स्मरणीय तथ्य जन्म- 1908 ई० सिमरिया, जिला मुंगेर। मृत्यु- 1974 ई०। शिक्षा- बी० ए० (ऑनर्स)। रचनाएँ- रेणुका', 'हुंकार', 'रसवन्ती', 'इन्द्र गीत', 'रश्मिरथी', 'कुरुक्षेत्र', 'उर्वशी', 'हरे को हरिनाम', 'परशुराम की प्रतीक्षा' आदि। काव्यगत विशेषताएँ वर्ण्य विषय- प्रगतिवाद, राष्ट्रप्रेम, भारत के अतीत का स्वर्णिम इतिहास, आधुनिक काल का पतन। किसान- मजदूर की दशा तथा उच्च वर्ग की शोषण नीति का चित्रण । भाषा- संस्कृत शब्द बहुल शुद्ध खड़ीबोली, जिसमें उर्दू के प्रचलित शब्द भी मिलते हैं। शैली- (1) प्रबन्ध काव्यों मे विवरणात्मक शैली (2) प्रगतिवाद में भावात्मक शैली (3) उद्बोधन गीतों में उद्बोधनात्मक शैली। अलंकार- उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, रूपकातिशयोक्ति, मानवीकरण, विशेषण- विपर्यय । |
रामधारी सिंह दिनकर का जीवन परिचय
श्री रामधारी सिंह 'दिनकर' का जन्म बिहार में मुंगेर जिले के सिमरिया घाट नामक ग्राम में एक साधारण किसान परिवार में 2 सितम्बर, 1908 ई० को हुआ था प्राइमरी तथा मिडिल परीक्षा पास करने के पश्चात् इन्होंने मैट्रिकुलेशन परीक्षा मोकामाघाट एच० ई० स्कूल से पास किया। पटना विश्वविद्यालय से बी० ए० पास करने के उपरान्त मोकामाघाट हाईस्कूल के प्रधानाध्यापक हो गये। इसके पश्चात् सरकारी नौकरी में आ गये। फिर बिहार विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद पर आसीन हुए। सन् 1952 ई0 में ये भारतीय संसद के सदस्य निर्वाचित हुए।
कुछ समय के लिए आप भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति भी रहे। तदनन्तर भारत सरकार के गृहविभाग में हिन्दी सलाहकार के रूप में हिन्दी के रूप में हिन्दी की सेवा की। सन् 1973 ई0 में इन्हें भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा इनके 'उर्वशी' नामक काव्य पर एक लाख रुपये का 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' प्राप्त हुआ। भागलपुर विश्वविद्यालय द्वारा इन्हें डी० लिट० की सम्मानित उपाधि से विभूषित किया गया था। सन् 1959 में भारत सरकार ने इन्हें 'पद्म विभूषण' की उपाधि से अलंकृत किया था। प्रतिनिधि लेखक तथा कवि के रूप में इन्होंने कई बार विदेश यात्राएँ की 24 अप्रैल, 1974 को इनकी असामयिक मृत्यु हो गयी।
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रचनाएँ
'दिनकर' जी ने गद्य तथा पद्य दोनों में ही लिखा है। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्न हैं-
सांस्कृतिक रचना- संस्कृति के चार अध्याय', 'हमारी सांस्कृतिक एकता'। बच्चों के लिए कविता संग्रह 'मिर्च का मजा', 'चित्तौड़ का साका', 'धूप-छाँव'। कविता संग्रह 'रेणुका', 'हुंकार', 'रसवन्ती', 'इन्द्रगीत', 'कामधेनु', 'धूप और धुआं', 'नीम के पत्ते', 'मीले कुसुम', 'सीपी और शंख', 'नये शुभाषिती', 'चक्रवात।
महाकाव्य- 'कुरुक्षेत्र', 'रश्मिरथी', 'उर्वशी'।
खण्ड काव्य- 'प्रण भंग' ।
वर्णनात्मक काव्य- 'वारदौली विजय', 'बापू', 'इतिहास के आँसू', 'दिल्ली'।
साहित्यिक विशेषताएँ
दिनकर जी दार्शनिकता और निराशा से दूर हो सामाजिक चेतना को जागृत करने वाले कवि हैं। इनकी रचनाएँ राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत हैं। कविता के साथ-साथ छायावादोत्तर गद्य लेखक के रूप में भी दिनकर जी का अपना विशिष्ट स्थान है। ये एक सफल आलोचक, गम्भीर विचारक तथा कुशल निबन्धकार भी हैं। इनकी गद्य कृतियों में भारतीय संस्कृति के चार अध्याय' नामक ग्रन्थ का विशेष महत्त्व है। 'अर्द्धनारीश्वर' इनके ललित निबन्धों का संकलन है।
भाषा और शैली- 'दिनकर जी' की भाषा साहित्यिक खड़ीबोली है जिसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की अधिकता है। कहीं-कहीं भाषा में उर्दू शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। इनकी भाषा भावों और विषयों के अनुसार परिवर्तनशील है। भाषा में मुहावरों का भी प्रयोग हुआ है। कविता में क्लिष्ट भावों का अभाव है। अपनी शैली में इन्होंने मुख्यतः प्रबन्ध और मुक्तक दो प्रकार की शैलियों का अनुसरण किया है। दिनकर जी के आत्मव्यंजक निबन्धों में संस्मरणात्मक शैली तथा 'भारतीय संस्कृति के चार अध्याय' में विवरणात्मक शैली का प्रयोग हुआ है।
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काव्यगत विशेषताएँ
रचनाएँ- दिनकर जी कवि होने के साथ अच्छे गद्य लेखक भी थे।
इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
काव्य- रेणुका, हुंकार, रसवन्ती, द्वन्द्वगीत, रश्मिरथी, प्रणमंग, कुरुक्षेत्र, बापू, इतिहास के आँसू, चक्रवात, उर्वशी, परशुराम की प्रतीक्षा आदि।
गद्य- मिट्टी की ओर, अर्द्धनारीश्वर, रेती के फूल, भारतीय संस्कृति के चार अध्याय ।
काव्यगत विशेषताएँ :
(क) भाव पक्ष
दिनकर जी की प्रारम्भिक रचनाओं में छायावादी शैली पर प्रेम और शृंगार की प्रधानता रही है। आगे चलकर उन्होंने देश-भक्ति, मानव- प्रेम और समाजहित के गीत गाये हैं। प्रगतिवादी विचारधारा से प्रेरित होकर इन्होंने विद्रोहात्मक कविताएँ भी लिखी हैं। संक्षेप में कविता की विशेषताएँ निम्नलिखित है-
राष्ट्र-प्रेम- दिनकर जी ओजस्वी विचारों के राष्ट्रीय कवि है। राष्ट्रप्रेम आपकी रचनाओं में सर्वत्र झलकता है। इन्होंने भारत के स्वर्णिम अतीत के अनेक भावुकतापूर्ण चित्र अंकित किये हैं तथा देश की वर्तमान दुर्दशा तथा पतन के प्रति क्षोभ व्यक्त किया है। देखिए इन पंक्तियों में वे कह उठते हैं-
तू पूछ अवध से राम कहाँ, वृन्दा बोलो घनश्याम कहाँ ?
ओ मगध कहाँ मेरे अशोक वह चन्द्रगुप्त बलधाम कहाँ ?
किन्तु अपने इस असन्तोष के कारण वे निराश नहीं होते, बल्कि दृढ़ता और विश्वास के साथ देशवासियों को ललकारते हुए कहते हैं-
कह दे शंकर से आज करे, वे प्रलय नृत्य फिर एक बार।
सारे भारत में गूंज उठे, हर-हर बम-बम का फिर मन्त्रोच्चार ।।
इस प्रकार दिनकर जी राष्ट्र-प्रेमी कवि होने के साथ क्रान्तिकारी कवि भी हैं। उनका मानवतावादी दृष्टिकोण अति प्रशंसनीय है।
प्रगतिवाद या मानवतावाद- दिनकर जी की कविता पर साम्यवादी विचारधारा का प्रभाव है। अतः प्रगतिवादी कवियों की भाँति उन्होंने दलित मानव की दुःख पीड़ा, उसकी दयनीय अवस्था, निर्धनता आदि के प्रति करुणा की तीव्र भावना व्यक्त की है।
दिनकर जी की भावनाओं में समाज, धर्म और पूंजीवाद की प्राचीन परम्पराओं के प्रति विद्रोह भरा रहता है। वे अत्याचार के विरुद्ध विद्रोह करना धर्मानुकूल एवं न्यायसंगत समझते हैं। इसीलिए उनकी दीन-दुखियों के प्रति सहानुभूति की भावना क्रान्ति में बदल जाती है। रेणुका में वे कह उठते हैं-
हटो व्योम के मेघ पथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं।
दूध-दूध को वत्स ! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं।
इनके अतिरिक्त दिनकर जी ने समाज में व्याप्त साम्प्रदायिकता, अछूतोद्धार, वर्ग संघर्ष, मजदूर आन्दोलन, गाँधी दर्शन आदि का यथार्थ चित्रण किया है और लोक-मंगल की कामना से सबको उद्बोधित किया है। अपनी इस भावनाओं के कारण गुप्त जी के बाद वे हमारे राष्ट्रीय कवि हैं।
प्रकृति चित्रण- दिनकर जी ने अपनी रचनाओं में प्रकृति का भी विविध शैलियों में वर्णन किया है। उनका 'वन फूलों की ओर' नामक रचना में प्रकृति के अत्यन्त आकर्षक चित्रों का अंकन है। उन्होंने ऊषा, गंगा, सन्ध्या आदि के चित्रण द्वारा प्रकृति के व्यापारों में नारी की कल्पना की है। ऐसी कविताओं में छायावाद और रहस्यवाद का प्रभाव है। प्रकृति की मानव रूप में चित्रित करते हुए उन्होंने ऊषा को अभिमानिनी नायिका का रूप देते हुए वे उससे पूछते हैं-
कंचन थाल संजा सौरभ से ओ फूलों की रानी।
अलसायी सी चली कहो, करने किसकी है अगवानी।।
वैभव का उन्माद रूप की यह कैसी नादानी।
ऊषे ! भूल न जाना ओस की करुणामयी कहानी।।
अपने विद्रोही भावनाओं के कारण दिनकर जी ने प्रकृति में कहीं-कहीं उग्र भावनाओं का आरोप किया है। इनके अतिरिक्त नारी के प्रति भी अपना श्रद्धापूर्ण भाव व्यक्त किया है। वे मूलतः हमारे राष्ट्रकवि थे और इसी रूप में अधिक लोकप्रिय हैं। नवन सृजन के स्वप्न घने, जिस दिन देश-काल के दो-दो, जिस क्षण नभ में तारे छिटके, विस्तृत विमल वितान तने, जिस दिन सूरज चाँद बने, भारतवर्ष हमारा है, तब से है यह देश हमारा, यह अभिमान हमारा है। यह हिन्दुस्तान हमारा है।
(ख) कला पक्ष भाषा
दिनकर जी की भाषा साहित्यिक खड़ीबोली है, जिसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की अधिकता है। कहीं-कही उर्दू के प्रचलित शब्दों का भी इन्होंने ग्रहण किया है। इनके अतिरिक्त कहीं कहीं ग्रामीण-शब्द भी मिलते हैं। कहीं-कहीं वाक्यों में अपूर्ण क्रियाओं का दोष और मुहावरों का प्रचुर प्रयोग भी मिलता है। फिर भी इनकी भाषा बड़ी सशक्त प्रवाहपूर्ण और ओजमयी है।
शैली- दिनकर जी ने प्रबन्ध और मुक्तक काव्य लिखा है। इनके काव्यों में विवरणात्मक शैली एवं मुक्तक रचनाओं में विशेषकर प्रगतिवादी गीतों में भावात्मक शैली है।
रस- दिनकर जी ने वीर, रौद्र, करुणा और शान्त रस के साथ उपमा, रूपक, अतिशयोक्ति, अनुप्रास आदि अलंकारों और तुकान्त-अतुकान्त छन्दों का भी सफलतापूर्वक प्रयोग किया है।
दिनकर जी वस्तुतः इस युग के प्रगतिवादी राष्ट्रीय चेतनासम्पन्न मननशील कवियों में अग्रणी हैं। आपकी रचनाओं में भारतीय हृदय को हिला देने वाली हुंकार हैं, जो अनन्तकाल तक उन्हें उद्बोधित करती रहेगी।