स्मरणीय
तथ्य जन्म- सन् 1889 ई० मृत्यु- सन् 1937 ई० पिता- श्री देवीप्रसाद। जन्म स्थान- काशी। अन्य बातें- बारह वर्ष की अवस्था में पिता की मृत्यु, जीवन कष्टों में बीता। काव्यगत विशेषताएँ- छायावाद के प्रवर्तक, नये
विचार, नयी कल्पनाएँ, नयी
शैलियाँ। भाषा- आरम्भ में ब्रजभाषा, बाद
में खड़ीबोली शुद्ध संस्कृत, लाक्षणिक, मधुर भाषा। शैली- भावात्मक विवरणात्मक, गवेषणात्मक । |
जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय
बाबू जयशंकर प्रसाद का जन्म काशी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में सन् 1889 ई० में हुआ था। इनके पिता श्री देवी प्रसाद साहु 'सुधनी साहु' के नाम से प्रख्यात थे। उनकी दानशीलता और उदारता के कारण उनके यहाँ विद्वानों और कलाकारों का बराबर समादर हुआ करता था। इनकी शिक्षा का प्रारम्भ घर पर ही हुआ। संस्कृत, फारसी, उर्दू, और हिन्दी की शिक्षा इन्होंने घर पर ही स्वाध्याय से प्राप्त की।
कुछ समय के लिए स्थानीय क्वीन्स कालेज में नाम लिखाया गया किन्तु वहाँ आठवीं कक्षा से ऊपर नहीं पढ़ सके। 12 वर्ष की अल्पायु में इनके पिता का देहान्त हो गया। पिता के देहान्त के दो-तीन वर्षों के भीतर इनकी माता का भी देहान्त हो गया और कुछ दिनों के बाद बड़े भाई शम्भुरतन भी चल बसे। इस प्रकार 17 वर्ष की अल्पायु में इन्हें परिवार- संचालन का भार सम्भालना पड़ा।
इनका अधिकांश जीवन काशी में बीता। जीवन में तीन-चार यात्राएँ करने की अवसर मिला जिसकी छाया इनकी कुछ रचनाओं में प्रतिभाषित होती हैं। यक्ष्मा के कारण प्रसाद जी का देहान्त 25 नवम्बर, 1937 ई० को हो गया।
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प्रसाद जी ने काव्य, नाटक, कहानी, उपन्यास और निबन्धों की रचना की।
उनकी प्रमुख कृतियाँ का विवरण निम्न प्रकार है-
1. नाटक- प्रसाद जी के स्कन्दगुप्त, अजातशत्रु, चन्द्रगुप्त, विशाख, ध्रुवस्वामिनी, कामना, राज्यश्री, जनमेजय का नागयज्ञ, करुणालय, एक घूँट आदि प्रसिद्ध नाटक है। प्रसाद जी के नाटकों में भारतीय और पाश्चात्य कला का सुन्दर समन्वय है। उनके नाटक भारतीय अतीत की सुन्दर झाँकी प्रस्तुत करते हैं। इनके नाटकों में राष्ट्र के गौरवमय इतिहास का सुन्दर और सजीव प्रतिबिम्ब है।
2. कहानी संग्रह- छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, इन्द्रजाल, प्रसाद जी की सफल कहानियों के संग्रह हैं। इनकी आकाशदीप और पुरस्कार कहानियाँ विशेष प्रसिद्ध हैं। इनकी कहानियों में मानव मूल्यों और भावनाओं का काव्यमय और अलंकृत चित्रण है।
3. उपन्यास- कंकाल, तितली और इरावती (अपूर्ण), प्रसाद जी ने अपने उपन्यासों में जीवन की वास्तविकता का चित्रण कर आदर्श की ओर उन्मुख किया है।
4. निबन्ध संग्रह- 'काव्यकला तथा अन्य निबन्ध।'
5. काव्य- कामायनी (महाकाव्य), आँसू, झरना, लहर आदि प्रसिद्ध काव्य हैं। 'आँसू' में प्रसाद जी के विषाद के आँसू हैं। 'कामायनी' श्रेष्ठ छायावादी महाकाव्य है।
भाषा- प्रसाद जी की भाषा शुद्ध साहित्यिक खड़ीबोली है। उसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग किया गया है। संस्कृत के शब्दों की बहुलता और भावों में गम्भीरता के कारण इनकी भाषा दुरूह हो गयी है। इनकी भाषा ने विषय के अनुरूप अपना स्वरूप गठित कर लिया है। इनकी कहानियों और उपन्यासों में इनकी सरल और व्यावहारिक भाषा के दर्शन होते हैं। इनकी भाषा में मुहावरे और विदेशी शब्दों का प्रयोग बहुत कम मिलता है। भावुक कवि होने के कारण इनके गद्य में भी काव्य की सी मधुरता और प्रवाह है।
यह भी पढ़ें- रामधारी सिंह दिनकर का जीवन परिचयशैली- प्रसाद जी की शैली में नाटकीयता, काव्यात्मकता और चित्रात्मकता विद्यमान है।
नाटक, कहानी और उपन्यासों में निम्नांकित विविध शैलियों के दर्शन होते हैं-
1. वर्णनात्मक शैली- प्रसाद जी की कहानी और उपन्यासों में घटना, व्यक्ति औरं वस्तु के वर्णन में वर्णनात्मक शैली का प्रयोग हुआ है। इस शैली में भाषा सरल, स्पष्ट और वाक्य छोटे हैं।
2. भावात्मक शैली- भावों के चित्रण में प्रसाद जी का गद्य भी काव्यमय हो जाता है। इसमें भाषा संस्कृत और काव्यमयी है। इनकी प्रायः सभी रचनाओं में इस शैली के दर्शन होते हैं।
3. आलंकारिक शैली- प्रसाद जी कवि थे, और इनके गद्य में विविध अलंकारों का प्रयोग मिलता है। इस शैली में काव्य जैसा सौन्दर्य और सरसता है।
4. चित्रात्मक शैली- प्रसाद जी इस शैली में स्थान, वस्तु और व्यक्ति का शब्दों द्वारा सजीव चित्र उपस्थित कर देते हैं। इसमें वाक्य बड़े और संस्कृतनिष्ठ होते हैं। प्रकृति वर्णन और रेखाचित्रों में भी यह शैली मिलती है।
साहित्य सेवाएं- शैशवकाल से ही प्रसाद जी में साहित्यिक प्रतिभा थी। प्रारम्भ में इन्होंने ब्रजभाषा में कविता की। बाद में आपने खड़ीबोली में काव्य-रचना करके हिन्दी का गौरव बढ़ाया।
प्रसादजी की प्रतिभा बहुमुखी थी। वे महान् कवि, सफल नाटककार, श्रेष्ठ उपन्यासकार, कुशल कहानीकार एवं गम्भीर निबन्धकार थे। इन्होंने भारत के उज्ज्वल अतीत को अपनी रचनाओं में चित्रित किया है। इन्होंने भारतीय इतिहास एवं दर्शन का अध्ययन किया और उसके आधार पर ऐतिहासिक नाटकों की रचना की और हिन्दी के नाट्य क्षेत्र में युगान्तर उपस्थित कर दिया। आप हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ नाटककार हैं। आपने अल्प आयु में ही हिन्दी- साहित्य को श्रेष्ठ ग्रन्थों की रचना करके समृद्ध बना दिया। उनका सम्पूर्ण जीवन माँ भारती की आराधना में समर्पित था।
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साहित्यिक विशेषताएँ
प्रसाद जी हिन्दी में एक नवीन युग की चेतना लेकर अवतरित हुए थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं में प्राचीन और अर्वाचीन का अद्भुत समन्वय स्थापित किया था। इनकी रचनाओं में प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृत के गहन अध्ययन की छाया स्पष्ट दिखायी पड़ती है।
प्रसाद जी के नाटकों, काव्यों और उपन्यासों में नारी की श्रद्धा, इड़ा वासनामयी, छलना आदि विभिन्न रूपों में अत्यन्त ही गम्भीरता की भावनाओं का प्राचुर्य है जिसमें इनका हृदय-पक्ष स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। इनका प्रेम व्यक्तिगत प्रेम की सीमा से ऊपर उठकर देश-प्रेम और मानव-प्रेम की कोटि तक पहुंचकर अपनी संयमित और मर्यादित झाँकी प्रस्तुत करता है।
मनोवैज्ञानिक अन्तर्द्वन्द्वों के चित्रण में इन्हें काफी सफलता मिली है। प्रकृति के विभिन्न चित्रों में इनके छायावादी एवं रहस्यवादी विचारों की झलक मिलती है। लौकिक प्रेम से पारलौकिक प्रेम के दर्शन होते हैं। इनकी समस्त रचनाओं में भारतीय-संस्कृति के प्रति अटूट प्रेम प्रदर्शित होता है। प्रसाद जी छायावादी काव्यधारा के जनक माने जाते हैं।
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उदाहरण
(1) प्रसाद जी के निबन्ध विचारात्मक शैली में लिखे गये हैं। इस शैली में भाषा तत्सम है, विचारों की प्रधानता है, यथा- "इन बातों में निष्कर्ष यह निकलता है कि नृत्य पहले बिना गीत का होता था उसमें गीत और अभिनय की योजना पीछे से हुई।"
(2) वर्णन शैली में कहानियाँ और उपन्यास लिखे गये हैं। इनमें कवित्व की चित्रोपमता है, जैसे- " रोहताश्व दुर्ग के प्रकोष्ठ में बैठी हुई युवती 'ममता' शोण के तीक्ष्ण गम्भीर प्रवाह को देख रही थी। ममता विधवा थी। उसका यौवन-शोण के समान ही उमड़ रहा था।
(3) भावात्मक शैली या कवित्वपूर्ण शैली ही प्रसाद जी की मुख्य शैली है। इसमें भावों की गम्भीरता तथा मधुर चित्रमयता है, यथा-"हृदय नीरव अभिलाषाओं की नीड़ हो रहा है। जीवन के प्रभात का मनोहर स्वप्न विश्व भर की मंदिरा बनकर मेरे उन्माद की सहकारिणी कोमल कल्पनाओं का भण्डार हो गया है।"- ममता