राष्ट्र कल्याण एवं समाज कल्याण में शिक्षा की आवश्यकता

राष्ट्र कल्याण व समाज कल्याण के साधन के रूप में शिक्षा

शिक्षा ने जब भी किसी राष्ट्र के विकास की जिम्मेदारी ली है, तो उसने सर्वप्रथम राष्ट्र के मान-सम्मान की प्रगति के लिए कार्य किये हैं। राष्ट्र स्वयं में कोई गतिमान वस्तु नहीं है। वह अपनी गति के लिए समाज की गतिशीलता पर आश्रित है। समाज के द्वारा ही राष्ट्र का निर्माण होता है। बिना समाज के राष्ट्र का कोई अतिस्तत्व ही नहीं है। अतः किसी देश के मानव समाज को राष्ट्र ही कहा जाता है। यदि समाज शिक्षित होकर उन्नति करता है तो राष्ट्र स्वतः ही प्रगति के पथ पर अग्रसर होने लगता है। 

राष्ट्र कल्याण व समाज कल्याण के रूप में शिक्षा निम्नलिखित कार्य करती है-

राष्ट्रीय एकता की भावना का विकास 

विविधता के गुण से युक्त भारत देश में अनेक धर्मों, सम्प्रदायों, जातियों, उपजातियों, भाषा भाषियों और विचारधाराओं के लोग निवास करते हैं। राष्ट्र और समाज के कल्याण के लिए देशवासियों में एकता की भावना का विकास किया जाना भी आवश्यक है। शिक्षा के माध्यम द्वारा ही यह कार्य किया जा सकता है। शिक्षा के द्वारा बच्चों में ऐसे संस्कार डाले जाने आवश्यक हैं कि वे अपने को एक-दूसरे से अलग न समझें और एकता की भावना बनाये रखें।

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प्रजातान्त्रिक सिद्धान्तों के प्रति आस्था 

शिक्षा के द्वारा ही नागरिकों में प्रजातान्त्रिक सिद्धान्तों के प्रति पूर्ण आस्था उत्पन्न की जा सकती है। हमारा प्रजातन्त्र मुख्यतः तीन सिद्धान्तों पर आधारित है-

  • व्यक्ति के मूल्य स्वीकार करना,
  • सभी को समान अवसर उपलब्ध कराना और
  • यह स्वीकार करना कि राज्य का अस्तित्व व्यक्ति के कल्याण के लिए है।

इन सभी सिद्धान्तों के प्रति आस्थावान रहकर व्यक्ति समाज व राष्ट्र की भलाई हेतु कार्य कर सकता है।

राष्ट्रीय विकास

शिक्षा द्वारा राष्ट्र का विकास सम्भव है। अशिक्षा के कारण व्यक्ति अपने कर्त्तव्यों एवं अधिकारों को नहीं समझ पाता है तथा राष्ट्र की प्रगतिशील योजनाओं पर अच्छी तरह से अमल भी नहीं कर पाता है। शिक्षा द्वारा यह सभी कार्य उचित दिशा निर्देश से पूरे हो सकते हैं एवं योजनाओं को चलाने वाले कुशल नेताओं द्वारा देश समृद्धि की ओर भी अग्रसर होता है।

सामाजिक कुशलता का विकास 

शिक्षा के द्वारा बालकों में सामाजिक कुशलता की भावना का विकास भी किया जा सकता है। शिक्षित व्यक्ति एक-दूसरे के कार्यों में अवांछित हस्तक्षेप नहीं करता है तथा राष्ट्र के विकास में भी सहयोग देता है। अतः शिक्षा द्वारा ऐसे कुशल नागरिकों का निर्माण करने हेतु बालकों को ऐसे व्यवसायों तथा उद्योगों के लिए कुशल बनाया जा सकता है, जिसमें समाज व राष्ट्र का कल्याण हो ।

धर्मनिरपेक्षता के प्रति आस्था 

भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में किसी भी धर्म के आधार पर किसी व्यक्ति से भेदभाव नहीं किया जाता है, क्योंकि उसकी दृष्टि में सभी धर्म समान है। धर्म की शिक्षा देना परिवार व धार्मिक संस्थाओं का कार्य है, राज्य का नहीं। अतः शिक्षा द्वारा ही नागरिकों में भारत के इस राष्ट्रीय व अभीष्ट उद्देश्य के प्रति विश्वास उत्पन्न करके उनकी संकुचित मानसिकता को छोड़कर उन्हें प्रगतिशील विचारों को अपनाने हेतु प्रेरित किया जा सकता है।

सामाजिक न्याय के प्रति आस्था

जाति, वर्ण, लिंग तथा धर्म के नाम पर किसी के साथ अन्याय न करना ही सामाजिक न्याय के प्रति आस्था रखना है जिसे बढ़ाने के लिए शिक्षा का बहुत महत्व है। शिक्षा के द्वारा ही दलित व शोषित वर्ग को ऊपर उठाया जा सकता है, उनके शोषण को रोका जा सकता है, असमानताएँ कम की जा सकती हैं और उत्पादनशीलता को भी बढ़ाया जा सकता है। अतः आज यदि हम भारतीय समाज में सामाजिक न्याय प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें शिक्षा का अधिक से अधिक विस्तार करना होगा।

आध्यात्मिक व नैतिक मूल्यों की रक्षा 

आज समाज में जो अनुशासनहीनता व उच्छृंखलता का दौर चल रहा है उसका कारण आध्यात्मिक व नैतिक मूल्यों में हो रही गिरावट ही है। आध्यात्मिक व नैतिक मूल्यों के द्वारा ही व्यक्ति को अच्छा मानव और अच्छा नागरिक बनाया जा सकता है। इस दिशा में विद्यालयों व महाविद्यालयों में चल रहे वे पाठ्यक्रम सहायक हो सकते हैं जिनसे इन मूल्यों का विकास हो।

सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण 

भारत की संस्कृति की एक गौरवशाली परम्परा रही है व भारत की संस्कृति अत्यन्त प्राचीन व समृद्ध भी है। अतः शिक्षा के द्वारा बालकों को अपनी सांस्कृतिक विरासत की महत्ता और गरिमा का परिचय देकर उन्हें इसकी सुरक्षा, संरक्षण व संवर्धन के लिए तैयार किया जा सकता है।

भावात्मक एकता के आदर्श का विकास 

हमारे देश की राष्ट्रीय मान्यताएँ या विरासत के अन्तर्गत समूह विशेष समाज एवं समुदाय की परम्पराएँ शामिल रहती है तथा सभी समुदायों, जातियों एवं समूहों को भावात्मक एकता के सूत्र में बाँधती है ताकि राष्ट्रीय कल्याण हो सके। अतः शिक्षा द्वारा भावात्मक एकता के आदर्श को स्थापित करना होगा। बालकों के लिए ऐसे पाठ्यक्रमों का निर्माण करना होगा जिससे उनके संवेगों व दृष्टिकोणों का उचित दिशा में विकास हो सके। तभी उसमें भावात्मक एकता का भाव विकसित होगा व राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना जाग्रत होगी।

सर्व धर्म समभाव की भावना का पोषण

शिक्षा के माध्यम से ही व्यक्तियों को यह बताया जा सकता है कि सभी धर्मों का मूल तत्व एक ही है। धर्म परमात्मा तक पहुँचने के विभिन्न मार्ग है। सभी धर्म मानव का कल्याण और उसका विकास करना चाहते हैं। सभी धर्मों में मानव समाज के कल्याणकारी मार्ग की प्रशस्त करने के अनेक उपाय बताये गये हैं। कोई भी धर्म व्यक्ति को अमंगलकारी उपदेश नहीं देता, अतः सभी धर्म के प्रति सम्मान का भाव रखा जाना चाहिए।

कुरीतियों व अन्धविश्वासों की समाप्ति में सहायक

व्यक्ति अज्ञानतावश ही कुरीतियों व अन्धविश्वासों का पालन करते हैं। शिक्षा के द्वारा लोगों को इन सड़ी-गली परम्पराओं, कुरीतियों और अन्धविश्वासों के दुष्परिणामों से अवगत कराया जा सकता है और इन्हें छोड़ने हेतु प्रेरित भी किया जा सकता है। राष्ट्र व समाज के कल्याण के लिए भी यह आवश्यक है कि सती प्रथा, दहेज प्रथा, बाल विवाह आदि प्रथाओं को समाप्त किया जाए। तो सिर्फ केवल शिक्षा इसमें अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकती है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास 

विज्ञान अनेक जानकारियों तथ्यों को संकलित करके तथा विश्लेषित करके सामान्य नियम प्रतिपादित करता है। अतः औपचारिक शिक्षा के माध्यम से बालकों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करना चाहिए। शिक्षक को बालकों में तर्क-वितर्कपूर्ण चिन्तन के माध्यम से निष्कर्षो तक पहुँचने की योग्यता पैदा करनी चाहिए तथा उनकी बौद्धिक दक्षता को विकसित करने के अधिक से अधिक अवसर देने चाहिए।

चारित्रिक विकास

राधाकृष्णन् के अनुसार- चरित्र हो भाग्य है तथा चरित्र के द्वारा ही किसी राष्ट्र का निर्माण होता है। अतः सच्ची शिक्षा केवल पढ़ने-लिखने तक ही सीमित नहीं है वरन् चरित्र-निर्माण में भी सहायक होनी चाहिए। यदि व्यक्ति का चिरित्र-निर्माण हो जाएगा तो समाज स्वयमेव ही सुधर जाएगा। अच्छे चरित्र के व्यक्ति ही राष्ट्र का कल्याण कर सकते हैं। अतः शिक्षा के द्वारा व्यक्ति के चरित्र का निर्माण किया जाना चाहिए।

व्यावसायिक कुशलता का विकास

शिक्षा के द्वारा व्यक्तियों को व्यावसायिक दृष्टि से कुशल बनाया जाना चाहिए, जिससे वे अपने जीविकोपार्जन हेतु किसी उचित व्यवसाय का चयन कर सकें व उसमें कुशलता प्राप्त कर सकें। इससे व्यक्ति में स्वावलम्बन की भावना जाग्रत होगी, उन्हें रोजगार हेतु इधर-उधर भटकना नहीं पड़ेगा तथा राष्ट्र का आर्थिक विकास भी हो सकेगा।

सार्वजनिक हितों को प्रधानता 

आज की बढ़ती हुई भौतिकतावादी प्रवृत्ति के कारण व्यक्ति अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु समाज व राष्ट्र का बड़े से बड़ा नुकसान करने के लिए भी तत्पर रहता है। परन्तु राष्ट्र व समाज का कल्याण तभी सम्भव है जब व्यक्ति राष्ट्र व समाज के लिए अपने हितों का त्याग कर सके। अतः शिक्षा द्वारा व्यक्तियों को ऐसा प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए जिससे वे अपने हितों को गौण समझें व सार्वजनिक हितों को प्रमुखता दें, प्रधानता दें।

योग्य व कुशल नागरिकों का निर्माण

राष्ट्र व समाज के कल्याण के लिए यह भी जरूरी है कि देश के नागरिक योग्य, कुशल, दक्ष, स्वावलम्बी, आत्मनिर्भर व देशप्रेमी हों व शारीरिक रूप से स्वस्थ हों, बौद्धिक रूप से प्रखर हों, सामाजिक रूप से समाज सेवा की भावना से ओत-प्रोत हों तथा संवेगात्मक रूप से सन्तुलित हों, राजनीतिक रूप से जागरूक हों, आर्थिक दृष्टि से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम हों तथा अनतर्राष्ट्रीय दृष्टि से विश्वबन्धुत्व की भावना में विश्वास रखें ऐसे नागरिकों का निर्माण शिक्षा द्वारा किया जाना चाहिए।

समायोजन शक्ति का विकास

एक पूर्ण रूप से समायोजित व्यक्ति ही राष्ट्र और समाज के कल्याण में सहायक हो सकता है तथा समायोजित व्यक्ति का निर्माण मात्र शिक्षा द्वारा ही सम्भव है। यहाँ तक कि 'शिक्षा ही समायोजन है। ऐसा कहा जाता है। कि शिक्षा द्वारा ही व्यक्ति अपने वातावरण और परिस्थितियों से समायोजन सीखता है। शिक्षा न केवल समायोजन करना सिखाती है वरन् समायोजन शक्ति का वर्द्धन भी करती है।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि राष्ट्र के और समाज के कल्याण के साधन के रूप में शिक्षा अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में राष्ट्र कल्याण और समाज कल्याण पर बल देते हुए शिक्षा के निम्न कार्य बताये गए हैं-

  • व्यक्ति का शारीरिक, बौद्धिक तथा सांस्कृतिक विकास करना।
  • प्रजातान्त्रिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करना।
  • नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों का संवर्धन करना।
  • विपरीत परिस्थितियों में भी संघर्षो का सामना करते हुए आत्मविश्वास से आगे बढ़ने हेतु प्रेरित करना।
  • श्रम के प्रति सम्मान का भाव पैदा करना व इसके प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण रखना।
  • धर्मनिरपेक्षता पर आस्था रखना।
  • सामाजिक न्याय पर विश्वास करना।
  • राष्ट्रीय एकता को महत्व देना व राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना का विकास करना।
  • अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना को प्रोत्साहन देना।

राष्ट्र कल्याण और समाज कल्याण के साधन के रूप में शिक्षा के कार्यक्रम

राष्ट्र कल्याण और समाज कल्याण के साधन के रूप में शिक्षा के कार्यक्रम निम्नलिखित हैं-

  • देशवासियों को राष्ट्र की संस्कृति से परिचित कराया जाए। उन्हें राष्ट्रगान, राष्ट्रभाषा, राष्ट्र ध्वज और अन्य राष्ट्रीय चिह्नों का ज्ञान कराया जाए व उनके प्रति आदर की भावना का विकास किया। जाए।
  • शिक्षा रूपी शस्त्र द्वारा राष्ट्र को खोखला करने वाली भावनाओं, जैसे- जातिवाद, क्षेत्रवाद, साम्प्रदायिकतावाद व भाषावाद को दूर करके राष्ट्रहित की भावना को सर्वोपरि रखा जाए।
  • शिक्षा द्वारा व्यक्ति में राष्ट्रीयता की भावना का विकास कर राष्ट्र की प्रगतिशील योजनाओं के क्रियान्वयन का मार्ग प्रशस्त किया जाए।
  • राष्ट्रीय सम्पत्ति की सुरक्षा करने की शिक्षा दी जाए।
  • जातीय संघर्ष व साम्प्रदायिक विद्वेष पैदा करने वाली विषयवस्तु को पाठ्यक्रम से हटाकर राष्ट्रीय एकता को बढ़ाने वाले तत्वों का समावेश किया जाए।
  • विभिन्न धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा सभी धर्मों के प्रति आस्था और सम्मान का भाव पैदा किया जाए।
  • शिक्षा द्वारा व्यक्ति को सामाजिक रूप से समायोजित व कुशल बनाने का प्रयास करना, क्योंकि व्यक्ति के कल्याण में ही समाज का कल्याण निहित है।
  • राष्ट्रीय संस्कृति व सभ्यता का संरक्षण करना व उन्हें राष्ट्रीय धरोहर के रूप में स्वीकार किया जाए।
  • राष्ट्रीय आदर्शो- स्वतन्त्रता, समानता, भ्रातृत्व, लोकतन्त्र, समाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद आदि के सम्बन्ध में पूर्ण जानकारी दी जाए।
  • शिक्षा द्वारा कुशल प्रशिक्षित नागरिक तैयार किए जाएँ जो संसाधनों का उचित उपयोग करते हुए देश को आर्थिक प्रगति की राह पर ले जा सकें। 
  • शिक्षा द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति देशवासियों को जाग्रत करना ताकि राष्ट्रीय कल्याण सम्भव हो।
  • वैयक्तिक और पारिवारिक हितों के स्थान पर सामाजिक हितों के लिए कार्य करने पर बल दिया जाए।
  • औद्योगिक, व्यावसायिक और तकनीकी क्षेत्रों में उपलब्ध अवसरों की जानकारी दी जाए।
  • राष्ट्र के महान वैज्ञानिकों, साहित्यकारों तथा समाजसेवियों से साक्षात्कार कराया जाए और टेलीविजन पर उसका प्रसारण किया जाए।
  • समय-समय पर विचारगोष्ठियों, कार्यशालाओं और सम्मेलनों का समायोजन कराया जाए, जिसमें सभी क्षेत्रों के व्यक्ति भाग ले सकें।

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