वाणिज्य का अर्थ, परिभाषा, सम्बन्ध और विकास

वाणिज्य का अर्थ

सामान्य अर्थों में अगर हम देखे कि 'वाणिज्य' में वस्तुओं के क्रय-विक्रय के साथ उन समस्त सेवाओं को भी सम्मिलित किया जाता है, जिनके द्वारा माल को उत्पादक से लेकर उपभोक्ता तक पहुँचाया जाता है। इस प्रकार वाणिज्य' का अर्थ 'व्यापार + वितरण' सेवाओं से है। वितरण सेवाओं में बैंकिंग, बीमा, यातायात तथा भण्डारण आदि की सुविधाओं को शामिल किया जाता है। 

माल के उत्पादन का तब तक कोई महत्त्व नहीं होता, जब तक कि माल को बेच न दिया जाए। इस सम्पूर्ण क्रिया में पहले माल को उत्पादक के कारखाने या गोदाम से हटाकर किसी सुरक्षित भण्डार गृह में संग्रह करना होता है, फिर विज्ञापन के विभिन्न साधनों के माध्यम से लोगों को उसकी जानकारी कराई जाती है। इसके बाद माल के लिए आदेश प्राप्त होने पर यातायात के किसी साधन द्वारा माल को भेजा जाता है। इस समस्त प्रक्रिया के सुसंचालन हेतु अनेक सेवाएं लेनी होती हैं। 

इस प्रकार "माल को उत्पादन-स्थल से उपभोग के स्थान तक पहुँचाने में आने वाली बाधाओं के निवारणार्थं तत्सम्बन्धी क्रियाएँ ही वाणिज्य कहलाती हैं।" 

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वाणिज्य की परिभाषाएँ

वाणिज्य को प्रमुख विद्वानों ने निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है-

(1) थॉमस के अनुसार- "वाणिज्यिक पेशों का सम्बन्ध वस्तुओं के क्रय-विक्रय वस्तुओं के विनिमय तथा निर्मित उत्पादों के वितरण से होता है।"

(2) जेम्स स्टीफेन्सन के अनुसार- "वाणिज्य के अन्तर्गत वे समस्त क्रियाएँ आती हैं जोकि उत्पादकों और उपभोक्ताओं के मध्य की दीवारों को तोड़ने में सहायक होती हैं। यह सब उन प्रविधियों का कुल योग है जोकि वस्तुओं के विनिमय (बैंकिंग) में व्यक्तियों (व्यापार), स्थान (परिवहन एवं बीमा) तथा समय (भण्डार गृहों की बाधाओं को दूर करने में संलग्न होती है।"

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वाणिज्य एवं आधुनिक सभ्यता का सम्बन्ध

आधुनिक युग वाणिज्य का युग है। यदि हम विश्व के विभिन्न देशों का भ्रमण करके कुछ निष्कर्ष निकालें तो सबसे महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष यही होगा कि आज सभी देश वाणिज्यिक प्रगति के लिए प्रयत्नशील है, क्योंकि वे जानते हैं। कि वाणिज्यिक विकास के माध्यम से ही वे अपने को अधिक सभ्य राष्ट्रों की श्रेणी में बनाए रख सकते हैं। यही कारण है कि आज विश्व के लगभग सभी देशों में आर्थिक एवं वाणिज्यिक प्रगति के लिए एक होड़-सी लगी हुई है तथा विभिन्न राष्ट्र एक-दूसरे से आगे बढ़ने का प्रयास कर रहे हैं।

वास्तव में, यदि देखा जाए तो वाणिज्य एवं सभ्यता परस्पर एक-दूसरे के सहगामी होते हैं, उनके मध्य बड़ा गहरा सम्बन्ध है तथा ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। सभ्यता के विकास से वाणिज्य के विकास की गति में वृद्धि होती है और वाणिज्यिक प्रगति के साथ-साथ सभ्यता के रूप में भी निखार आता है। 

यही कारण है कि आज सभ्य से सभ्यतर बनने की आकांक्षा रखने वाला प्रत्येक देश अधिकाधिक वाणिज्यिक विकास करने के लिए प्रयत्नशील है। एक साधारण चिन्तन से भी यही निष्कर्ष निकलता है कि आज संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत रूस, फ्रांस, इंग्लैण्ड, जर्मनी एवं जापान आदि सभ्य राष्ट्रों की प्रगति का आधार भी इनका आर्थिक एवं वाणिज्यिक विकास ही है।

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वर्तमान युग में वाणिज्यिक विकास आधुनिक सभ्यता का पर्याय समझा जाने लगा है। वाणिज्यिक विकास के विभिन्न प्रतीक; जैसे- परिवहन एवं संचार के द्रुतगामी साधन यान्त्रिक कृषि, आणविक शक्ति, परिवहन व संचार के साधनः सामान्य व तकनीकी शिक्षा, औद्योगिक शक्ति के साधन विद्युत यन्त्र एवं तकनीक के साधन, डाक व तार विभाग की उन्नत सेवाएँ: बैंक व बीमा कम्पनियाँ एवं वित्तीय निगम आदि आधुनिक सभ्यता के सूचक समझे जाते हैं।

सृष्टि के प्रारम्भ से ही मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि तथा अपने जीवन को अधिक सुखी बनाने के लिए प्रकृति से संघर्ष करता आया है। प्रारम्भ में वह आत्मनिर्भर था। लेकिन जैसे-जैसे वह सभ्यता के पथ पर आगे बढ़ता गया उसकी आत्मनिर्भरता समाप्त होने लगी। विभिन्न देशों तथा एक ही देश के विभिन्न क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधनों के असमान वितरण के परिणामस्वरूप विनिमय प्रणाली का जन्म हुआ। 

विनिमय प्रणाली ने अन्य देशों के साथ सहयोग व अन्तर्राष्ट्रीय सहकारिता को प्रोत्साहित किया, जिसके परिणामस्वरूप व्यापार, उद्योग एवं व्यवसाय का विकास हुआ। विविध व्यावसायिक क्रियाओं के सुसंचालन हेतु संगठन के अनेक सिद्धान्तों का भी प्रादुर्भाव हुआ। फलतः आधुनिक सभ्यता अपनी चरम सीमा की ओर अग्रसर हुई। यही कारण है कि आज सभ्यता के शिखर पर पहुंचने की लालसा में प्रत्येक देश अपने वाणिज्यिक विकास की गति तीव्रतम करने के लिए प्रयत्नशील है।

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इस प्रकार सभ्यता के विकास से वाणिज्य के विकास को गति प्राप्त हुई और वाणिज्य के विकास से सभ्यता का विकास हुआ; अतः वाणिज्य एवं सभ्यता दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध है तथा वे एक-दूसरे के विरोधी न होकर पूरक एवं सहायक हैं। 

अन्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि, "आधुनिक सभ्यता आधुनिक व्यापार तथा उद्योग की देन है।" 

इसी प्रकार "आधुनिक सभ्यता के विकास का उद्गम व्यापार ही है।"

वाणिज्य एवं आधुनिक सभ्यता का विकास

मनुष्य जैसे-जैसे सभ्यता के पथ पर अग्रसर होता गया, वाणिज्यिक क्रियाओं में भी परिवर्तन होता गया। इसी प्रकार वाणिज्य की ज्यों-ज्यों प्रगति होती गई सभ्यता का रूप भी उसी प्रकार से निखरता गया। वर्तमान वाणिज्य-स्तर या सभ्यता के वर्तमान स्तर तक पहुंचने में मनुष्य को अनेक अवस्थाओं से गुजरना पड़ा है। अनादिकाल से मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए प्रकृति से अनेक संघर्ष करता आया है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्तमान में वाणिज्य का जो रूप हमारे सम्मुख है वह मानव के आदिकाल में ऐसा न था, इसका क्रमिक विकास हुआ है। 

अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से हम वाणिज्य के इस विकास को निम्नलिखित छह युगों में विभाजित कर सकते हैं-

  • आत्मनिर्भरता का युग।
  • पशुपालन युग। 
  • कृषि युग।
  • हस्तकला युग।
  • गृह उद्योग युग।
  • औद्योगिक युग।

आत्मनिर्भरता का युग: 

यह सभ्यता की प्रारम्भिक अवस्था का युग था। इस युग में मनुष्य को आवश्यकताएँ सीमित थीं और वह पूर्णतया आत्मनिर्भर था। वाणिज्य का विकास भी नहीं हुआ था। मनुष्य प्रकृति का दास था तथा जंगलों में पशुओं की भाँति रहता था। वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति सरलता से कर लेता था। इस प्रकार, आत्मनिर्भरता के युग में आवश्यकता, प्रयत्न व सन्तुष्टि में प्रत्यक्ष एवं घनिष्ठ सम्बन्ध था। किसी भी आवश्यकता के उदय होते ही मनुष्य उसकी सन्तुष्टि करने का प्रयत्न करता था। 

इस प्रयत्न के परिणामस्वरूप उसे आवश्यक सन्तुष्टि प्राप्त हो जाती थी: जैसे- भूख लगने पर कन्द-मूल फल आदि खोजकर लाना और उनको खाकर निठल्ला पड़े रहना, पेड़ों से पत्ते तोड़कर जमीन पर बिछाकर सो जाना या गुफाओं में सोना, पशु-पक्षियों का शिकार करना, मछली मारना, वस्त्रों के स्थान पर पशुओं की खाल या वृक्षों की छाल प्रयोग करना आदि। 

लेखांकन मानक का अर्थ

इस युग के प्रारम्भ में शिकार के लिए पत्थर तथा लकड़ी के हथियार प्रयोग में लाए जाते थे, बाद में धीरे-धीरे ये हथियार धातु के बनाए जाने लगे। एक स्थान पर निवास करके शिकार की खोज में निरन्तर घूमना पड़ता था, जिससे मनुष्य का जीवन प्रयत्नशील था। कभी-कभी तो दुर्बल मनुष्यों एवं बच्चों को मारकर ही भूख मिटा ली जाती थी। इस प्रकार इस युग में मनुष्य पूर्णतया स्वावलम्बी था। इस युग में सभ्यता एवं वाणिज्यिक क्रियाओं का उदय नहीं हुआ था। इसे 'आखेट युग' भी कहा जाता है। 

इस युग की मुख्य विशेषताएँ निम्न प्रकार थीं-

  • मनुष्य का भोजन कन्द-मूल-फल, मछली व पशुओं का मांस आदि था।
  • मनुष्य प्रायः नग्न रहता था तथा जलवायु के अनुसार पत्तों व पेड़ों की छाल या पशुओं की खाल से अपना शरीर ढक लेता था। 
  • मनुष्य के रहने के लिए मकान आदि नहीं थे, वह गुफाओं या घने वृक्षों के नीचे रहता था। 
  • मनुष्य का जीवन बहुत ही अशान्त था, उनमें पारस्परिक युद्ध हुआ करते थे। उसका जीवन भ्रमणशील था।

पशुपालन या चरागाह युग:

इस युग में सभ्यता का कुछ विकास हुआ। सभ्यता के इस विकास के साथ-साथ मानव जीवन में नई-नई आवश्यकताओं का उदय होने लगा। धीरे-धीरे मनुष्य की आत्मनिर्भरता समाप्त होती गई और वह जीव-जन्तुओं का शत्रु न रहकर उनका मित्र बन गया। उसने पशुओं को पालना आरम्भ कर दिया। पशुओं से उसे दूध व मांस आदि भोजन के लिए मिल जाता था तथा पहनने के लिए ऊन व खालें मिल जाती थीं। इस युग में पशुओं के चारे की समस्या थी। 

अतः मनुष्य पशुओं को साथ लेकर चरागाह की खोज में एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमता रहता था। एक प्रकार से इस युग में व्यक्तिगत सम्पत्ति का उदय हो चुका था। पशु एवं उनसे प्राप्त पदार्थ मानव की सम्पत्ति बन गए। विनिमय की क्रियाओं से लोग अभी अनभिज्ञ थे। अभी तक सभ्यता का विकास और वाणिज्यिक क्रियाओं का जन्म नहीं हुआ था और अधिकांश व्यक्ति आत्मनिर्भर थे। 

इस युग की मुख्य विशेषताएं निम्न प्रकार थी-

  • मनुष्य का मुख्य व्यवसाय पशुपालन था। वह इनका दूध भोजन में व ऊन तथा खाले वस्त्र के रूप में ओढ़ने-पहनने के काम में लेता था। पशुओं को सामान ढोने तथा सवारी के काम लेता था।
  • मनुष्य छोटी-छोटी वस्तुएँ, मिट्टी के बर्तन, ऊन के कपड़े एवं हाथ के औजार आदि बनाने लगा था। 
  • मनुष्य आत्मनिर्भर था तथा विनिमय की क्रियाओं से अनभिज्ञ था।
  • मनुष्य की सम्पत्ति पशु होते थे।
  • इस युग में दास प्रथा का जन्म हुआ।

कृषि युग:

इस युग में कृषि; मनुष्य के जीवन-निर्वाह का प्रमुख साधन बन गई। मानव ने भूमि को जोतकर खेती करना आरम्भ कर दिया, इससे भोजन तथा पशुओं के चारे की समस्या हल हो गई। अब उसने एक स्थान से दूसरे स्थान पर अधिक घूमना-फिरना बन्द कर दिया। जो मनुष्य जहाँ रहता था, उसने वहीं खेती करना आरम्भ कर दिया और उस स्थान का स्वामी बन गया। 

इस प्रकार इस युग में धीरे-धीरे सामूहिक जीवन का विकास हुआ और गाँवों का उदय हुआ। स्थायी निवास के फलस्वरूप कुछ रीति-रिवाज तथा सामाजिक नियमों को स्थापना हुई और समुदाय के मुखिया का आदेश माना जाने लगा। यह राज्य की सत्ता का प्रारम्भिक रूप था। धीरे-धीरे इस युग में वस्तु-विनिमय का जन्म हुआ अर्थात् मनुष्य आपस में वस्तु को अदला-बदली करके अपनी आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने लगा। 

इस प्रकार इस युग में व्यवसाय का उद्गम हो गया था। कृषि के अतिरिक्त कुछ व्यक्ति कपड़ा बुनने, मिट्टी के बर्तन बनाने, जूते बनाने तथा लकड़ी के बर्तन बनाने का कार्य भी करने लगे थे। इस युग में कृषिः मनुष्य का प्रधान व्यवसाय थी, लेकिन विनिमय का पूर्णतया विकास अभी नहीं हुआ था। भूमि, हल, बैल आदि व्यक्तिगत सम्पति हो गए और व्यावसायिक श्रम विभाजन आरम्भ हो गया।

इस युग की मुख्य विशेषताएं निम्न प्रकार थीं-

  • कृषि मनुष्य का मुख्य व्यवसाय था तथा मुख्य भोजन कृषि पदार्थ था। वह धीरे-धीरे शाकाहारी हो गया। 
  • उसने रहने के लिए कच्चे मकान बना लिए थे तथा मामों के रूप में रहने लगे थे। उनको आर्थिक दशा में सुधार हुआ।
  • पशु कृषि भूमि एवं कृषि यन्त्र उनको पूँजी थे। 
  • पानों के निर्माण से व्यवस्थित समाज की स्थापना हुई।
  • दास प्रथा के साथ श्रमिक वर्ग का जन्म हुआ। 
  • इस युग में सामन्त शाही का जन्म हुआ।
  • लोगों को आर्थिक दशा में सुधार हुआ तथा जीवन पहले की अपेक्षा शान्त और सुखमय बन गया। 

हस्तकला युग / दस्तकारी या शिल्प युग:

इस युग में मनुष्य ने जीविका के अन्य साधन ढूंढ निकाले। इस प्रकार दस्तकारी को प्रोत्साहन मिला तथा पेशों का विशिष्टीकरण हो गया। समाजः बढ़ई लुहार, मोची, नाई, कुम्हार व तेली आदि अनेक वर्गों में पेशों के अनुसार विभाजित हो गया। श्रम विभाजन के कारण विनिमय आवश्यक हो गया और व्यवसाय में वृद्धि होने से एक व्यापारी वर्ग उत्पन्न हो गया। व्यवसाय के विकास के साथ-साथ यातायात का भी पर्याप्त विकास हुआ। व्यापारिक केन्द्रों के रूप में नगरों का सूत्रपात हुआ।

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इस युग में वस्तु-विनिमय प्रणाली द्वारा व्यवसाय: समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति न कर सका; अतः द्रव्य का आविर्भाव हुआ। सभी वस्तुओं का उत्पादन या निर्माण छोटे पैमाने पर हाथ से या स्वतः निर्मित औजारों से किया जाता था क्योंकि मशीनों का आविष्कार अभी तक नहीं हुआ था। इस प्रकार, इस युग में वाणिज्य या व्यवसाय का पर्याप्त विकास हुआ।

इस युग को मुख्य विशेषताएँ निम्न प्रकार थीं-

  • इस युग में कुटीर उद्योगों को स्थापना की गई। परिवहन के साधनों का विकास हुआ तथा समाज अनेक जातियों एवं उपजातियों में विभाजित हो गया।।
  • इस युग में क्रय-विक्रय प्रणाली अर्थात् द्रव्य का प्रयोग आरम्भ हुआ। बड़े-बड़े नगरों का निर्माण हुआ तथा बाजारों की स्थापना हुई।
  • यातायात के साधनों में वृद्धि हुई। कारोबार व किसानों की आर्थिक दशा में पर्याप्त सुधार हुआ।

गृह उद्योग युग:

इस युग में विशिष्टीकरण एवं श्रम विभाजन के कारण उद्योग और व्यापार दोनों क्रियाएँ अलग-अलग हो गई। व्यापारियों ने शिल्पकारों को कच्चा माल देकर मांग की वस्तुओं का निर्माण कराना प्रारम्भ किया। इस युग में बाजार का क्षेत्र विस्तृत हो गया तथा यातायात के साधन बढ़ गए। उत्पादक एवं उपभोक्ता के बीच दलाल का कार्य करने के लिए वणिक् वर्ग का जन्म हुआ। द्रव्य का प्रयोग होने से क्रय विक्रय प्रणाली प्रचलन में आई इस युग में वाणिज्य या व्यापार का अधिक विकास हुआ।

इस युग की मुख्य विशेषताएँ निम्न प्रकार थीं- 

  • मनुष्य ने छोटे पैमाने पर उत्पादन कार्य प्रारम्भ कर दिया था।
  • वाणिज्य, व्यापार तथा यातायात के साधनों का पर्याप्त विकास हुआ।
  • बाजार व हाट का प्रादुर्भाव हुआ।
  • छोटे-छोटे औजारों का निर्माण कार्य आरम्भ हुआ ।
  • श्रम विभाजन एवं विशिष्टीकरण को प्रोत्साहन मिला।
  • एक ही प्रकार के कार्य करने वाले कारीगरों ने अपने संघ बना लिए थे। 

औद्योगिक युग:

इस युग में गृह उद्योग प्रणाली समाप्त हो गई तथा इसके स्थान पर विशाल कारखाने लगाए गए। इस औद्योगिक क्रान्ति ने उत्पादन के क्षेत्र में काफी परिवर्तन कर दिए, जिसके फलस्वरूप आर्थिक विकास की कायापलट हो गई। मानवीय श्रम का स्थान मशीनों ने लेना प्रारम्भ कर दिया। उद्योगों की इस नई व्यवस्था ने कुटीर उद्योगों को प्रायः समाप्त-सा ही कर दिया है। 

इस नई व्यवस्था ने पूँजीवाद को जन्म दिया है। आज पूँजीवाद ही समस्त उत्पादन का स्वामी और श्रमिक उसका नौकर है। मशीनों एवं यान्त्रिक शक्ति ने यातायात एवं सन्देशवाहन के क्षेत्र में अभूतपूर्व उन्नति की है। मोटरगाड़ी, हवाई जहाज, जलयान आदि इस युग की देन हैं। 

तार, बेतार के तार व टेलीफोन, सैलुलर फोन, टेलेक्स व फैक्स आदि वैज्ञानिक आविष्कार के परिणाम हैं। व्यापारिक तन्त्रः जैसे- बैंक व बीमा कम्पनी तथा साख-व्यवस्था का बड़ी तीव्र गति से विकास हुआ है। व्यापार राष्ट्रीय न होकर अन्तर्राष्ट्रीय हो गया है। 

अणु-शक्ति के आविर्भाव ने और भी नई दिशाएं खोल दी हैं। कम्प्यूटर के आविष्कार ने व्यक्ति के मानसिक कार्य को स्वयं ग्रहण कर लिया है।  व्यवसाय तथा उद्योग का वर्तमान स्वरूप इसी युग की देन है। यही कारण है कि इस युग को औद्योगिक युग कहा जाता है। तथा आधुनिक सभ्यता के नाम से पुकारा जाता है। 

इस युग की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  • पूँजीवाद एवं कारखाना प्रणाली इसी युग की देन है। 
  • मशीनों का आविष्कार अर्थात् यन्त्रीकरण इस युग का जन्मदाता है।
  • इस युग में विशिष्टीकरण एवं विवेकीकरण को प्रोत्साहन मिला है। 
  • भौतिक उन्नति भी चरम सीमा पर पहुँच गई है।
  • बड़े पैमाने पर उत्पादन इस युग का प्रमुख लक्षण है।
  • व्यापार का क्षेत्र विस्तृत हो गया है। इस युग में व्यापार राष्ट्रीय न रहकर अन्तर्राष्ट्रीय हो गया है। विज्ञापन एवं विक्रय कला का भी पर्याप्त विकास हुआ है। 
  • शक्ति के साधनों ने इस युग के आर्थिक ढांचे में जीवन-शक्ति का संचार किया है। 
  • बैंकिंग व बीमा व्यवसाय तथा साख-व्यवस्था का पर्याप्त विस्तार हुआ है।
  • अणु-शक्ति के शान्तिमय उपयोग से अभूतपूर्व विकास की भावनाएं स्पष्ट हो रही हैं।
  • कम्प्यूटर के आविष्कार ने मनुष्यों के वर्षों के मानसिक कार्यों को चन्द घण्टों में करना आरम्भ कर दिया है।
  • स्वचालित यन्त्रों के आविष्कार एवं श्रम-बचतकारी यन्त्रों के प्रयोग ने उत्पादन के पैमाने को और भी अधिक विस्तृत कर दिया है।
  • परिवहन के साधनों की उन्नति से सम्पूर्ण विश्व एक इकाई बन गया है। 
  • समाजवाद, साम्यवाद तथा मिश्रित अर्थव्यवस्था का विकास हो गया है।
  • वैज्ञानिक प्रबन्ध का जन्म हुआ है।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि "वाणिज्य का जो स्वरूप आज हम देखते हैं उसका विकास विभिन्न युगों से गुजरकर धीरे-धीरे हुआ है। जैसे-जैसे सभ्यता उन्नति के पथ पर अग्रसर होती गई, वैसे-वैसे वाणिज्य का विकास होता गया। वाणिज्य के विकास ने सभ्यता के विकास को प्रोत्साहन दिया। इस प्रकार, वाणिज्य के विकास की कहानी आधुनिक सभ्यता के विकास की कहानी है।"

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