बौद्ध कालीन शिक्षा की विशेषताएं

शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ

बौद्ध धर्म के आदर्श उद्देश्य और सिद्धान्त वैदिक धर्म से बहुत-कुछ भिन्न थे अतः बौद्ध धर्म के प्रचार और प्रसार के लिए एक विशिष्ट शिक्षा प्रणाली का संगठन किया गया। 

अतः हम इस प्रणाली की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन निम्नांकित शीर्षकों के अन्तर्गत कर रहे हैं-

(1) पब्बज्जा संस्कार ( Pabbajja Ceremony) 

 'पब्बज्जा' का शाब्दिक अर्थ है- बाहर जाना (Going out)। इस संस्कार का अभिप्राय था कि बालक अपने परिवार और पूर्व स्थिति का परित्याग करके संघ में प्रवेश करता था। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इस संस्कार का सम्बन्ध केवल उन व्यक्तियों से था, जिनके जीवन का उद्देश्य बौद्ध भिक्षु बनना था। यह संस्कार 8 वर्ष की आयु से पहले सम्पन्न नहीं हो सकता था।

'विनय पिटक' (Vinaya Pitaka) में पब्बज्जा संस्कार का वर्णन इस प्रकार किया गया है- 

"बालक अपने सिर के बाल मुड़ाता था, पीले वस्त्र धारण करता था, प्रवेश करने वाले मठ के भिक्षुओं के चरणों को अपने मस्तक से स्पर्श करता था और उनके सामने पालती मार कर भूमि पर बैठ जाता था। तदुपरान्त, मठ का सबसे बड़ा भिक्षु उससे तीन बार यह शपथ लेने को कहता था- "बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघ शरणं गच्छामि।"

जब बालक यह शपथ ले लेता था, तब भिक्षु उसको अग्रांकित 10 आदेश देता था-

  • चोरी मत करना, 
  • जीव हत्या मत करना, 
  • असत्य भाषण मत करना, 
  • अशुद्ध आचरण मत करना, 
  • वर्जित समय पर आहार मत करना, 
  • मादक वस्तुओं का प्रयोग मत करना, 
  • श्रृंगार की वस्तुओं का प्रयोग मत करना, 
  • बिना दिए हुए किसी वस्तु को ग्रहण मत करना, 
  • सोना, चाँदी और बहुमूल्य वस्तुओं का दान मत लेना, 
  • नृत्य, संगीत, तमाशे आदि के पास जाने का प्रयास मत करना।

इन आदेशों के पश्चात् बालक "नव-शिष्य", "श्रमण" या "सामनेर" (Novice or Samanera) कहा जाता था और अपने द्वारा चुने जाने वाले भिक्षु से 12 वर्ष तक शिक्षा ग्रहण करता था।

(2) उपसम्पदा संस्कार ( Upasampada Ceremony)

नवशिष्य के रूप में 22 वर्ष की शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् छात्र के लिए मठ को छोड़ना अनिवार्य था। पर वह 'उपसम्पदा संस्कार' सम्पादित करके पूर्ण भिक्षु की स्थिति प्राप्त कर सकता था और बौद्ध संघ का स्थायी सदस्य बन सकता था।

"उपसम्पदा संस्कार"- बौद्ध संघ के कम से कम 10 भिक्षुओं की उपस्थिति में होता था। उसमें नवशिष्य का आचार्य भी होता था। वह अन्य भिक्षुओं को नवशिष्य का परिचय देता था। तत्पश्चात् भिक्षु, नवशिष्य से अनेक प्रकार के प्रश्न पूछते थे। उसके उत्तरों को सुनने के बाद वे बहुमत से यह निर्णय करते थे कि नवशिष्य को 'उपसम्पदा' ग्रहण करने का अधिकार है या नहीं। इस प्रकार का निर्णय यह सिद्ध करता है कि 'उपसम्पदा संस्कार में जनतन्त्रीय प्रणाली का प्रयोग किया जाता था।

यदि निर्णय नवशिष्य के पक्ष में होता था, तो उसे भिक्षु के रूप में संघ में प्रवेश करने की अनुमति दे दी जाती थी।

अतः इस अवसर पर उसे संघ से अग्रांकित 8 नियमों का पालन करने का आदेश दिया जाता था - 

  • वृक्षों के नीचे वास करना। 
  • साधारण वस्त्र धारण करना। 
  • सात्विक भोजन का प्रयोग करना। 
  • भोजन के लिए भिक्षा माँगना। 
  • औषधि के रूप में गौ मूत्र सेवन करना। 
  • चोरी और जीव-हत्या मत करना। 
  • अलौकिक शक्तियों का दावा मत करना। 
  • स्त्री से यौन सम्बन्ध स्थापित मत करना।

नोट- बालकों और पुरुषों के समान बालिकाओं और स्त्रियों को भी 'पब्बज्जा' और 'उपसम्पदा का अधिकार प्राप्त था।

(3) विद्यार्थित्व (Studentship) 

बौद्ध शिक्षा के द्वार सभी धर्मों वर्गों और जातियों के व्यक्तियों के लिए खुले हुए थे। केवल चांडालों को इस शिक्षा से वंचित रखा गया था। छात्रों में राजाओं, व्यापारियों, दर्जियों और मछली पकड़ने वालों के पुत्र थे। इनमें अधिकाश संख्या ब्राह्मण और क्षत्रिय जातियों के छात्रों की थी।

(4) विद्यार्थियों का चुनाव (Selection of Students) 

सिद्धान्त रूप में शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार समाज के सभी व्यक्तियों को प्राप्त था। किन्तु निम्नांकित 10 वर्गों के किसी व्यक्ति का विद्यार्थित्व के लिए चुनाव नहीं किया जाता था - 

  • जो नपुंसक हो। 
  • जो दास या ऋणी हो। 
  • जो राजा की नौकरी में हो। 
  • जो डाकू घोषित किया गया हो। 
  • जो कारावास से भाग आया हो। 
  • जिसका कोई अंग भंग हो। 
  • जिसके शरीर का कोई भाग विकृत हो। 
  • जिसको राज्य से कोई दण्ड मिला हो। 
  • जिसने अपने माता-पिता की आज्ञा प्राप्त न की हो। 
  • जिसको क्षय, कोढ़, खुजली आदि कोई छूत का रोग हो। 

(5) शिक्षा आरम्भ करने की आयु (Age at the Commencement of Education)

डॉ० ए० एस० अल्तेकर के अनुसार- शिक्षा आरम्भ करने की न्यूनतम आयु 8 वर्ष की थी। यह आयु उन्हीं बालकों के लिए निर्धारित की गई थी, जो संघ में प्रवेश करने का निश्चय कर लेते थे। संघ में प्रवेश करने वाला बालक उसके किसी भिक्षु को अपने शिक्षक के रूप में चुनता था।

(6) अध्ययन की अवधि (Period of Study)

'पब्बज्जा' के बाद अध्ययन की अवधि 12 वर्ष की और 'उपसम्पदा की 10 वर्ष की थी। पब्बज्जा संस्कार 8 वर्ष की आयु में होता था। इस प्रकार, शिक्षा की पूर्ण अवधि 30 वर्ष थी।

(7) अध्ययन के विषय (Subjects of Study)

अध्ययन के विषयों के सम्बन्ध में डॉ० ए० एस० अल्तेकर ने लिखा है- यद्यपि मठों में प्रदान की जाने वाली शिक्षा, बौद्धों द्वारा आयोजित और संगठित की गई थी, तथापि अध्ययन के विषयों का स्वरूप न तो पूर्णतया धार्मिक था और न पूर्णतया लौकिक शिक्षा में बौद्ध दर्शन की प्रधानता अवश्य थी. पर हिन्दू और जैन धर्मों के अध्ययन के प्रति भी पर्याप्त ध्यान दिया गया था। शिक्षा केवल धर्म, दर्शन और तर्कशास्त्र तक ही सीमित नहीं थी. वरन् संस्कृत साहित्य, न्याय-शास्त्र, चिकित्सा शास्त्र आदि विषयों की भी शिक्षा दी जाती थी, ताकि छात्र, नागरिकों के रूप में राज्य और समाज के लिए उपयोगी बनकर उनकी सेवा कर सकें। 

(8) शिक्षा की पद्धति (Method of Education)

बौद्धों ने ब्राह्मणों की वैयक्तिक शिक्षा-पद्धति का अनुकरण न करके, सामूहिक शिक्षा-पद्धति का प्रयोग किया। शिक्षा केन्द्रों में विभिन्न भिक्षुओं द्वारा छात्रों को सामूहिक रूप में विभिन्न विषयों की शिक्षा दी जाती थी।

(9) शिक्षण की विधि (Method of Teaching)

शिक्षण विधि प्राय मौखिक थी। इसके सामान्य अंग थे भाषण, प्रवचन और प्रश्नोत्तर शिक्षण विधि की एक विशेषता यह थी कि उसमें देशाटन, प्रकृति-निरीक्षण और विशेषज्ञों के व्याख्यानों को महत्त्व दिया जाता था एक अनोखी विशेषता को गन्नार मिरडल ने इन शब्दों में अंकित किया है-'शास्त्रीय विवादों को प्रोत्साहित किया जाता था। इस प्रकार की विद्वत् सभाएँ बौद्ध उच्च शिक्षा की एक अनोखी विशेषता थी। " 

(10) छात्र जीवन सम्बन्धी नियम (Rules Governing Student Life)

छात्रों के जीवन के सम्बन्ध में अनेक नियम थे, जिनका उनको अनिवार्य रूप से पालन करना पडता था-

(i) भोजन छात्रों का- भोजन अत्यन्त साधारण था। वे दिन में केवल तीन बार भोजन कर सकते थे। वे और उनके शिक्षक अपने रात्रि-भोजन के लिए प्राय: कहीं न कहीं निमंत्रित रहते थे। 

(ii) वस्त्र- छात्रों को कम और सामान्य जनता से भिन्न प्रकार के वस्त्र पहनने का आदेश था। वे साधारणतः तीन वस्त्र धारण करते थे, जिनको समग्र रूप में तिसिवरा' (Ticivara) कहा जाता था।

(iii) स्नान- छात्रों को सरोवरों में स्नान करते समय कुछ निश्चित नियमों का पालन करना पड़ता था; जैसे- जल में खेल न करना, एक-दूसरे पर पानी न फेंकना और अपने शरीर को किसी वस्तु या सरोवर में स्नान करने वाले किसी छात्र के शरीर से न रगड़ना। 

(iv) भिक्षाटन- छात्रों को प्रातःकाल भिक्षाटन के लिए जाना पडता था वे वैदिक युग के ब्रह्मचारियों के समान बोलकर नहीं वरन मौन रूप में ही भिक्षा की याचना कर सकते थे। वे उतनी भिक्षा माँग सकते थे, जितनी उनके लिए आवश्यक थी। 

(v) अनुशासन- छात्र अनुशासन पर अत्यधिक बल दिया जाता था। छात्र को फूल-पत्तियाँ तोडने, सम्पत्ति रखने, सार्वजनिक स्थानों में तमाशे देखने, हानिप्रद खेलों में भाग लेने, शरीर को अलंकृत करने, गाली-गलौज और झगडा करने का पूर्ण निषेध था। जो छात्र निषिद्ध कार्यों को करते थे, उनको दण्ड दिया जाता था। डॉ० आर० के० मुकर्जी ने लिखा है कि एक बार एक संघ के सब सदस्यों को अनुशासनहीनता के अपराध के कारण संघ से निकाल दिया गया।

(11) गुरु-शिष्य सम्बन्ध (Teacher Pupil Relationship)

बौद्ध काल में गुरु-शिष्य का सम्बन्ध वैदिक काल की ही भाँति पवित्र और स्नेहपूर्ण था। इस सम्बन्ध का मुख्य आधार उनके पारस्परिक कर्त्तव्य थे।

छात्र अपने शिक्षक से पहले उठकर उसके लिए दाँतौन और मुँह धोने के लिए जल लाकर रख देता था। वह अपने शिक्षक के बैठने के स्थान को साफ करता था। जब शिक्षक आता था, तब वह उसे कोई पेय पदार्थ देता था। वह शिक्षक के बर्तनों को साफ करता था और उसके साथ भिक्षाटन के लिए जाता था। वह शिक्षक से पहले लौटकर, उसके भोजन की व्यवस्था करता था। यदि शिक्षक बीमार हो जाता था, तो वह उसकी सेवा में उपस्थित रहता था।

केवल छात्र के ही शिक्षक के प्रति कर्त्तव्य नहीं थे, वरन् शिक्षक के भी छात्र के प्रति कर्तव्य थे। शिक्षक का सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य यह था कि वह प्रत्येक सम्भव विधि का प्रयोग करके छात्र का मानसिक, चारित्रिक और आध्यात्मिक विकास करे। इसके अतिरिक्त वह छात्र के भोजन, वस्त्र, मिक्षा पात्र, रहन-सहन आदि की व्यवस्था करता था। छात्र के अस्वस्थ हो जाने पर वह उसकी सेवा करता था और उसके लिए औषधि का प्रबन्ध करता था।

इस प्रकार, छात्र और शिक्षक में एक-दूसरे के प्रति प्रेम आदर और विश्वास की भावनाएँ निहित थीं। डॉ० ए० एस० अल्तेकर के शब्दों में- "छात्र और उसके शिक्षक के सम्बन्ध पुत्र और पिता के समान थे। वे पारस्परिक सम्मान, विश्वास और प्रेम के द्वारा एक-दूसरे से आबद्ध थे।"

(12) खेल-कूद व शारीरिक व्यायाम (Games, Sports & Physical Exercise)

बौद्ध काल में केवल छात्रों के मानसिक और नैतिक विकास को ही नहीं, वरन् उनके शारीरिक विकास को भी महत्व दिया जाता था। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार के खेल-कूद और शारीरिक व्यायाम निर्धारित थे। छल्लवग्ग' (Challavagga) में हमें इनकी एक विस्तृत सूची मिलती है; यथा कुश्ती लडना, मुक्केबाजी करना, भूमि जोतना, तीर चलाना, तुरही बजाना, रथों की दौड़ करना, इत्यादि। आई-सिंग (I-Tsing) ने नियमित रूप से टहलने जाने का उल्लेख किया है।

(13) सामान्य विद्यालय (Ordinary Schools) 

भारत में सामान्य विद्यालयों की परम्परा स्थापित करने का श्रेय बौद्ध धर्म को प्राप्त है। इसका कारण यह है कि बौद्ध मठ, धार्मिक शिक्षा के अतिरिक्त सामान्य शिक्षा के भी केन्द्र थे। बालक घर पर अपने माता-पिता के साथ रहकर शिक्षा को प्राप्त कर सकते थे। इस प्रकार, ये मठ बहुत कुछ सामान्य विद्यालयों की भाँति थे। इस सन्दर्भ में गन्नार मिरडल ने लिखा है-  "मठ-विद्यालय अधिकतर सामान्य विद्यालयों की भाँति कार्य करने लगे, क्योंकि बालक अपने परिवारों के साथ रह कर शिक्षा ग्रहण कर सकते थे।"

(14) लोकभाषाओं को प्रोत्साहन (Impetus to Vernaculars)

महात्मा बुद्ध के आदेशानुसार, भिक्षुओं को उनकी स्वयं की भाषाओं में शिक्षा दी जाती थी। इसका परिणाम बताते हुए डॉ० आर० के० मुकर्जी ने लिखा है- "बौद्धधर्म ने देश की लोकभाषाओं को प्रोत्साहन प्रदान किया और बौद्ध- शिक्षा संस्थाओं में संस्कृत के बजाय लोकभाषाओं ने शिक्षा के माध्यम का स्थान ग्रहण किया।"

(15) सार्वजनिक प्रारम्भिक शिक्षा (Popular Elementary Education)

बौद्ध शिक्षा आरम्भ में धार्मिक थी और उन्हीं व्यक्तियों तक सीमित थीं, जो बौद्धधर्म को अंगीकार करके, भिक्षु बनते थे। किन्तु जैसा कि डॉ० ए० एस० अल्तेकर का विचार है, "बौद्ध धर्म को जनप्रिय बनाने के लिए बौद्धों ने मठों में सार्वजनिक प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने का कार्य लगभग पहली शताब्दी के आरम्भ से शुरू कर दिया।" इस विचार के समर्थन में डॉ० एफ० ई० केई ने लिखा है- "बौद्ध मठों ने पर्याप्त सार्वजनिक प्रारम्भिक शिक्षा प्रदान की।" 

(16) शिक्षा का जनतन्त्रीय आधार (Democratic Basis of Education)

बौद्धों ने शिक्षा को जनतन्त्रीय आधार प्रदान करके, चाण्डालों के अतिरिक्त सभी जातियों के बालकों और बालिकाओं को शिक्षा के समान अवसर प्रदान किये। उनके इस उदार कार्य की सराहना करते हुए. डॉ० आर० के० मुकर्जी ने लिखा है- "बौद्ध शिक्षा केन्द्रों में विभिन्न वर्गों, विभिन्न जातियों और विभिन्न परिस्थितियों के सब बालक बिना किसी भेदभाव के पारिवारिक सम्पर्क स्थापित करते थे और ज्ञान का अर्जन करते थे।"

(17) शिक्षा संस्थाओं का जनतन्त्रीय संगठन (Democratic Organization of Educational Institutions)

बौद्ध शिक्षा केन्द्रों का संगठन जनतन्त्रीय आधार पर किया गया था। डॉ० महेश चन्द्र सिंघल ने इसके स्वरूप का वर्णन अग्रांकित वाक्यों में किया है- "शिक्षा केन्द्रों का संचालन जनतन्त्र के सिद्धान्तों पर होता था। एक विद्वान् भिक्षु-शिक्षा केन्द्रों का प्रधान संचालक नियुक्त किया जाता था। प्रधान की अधीनता में विभिन्न विषयों के महोपाध्याय होते थे। इन शिक्षा-केन्द्रों को तत्कालीन राजाओं तथा धनिकों से सहायता मिलती थी, किन्तु इनके प्रबन्ध में किसी प्रकार का बाह्य हस्तक्षेप नहीं था।"

(18) संगठित शिक्षा-संस्थाओं का उदय (Rise of Organised Educational Institutions)

वैदिक काल में संगठित शिक्षा संस्थाओं का अभाव था, क्योंकि शिक्षा प्रदान करने का कार्य व्यक्तिगत शिक्षकों द्वारा किया जाता था। इसके विपरीत बौद्ध काल में शिक्षा प्रदान करने का कार्य संगठित शिक्षा-संस्थाओं द्वारा किया जाना आरम्भ हुआ। डॉ० ए० एस० अल्तेकर का मत है- कि ऐसा होना स्वाभाविक था, क्योंकि बौद्ध मठ, जिन्होंने इस कार्य का भार सम्हाला, वे पहले से ही एक धार्मिक सम्प्रदाय के रूप में संगठित थे। अपने इस मत के आधार पर डॉ० अल्तेकर ने लिखा है- यह कहना उचित है कि संगठित सार्वजनिक शिक्षा-संस्थाओं का उदय, बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण हुआ।"

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