएगी।
- प्रवेश के लिए उम्र का साक्ष्य प्राथमिक शिक्षा हेतु प्रवेश के लिए बच्चे की उम्र का निर्धारण उसके जन्म प्रमाणपत्र, मृत्यु तथा विवाह पंजीकरण कानून, 1856 या ऐसे ही अन्य कागजात के आधार पर किया जाएगा जो उसे जारी किया गया हो। उम्र प्रमाण नहीं होने की स्थिति में किसी भी बच्चे को दाखिला लेने से वंचित नहीं किया जा सकता।
- प्राथमिक शिक्षा पूरा करने वाले छात्र को एक प्रमाण पत्र दिया जायेगा।
- जम्मू-कश्मीर को छोड़कर समूचे देश में यह नियम लागू होगा।
- आर्थिक रूप से कमजोर समुदायों के लिए सभी निजी स्कूलों के कक्षा 1 में दाखिला लेने के लिए 25 फीसदी का आरक्षण का प्रावधान।
- शिक्षा की गुणवत्ता में अनिवार्य रूप से सुधार होगा।
- स्कूल शिक्षक को पाँच वर्षों के भीतर समुचित व्यावसायिक डिग्री प्राप्त होनी चाहिए, अन्यथा उनकी नौकरी चली जायेगी।
- स्कूल का बुनियादी ढाँचा (जहाँ यह एक समस्या है) 3 वर्षों के भीतर सुधारा जाए अन्यथा उसकी मान्यता रद्द कर दी जायेगी।
- वित्तीय बोझ राज्य सरकार तथा केन्द्र सरकार के बीच साझा किया जायेगा।
भारत के संविधान में शिक्षा के अधिकारों का वर्णन
भारत का संविधान वर्ष 1950 में क्रियान्वित हुआ। इसके अनुसार 1960 तक देश में चौदह वर्ष की आयु के बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था हो जानी चाहिए। थी किन्तु असफलता का विषय रहा। इतने वर्षों में भी आज तक इसे (अनिवार्य शिक्षा) पूर्ण मयादी हासिल नहीं हुई। जबकि राज्यों में प्रति वर्ष अनेक राजकीय / गैर राजकीय विद्यालय खोले और क्रमोन्नत किए जाते हैं। इसके साथ ही कई प्रकार की शैक्षिक प्रायोजनाएँ संचालित की जाती हैं। इसके कुछ कारण भी है-देश में निर्धनता, अभिभावकों का अशिक्षित होना, विद्यालयों में संसाधनों की कमी, जनसंख्या विस्फोट, बाल-विवाह, विद्यालयों का घर से दूर होना आदि।
अब जहाँ तक निःशुल्क शिक्षा की तो राजकीय विद्यालयों में तो निःशुल्क शिक्षा का प्रावधान है परन्तु गैर-राजकीय विद्यालय तो मनमानी शुल्क वसूल करते हैं। उन्होंने निःशुल्क शिक्षा को 'उच्च शुल्क' वाली बनाकर अपना विशेष स्थान बनाने का प्रयास किया है। इस दिशा में यदि शासन और प्रशासन कठोर कदम उठाए तभी 'अनिवार्य और निःशुल्क शिक्षा का सपना साकार हो सकता है।
इन सभी कारणों की वजह से शिक्षा को मूल अधिकार घोषित करते हुए अनुच्छेद 45 को अनुच्छेद 21 (ए) के रूप में परिवर्तित करना अब नया अनुच्छेद 45 इस प्रकार से है-
"राज्य का प्रयास होगा कि वह जन्म से लेकर छः वर्ष तक के बच्चों की प्रारम्भिक देखरेख और उनकी शिक्षा के उपाय करे। "
शिक्षा का अधिकार
संविधान के 86वें संशोधन में दिसम्बर 2002 में बने अधिनियम, 2002 के भाग III (मूलभूत अधिकार) में एक नई धारा 21 (ए) जोड़कर 6-14 आयु वर्ग के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा को मूलभूत अधिकार बनाने की बात करता है। संविधान की धारा 21 (ए) कहती है-": "कानून, संकल्प द्वारा, राज्य अपने अनुरूप छह से चौदह वर्ष तक आयु वर्ग के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगा।"
शिक्षा विषक कर्तव्य- संविधान के अनुच्छेद 51 (ख) भारत के प्रत्येक माता-पिता या संरक्षक द्वारा शिक्षा विषयक मूल कर्त्तव्य निभाने से सम्बन्धित हैं, इसके अनुसार, "प्रत्येक माता-पिता या संरक्षक अपनी सन्तान को या अपनी निगरानी में पल रहे छः वर्ष से लेकर 14 वर्ष तक के बच्चों को शिक्षा सम्बन्धी अवसर प्रदान करे।"
संविधान जहाँ नागरिकों को कुछ अधिकार प्रदान करता है। वहीं उनसे कुछ कर्त्तव्यों की अपेक्षा भी करता है, क्योंकि कर्त्तव्य राष्ट्र के लिए प्रकाश स्तम्भ हैं, जिनके प्रकाश में देश को आगे बढ़ाना और नई राह दिखाना है। जब हमारे सभी चौदह वर्ष तक के बच्चे शिक्षित होंगे। अतः माता-पिता / संरक्षकों का यह मूल कर्त्तव्य है कि वे छः से लेकर चौदह वर्ष तक के बच्चों को किसी न किसी प्रकार से शिक्षा ग्रहण करने हेतु सम्पूर्ण अवसर प्रदान करे साथ ही साथ शिक्षा ग्रहण करने में उनके सम्मुख आने वाली बाधाओं (अवरोधनों) का भी समाधान करें।
मातृभाषा की शिक्षा- संविधान के अनुच्छेद 350 (क) प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा सुविधाएँ उपलब्ध कराने से सम्बन्धित हैं। इसके अनुसार, "प्रत्येक राज्य और राज्य के भीतर प्रत्येक स्थानीय प्राधिकारी भाषायी अल्पसंख्यक वर्गों के बालकों की शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था करने का प्रयास करेगा और राष्ट्रपति किसी राज्य को ऐसे निर्देश दे सकेगा जो वह ऐसी सुविधाओं का उपबन्ध सुनिश्चित कराने के लिए आवश्यक या उचित समझता है।"
शिक्षा में सहभागिता- संविधान का अनुच्छेद 246 शासन व्यवस्था को सुचारु रूप से बनाए रखने के लिए सातवीं अनुसूची के अनुसार विषयों को तीन सूचियों में विभक्त करता है। प्रथम सूची. जिसे 'संघ सूची' भी कहते हैं, में वे 97 विषय हैं जिनकी व्यवस्था केन्द्रीय सरकार करती है, द्वितीय सूची जिसे 'राज्य सूची' भी कहते हैं, में वे 66 विषय हैं, जिनकी व्यवस्था राज्य सरकार करती है, और तृतीय सूची जिसे 'समवर्ती सूची' भी कहते हैं, में ये 47 विषय हैं जिनकी व्यवस्था केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकारें मिलकर करती हैं। चूँकि शिक्षा विशिष्ट और सामान्य प्रकार की होती हैं, अतः इसका उल्लेख तीनों सूचियों में निम्नलिखित है-
प्रथम सूची (क्रमांक 63)- " इस संविधान के प्रारम्भ पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय नामों से ज्ञात संस्थाएँ अनुच्छेद 371 (द) अनुसरण में स्थापित विश्वविद्यालय, संसद द्वारा, विधि द्वारा राष्ट्र महत्व की घोषित की अन्य संस्था।"
प्रथम सूची (क्रमांक 64)- " भारत सरकार द्वारा पूर्णतः या भागतः वित्त पोषित और संसद द्वारा, विधि द्वारा राष्ट्र महत्व की घोषित वैज्ञानिक या तकनीकी शिक्षा संस्थाएँ।"
प्रथम सूची (क्रमांक 65)- "संघ के अभिकरण और संस्थाएँ जैसे- वृत्तिक, व्यावसायिक या तकनीकी प्रशिक्षण के लिए है, जिसके अन्तर्गत पुलिस अधिकारियों का प्रशिक्षण है या विशेष अध्ययन या अनुसंधान की अभिवृद्धि के लिए है या अपराध के अन्वेषण का पता चलाने में वैज्ञानिक या तकनीकी सहायता के लिए है।"
प्रथम सूची (क्रमांक 66 )- " उच्चतर शिक्षा या अनुसन्धान संस्थाओं में तथा वैज्ञानिक और तकनीकी संस्थाओं में मानकों का समन्वय और अवधारणा।"
द्वितीय सूची (क्रमांक 12)- "राज्य द्वारा नियन्त्रित या वित्त पोषित संग्रहालय या वैसी ही अन्य संस्थाएँ संसद द्वारा बनाई गई, विधि द्वारा या उसके अधीन राष्ट्रीय महत्व के घोषित किए गये प्राचीन और ऐतिहासक संस्मारकों और अभिलेखों से मिले प्राचीन और ऐतिहासिक संस्मारक और अभिलेख ।"
तृतीय सूची (क्रमांक 25)- "सूची प्रथम की प्रविष्टि 63 64 65 और 66 के उपबन्धों के अधीन रहते हुए शिक्षा जिसके अन्तर्गत तकनीकी शिक्षा आयुर्विज्ञान शिक्षा और विश्वविद्यालय हैं, श्रमिकों का व्यावसायिक और तकनीकी प्रशिक्षण।"
स्वतन्त्रता के पश्चात् जब भारत का संविधान लागू हुआ तो वह विशिष्ट प्रकार की शिक्षा को छोड़कर शेष सामान्य शिक्षा को व्यवस्था का दायित्व राज्यों को भी सौंपा गया था तथा इसके साथ ही वह विवाद भी उठने लगा कि क्या शिक्षा जैसा महत्वपूर्ण विषय राज्यों के अधीन रहना चाहिए।
भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकार
वे अधिकार, जो मनुष्य के जीवन के लिए मौलिक तथा अपरिहार्य है, मौलिक अधिकार कहलाते हैं। उदाहरण के लिए स्वतन्त्रता का अधिकार, अभिव्यक्ति का अधिकार तथा समानता का अधिकार इत्यादि। यदि यह अधिकार व्यक्ति को उपलब्ध नहीं हो पाते तो उसके व्यक्तित्व का विकास नहीं हो पाता और व्यक्ति वह नहीं बन पाता जिसके योग्य वह है। यह अधिकार इसलिए भी मौलिक कहलाते हैं, क्योंकि इनको देश के संविधान में स्थान दिया गया है।
यदि देश में सामान्य स्थितियाँ हैं तो इन अधिकारों को नियन्त्रित नहीं किया जा सकता तथा इनके ऊपर प्रतिबन्ध नहीं लगाए जा सकते। व्यवस्थापिका कार्यपालिका इनका अतिक्रमण नहीं कर सकते। देश की न्यायपालिका के द्वारा इनका संरक्षण व इनका क्रियान्वयन होता है। राष्ट्रीय आन्दोलन के समय से ही भारतवासी स्वतन्त्र भारत के संविधान में मौलिक अधिकारों का उल्लेख चाहते थे। मौलिक अधिकारों के सम्बन्ध में संविधान के निर्माताओं के सामने खास समस्या अधिकारों के चयन की थी। अन्ततोगत्वा उन्होंने अधिकारों को मौलिक अधिकार घोषित किया।
1. समानता का अधिकार
कानून की दृष्टि में सब नागरिक समान हैं। धर्म, जाति, लिंग, रक्त आदि के आधार पर भेदभाव नहीं होगा। सरकारी नौकरी प्राप्त करने के लिए समान अधिकार दिये गये हैं। छुआ-छूत को कलंक मानकर इसे संविधान द्वारा अपराध को संज्ञा दी गई। सभी नागरिकों को सार्वजनिक स्थानों के उपयोग करने का पूरा और समान अधिकार है। सरकार की और से किसी प्रकार की उपाधि सर रायबहादुर, नाइट की नहीं दी जायेगी तथा पुरानी अंग्रेजों द्वारा दी गई उपाधियों का अन्त कर दिया गया है। शिक्षा और सेना सम्बन्धी उपाधियाँ वितरित की जाती हैं।
2. स्वतन्त्रता का अधिकार
प्रजातन्त्र शासन की आधारशिला स्वतन्त्रता का अधिकार है। भारतीय जनता को स्वतन्त्रता का अधिकार प्राप्त है। संविधान के अनुसार नागरिकों को भाव व्यक्त करने की आजादी है। वे संस्था या सभा का संगठन करके विचारों का विनिमय कर सकते। है। इस सम्बन्ध में राज्य यह नियन्त्रण रखेगा कि वे सरकार विरोधी अर्थात् देशद्रोही के रूप में विचार प्रकट न करें। नागरिकों को पूरे देश में भ्रमण करने की आजादी है। संकटकाल में भ्रमण पर नियन्त्रण लगाया जा सकता है। नागरिकों को इच्छानुसार व्यापार व्यवसाय करने की स्वतन्त्रता है। लेकिन काला बाजारी पर नियन्त्रण राज्य रखता है। संविधान के 44 वें संशोधन के अनुसार धन संग्रह करने पर नियन्त्रण लगा दिया गया है।
3. शोषण के विरुद्ध अधिकार
किसी भी व्यक्ति से बलात् श्रम या बेगार नहीं ली जा सकती। 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को खदानों, कारखानों में कार्य करने की आज्ञा नहीं है। यह श्रम का शोषण होता है। स्त्रियों का क्रय-विक्रय करना घोर सामाजिक अपराध है। इन शोषणों से राज्य नागरिकों की रक्षा करेगा।
4. धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार
संविधान में प्रत्येक व्यक्ति को धर्म के विषय में छूट दी गई है। प्रत्येक नागरिक स्वयं की इच्छानुसार धर्म मान सकता है, प्रचार-प्रसार कर सकता है, लेकिन किसी पर दबाव नहीं डाल सकता है। राज्य की ओर से कोई धर्म नहीं है। सरकार किसी भी धर्म के विषय में पक्षपात नहीं करेगी।
5. संस्कृति तथा शिक्षा सम्बन्धी अधिकार
संविधान की धारा 29, 30 में संस्कृति और शिक्षा के अधिकारों का वर्णन है। भारत एक विशाल देश है, इसमें विभिन्न भाषा-भाषी लोग निवास करते हैं। इस देश में विभिन्न संस्कृति के लोग निवास करते हैं। इसके अन्तर्गत भाषा संस्कृति तथा लिपि संरक्षण का अधिकार प्राप्त हुआ है। प्रत्येक व्यक्ति को सरकारी या सरकार द्वारा अनुदान प्राप्त संख्या में प्रवेश का अधिकार है। अल्पसंख्यक वर्ग के लोगों को राज्य की और से विद्यालय स्थापित करने में सहायता दी जायेगी। अब पिछड़ी जाति के लोगों को भी अपने संस्कृति और शिक्षा में सरकार की ओर से प्रोत्साहन दिया जाता है।
6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार
यदि इन अधिकारों पर कुठाराघात होता है तो प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार है कि अपने मौलिक अधिकारों की सुरक्षा की समुचित माँग सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कर सकता है। संसद विधि द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को अधिकार दे सकती है कि उससे क्षेत्र में आदेश जारी करने का अधिकार है। सेना में अनुशासन बनाये रखने के लिए संसद इन अधिकारों पर बंदिश लगा सकती है।
7. संविधान का पालन, राष्ट्रीय ध्वज तथा राष्ट्रगान का सम्मान करना
राज्य सर्वोच्च कानून होता है जिसके अनुसार राज्य का प्रबन्ध चलाया जाता है। भारत के संविधान में व्यक्ति और राज्य के सम्बन्ध में निश्चित किये गये हैं। प्रत्येक नागरिक का यह पुनीत कर्त्तव्य है कि वह संविधान का आदर करे। इसी प्रकार हमारा राष्ट्रीय ध्वज तथा राष्ट्रगान है। ये हमारे राष्ट्र की अमूल्य निधि है। प्रत्येक भारतीय का यह कर्तव्य है कि वह इनका सम्मान करे, परन्तु प्रायः यह देखा गया है कि भारत के अनेक लोग इसका सम्मान नहीं करते हैं। वे यह नहीं जानते हैं कि इन चिह्नों को प्राप्त करने के लिए कितने भारतीयों ने अपने तन-मन-धन का बलिदान दिया है। ये हमारी आजादी के चिह्न हैं तथा इनका आदर करना प्रत्येक भारतीय नागरिक का कर्त्तव्य है।
मौलिक अधिकारों का मूल्यांकन या सीमाएँ
भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की जाती है-
1. अधिकारों पर पर्याप्त प्रतिबन्ध
मौलिक अधिकारों को लेकर एक महत्वपूर्ण बात यह है कि ये असीमित नहीं हैं, सब पर कुछ प्रतिबन्ध लगे हुए हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि संविधान ने ये अधिकार देकर भी छीन लिए हैं। जैसे- विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता। इस पर यह सीमा लागू है कि सार्वजनिक शान्ति की रक्षा या मित्र देश की मित्रता की रक्षा के लिए इस पर रोक लगायी जा सकती है।
इस प्रकार बोलने की स्वतन्त्रता पर भी यह सीमा है कि उसके द्वारा किसी न्यायालय की मानहानि करने की स्वतन्त्रता नहीं है। धार्मिक स्वतन्त्रता के बारे में सरकार को यह अधिकार दिया गया है कि किसी सामाजिक या कल्याणकारी सुधार के लिए हिन्दू धर्म की कोई भी धार्मिक मान्यता रास्ते में आने पर उस पर कानून बनाया जा सकता है।
2. आपातकाल में मौलिक अधिकारों का स्थान
आपातकाल में नागरिकों के मौलिक अधिकारों को प्रतिबन्धित किये जाने की व्यवस्था है। कामथ ने इस सम्बन्ध में कहा था- "इस व्यवस्था द्वारा हम तानाशाही राज्य की ओर पुलिस राज्य की स्थापना कर रहे हैं।"
इस आलोचना के उत्तर में हम प्रो. एम. जी. गुप्ता के विचारों को व्यक्त कर सकते हैं-"यदि राज्य ही नहीं रहेगा तो व्यक्ति को अधिकार कौन प्रदान करेगा।"
3. मौलिक अधिकारों की सूची पूर्ण नहीं है
मौलिक अधिकारों की आलोचना इस आधार पर करे जाती है क्योंकि इसमें काम का अधिकार कुछ विशेष परिस्थितियों में राज्य की सहायता प्राप्त करने के अधिकार ऐसे हैं जिन्हें मौलिक अधिकारों में सम्मिलित नहीं किया गया है। इनके बिना मौलिक अधिकारों की सूची अधूरी है।
इस आलोचना के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि देश में साधनों के अभाव के कारण उन्हें नीति निदेशक तत्वों में सम्मिलित किया गया है।