अपव्यय का अर्थ एवं परिभाषा
प्राथमिक शिक्षा के मार्ग में प्रमुख बाधा अपव्यय की है। देश के अधिकतर प्राथमिक विद्यालय अपव्यय की समस्या से ग्रस्त हैं। यदि कोई छात्र स्कूल में प्रवेश करने के 2 या 3 वर्ष बाद स्कूल छोड़ देता है तो उसका कोर्स अधूरा रह जाता है और इस प्रकार उस पर समय और धन का अपव्यय होता है जिसे शिक्षा में 'अपव्यय' के नाम से जाना जाता है।
हटाँग समिति के अनुसार- "अपव्यय से हमारा तात्पर्य बालकों को उनकी शिक्षा पूर्ण होने से पूर्व ही किसी कक्षा से हटा लेने से है।"
शिक्षा के अपव्यय के कारण
शिक्षा के अपव्यय के निम्नांकित कारण हैं-
(1) अभिभावकों का निरक्षर होना
जहाँ अधिकांश प्रौढ़ निरक्षर होते हैं, वहाँ प्राथमिक शिक्षा में अपव्यय होता है। इसका प्रमुख कारण अभिभावक का निरक्षर होना है। परिणामस्वरूप वे शिक्षा और ज्ञान के महत्त्व को नहीं समझते, उदासीन होकर वे अपने बालकों को किसी विद्यालय में प्रवेश भी कराते हैं तो तनिक-सी आवश्यकता होने पर वे बिना सोचे-समझे चाहे जब अपने बालकों को विद्यालय से हटा लेते हैं। वे बालकों को बीच में से ही स्कूल से हटाकर खेती के काम में लगा देते हैं। निरक्षर अभिभावक शिक्षा की अपेक्षा, काम और धन को अधिक महत्त्व देते हैं।
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(2) अनुचित पाठ्यक्रम
प्राथमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम अत्यन्त संकीर्ण, परम्परागत तथा एकमार्गीय है। बिना सोचे-समझे उसमें विषयों को भर दिया गया है। दूसरे, स्थानीय आवश्यकताओं की अपेक्षा करके, नगर-ग्राम के बालकों-बालिकाओं के लिए एक-सा पाठ्यक्रम रखा गया। तीसरे, पाठ्यक्रम के अन्दर रोचकता का अभाव है, बालक शीघ्र ही नीरस विषय से उकता जाते हैं तथा कोई न कोई बहाना बनाकर विद्यालयों से मुख मोड़ लेते हैं। चौथे, पाठ्यक्रम के अन्दर व्यावहारिकता तथा क्रिया को बिल्कुल भी स्थान नहीं दिया गया है। बेसिक स्कूलों में अवश्य हस्तकलाओं को महत्त्व प्रदान किया गया है।
(3) सामाजिक कारण
हमारे समाज को परम्परागत रूढ़ियों ने बुरी तरह जकड़ रखा है। आज भी बाल-विवाह की कुत्सित प्रथा का प्रचलन हमारे देश में किसी न किसी रूप में पाया जाता है। दूसरी ओर तीसरी कक्षा तक जहाँ बालिका पहुँची कि अभिभावक उसका विवाह कर देते हैं; इस प्रकार शिक्षा अधूरी रह जाती है। दूसरे, अनेक अभिभावक अत्यन्त संकीर्ण विचारधारा के होते हैं। बालिका ने जहाँ 9 या 10 वर्ष की अवस्था पार की, वे उसे स्कूल से पढ़ना छुड़ाकर घर बैठा देते हैं, क्योंकि उनके अनुसार लड़की का बड़े होने पर घर से बाहर निकलना पाप है।
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(4) प्रशिक्षित अध्यापकों का अभाव
प्राथमिक स्कूलों में पढ़ाने वाले अध्यापक अत्यन्त अयोग्य तथा अप्रशिक्षित होते हैं। वे बाल-मनोविज्ञान से अपरिचित होने के कारण बात-बात पर बालकों को मारपीट देते हैं। परिणामस्वरूप बालक के मन में स्कूल के प्रति भय उत्पन्न हो जाता है।
(5) आर्थिक कारण
अपव्यय का कारण देशवासियों की निर्धनता है। परिणामस्वरूप प्रत्येक भारतीय निर्धनता के कारण अपने बालकों को किसी-न-किसी काम पर भेज देता है। जो आयु अध्ययन के लिए होती है, उसी आयु में बालकों को पेट भरने के लिए फैक्टरियों या खेतों पर काम करना पड़ता है, पढ़ने-लिखने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
(6) बालिकाओं के लिए अलग विद्यालय का अभाव
संकुचित विचारधारा के कारण बहुत-से अभिभावक, बालकों के साथ बालिकाओं को पढ़ाना अनुचित समझते हैं। सह-शिक्षा उनके लिए दोषपूर्ण तथा अनैतिकता को जन्म देने वाली है। अतः जब लड़कियाँ 2 या 3 कक्षा तक पहुँचती हैं तो उनके अभिभावक स्कूल से छुड़ाकर घर बैठा लेते हैं। बालिकाओं के लिए अलग से स्कूलों की स्थापना करके, इस दोष को दूर किया जा सकता है, परन्तु इनकी स्थापना में धन का अभाव सबसे बड़ी कठिनाई है।
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अपव्यय को दूर करने का उपाय
अपव्यय को दूर करने के उपाय निम्नलिखित हैं-
(1) शिक्षण-व्यवस्था में सुधार
प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षण-स्तर को ऊँचा उठाया जाए। इसके लिए अध्यापकों को प्रशिक्षित करने की व्यवस्था करना परम आवश्यक है। शिक्षण में मनोवैज्ञानिक प्रणालियों का, जहाँ तक सम्भव हो, प्रयोग किया जाए।
(2) विद्यालयों को आकर्षण का केन्द्र बनाया जाए
विद्यालय का वातावरण अत्यन्त आकर्षक तथा मनमोहक हो। बालकों को खेलने-कूदने की पूर्ण स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए। मनोरंजन के साधनों की व्यवस्था की जाए। सारांश में विद्यालय में आकर बालक अपने को भूल जाए।
(3) पाठ्यक्रम में सुधार
पाठ्यक्रम में आर्थिक विषय न रखकर, स्थानीय वातावरण तथा आवश्यकताओं के अनुसार विषयों को रखा जाए। ग्राम के पाठ्यक्रम को नगर से भिन्न रखना परमावश्यक है। पाठ्यक्रम को रोचक बनाने के लिए उसमें हस्तकला का समावेश किया जाए।
(4) अभिभावकों की शिक्षा व्यवस्था
अभिभावकों को शिक्षित करने के लिए रात्रि पाठशालाएँ, वयस्क विद्यालयों तथा अंशकालीन विद्यालय (Part-Time Schools) को स्थापना की जानी चाहिए।
(5) आर्थिक समस्या का निवारण
सरकार का कर्तव्य है कि वह देशव्यापी महँगाई को समाप्त करने का प्रयत्न करे। सामान्य नागरिकों का स्तर उठाया जाए। प्राथमिक शिक्षा को शीघ्र से शीघ्र अनिवार्य तथा निःशुल्क कर दिया जाए। निर्धन छात्रों को छात्रवृत्तियाँ प्रदान की जाएँ।
(6) सामाजिक समस्याओं का हल
जनसाधारण में क्रान्तिकारी विचारों द्वारा, सह-शिक्षा के प्रति संकीर्ण विचारधारा को नष्ट करने का प्रयत्न किया जाए। सरकार का कर्त्तव्य है कि वह बाल-विवाह निषेध कानून का कठोरता से पालन करे।
(7) शिक्षा-प्रशासन में सुधार
सरकार का कर्त्तव्य है कि वह छात्रों की विद्यालय-प्रवेश को योग्यता, निश्चित आयु को निर्धारित कर दे। निरीक्षकों की संख्या में भी उचित मात्रा में वृद्धि की जाए।
अवरोधन का अर्थ
प्राथमिक शिक्षा के मार्ग में दूसरी बाधा 'अवरोधन' की है। देश के अधिकांश प्राथमिक विद्यालय अवरोधन से ग्रस्त हैं। 'अवरोधन' से अभिप्राय है-किसी बालक का एक ही कक्षा में असफल हो जाने के कारण रुक जाने से है।हांग समिति के अनुसार- "अवरोधन से हमारा तात्पर्य, एक बालक का एक निम्न कक्षा में एक वर्ष से अधिक रोके जाने से है।"
अवरोधन के कारण
विद्यालयों में अवरोधन के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-
(1) बाल-विवाह
हमारे देश में बाल-विवाह की प्रथा का पर्याप्त प्रचलन है। बालकों का अल्प-आयु में ही विवाह कर दिया जाता है, परिणामस्वरूप वे पाठ्य-पुस्तकों की ओर ध्यान न देकर अपनी नव-पत्नी की ओर ही अपने समस्त ध्यान को केन्द्रित कर देते हैं। अतः परीक्षा में असफल हो जाना उनके लिए साधारण-सी बात है।
(2) अनुचित वातावरण
वर्तमान समय में विद्यालयों का वातावरण अत्यन्त दूषित है। प्रत्येक कक्षा में कुछ छात्र ऐसे होते हैं जो पढ़ने-लिखने की ओर तनिक भी ध्यान नहीं देते हैं। न तो वह स्वयं ही पढ़ने-लिखने की ओर ध्यान देते हैं और न दूसरे छात्रों को ही पढ़ने-लिखने का अवसर देते है। परिणामस्वरूप एक कक्षा में बालकों को एक से अधिक वर्ष लग जाते हैं। असफल छात्र अपने को कक्षा का नेता समझने लगते हैं। इस प्रकार के दूषित वातावरण में छात्रों में पढ़ने-लिखने की प्रवृत्ति का लोप हो जाता है और वे इधर-उधर की बातों में पड़ जाते हैं। विद्यालयों का दूषित वातावरण-अवरोधन का प्रमुख कारण है।
(3) विद्यालय प्रवेश की अनियमितता
अल्प आयु में बालक का मस्तिष्क अत्यन्त अविकसित होता है, वे निर्धारित विषयों को समझने में पूर्णतया असमर्थ रहते हैं। फलस्वरूप उसे एक वर्ष उसकी कक्षा में व्यतीत करना पड़ता है। कभी-कभी छात्र विद्यालय में प्रवेश अध्ययन-काल के मध्य में लेते हैं, परिणामस्वरूप वे अपना पाठ्यक्रम निश्चित समय में पूर्ण नहीं कर पाते हैं और असफल हो जाते हैं।
(4) शिक्षण-प्रणाली अमनोवैज्ञानिक
प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षण की प्रणाली अमनोवैज्ञानिक है। प्रभावशाली शिक्षा प्रणाली होने के कारण छात्रों को विषय समझने में कठिनाई होती है तथा विषय उन्हें अत्यन्त नीरस लगते हैं। दूसरे, प्राथमिक स्कूलों के अध्यापकों में सबसे अधिक और प्रबल दोष यह पाया जाता है कि वे बालकों को बात-बात पर मारने पीटने लगते हैं। बालक भयभीत हो जाता है और विषयों को पुनः समझने का साहस उसमें नहीं रहता, फलस्वरूप वह परीक्षा में असफल होने पर रोक दिया जाता है।
(5) जटिल पाठ्यक्रम
प्राथमिक विद्यालयों में पाठ्यक्रम में अनेक विषयों की भरमार कर दी गई है। अधिकांश विषय ऐसे हैं, जिनमें छात्रों की तनिक भी रुचि नहीं है। अरोचक विषयों में ही छात्र मुख्यतया असफल होते हैं।
(6) अनुचित परीक्षा प्रणाली
प्राथमिक स्कूलों में जो परीक्षण-प्रणाली प्रचलित है, वह अत्यन्त दोषपूर्ण है। छात्र के वर्ष भर के काम को न देखकर वार्षिक परीक्षा के आधार पर ही दूसरी कक्षा में चढ़ाया जाता है। परन्तु वार्षिक परीक्षाएँ छात्रों की रटने की शक्ति का ही पता लगाती हैं, वास्तविक योग्यता का नहीं।
अवरोधन को दूर करने के उपाय
विद्यालय के अवरोधन को दूर करने के उपाय निम्नलिखित हैं-
- सरकार का कर्त्तव्य है कि वह शिक्षा-प्रशासन के दोषों को दूर करने का प्रयत्न करे। प्राथमिक विद्यालय में प्रवेश को योग्यता तथा आयु आदि का निश्चय किया जाए।
- अधिक प्रशिक्षण केन्द्र खोले जाएँ तथा प्रशिक्षित अध्यापकों की नियुक्ति ही प्राथमिक विद्यालयों में की जाए।
- विद्यालयों के वातावरण को आकर्षक बनाया जाए। खेल-कूद, मनोरंजन आदि की व्यवस्था विद्यालयों में अवश्य होनी चाहिए।
- विद्यालयों में अध्यापकों की संख्या बढ़ाई जाए।
- बाल-विवाह के निषेध का पूरा-पूरा प्रयत्न करें।
- व्यक्तिगत और सरकारी प्रयत्नों से विद्यालय में पौष्टिक भोजन की व्यवस्था की जाए।
- पाठ्यक्रम में से विषयों को कम करके सरल बनाया जाए। गणित और विज्ञान को सरलतम और आकर्षक ढंग से छात्रों के सम्मुख रखा जाए।
- शिक्षण-प्रणाली अत्यन्त मनोवैज्ञानिक तथा आकर्षक हो।
- परीक्षाएँ केवल छात्रों की रटने की शक्ति को ही न नापें वरन् वर्षभर छात्रों ने क्या काम किया है, इसका भी लेखा-जोखा रखें।