व्यक्तिगत विभिन्नता- अर्थ, स्वरुप, प्रकार, कारण एवं शैक्षिक महत्व

व्यक्तिगत विभिन्नताओं का अर्थ एवं स्वरूप

व्यक्तिगत विभिन्नता से अभिप्राय है प्रत्येक व्यक्ति में जैविक, मानसिक, सांस्कृतिक, संवेगात्मक अन्तर पाया जाना। इसी अन्तर के कारण व्यक्ति, दूसरे से भिन्न माना जाता है। मनोविज्ञान के क्षेत्र में 19वीं सदी में फ्रांसिस गाल्टन, पियर्सन, कैटेल, टर्मन आदि ने व्यक्तिगत भिन्नता का पता लगाया तथा उनके कारणों की खोज की। स्किनर के शब्दों में- बालक भी प्रत्येक सम्भावना के विकास का एक विशिष्ट काल होता है। यह काल वैयक्तिक भिन्नता के कारण भिन्न-भिन्न अवधि का होता है। यदि उचित समय पर इस सम्भावना को विकसित करने का प्रयत्न न किया गया तो उसके नष्ट हो जाने का भय रहता है।

    कोई भी दो व्यक्ति समान नहीं होते। यहाँ तक कि जुड़वाँ बच्चों में भी असमानता पाई जाती है। इस दृष्टि से वैयक्तिक भिन्नता प्रकृति द्वारा प्रदत्त स्वाभाविक गुण है।

    सभी प्रकार की शिक्षा-संस्थायें अति प्राचीन काल में मानसिक योग्यताओं के आधार पर छात्रों में अन्तर करती चली आ रही है। यद्यपि उन्होंने अपनी इस प्राचीन परम्परा का अभी तक परित्याग नहीं किया है, पर वे इस धारणा का निर्माण कर चुकी हैं कि छात्रों में अन्य योग्यतायें और कुशलतायें भी होती हैं, जिनके फलस्वरूप उनमें कम या अधिक विभिन्नता होती है। इस धारणा को मनोवैज्ञानिक भाषा में व्यक्त करते हुए स्किनर ने लिखा है- "व्यक्तिगत विभिन्नता में सम्पूर्ण व्यक्तित्व का कोई भी ऐसा पहलू सम्मिलित हो सकता है, जिसका माप किया जा सकता है।"

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    स्किनर की व्यक्तिगत विभिन्नताओं की इस परिभाषा के अनुसार उनमें व्यक्तित्व के वे सभी पहलू आ जाते हैं, जिनका माप किया जा सकता है। माप किये जा सकने वाले ये पहलू कौन- कौन से हैं इनके सम्बन्ध में टायलर ने लिखा है-"शरीर के आकार और स्वरूप, शारीरिक कार्यों, गति सम्बन्धी क्षमताओं, बुद्धि, उपलब्धि, ज्ञान, रुचियों, अभिवृत्तियों और व्यक्तित्व के लक्षणों में माप की जा सकने वाली विभिन्नताओं की उपस्थिति सिद्ध की जा चुकी है।"

    टायलर के अनुसार- "एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से अन्दर एक सार्वभौमिक घटना जान पड़ती है।"

    व्यक्तिगत विभिन्नताओं के प्रकार 

    व्यक्तिगत भिन्नता के अन्तर्गत रूपरंग, नाकनक्श, शरीर रचना, विशिष्ट योग्यतायें, बुद्धि, रुचि, स्वभाव, उपलब्धि आदि की भिन्नता से व्यक्ति के समग्र रूप की पहचान की जाती है। घर में भाई बहनों में भिन्नता पाई जाती है। जुड़वाँ बच्चों में भी भिन्नता पाई जाती है। इसीलिये स्किनर ने कहा है- व्यक्तिगत मित्रताओं में वे सभी पहलू शामिल है जिनका मापन सम्भव है।

    व्यक्तियों में पायी जाने वाली विभिन्नताओं के कारण हम किन्हीं दो व्यक्तियों को एक-दूसरे का प्रतिरूप नहीं कह सकते हैं। ये विभिन्नतायें इतनी अधिक है कि हम इनमें से केवल सर्वप्रधान का ही विवरण प्रस्तुत कर सकते हैं और निम्नलिखित पंक्तियों में ऐसा कर रहे हैं- 

    1. शारीरिक विभिन्नता

    शारीरिक दृष्टि से व्यक्तियों में अनेक प्रकार की विभिन्नताओं का अवलोकन होता है, जैसे- रंग, रूप, भार, कद, बनावट, यौन-भेद, शारीरिक परिपक्वता आदि।

    2. मानसिक विभिन्नता 

    मानसिक दृष्टि से व्यक्तियों में विभिन्नताओं के दर्शन होते हैं। कोई व्यक्ति प्रतिभाशाली, कोई अत्यधिक बुद्धिमान, कोई कम बुद्धिमान और कोई मूर्ख होता है। इतना ही नहीं, एक ही व्यक्ति में शैशवावस्था, किशोरावस्था और अन्य अवस्थाओं में विभिन्न मानसिक योग्यता पाई जाती है। इस योग्यता की जाँच करने के लिए बुद्धि परीक्षाओं का निर्माण किया गया है। वुडवर्थ (Woodworth) का मत है कि प्रथम कक्षा के बालकों की बुद्धि-लब्धि 60 से 160 तक होती है। 

    3. संवेगात्मक विभिन्नता

    संवेगात्मक दृष्टि से व्यक्तियों की विभिन्नताओं को सहज ही जाना जा सकता है। इन विभिन्नताओं के कारण ही कुछ व्यक्ति उदार हृदय, कुछ कठोर हृदय, कुछ खिन्न चित्त और कुछ प्रसन्न चित्त होते हैं। उनकी संवेगात्मक विभिन्नताओं का मापन करने के लिए संवेगात्मक परीक्षणों का निर्माण किया गया है।

    4. रुचियों में विभिन्नता 

    रुचियों की दृष्टि से व्यक्तियों में कभी-कभी आश्चर्यजनक विभिन्नतायें देखने को मिलती हैं। किसी को संगीत में, किसी को चित्रकला में, किसी को खेल में और किसी को वार्तालाप में रुचि होती है। प्रत्येक व्यक्ति की रुचि में उसकी आयु की वृद्धि के साथ-साथ परिवर्तन होता जाता है। यही कारण है कि बालकों और वयस्कों की रुचियों में विभिन्नता होती है। इतना ही नहीं, वरन् बालकों और बालिकाओं या पुरुषों और स्त्रियों की रुचियों में भी अन्तर होता है।

    5. विचारों में विभिन्नता 

    विचारों की दृष्टि से व्यक्तियों की विभिन्नताओं को सामान्यतः स्वीकार किया जाता है। व्यक्तियों में इन विचारों के विविध रूप मिलते हैं; जैसे- उदार, अनुदार, धार्मिक, अधार्मिक, नैतिक, अनैतिक आदि समान विचार या विचारों के व्यक्ति बड़ी कठिनाई से मिलते हैं। विचारों की विभिन्नताओं के अनेक कारणों में से मुख्य है- आयु, लिंग और विशिष्ट परिस्थितियाँ।

    6. सीखने में विभिन्नता 

    सीखने की दृष्टि से व्यक्तियों और बालकों में अनेक विभिन्नतायें दृष्टिगत होती है। कुछ बालक किसी कार्य को जल्दी और कुछ देर में सीखते हैं। इस सम्बन्ध में क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) ने लिखा है- "एक ही आयु के बालकों में सीखने की तत्परता का समान स्तर होना आवश्यक नहीं है। उनकी सीखने की भिन्नता के कारण है उनकी परिपक्वता की गति में भिन्नता और उसके द्वारा किसी बात का पहले से सीखे हुए होना।" 

    7. गत्यात्मक योग्यताओं में विभिन्नता 

    गत्यात्मक योग्यताओं (Motor Abilities) की दृष्टि से व्यक्तियों में अत्यधिक विभिन्नताओं का होना पाया जाता है। इन विभिन्नताओं के कारण ही कुछ व्यक्ति एक कार्य को अधिक कुशलता से और कुछ कम कुशलता से करते है। इस कुशलता या योग्यता में आयु के साथ-साथ वृद्धि होती जाती है। फिर भी, जैसा कि क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) ने लिखा है- "शारीरिक क्रियाओं में सफल होने की योग्यता में एक समूह के व्यक्तियों में भी महान् विभिन्नता होती है।"

    8. चरित्र में विभिन्नता 

    चरित्र की दृष्टि से सभी व्यक्तियों में कुछ-न-कुछ विभिन्नता का होना अनिवार्य है। व्यक्ति अनेक बातों से प्रभावित होकर एक विशेष प्रकार के चरित्र का निर्माण करते हैं। शिक्षा, संगति, परिवार, पड़ोस आदि सभी का चरित्र पर प्रभाव पड़ता है और सभी चरित्र के विभिन्न स्वरूप को निश्चित करते हैं। 

    9. विशिष्ट योग्यताओं में विभिन्नता

    विशिष्ट योग्यताओं की दृष्टि से व्यक्तियों में अनेक विभिन्नताओं का अनुभव किया जाता है। इस सम्बन्ध में एक उल्लेखनीय बात यह है कि सब व्यक्तियों में विशिष्ट योग्यतायें नहीं होती है और जिनमें होती भी हैं, उनमें इनकी मात्रा में अन्तर अवश्य मिलता है। न तो सब खिलाड़ी एक स्तर के होते हैं और न सब कलाकार।

    10. व्यक्तित्व में विभिन्नता

    व्यक्तित्व की दृष्टि से व्यक्तियों की विभिन्नतायें हमें किसी-न-किसी रूप में आकर्षित करती हैं। हमें जीवन में अन्तर्मुखी, बहिर्मुखी, सामान्य और असाधारण व्यक्तित्व के लोगों से कभी-न-कभी भेंट हो ही जाती है। हम उनकी योग्यता से भले ही प्रभावित न हों, पर उनके व्यक्तित्व से अवश्य होते हैं। इसीलिए टायलर ने लिखा है- "सम्भवतः व्यक्ति, योग्यता की विभिन्नताओं के बजाय व्यक्तित्व की विभिन्नताओं से अधिक प्रभावित होता है।" 

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    व्यक्तिगत विभिन्नताओं के कारण

    व्यक्तिगत भिन्नता का प्रभाव अधिगम प्रक्रिया तथा उसकी उपलब्धि पर पड़ता है। बुद्धि तथा व्यक्तित्व, व्यक्तिगत भिन्नता के आधार है। इनके कारण सीखने की क्रिया प्रभावित होती है। व्यक्तिगत भिन्नता का पता परीक्षण, व्यक्ति इतिहास विधि तथा सामूहिक अभिलेखों से चलता है। इन प्राप्त परिणामों के आधार पर शिक्षक एवं प्राचार्य अपना मत छात्र के विषय में निर्धारित करते हैं। व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनेक कारण हैं, जिनमें से अधिक महत्वपूर्ण निम्नांकित है-

    1. वंशानुक्रम

    व्यक्तिगत विभिन्नताओं का पहला आधारभूत कारण है, वंशानुक्रम । रूसो, पीयरसन (Rousseau, Pearson) और गाल्टन (Galton) इस कारण के प्रबल समर्थक है। उनका कहना है कि व्यक्तियों की शारीरिक, मानसिक और चारित्रिक विभिन्नताओं का एकमात्र कारण उनका वंशानुक्रम ही है। इसीलिए स्वस्थ, बुद्धिमान और चरित्रवान माता-पिता की सन्तान भी स्वस्थ बुद्धिमान और चरित्रवान होती है। मन (Munn) भी वंशानुक्रम को व्यक्तिगत विभिन्नताओं का कारण स्वीकार करते हुए लिखता है- "हमारा सबका जीवन एक ही प्रकार आरम्भ होता है। फिर इसका क्या कारण है कि जैसे जैसे हम बड़े होते जाते हैं, हममें अन्तर होता जाता है ? इसका एक उत्तर यह है कि हमारा सबका वंशानुक्रम भिन्न होता है।" 

    2. वातावरण

    व्यक्तिगत विभिन्नताओं का दूसरा आधारभूत कारण है, वातावरण। मनोवैज्ञानिकों का तर्क है कि व्यक्ति जिस प्रकार के सामाजिक वातावरण में निवास करता है, उसी के अनुरूप उसका व्यवहार, रहन-सहन, आचार-विचार आदि होते हैं। अतः विभिन्न सामाजिक वातावरणों में निवास करने वाले व्यक्तियों में विभिन्नताओं का होना स्वाभाविक है। यही बात भौतिक और सांस्कृतिक वातावरणों के विषय में कही जा सकती है। ठण्डे देशों के निवासी लम्बे, बलवान और परिश्रमी होते हैं, जबकि गरम देशों के रहने वाले छोटे, निर्बल और आलसी होते है विभिन्न सांस्कृतिक वातावरणों के कारण ही हिन्दुओं और मुसलमानों में अनेक प्रकार की विभिन्नतायें दृष्टिगोचर होती है।

    3. जाति, प्रजाति व देश 

    व्यक्तिगत विभिन्नताओं का तीसरा कारण है- जाति प्रजाति और देश ब्राह्मण जाति के मनुष्य में अध्ययनशीलता और क्षत्रिय जाति के मनुष्य में युद्धप्रियता का गुण मिलता है। नीग्रो प्रजाति की अपेक्षा श्वेत प्रजाति अधिक बुद्धिमान और कार्य कुशल होती है। व्यक्तिगत विभिन्नताओं के कारण ही हमें विभिन्न देशों के व्यक्तियों को पहचानने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती है।

    4. आयु व बुद्धि

    व्यक्तिगत विभिन्नताओं का चौथा कारण है- आयु और बुद्धि। आयु के साथ-साथ बालक का शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक विकास होता है। इसीलिए विभिन्न आयु के बालकों में अन्तर मिलता है। बुद्धि जन्मजात गुण होने के कारण किसी को प्रतिभाशाली और किसी को मूढ़ बनाकर अन्तर की स्पष्ट रेखा खींच देती है।

    5. शिक्षा व आर्थिक दशा 

    व्यक्तिगत विभिन्नताओं का पाँचवीं कारण है- शिक्षा और आर्थिक दशा। शिक्षा-व्यक्ति को शिष्ट, गम्भीर और विचारशील बनाकर अशिक्षित व्यक्ति से उसे भिन्न कर देती है। गरीबी को सभी तरह के पापों और दुर्गुणों का कारण माना जाता है। गरीबी के कारण लोग चोरी, डाका और हत्या जैसे जघन्य कार्यों को भी पाप नहीं समझते हैं। पर ये लोग उन व्यक्तियों से पूर्णतया भिन्न होते हैं, जो उत्तम आर्थिक दशा के कारण प्रत्येक कुकर्म को अक्षम्य अपराध समझते हैं।

    6. लिंग-भेद 

    व्यक्तिगत विभिन्नताओं का छठवाँ कारण है- लिंग-भेद। इस भेद के कारण बालकों और बालिकाओं की शारीरिक बनावट, संवेगात्मक विकास की कार्यक्षमता में अन्तर मिलता है। इसके अलावा, जैसा कि स्किनर ने लिखा है- बालकों में शारीरिक कार्य करने की क्षमता अधिक होती है, जबकि बालिकाओं में स्मृति की योग्यता अधिक होती है। बालक, गणित और विज्ञान में बालिकाओं से आगे होते हैं, जबकि बालिकायें भाषा और सुन्दर हस्तलेख में बालकों से आगे होती है। बालकों पर सुझाव का कम प्रभाव पड़ता है, पर बालिकाओं पर अधिक बालकों की रुचि, साहसी कहानियों में होती है, जबकि बालिकाओं की प्रेम कहानियों और दिवास्वप्नों में होती है।

    हमने व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनेक कारणों को लेखबद्ध किया है। ये कारण सामान्य रूप से व्यक्तियों की विभिन्नताओं के लिए उत्तरदायी हैं। पर जहाँ तक विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्रों का प्रश्न है, उसकी विभिन्नताओं के कुछ अन्य मुख्य कारण भी है। इनका उल्लेख करते हुए गैरीसन व अन्य ने लिखा है- "अन्य बालकों की विभिन्नताओं के मुख्य कारणों को प्रेरणा, बुद्धि, परिपक्वता, पर्यावरण सम्बन्धी उद्दीपन की विभिन्नताओं द्वारा व्यक्त किया जा सकता है।"

    व्यक्तिगत विभिन्नताओं का शैक्षिक महत्त्व 

    आधुनिक मनोवैज्ञानिक, बालकों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं को अत्यधिक महत्त्व देते हैं। उनका अटल विश्वास है कि इन विभिन्नताओं का ज्ञान प्राप्त करके शिक्षक अपने छात्रों का अवर्णनीय हित कर सकता है और साथ ही शिक्षा के परम्परागत स्वरूप में क्रान्तिकारी परिवर्तन करके उसे बालकों की वास्तविक आवश्यकताओं के अनुकूल बना सकता है। उनका यह विश्वास अग्रांकित तथ्यों पर आश्रित है-

    1. छात्र वर्गीकरण की नवीन विधि 

    विद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने के लिए आने वाले बालको में केवल आयु का ही अन्तर नहीं होता है उनमें शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक अन्तर भी होते है। अतः उनका परम्परागत विधि के अनुसार कक्षाओं में विभाजन करना सर्वथा अनुचित है। वस्तुतः उनकी विभिन्नताओं के अनुसार उनका विभाजन समरूप समूहों (Homogeneous Groups) में किया जाना चाहिए। इस प्रकार का सर्वोत्तम विभाजन उनकी मानसिक योग्यता के आधार पर किया जा सकता है। प्रत्येक कक्षा को श्रेष्ठ, सामान्य और निम्न मानसिक योग्यता वाले बालकों के तीन समूहों में विभाजित किया जाना चाहिए। अमरीका के अधिकांश स्कूलों में इसी प्रकार का विभाजन है।

    मोर्स एवं विंगो (Morse & Wingo) के अनुसार- अमरीका में वर्गीकरण की नवीनतम विधि यह है- 

    (1) 9 वर्ष की अवस्था तक आयु के अनुसार, 

    (2) 9 से 13 वर्ष तक की अवस्था तक रुचियों के अनुसार और 

    (3) 13 वर्ष की अवस्था के बाद मानसिक योग्यताओं के अनुसार मोर्स एवं बिंगो  के शब्दों में इस वर्गीकरण का आधार यह है-"व्यक्तिगत विभिन्नताएँ, वास्तव में सीखने के लिए तत्परता की विभिन्नताएँ हैं।" यह तत्परता आयु के अनुसार परिवर्तित होती जाती है। अतः केवल मानसिक योग्यताओं के आधार पर छात्रों का वर्गीकरण करना अनुचित है।

    2. व्यक्तिगत शिक्षण की व्यवस्था

    मानसिक योग्यताओं की विभिन्नताओं के कारण सामूहिक शिक्षण निस्सार और निष्प्रयोजन है। अतः व्यक्तिगत शिक्षण की व्यवस्था की जानी न केवल वाछनीय, चरन आवश्यक है। इस विचार से प्रेरित होकर व्यक्तिगत शिक्षण की दो नवीन योजनायें आरम्भ की गई है- डाल्टन योजना और विनेटका योजना इसी प्रकार की व्यक्तिगत शिक्षण की योजना प्रत्येक विद्यालय में कार्यान्वित की जानी चाहिए। इस बात पर बल देते हुए क्रो एवं क्रो ने लिखा है- "विद्यालय का यह कर्तव्य है कि वह प्रत्येक बालक के लिए उपयुक्त शिक्षा की व्यवस्था करे, भले ही वह अन्य सब बालकों से कितना ही भिन्न क्यों न हो।"

    3. कक्षा का सीमित आकार 

    जब कक्षा में छात्रों की संख्या 40 या 50 होती है, तब शिक्षक के लिये उनसे व्यक्तिगत सम्पर्क स्थापित करना असम्भव हो जाता है। ऐसी दशा में वह उनकी व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार उनकी शैक्षिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने में असमर्थ रहता है। अतः मनोवैज्ञानिकों का मत है कि कक्षा के छात्रों की संख्या लगभग 20 होनी चाहिए। रास का कथन है- "प्रत्येक अध्यापक की संरक्षता में छात्रों की संख्या इतनी कम होनी चाहिये कि वह उन्हें व्यक्तिगत रूप से भली-भाँति जान सके, क्योंकि इस ज्ञान के बिना वह उनसे ऐसे कार्यों को करने को कह सकता है, जो उनमें से बहुतों के स्वभाव के अनुसार उनके लिए असम्भव हो।"

    4. शिक्षण पद्धतियों में परिवर्तन

    सब बालकों के लिये एक ही प्रकार की और घिसी-पिटी शिक्षण-पद्धतियों का प्रयोग करना सर्वथा अनुचित और अमनोवैज्ञानिक है। इस बात की परम आवश्यकता है कि बालकों के व्यक्तिगत भेदों के अनुसार शिक्षण-पद्धतियों में यथाशीघ्र परिवर्तन किया जाये। शिक्षण की ये नवीन विधियाँ गतिशील, क्रियात्मक और मनोवैज्ञानिक होनी चाहिये। 

    5. गृह-कार्य की नवीन धारणा

    व्यक्तिगत भेदों के कारण सब बालकों में समान कार्य की समान मात्रा पूर्ण करने की क्षमता नहीं होती है। अतः प्राचीन प्रथा के अनुसार सब बालकों को एक-सा गृह-कार्य देना उनके प्रति अन्याय करना है। आवश्यकता इस बात की है कि गृह-कार्य देते समय उनकी क्षमताओं और योग्यताओं का पूर्ण ध्यान रखा जाये। इस दृष्टि से मन्द बुद्धि और तीव्र बुद्धि बालकों को दिये जाने वाले गृह-कार्य में अन्तर किया जाना विवेक का प्रतीक है। 

    6. बालकों में विशेष रुचियों का विकास 

    यदि सब नहीं, तो कुछ बालक ऐसे अवश्य होते हैं, जिनमें कुछ विशेष रुचियाँ होती है। इन रुचियों का विकास करके उनका और उनके द्वारा समाज एवं देश का हित किया जा सकता है। अतः शिक्षक का यह कर्त्तव्य है कि बालकों की विशेष रुचियों का ज्ञान प्राप्त करके उनका अधिकतम विकास करने का सतत् प्रयास करे।

    7. शारीरिक दोषों के प्रति ध्यान

    आधुनिक शिक्षा की माँग है कि बालकों के शारीरिक दोषों और असमर्थताओं के प्रति पूर्ण ध्यान दिया जाये, ताकि वे अपनी आवश्यकताओं के अनुकूल शिक्षा प्राप्त करने से वंचित न रह जायें। इस सम्बन्ध में स्किनर ने चार सुझाव दिये है- 

    (i) जिन बालको को कम दिखाई या सुनाई देता है, उन्हें कक्षा में सबसे आगे बैठाया जाये, 

    (ii) निर्बल और कुपोषित बालकों के लिए विश्राम के घण्टे (Periods) निश्चित किये जायें,

    (iii) प्रत्येक बालक की डाक्टरी जाँच की जाये, 

    (iv) प्रत्येक विद्यालय में डॉक्टर की नियुक्ति की जाये।

    8. लिंग-भेद के अनुसार शिक्षा

    लिंग-भेद के कारण बालकों और बालिकाओं की रुचियों, क्षमताओं, योग्यताओं, आवश्यकताओं आदि में पर्याप्त अन्तर होता है। जैसे-जैसे वे बड़े होते जाते हैं, वैसे-वैसे यह अन्तर अधिक ही अधिक स्पष्ट होता जाता है। इस दृष्टि से प्राथमिक कक्षाओं में उनके लिए समान पाठ्य विषय हो सकते हैं, पर माध्यमिक कक्षाओं में इन विषयों में अन्तर की स्पष्ट रेखा का खींचा जाना आवश्यक है।

    9. आर्थिक व सामाजिक दशाओं के अनुसार शिक्षा

    बालकों के परिवारों की आर्थिक और सामाजिक दशायें उनके विचारों, दृष्टिकोणों, आवश्यकताओं आदि में भेद उत्पन्न कर देती हैं। उनके इस भेद को ध्यान में रखकर ही उनके लिए उपयुक्त प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था की जा सकती है। ऐसा न करने से उनको प्रदान की जाने वाली शिक्षा का निरर्थक सिद्ध होना स्वाभाविक है।

    10. पाठ्यक्रम का विभिन्नीकरण 

    विभिन्न आयु के बालकों एवं बालिकाओं की रुचियों, रुझानों, अभिवृत्तियों और आकांक्षाओं में इतना अधिक अन्तर होता है कि सबके लिए समान पाठ्यक्रम का निर्माण करना उनके प्रति अन्याय करना है। अतः पाठ्यक्रम लचीला होना चाहिये और उसमें इतने विभिन्न प्रकार के विषय होने चाहिए कि किसी भी बालक या बालिका को अपनी इच्छानुसार विषयों का चयन करने में किसी प्रकार की कठिनाई न हो। इस विचार के समर्थन में स्किनर ने लिखा है- "बालकों की विभिन्नताओं के चाहे जो भी कारण हों, वास्तविकता यह है कि विद्यालय को विभिन्न पाठ्यक्रमों के द्वारा उनका सामना करना चाहिए। "

    अतः सारांश यह है कि बालकों की वैयक्तिक विभिन्नताओं का शिक्षा में अति महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन विभिन्नताओं का ज्ञान प्राप्त करके शिक्षक अपने छात्रों को विविध प्रकार के लाभ पहुँचा सकता है। उदाहरणार्थ, वह शैक्षिक निर्देशन द्वारा उपयुक्त विषयों और व्यावसायिक निर्देशन द्वारा सर्वोत्तम व्यवसाय का चयन करने में बालकों को अपूर्व सहायता दे सकता है। इसीलिए स्किनर ने यह मत व्यक्त किया है- "यदि अध्यापक उस शिक्षा में सुधार करना चाहता है, जिसे सब बालक अपनी योग्यता का ध्यान किये बिना प्राप्त करते हैं, तो उसके लिए वैयक्तिक भेदों के स्वरूप का ज्ञान अनिवार्य है। "

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