साझेदारी फर्म के विघटन से आप क्या समझते हैं? एक फर्म का विघटन किन-किन परिस्थितियों में हो सकता है?
साझेदारी फर्म का समापन (विघटन) से आशय
प्रायः साझेदारी की समाप्ति तथा फर्म की समाप्ति का एक ही अर्थ लगाया जाता है, लेकिन वास्तव में इन दोनों में बहुत अन्तर है। "साझेदारी की समाप्ति से आशय व्यवसाय के संगठन की समाप्ति से है।" इस दशा में किसी साझेदार का सम्बन्ध अन्य साझेदारों से टूट जाता है और अन्य साझेदार फर्म का कारोबार चालू रखते हैं। "फर्म की सम्पत्ति से आशय फर्म का अस्तित्व समाप्त हो जाने से है।"
साझेदारी फर्म के समापन की दशाएँ
साझेदारी का समापन निम्नलिखित दशाओं में हो सकता है-
- किसी साझेदार द्वारा अवकाश ग्रहण करने पर।
- किसी साझेदार की मृत्यु की दशा में।
- किसी साझेदार के दिवालिया घोषित होने पर।
- किसी साझेदार की असमर्थता की दशा में।
- किसी विशेष उपक्रम, जिसके लिए साझेदारी की गई थी, के पूर्ण होने की दशा में।
साझेदारी फर्म के समापन की विधियाँ
भारतीय साझेदारी अधिनियम के अनुसार साझेदारी फर्म के समापन की निम्नलिखित विधियाँ हैं-
(1) समझौते द्वारा समापन
इस दशा में किसी भी फर्म को सभी साझेदारों की सहमति या किसी ठहराव या समझौते के द्वारा कभी भी समाप्त किया जा सकता है। जिस प्रकार साझेदारी फर्म की स्थापना आपसी समझौते के द्वारा होती है, उसी प्रकार उसका विघटन भी आपसी समझौते द्वारा किया जा सकता है। [ धारा 40 ]
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(2) अनिवार्य समापन
किसी भी साझेदारी फर्म का समापन निम्नलिखित दशाओं में अनिवार्य रूप से हो जाता है-
- जब सभी साझेदार या किसी एक को छोड़कर अन्य साझेदार दिवालिया घोषित कर दिए जाएँ।
- जब साझेदारों की न्यूनतम व अधिकतम संख्या में परिवर्तन हो जाए।
- जब साझेदारी फर्म का चलाना अवैधानिक हो जाए।
- जब फर्म में शत्रु देश का कोई व्यक्ति साझेदार हो। [ धारा 41]
(3) कुछ संयोगों की दशा में समापन
किसी विपरीत अनुबन्ध के न होने पर अपलिखित परिस्थितियों में फर्म का विघटन अनिवार्य रूप से हो जाता है-
- निश्चित अवधि के लिए फर्म का गठन किए जाने पर वह समय बीत जाए।
- किसी विशेष उपक्रम के लिए फर्म बनाई जाए और वह उपक्रम पूरा हो जाए।
- यदि किसी साझेदार की मृत्यु हो जाए।
- यदि कोई साझेदार दिवालिया घोषित हो जाए।
- यदि कोई साझेदार फर्म को त्याग दे।
(4) सूचना द्वारा समापन
इस दशा में किसी भी साझेदार द्वारा अन्य साझेदारों को फर्म के विघटन को लिखित सूचना देने पर फर्म का विघटन या समापन हो जाता है। विघटन की सूचना स्पष्ट तथा निश्चित होनी चाहिए। इस प्रकार के समापन में यदि कोई निश्चित तिथि नहीं दी होती तब सूचना की तिथि से ही साझेदारी का अन्त माना जाएगा। एक बार विघटन की सूचना दिए जाने के बाद अन्य साझेदारों की सहमति के बिना उस सूचना को वापस नहीं लिया जा सकती।
(5) न्यायालय द्वारा समापन
किसी साझेदार द्वारा अभियोग चलाए जाने पर न्यायालय निम्नलिखित दशाओं में साझेदारी समाप्त करने का आदेश दे सकता है-
- किसी एक साझेदार के पागल हो जाने पर।
- किसी साझेदार के दुराचार के आधार पर।
- यदि कोई साझेदार (अभियोग चलाने वाले साझेदार के अतिरिक्त) स्थायी रूप से व्यापार के अयोग्य हो जाए।
- किसी साझेदार द्वारा (अभियोग चलाने वाले साझेदार के अतिरिक्त) फर्म के व्यापार में अनुचित कार्यों द्वारा हानि पहुँचाने पर।
- किसी साझेदार द्वारा (अभियोग चलाने वाले साझेदार के अतिरिक्त) जान-बूझकर फर्म के संचालन सम्बन्धी अनुबन्ध तोड़ने पर ।
- किसी साझेदार द्वारा (अभियोग चलाने वाले साझेदार के अतिरिक्त) अपना हित किसी तीसरे पक्षकार को हस्तान्तरित कर देने पर।
- जब फर्म में लगातार हानि हो रही हो और भविष्य में भी हानि होने की आशंका हो ।
- जब न्यायालय अन्य किसी कारण से फर्म का विघटन करना उचित एवं न्यायसंगत समझे।
फर्म की समाप्ति पर साझेदारों के अधिकार व दायित्व
साझेदारी फर्म की समाप्ति पर साझेदारों के दायित्व तुरन्त समाप्त नहीं हो जाते, वरन् वे बने रहते हैं। भारतीय साझेदारी अधिनियम की धारा 45 से 55 के अन्तर्गत फर्म की समाप्ति पर साझेदारों के निम्नलिखित अधिकार व दायित्वों का वर्णन किया गया है-
(1) सार्वजनिक सूचना देना
धारा 45 के अनुसार, फर्म के विघटन की सार्वजनिक सूचना देना आवश्यक है। यह सूचना किसी भी साझेदार द्वारा दी जा सकती है। जब तक सूचना नहीं दी जाती है, तब तक फर्म के साझेदार अन्य पक्षकारों के प्रति फर्म के दायित्व पर किए गए कार्यों के लिए उत्तरदायी होंगे। यदि फर्म का समापन किसी साझेदार की मृत्यु के कारण हुआ है, तो उसका प्रतिनिधि फर्म के समापन की तिथि के बाद के व्यवहारों के लिए तीसरे पक्ष के प्रति उत्तरदायी नहीं होगा।
(2) फर्म की सम्पत्ति का प्रयोग
धारा 46 के अनुसार, फर्म के समापन के बाद प्रत्येक साझेदार का यह कर्त्तव्य है कि वह फर्म की समस्त सम्पत्ति का प्रयोग फर्म के ऋणों तथा दायित्वों के भुगतान में ही करे। यदि कोई शेष बचता है तो उसे समस्त साझेदारों में उनके अधिकारों के अनुसार वितरित कर दे।
(3) प्रत्येक साझेदार के अधिकार
धारा 47 के अनुसार, फर्म के समापन के बाद प्रत्येक साझेदार फर्म को उस समय तक अपने कार्यों से बढ कर सकता है, जब तक कि अपूर्ण कार्य पूरे न हो जाएँ।
(4) लाभ का विवरण फर्म को देना
धारा 50 के अनुसार, यदि किसी साझेदारी फर्म का समापन किसी साझेदार की मृत्यु के कारण हुआ है, लेकिन अन्य साझेदारों ने फर्म के सम्बन्धों का प्रयोग करके अन्य लाभ अर्जित किए हैं, तो इनका विवरण फर्म को देना होगा।
(5) राशि वापस पाने का अधिकार
धारा 51 के अनुसार, यदि किसी साझेदार ने निश्चित समय तक सम्मिलित रहने के लिए प्रीमियम की राशि अदा की है तथा फर्म का समापन उसके दुराचरण के कारण न होकर अन्य किसी कारण से उस अवधि से पूर्व हो कर दिया जाता है, तो उसे उस राशि को वापस प्राप्त करने का अधिकार है।
(6) पूँजी पर पूर्वाधिकार
धारा 52 के अनुसार, यदि किसी साझेदारी को समाप्ति किसी साझेदार के कपट या मिथ्या वर्णन के कारण होती है तो साझेदारी समाप्त करने का अधिकार रखने वाले साझेदारों को पूँजी के लिए पूर्वाधिकार तथा ऋणदाता के रूप में अधिकार प्राप्त होता है।"
(7) किसी साझेदार द्वारा फर्म की सम्पत्ति को अपने नाम में प्रयोग करने को रोकना
धारा 53 के अनुसार, जब तक फर्म में मामलों का पूर्ण निपटारा न हो जाए, प्रत्येक साझेदार को किसी अन्य साझेदार द्वारा फर्म के नाम या सम्पत्ति के प्रयोग को रोकने का अधिकार है।
(8) पारस्परिक अनुबन्ध
धारा 54 के अनुसार, फर्म को समाप्ति पर या समाप्ति की आशा में साझेदार आपस में यह अनुबन्ध कर सकते हैं कि वे एक निश्चित समय तक निश्चित सीमा के अन्तर्गत फर्म से मिलता-जुलता व्यापार नहीं करेंगे।
(9) फर्म के कारोबार से मिलता-जुलता व्यवसाय करना
धारा 55 के अनुसार फर्म की समाप्ति पर ख्याति को अन्य सम्पत्ति की भाँति माना जाता है। फर्म को समाप्ति पर उसकी ख्याति की बिक्री के बाद साझेदार फर्म से मिलता-जुलता व्यापार कर सकते हैं, लेकिन वे फर्म का नाम प्रयोग में नहीं ला सकते, फर्म के ग्राहकों को तोड़ नहीं सकते तथा अपने कारोबार को फर्म के नाम से चला नहीं सकते।
फर्म की समाप्ति पर हिसाब-किताब का निपटारा
फर्म की समाप्ति पर हिसाब-किताब का निपटारा साझेदारी अधिनियम 1932 ई० की धारा 48 के अनुसार, 'फर्म के हिसाब-किताब' के निपटारे के सम्बन्ध में या अन्य किसी ठहराव के अभाव में साझेदारी में निम्नलिखित व्यवस्थाएं लागू होती हैं-
(1) हानियों की पूर्ति व्यापारिक हानियों को एवं साझेदारों के पूंजी खाते की कमियों को सर्वप्रथम लाभ में से फिर यदि आवश्यकता हो, तो साझेदारों को व्यक्तिगत सम्पत्ति (पूँजी सहित) में से उनके लाभ- विभाजन अनुपात में पूरा किया जाएगा।
(2) सम्पत्तियों का उपयोग फर्म को सम्पत्तियों का उपयोग निम्नलिखित क्रम से किया जाएगा-
- तीसरे पक्षकार के ऋणों का भुगतान करने में ।
- साझेदारों द्वारा फर्म को दिए गए ऋणों का भुगतान करने में ।
- साझेदारों द्वारा दी गई आनुपातिक पूंजी का भुगतान करने में।
- शेष को साझेदारों के लाभ-हानि विभाजन अनुपात में वितरित किया जाएगा।
यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि फर्म के विरुद्ध देनदारियों से सम्बन्धित कोई दावा, साझेदारी फर्म के समापन के तीन वर्षों के अन्दर ही पेश करना अनिवार्य है, अन्यथा ऐसे दावे पर विचार नहीं किया जाएगा।