साझेदारी से आशय
सामान्य अर्थों में, विशिष्ट गुणों वाले व्यक्तियों के सामूहिक संगठन को 'साझेदारी' कहते हैं। व्यावसायिक संगठन के इस प्रारूप के अन्तर्गत दो या दो से अधिक व्यक्ति मिलकर व्यवसाय प्रारम्भ करते हैं। वे अपनी योग्यता के अनुसार व्यापार का प्रबन्ध संचालन करते हैं तथा पूँजी का प्रबन्ध करते हैं।
अतः हम कह सकते हैं कि साझेदारी दो या दो से अधिक व्यक्तियों की वह संस्था है, जिसमें वह किसी समझौते के अन्तर्गत लाभ कमाने के लिए किसी व्यापार को चलाने के लिए निर्मित की जाती है।"
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साझेदारी की परिभाषा
साझेदारी की प्रमुख विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-
(1) प्रो० हैने के अनुसार- " साझेदारी विभिन्न व्यक्तियों में, जो प्रसंविदा करने की क्षमता रखते हैं, परस्पर एक प्रतिज्ञा है जिसके अनुसार वे अपने लाभार्थ कोई वैधानिक व्यवसाय करते हैं।"
(2) डॉo विलियम आर० स्त्रीगल के शब्दों में-"साझेदारी में दो या दो से अधिक सदस्य होते हैं, जिनमें से प्रत्येक सदस्य साझेदारी के कार्यों के लिए उत्तरदायी होता है। प्रत्येक साझेदार, दूसरे को अपने कार्यों द्वारा बद्ध कर सकता है तथा प्रत्येक साझेदार की सम्पत्तियों को फर्म के ऋणों के लिए प्रयोग में लाया जा सकता है।"
(4) चार्ल्स डब्ल्यू० गर्स्टनबर्ग के मतानुसार- "साझेदारी व्यक्तियों के मध्य विद्यमान सम्बन्ध है, जो सहस्वामियों के रूप में निजी लाभ के लिए सामूहिक रूप से व्यवसाय चलाने के लिए सहमत होते हैं।"
उचित परिभाषा- उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि "साझेदारी दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य व्यापार करने का एक समझौता है, जिसका उद्देश्य लाभ कमाना होता है। जो व्यक्ति व्यापार करने का ठहराव करते हैं, वे 'साझेदार' कहलाते हैं तथा संस्था 'साझेदारी फर्म' कहलाती है।"
साझेदारी की विशेषताएँ
साझेदारी के प्रमुख लक्षण या विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) दो या दो से अधिक व्यक्ति
साझेदारी संस्था में कम-से-कम दो व्यक्तियों का होना आवश्यक है। भारतीय साझेदारी अधिनियम, 1932 ई० में यह नहीं बताया गया है कि एक साझेदारी संस्था में साझेदारों की अधिकतम संख्या कितनी हो सकती है, लेकिन भारतीय कम्पनी अधिनियम, 1956 की धारा 11 के अनुसार, किसी साझेदारी संस्था में अधिकतम 20 सदस्य तथा बैंकिंग संस्था की दशा में 10 सदस्य हो सकते हैं। इससे अधिक सदस्य होनेपर साझेदारी अवैध हो जाती है।
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(2) साझेदारों के मध्य अनुबन्ध या समझौता
भारतीय साझेदारी अधिनियम, 1932 ई० की धारा 5 के अनुसार- "साझेदारी का सम्बन्ध अनुबन्ध से उत्पन्न होता है न कि स्थिति से।" यह आवश्यक नहीं कि समझौता लिखित ही हो, यह मौखिक भी हो सकता है। लेकिन ठहराव का लिखित होना अधिक अच्छा रहता है। यह भी आवश्यक है कि अनुबन्ध वैध होना चाहिए।
(3) वैध व्यवसाय का होना
साझेदारी के लिए व्यवसाय का होना आवश्यक होता है तथा व्यवसाय का वैधानिक होना आवश्यक है। कोई भी ठहराव, जो लाभ कमाने के उद्देश्य से न किया गया हो, साझेदारी के अन्तर्गत सम्मिलित नहीं किया जाता है।
(4) लाभोपार्जन एवं उसका विभाजन
साझेदारी का मुख्य उद्देश्य लाभ कमाना तथा उसे परस्पर एक पूर्व निश्चित अनुपात में बाँटना होता है। समाज सेवा के उद्देश्य से बिना लाभ के किया जाने वाला व्यवसाय साझेदारी व्यवसाय नहीं कहा जा सकता; जैसे- किसी अनाथालय, धर्मशाला, विद्यालय, पुस्तकालय आदि के सदस्य साझेदार नहीं कहला सकते ।
लाभ बाँटने का यह अर्थ नहीं है कि केवल लाभ को ही बाँटा जाएगा, हानि को नहीं बाँटा जाएगा। यदि कोई व्यक्ति साझेदारी व्यवसाय के कार्यों में तो भाग लेता है लेकिन लाभ में भागीदार नहीं होता, तो उसे साझेदार नहीं कहा जा सकता, परन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं निकालना चाहिए कि "लाभ विभाजन साझेदारी का पक्का प्रमाण है।"
अतः यह भी आवश्यक नहीं कि फर्म में लाभ का भागीदार होने वाला व्यक्ति फर्म का साझेदार हो।
निम्नलिखित व्यक्ति फर्म के लाभ में भागीदार होने पर भी साझेदार नहीं कहलाए जाते-
- फर्म का प्रबन्धक या अन्य कोई उच्चाधिकारी जिसे अधिक एवं अच्छे कार्य के लिए लाभ में से कुछ हिस्सा दिया जाता हो
- जब किसी स्वर्गीय साझेदार की विधवा को लाभ में से वृति देने का उद्देश्य मृत साझेदार की सेवाओं का प्रतिफल माना जा रहा हो; तथा
- किसी अवयस्क को फर्म में केवल लाभ में से हिस्सा देने के लिए साझेदार बनाया गया हो।
(5) व्यवसाय का संचालन
साझेदारी व्यवसाय के संचालन में भाग लेने का अधिकार सभी साझेदारों को होता है, लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि सभी साझेदार सक्रिय रूप से भाग लें। साझेदारी का संचालन सभी की सहमति से एक या अधिक साझेदारों द्वारा किया जा सकता है।
(6) असीमित दायित्व
साझेदारी व्यवसाय में प्रत्येक साझेदार का दायित्व असीमित होता है की दशा में साझेदारों की व्यक्तिगत सम्पत्ति को प्रयोग में लाया जा सकता है। यह दायित्व संयुक्त एवं पृथक् दोनों प्रकार का हो सकता है।
(7) साझेदारों के मध्य प्रतिनिधि सम्बन्ध
प्रत्येक साझेदार अपनी फर्म एवं अन्य साझेदारों का प्रतिनिधि या एजेण्ट होता है। इसका आशय यह है कि वह अपने कार्यों से फर्म एवं साझेदारों को बाध्य करता है। इसके साथ ही, क्योंकि प्रत्येक साझेदार अन्य साझेदारों के कार्य से बाध्य होता है; अतः वह एक प्रधान या स्वामी भी होता है। फर्म भी अपने कार्यों द्वारा साझेदारों को बाध्य कर सकती है।
(8) हित हस्तान्तरण पर प्रतिबन्ध
साझेदारी परस्पर विश्वास के आधार पर किया गया एक अनुबन्ध होता है; अतः कोई भी साझेदार बिना अन्य साझेदारों की पूर्व सहमति के अपना हिस्सा या कोई अधिकार किसी अन्य बाह्य व्यक्ति को हस्तान्तरित नहीं कर सकता।
(9) फर्म का निश्चित नाम होना
फर्म का एक निश्चित नाम होना अत्यन्त आवश्यक है। जिस नाम से साझेदार कारोबार या व्यवसाय करते हैं, उसी को 'फर्म का नाम' कहते हैं।
(10) पृथक् अस्तित्व का अभाव
साझेदार का फर्म से पृथक् अस्तित्व नहीं होता। कानून की दृष्टि में ये दोनों एक-दूसरे से पृथक् न होकर परस्पर पूरक ही हैं। कोई भी फर्म साझेदार द्वारा किए गए किसी भी अनुबन्ध के लिए उत्तरदायी होती है तथा फर्म के ऋणों के लिए प्रत्येक साझेदार उत्तरदायी होता है।
(11) सद्भावना का अनुबन्ध
साझेदारी अनुबन्ध की गणना सद्भावना के अनुबन्धों में होती है। सद्भावना के अनुबन्धों की एक विशेषता यह है कि इनमें एक पक्षकार को यदि कोई महत्त्वपूर्ण जानकारी है, जिसका दूसरे पक्षकार को ज्ञान नहीं है और जो उसकी अनुबन्ध करने की इच्छा को प्रभावित कर सकती है, तो प्रथम पक्षकार का यह कर्तव्य हो जाता है कि इसका ज्ञान दूसरे पक्षकार को भी कराया जाए।
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(12) नकद पूँजी लगाना अनिवार्य नहीं
साझेदारी फर्म में यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक साझेदार फर्म में नकद पूँजी लगाए। कुछ व्यापारी नकद पूँजी लगा सकते हैं, तो कुछ व्यापारी माल का स्टॉक लगा सकते हैं।
(13) केवल व्यक्ति ही साझेदार
साझेदारी फर्म में केवल व्यक्ति ही साझेदार हो सकता है, कोई अन्य फर्म या साझेदारी संस्था नहीं।
साझेदारी के भेद अथवा प्रकार
सामान्यतः साझेदारी के प्रमुख भेद निम्नलिखित हैं-
(1) ऐच्छिक साझेदारी (Partnership at Will)
यदि साझेदारी के अनुबन्ध से साझेदारी की अवधि अथवा उसके विघटन या समापन के सम्बन्ध में कोई बात नहीं दी गयी है, तो ऐसी साझेदारी को 'ऐच्छिक साझेदारी' कहेंगे। इस प्रकार की साझेदारी को किसी भी समय समस्त साझेदारों की सहमति से अथवा किसी एक साझेदार द्वारा भंग करने की सूचना देकर समाप्त किया जा सकता है।
(2) विशिष्ट साझेदारी (Particular Partnership)
भारतीय साझेदारी अधिनियम की धारा 8 के अनुसार, जब किसी विशिष्ट व्यवसाय अथवा विशेष कार्य के लिए साझेदारी का निर्माण किया जाता है, तो उसे 'विशिष्ट साझेदारी' कहते हैं। इस प्रकार की साझेदारी किसी निश्चित व्यवसाय के लिए प्रारम्भ की जाती है और उस उद्देश्य के पूर्ण होने पर साझेदारी भी स्वतः समाप्त हो जाती है।
(3) नियत अवधि की साझेदारी (Fixed Term Partnership)
यदि किसी साझेदारी का निर्माण एक नियत अवधि के लिए ही किया जाता है तो उसे 'नियत अवधि की साझेदारी' या 'निश्चितकालीन साझेदारी' कहेंगे। ऐसी दशा में जैसे ही नियत अवधि समाप्त होती है, साझेदारी का भी अन्त हो जाता है।
(4) अनिश्चितकालीन साझेदारी (Non-Fixed Term Partnership)
यदि साझेदारी के अनुबन्ध में अवधि या समय के सम्बन्ध में कोई प्रतिबन्ध नहीं है और न ही उसका निर्माण किसी कार्य या उद्देश्य विशेष के लिए हुआ है, तो उसे 'अनिश्चितकालीन साझेदारी' (Partnership for a Non-Fixed Term) कहेंगे। ऐसी परिस्थिति में साझेदारी का समापन केवल विधान के अन्तर्गत किया जा सकता है (जैसे- किसी आकस्मिक घटना के घटने पर-उदाहरणार्थ, किसी साझेदार की मृत्यु, आदि) अन्यथा वह निरन्तर चालू रहती है।
(5) सामान्य साझेदारी
जिन फर्मों का नियमन व नियन्त्रण भारतीय साझेदारी अधिनियम, 1932 द्वारा किया जाता है, उन्हें साधारण साझेदारी (Ordinary Partnership) कहते हैं। प्रायः साझेदारियां 'सामान्य' या 'साधारण' ही होती हैं। इनमें साझेदारों का दायित्व असीमित होता है, अर्थात् फर्म के समापन पर यदि फर्म के ऋणों के चुकाने के लिए साझेदारी की सम्पत्ति अपर्याप्त रहे तो साझेदारों की व्यक्तिगत सम्पत्ति भी ली जा सकती है।
(6) सीमित साझेदारी
जिस साझेदारी संस्था में कुछ साझेदारों का उत्तरदायित्व उनके द्वारा दी गयी पूंजी की सीमा तक सीमित होता है, उनको 'सीमित साझेदारी' (Limited Partnership) कहते हैं। भारत में सीमित साझेदारी कानून द्वारा मान्य नहीं है।
साझेदारी के गुण
साझेदारी से प्राप्त होने वाले प्रमुख गुण या लाभ निम्नलिखित हैं-
(1) सुगम स्थापना
एकाकी व्यापार की भाँति साझेदारी की स्थापना भी सुगमता से की जा सकती है। साझेदारी की स्थापना में कोई विशेष वैधानिक कार्यवाही पूर्ण नहीं करनी पड़ती।
(2) अधिक वित्तीय साधन
चूंकि इसमें दो या दो से अधिक व्यक्ति मिलकर पूँजी लगाते हैं, अतः एकाकी व्यापारी की तुलना में इसमें अधिक पूँजी एकत्र हो जाती है।
(3) लोचपूर्ण
साझेदारी व्यवसाय में लोच की मात्रा अधिक पाई जाती है; क्योंकि इसमें साझेदारों की संख्या में कमी या वृद्धि करना सरल होता है।
(4) प्रेरणा
साझेदारों को यह ज्ञात होता है कि व्यवसाय में जितना अधिक लाभ होगा, उसके वे ही अधिकारी होंगे; अतः उनको अधिक लगन से कार्य करने की प्रेरणा मिलती है तथा हानि से बचने के लिए वे अधिक परिश्रम करते हैं।
(5) ऋण प्राप्ति में सुविधा
साझेदारों का दायित्व असीमित होने के कारण उनको एकाकी व्यापार की अपेक्षा साख अधिक होने के कारण ऋण प्राप्त करने में सुविधा रहती है।
(6) श्रेष्ठ जनसम्पर्क
साझेदारी व्यवसाय में साझेदार स्वयं व्यवसाय का संचालन करते हैं; अतः ग्राहकों, कर्मचारियों एवं अन्य पक्षों के साथ उनके श्रेष्ठ सम्पर्क स्थापित हो जाते हैं जिसका फर्म को लाभ मिलता है।
(7) अवयस्क को संरक्षण
साझेदारी में अवयस्क के हितों की रक्षा कानून करता है। वह फर्म के कार्यों में सक्रिय भाग नहीं ले सकता तथा अवयस्क दायित्व भी उसके भाग तक ही सीमित होता है।
(8)सन्तुलित निर्णय
साझेदारी व्यवस्था में सभी अनुभवी एवं विशेषज्ञ साझेदारों की राय से निर्णय लिए जाने से निर्णय श्रेष्ठ एवं सन्तुलित होते हैं।
(9) पंजीयन की अनिवार्यता न होना
साझेदारी अधिनियम के अनुसार, फर्मों का पंजीकरण कराना वांछनीय अवश्य है, किन्तु अनिवार्य नहीं है। अतः फर्म का पंजीकरण कराना या न कराना साझेदारों की इच्छा पर निर्भर करता है।
(10) विशिष्टीकरण के लाभ
फर्म के कार्यों का विभाजन साझेदारों के मध्य उनकी योग्यता के अनुसार किया जा सकता है। इससे साझेदारों की विशेष योग्यता एवं सेवाओं का लाभ साझेदारी फर्म को मिल जाता है।
(11) अल्पमत को पर्याप्त संरक्षण
साझेदारी में अल्पमत को बहुमत द्वारा दबाया नहीं जा सकता; क्योंकि इन्हें वैधानिक संरक्षण प्राप्त होता है। असन्तुष्ट साझेदार कभी भी साझेदारी को समाप्त कर सकता है।
(12) व्यवसाय परिवर्तन की सुगमता
यदि साझेदार यह महसूस करते हैं कि व्यवसाय लाभप्रद नहीं चल रहा हैं, तो वे सभी साझेदारों की पूर्व सहमति से, बिना किसी वैधानिक उपचार के, दूसरा व्यवसाय प्रारम्भ कर सकते हैं।
(13) श्रम को प्रोत्साहन
एकाकी व्यापारी की अपेक्षा साझेदारों में कार्य करने की अधिक लगन एवं उत्साह होता है। वे स्वेच्छा से कार्य का विभाजन करके अपनी सम्पूर्ण शक्ति व्यापार संचालन में लगा देते हैं। इसके साथ हो वे अत्यधिक परिश्रम द्वारा व्यापार को प्रोत्साहन देने का भरसक प्रयास करते हैं।
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(14) अधिक जोखिम वाले कार्यों के लिए उपयुक्त
साझेदारी फर्म ऐसे कार्यों के लिए अधिक उपयुक्त है, जिसमें अधिक जोखिम तथा लाभ प्राप्ति की सम्भावना होती है।
(15) सहकारिता को बल
साझेदारी में प्रत्येक कार्य सभी साझेदारों की सहमति से किया जाता है; अतः साझेदारों में प्रेम तथा सहयोग की भावना को प्रोत्साहन मिलता है।
(16) कुशलता में वृद्धि
साझेदारी में प्रत्येक साझेदार वही कार्य करता है, जिसमें वह निपुण होता है। कार्य के विशिष्टीकरण से भी साझेदारों की कुशलता बढ़ती है।
(17) संचालन में सुविधा
साझेदारी संस्था में प्रत्येक साझेदार को व्यापार संचालन में भाग लेने का अधिकार होता है। अतः कार्य का विभाजन साझेदारों में उनकी रुचि एवं योग्यता के अनुसार हो जाता है। इससे एक व्यक्ति पर कार्य का अधिक भार नहीं पड़ता ।
साझेदारी के दोष
साझेदारी से जहाँ अनेक लाभ प्राप्त होते हैं, वहीं इससे अनेक हानियाँ भी होती हैं। साझेदारी के कुछ प्रमुख दोष या हानियाँ निम्नलिखित है-
(1) असीमित उत्तरदायित्व
साझेदारी में समस्त साझेदारों का दायित्व असीमित होता है। फलस्वरूप साझेदारी के ऋणों के भुगतान के लिए साझेदारों की व्यक्तिगत सम्पत्ति प्रयोग में लाई जा सकती है।
(2) शीघ्र निर्णय का अभाव
किसी भी निर्णय के लिए साझेदारों की सहमति आवश्यक होती है; अतः निर्णय लेने के अभाव में अनावश्यक रूप से देरी हो जाती है।
(3) अस्थायी अस्तित्व
साझेदारी का जीवन अस्थायी होता है। विपरीत अनुबन्ध में प्रत्येक साझेदार फर्म को समाप्त करने का अधिकार रखता है। इसके अलावा, कभी-कभी साझेदार की मृत्यु एवं दिवालियापन भी साझेदारी के समापन का कारण बन जाता है।
(4) दोषपूर्ण प्रबन्ध
साझेदारी का प्रबन्ध सभी साझेदारों द्वारा किया जाता है, फलस्वरूप सभी साझेदार अपनी-अपनी मनमानी करने का प्रयास करते हैं। इससे व्यवसाय के प्रबन्ध एवं संचालन में शिथिलता आ जाती है; क्योंकि एकाकी व्यवसाय की भांति सम्पूर्ण प्रबन्धकीय क्रियाएँ एक ही व्यक्ति द्वारा नहीं की जातीं।
(5) सीमित साधन
बड़े आकार वाले व्यवसाय के लिए साझेदारी में वित्तीय साधन सीमित होते हैं। इस प्रकार साझेदारों की अधिकतम संख्या पर प्रतिबन्ध होने से उनकी संख्या में वृद्धि करना सम्भव नहीं होता।
(6) हित हस्तान्तरण में कठिनाई
साझेदारी में कोई भी साझेदार बिना अन्य सभी साझेदारों की सहमति के अपने हित का हस्तान्तरण नहीं कर सकता है।
(7) गोपनीयता से सन्देह को जन्म
खाते गोपनीय रखने के कारण तीसरे पक्ष को फर्म की आर्थिक स्थिति के सम्बन्ध में सदैव आशंका बनी रहती है।
(8) मतभेद की आशंका
साझेदारी में सदैव साझेदारों में आपसी मतभेद की आशंका रहती है। किसी भी प्रकार के मतभेद की दशा में व्यवसाय का संचालन बहुत कठिन हो जाता है। कभी-कभी तो फर्म की समाप्ति तक भी हो जाती है।
(9) बड़ी व्यावसायिक योजनाओं के लिए अनुपयुक्त
साझेदारों का असीमित दायित्व एवं सीमित वित्तीय साधन होने के कारण बड़ी व्यावसायिक योजनाओं के लिए व्यवसाय का यह स्वरूप पूर्णतया अनुपयुक्त है।
(10) साझेदारी की समाप्ति के बाद भी साझेदारों का दायित्व
साझेदारी में फर्म की समाप्ति के बाद भी साझेदारों का दायित्व तब तक बना रहता है जब तक कि फर्म की समाप्ति की सूचना जनता को न दे दी जाए।
साझेदारी के प्रकार
सामान्यतः साझेदारी निम्नलिखित प्रकार की होती है-
(1) ऐच्छिक साझेदारी
साझेदारी अधिनियम की धारा 7 के अनुसार- "यदि साझेदारी के अनुबन्ध में साझेदारों को अवधि सम्बन्धी कोई बात नहीं दी है, तब ऐसी साझेदारी को 'ऐच्छिक साझेदारी' कहा जाता है।"
ऐसी साझेदारी का अन्त एक साझेदार की इच्छा पर निर्भर होता है तथा इसे साझेदारों की इच्छा पर किसी भी समय समाप्त किया जा सकता है।
(2) विशिष्ट साझेदारी
साझेदारी अधिनियम की धारा 8 के अनुसार- "किसी भी कार्य या व्यवसाय में कोई व्यक्ति साझेदार हो सकता है और ऐसी साझेदारी को 'विशिष्ट साझेदारी' कहते हैं।"
इस प्रकार की साझेदारी उपक्रम या कार्य की समाप्ति पर स्वतः ही समाप्त हो जाती है। जैसे- राम व श्याम ने किसी मेले में दुकान लगाकर माल बेचने का निश्चय किया; अतः यह विशेष साझेदारी कहलाएगी। जब मेला समाप्त होगा, तब साझेदारी भी स्वतः समाप्त समझी जाएगी।
(3) सामान्य या वैध साझेदारी
जिन साझेदारी फर्मों का निर्माण व नियन्त्रण 'साझेदारी अधिनियम, 1932 ई० के द्वारा किया जाता है, वह 'सामान्य साझेदारी' कहलाती है। इस प्रकार की साझेदारी में साझेदारों का दायित्व असीमित होता है अर्थात् फर्म के समापन पर यदि फर्म के ऋणों का निपटारा करने के लिए साझेदारी फर्म की सम्पत्तियाँ अपर्याप्त रहती हैं, तो साझेदारों की व्यक्तिगत सम्पत्ति को इस उद्देश्य के लिए प्रयोग किया जा सकता है। इसे 'वैध साझेदारी' भी कहा जाता है।
(4) अवैध साझेदारी
भारतीय प्रसंविदा अधिनियम की धारा 23 के अनुसार- "कोई भी साझेदारी, जो किसी गैरकानूनी व्यवसाय के लिए की गई हो या जिसका उद्देश्य अवैधानिक हो, अवैध होती है। इस प्रकार ऐसी साझेदारी के सदस्य न तो किसी प्रकार का अनुबन्ध ही कर सकते हैं और न ही वे किसी अन्य व्यक्ति पर या कोई अन्य व्यक्ति उन पर बाद ही प्रस्तुत कर सकते हैं।"
यह साझेदारी निम्नलिखित दशाओं में अवैध हो जाती है-
- यदि उसके सदस्यों को संख्या में परिवर्तन हो जाता है।
- यदि उसके निर्माण का उद्देश्य अवैधानिक होता है।
- यदि एक या सभी साझेदार दिवालिया हो जाते हैं।
- यदि विदेशी साझेदारों की स्थिति में कोई परिवर्तन हो जाता है।
- यदि वह जनहित या अन्तर्राष्ट्रीय नीति के विरुद्ध कोई कार्य करती है।
- यदि वह न्यायालय द्वारा समाप्त हो जाने पर भी व्यापार का संचालन करती रहती है।
(5) सीमित साझेदारी
सीमित साझेदारी वह है, जिसमें एक या एक से अधिक व्यक्ति साधारण साझेदार हों, जिनका दायित्व असीमित हो तथा एक या एक से अधिक साझेदार ऐसे अवश्य हों, जिनका दायित्व उनके द्वारा व्यवसाय में दिए गए धन तक सीमित हो। इस प्रकार की साझेदारी का समापन उस समय भी नहीं होता, जब किसी सीमित साझेदार की मृत्यु हो जाती है या वह पागल/दिवालिया हो जाता है। सीमित साझेदार फर्म का न तो प्रतिनिधि माना जाता है और न ही वह अपने कार्यों से फर्म को बाध्य हो कर सकता है।
(6) निश्चित अवधि के लिए साझेदारी
इस प्रकार की साझेदारी की स्थापना एक निश्चित अवधि के लिए ही की जाती है। अवधि समाप्त हो जाने पर साझेदारी स्वतः भंग हो जाती है।
(7) अनिश्चित अवधि के लिए साझेदारी
यदि साझेदारी के अनुबन्ध में अवधि या समय सम्बन्धी कोई प्रतिबन्ध नहीं है और न ही उसका निर्माण किसी कार्य या उद्देश्य विशेष के लिए हुआ है, तब उसे अनिश्चित अवधि के लिए साझेदारी' कहा जाता है। इस प्रकार की साझेदारी का समापन केवल विधान के अन्तर्गत ही किया जा सकता है, अन्यथा वह निरन्तर चालू रहती है।