भारत में महिला शिक्षा की प्रमुख समस्या एवं समाधान

भारत में स्त्री / महिला-शिक्षा

स्वतन्त्र भारत में स्त्री / महिला-शिक्षा की स्थित में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए। अब स्त्रियाँ अपने अधिकारों के प्रति विशेष सजग हो गई है। समाज के दृष्टिकोण में भी पर्याप्त परिवर्तन आ गया है। स्त्रियाँ जिन बन्धनों से बंधी थी वे अब ढीले होते जा रहे हैं। स्त्रियाँ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का परिचय दे रही है। स्वतन्त्रता के पश्चात् स्त्री-शिक्षा के विकास की तीव्रता का ज्ञान हमें निम्नलिखित तालिका से स्पष्ट हो जायेगा-

बालिका शिक्षा का विस्तार                                                                                       नामांकन लाखों में 

वर्ष

कक्षा 1-5 तक नामांकन

कक्षा 6-8 तक नामांकन

कक्षा 9-12 तक नामांकन

1950-51

53.8

53.8

1.9

1965-66

182.9

28.5

12.0

1968-69

201.8

33.4

17.0

1973-74

संभावित

244.0

45.4

23.4

 

बालिकाओं की व्यावसायिक शिक्षा

क्रम संख्या

शिक्षा के स्वरुप

बालिकाओं की संख्या

1963-64

1964-65

1.

शिक्षिका-प्रशिक्षण

70,941

74,743

2.

व्यवसायिक व तकनीकी शिक्षा

1,68,778

1,85,300

3.

कॉलेज शिक्षा

1460

1,520

4.

विद्द्यालय-शिक्षा

6,64,017

9,09,703

5.

विशिष्ट शिक्षा

4,396

5,154

योग

9,09,592

11,76,420

राष्ट्रीय महिला-शिक्षा-समिति, 1958- स्त्री-शिक्षा के सम्बन्ध में सुझाव देने के लिए केन्द्रीय सरकार ने श्रीमती दुर्गाबाई देशमुख की अध्यक्षता में (मई 1958) 'राष्ट्रीय महिला शिक्षा समिति' की नियुक्ति की। समिति ने जनवरी 1959 में अपनी रिपोर्ट सरकार के सम्मुख प्रस्तुत की। 

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अतः रिपोर्ट के प्रमुख सुझाव निम्नलिखित है-

  • केन्द्र सरकार को देश की प्रमुख समस्याओं में स्त्री-शिक्षा को प्रमुख स्थान देना चाहिए। 
  • पुरुषों और स्त्रियों की शिक्षा में जो पर्याप्त विषमता दिखाई देती है, उसे यथा-सम्भव शीघ्र समाप्त किया जाए।
  • केन्द्रीय सरकार को स्त्री-शिक्षा का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेना चाहिए। स्त्री-शिक्षा के विकास के लिए एक योजना का भी निर्माण किया जाए।
  • समस्त राज्यों के लिए केन्द्र सरकार को स्त्री-शिक्षा के विस्तार के लिए नीति का निर्धारण करना चाहिए।
  • केन्द्रीय शिक्षा-मन्त्रालय में पृधक से एक स्त्री-शिक्षा विभाग की स्थापना करनी चाहिए।
  • गाँवों में स्त्री-शिक्षा के प्रसार के लिए विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।

कोठारी कमीशन व स्त्री-शिक्षा- कोठारी कमीशन ने स्त्री-शिक्षा के विस्तार के लिए निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किए हैं -

  • संविधान द्वारा प्रतिपादित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए बालिकाओं में अनिवार्य शिक्षा का प्रसार करने के लिए आवश्यक प्रयास करने चाहिए।
  • सह-शिक्षा के लिए जनमत तैयार किया जाए।
  • बालिकाओं को निःशुल्क पुस्तकें, लेखन-सामग्री व वस्त्र देकर, शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए।
  • माध्यमिक स्तर पर बालिकाओं के लिए पृथक् विद्यालयों की स्थापना की जाए।
  • बालिकाओं को छात्रावास व यातायात के साधनों की यथासम्भव सुविधाएँ प्रदान की जाएँ।
  • उच्च-शिक्षा प्राप्त करने को प्रोत्साहित करने के लिए मितव्ययी छात्रावासों की व्यवस्था की जाए।
  • बालिकाओं के लिए पूर्व-स्नातक स्तर पर पृथक् कॉलेजों का निर्माण किया जाए।
  • गृह-विज्ञान शिक्षा तथा सामाजिक कार्य के पाठ्यक्रमों का विकास करके, बालिकाओं के लिए और अधिक आकर्षक बनाया जाए।
  • अविवाहित स्त्रियों के लिए पूर्णकालीन रोजगारों की व्यवस्था की जाए।

महिला शिक्षा की समस्याएँ व उनके समाधान

यह सत्य है कि स्त्री / महिला-शिक्षा का इस युग में पूर्व की अपेक्षा पर्याप्त विकास हुआ है। परन्तु इस पर भी स्थिति को सन्तोषजनक नहीं कहा जा सकता। 1996 के दैनिक हिन्दुस्तान में वर्तमान स्त्री-शिक्षा पर अच्छा प्रकाश डाला गया है-"शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय लड़‌कियाँ लड़कों से बहुत पीछे हैं। नवीनतम आँकड़ों के अनुसार लड़कियाँ 14 प्रतिशत और लड़के 41 प्रतिशत साक्षर हैं। प्राथमिक स्तर तक लड़कियाँ 40 प्रतिशत और लड़के 86 प्रतिशत मिडिल स्तर तक लड़कियाँ 10 प्रतिशत और लड़के 36 प्रतिशत और माध्यमिक स्तर तक लड़कियाँ 5 प्रतिशत और लड़के 10 प्रतिशत साक्षर हैं। लड़कियों में शिक्षा का प्रसार वर्तमान गति से होता रहा तो शिक्षा के क्षेत्र में लड़कियों को लड़कों के समकक्ष पहुँचने में करीब एक शताब्दी लग जायेगी।" 

स्त्री शिक्षा के विकास में विभिन्न समस्याएँ हैं। प्रमुख समस्याओं का हम संक्षेप में उल्लेख कर समाधान के लिए सुझाव भी देंगे-

(1) जनसाधारण का रूढ़िवादी होना

हमारे देश की अधिकांश जनता विभिन्न रूढ़ियों से ग्रस्त है। स्त्रियों का घर से बाहर निकलना पाप माना जाता है। जनसाधारण स्त्रियों को घर की दासी के रूप में देखता है। स्त्रियों को पढ़ाना-लिखाना व्यर्थ माना जाता है। कुछ लोगों के अनुसार बालिकाओं को विद्यालय पढ़ने भेजना उन्हें चरित्रहीन बनाना है। इस प्रकार की रूढ़ियाँ स्त्री-शिक्षा के विकास में विशेष बाधा का कार्य करती हैं।

समस्या का समाधान

रूढ़िवादिता को समाप्त करने के लिए निरक्षर स्त्री-पुरुषों में प्रौढ़ शिक्षा का यथासम्भव प्रसार किया जाए। स्त्री-शिक्षा के प्रति जनसाधारण के दृष्टिकोण में भी परिवर्तन करने की आवश्यकता है। इसके लिए आवश्यक है कि देशव्यापी आन्दोलन चलाया जाए। ग्रामवासियों को बताया जाए कि स्त्रियाँ केवल घर की दासी मात्र नहीं हैं, उन्हें भी शिक्षा प्राप्त करने का पुरुषों के समान पूर्ण अधिकार है।

(2) सामाजिक कुप्रथाएँ

हमारे देश के अधिकांश हिन्दू और मुसलमान आज भी अनेक सामाजिक कुप्रथाओं से जकड़े हुए हैं। बाल विवाह और पर्दा प्रथा दोनों में ही प्रचलित है। अधिकांश माता-पिता 13 या 14 वर्ष की कन्याओं का विवाह कर देते हैं जिससे उनकी पढ़ाई-लिखाई समाप्त हो जाती है। पर्दा-प्रथा के कारण भी बालिकाएँ विद्यालयों में प्रवेश नहीं ले पार्टी। पर्दा प्रथा नगरों में तो पूर्णतया समाप्त हो गयी है परन्तु गाँवों में जैसी की तैसी बनी हुई है।

समस्या का समाधान

उपर्युक्त सामाजिक कुप्रथाओं को समाप्त करने के लिए विभिन्न साधनों का प्रयोग संगठित करके करना होगा। इसके लिए गोष्ठियों तथा चलचित्र जैसे साधनों को अपनाया जा सकता है। समय-समय पर बाल विवाह और पर्दा प्रथा के विरुद्ध व्याख्यानों का भी आयोजन किया जा सकता है।

(3) निरक्षरता

हमारे देश की अधिकांश जनता निरक्षर है। एक निरक्षर व्यक्ति के लिए शिक्षा का कोई महत्व नहीं है। जब तक शिक्षा के प्रति यह दृष्टिकोण बना रहेगा तब तक स्त्री-शिक्षा को तो क्या सामान्य व्यक्तियों के लिए भी शिक्षा-प्रसार की कल्पना करना व्यर्थ है।

समस्या का समाधान

शिक्षा के प्रति जनसाधारण के उपर्युक्त दृष्टिकोण को बदलने के लिए समाज-शिक्षा के व्यापक प्रचार की आवश्यकता है। सामाज शिक्षा के द्वारा ही भारत में फैली व्यापक निरक्षरता को समाप्त किया जा सकता है।

(4) शिक्षा के प्रति अनुचित धारणा 

अधिकांश व्यक्ति शिक्षा को उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं। उनके विचार में लड़कों को शिक्षा केवल उच्च पद प्रदान करने के लिए ही प्रदान की जानी चाहिए तथा बालिकाओं को शिक्षा केवल इस कारण ही प्रदान की जाए जिससे कि उन्हें योग्य वर मिल सके। इस विचारधारा के आधार पर अभिभावक अपनी कन्याओं को उस समय तक ही विद्यालय भेजते हैं जब तक उनका विवाह तय नहीं हो जाता। विवाह तय हो जाने पर वे बालिका को विद्यालय से बुला लेते हैं। शिक्षा के प्रति इस प्रकार का अनुचित दृष्टिकोण स्त्री-शिक्षा के विकास में एक बाधा का कार्य करता है।

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समस्या का समाधान

उपर्युक्त समस्या का समाधान करने के लिए जनसाधारण को शिक्षा है मानसिक, सांस्कृतिक और नैतिक महत्व को समझाने का प्रयास करना पड़ेगा। उन्हें बताना होगा कि शिक्षा का केवल आर्थिक महत्व नहीं है वरन् शिक्षा के द्वारा व्यक्ति सभ्य और सुसंस्कृत बनता है।

(5) शिक्षा में अपव्यय व अवरोधन

स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में अपव्यय व अवरोधन बालकों से कहीं अधिक है। पर्दा-प्रथा, बाल-विवाह तथा बालिकाओं के प्रति संकुचित दृष्टिकोण के कारण बालिकाओं में अपव्यय व अवरोधन प्रचुर मात्रा में होता है। कुछ बालिकाएँ केवल प्राथमिक स्तर तक ही शिक्षा प्राप्त कर पाती हैं। विवाह के पश्चात् तो अधिकांश बालिकाओं का पढ़ना-लिखना समाप्त हो जाता है।

(6) दोषपूर्ण पाठ्यक्रम 

स्त्रियों का पाठ्यक्रम अत्यन्त दोषपूर्ण है। बालकों और बालिकाओं के पाठ्यक्रम में बहुत कम हो अन्तर होता है। पाठ्यक्रम-ज्ञान प्रधान, पुस्तक-प्रधान व अव्यावहारिक है और इसमें समाज की बदलती परिस्थितियों से अनुकूलन करने की चेष्टा नहीं की गई। इसके द्वारा चालिकाओं को गृहस्थ जीवन की कोई भी शिक्षा नहीं मिलती।

समस्या का समाधान 

यह आवश्यक है कि बालिकाओं के पाठ्यक्रम को उनकी मूल आवश्यकताओं और रुचि के अनुकूल बनाया जाए। प्राथमिक स्तर पर सिलाई, कढ़ाई, बुनाई और किसी स्थानीय शिल्प को पाठ्यक्रम में स्थान दिया जाए। माध्यमिक स्तर पर सामान्य शिक्षा के साथ-साथ ऐसे विषय भी होने चाहिए जो बालिकाओं को सुगृहिणी के रूप में प्रशिक्षित कर सकें। अतः उनके पाठ्यक्रम में संगीत, चित्रकला, हस्तशिल्प, गृह-विज्ञान, सिलाई-कढ़ाई, भोजनशास्त्र, शिशु संरक्षण आदि विषयों को स्थान दिया जाए।

(7) बालिकाओं के लिए पृथक् विद्यालयों का अभाव

प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च शिक्षा तक, बालिकाओं के लिए अलग से विद्यालयों का अभाव है। अधिकांश भारतीय सह-शिक्षा के विरोधी होते हैं अतः वे बालिका विद्यालयों के अभाव के कारण अपनी कन्याओं को शिक्षा नहीं दे पाते। प्राथमिक स्तर तक तो सह-शिक्षा चल भी सकती है परन्तु माध्यमिक स्तर पर हमारे देश में इसका चलना अत्यन्त कठिन है। मुख्यतया ग्रामीण क्षेत्रों में।

समस्या का समाधान

सरकार का कर्त्तव्य है कि वह अधिक-से-अधिक संख्या में बालिकाओं के लिए पृथक् से विद्यालयों की स्थापना करे। ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष रूप से अधिक-से-अधिक बालिका विद्यालयों की स्थापना की जाए।

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