विशिष्ट बालकों के प्रकार एवं शिक्षा का वर्णन कीजिए

विशिष्ट बालकों के प्रकार 

प्रत्येक विद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने के लिए अनेक सामान्य बालक आते हैं। इनके अलावा, कुछ ऐसे बालक भी आते हैं, जिनकी अपनी कुछ शारीरिक और मानसिक विशेषताएँ होती हैं। इनमें कुछ प्रतिभाशाली, कुछ मन्द-बुद्धि, कुछ पिछड़े हुए और कुछ शारीरिक दोषों वाले होते हैं। इनको विशिष्ट बालकों अथवा 'अपवादात्मक' बालकों की संज्ञा दी जाती है।

    विशिष्ट बालकों में, सामान्य बालकों की अपेक्षा कुछ असामान्यतायें तथा विशेषतायें पाई जाती है। इन विभिन्नताओं की चरम सीमा वाले बालक विशिष्ट बालकों की श्रेणी में आते हैं। ऐसे बालक, मानसिक, संवेगात्मक, शारीरिक, सामाजिक रूप से सामान्य बालकों से अलग होते हैं। 

    क्रो एवं क्रो के शब्दों में- "वह बालक, जो मानसिक, शारीरिक, सामाजिक और संवेगात्मक आदि विशेषताओं में औसत से विशिष्ट हो और यह विशिष्टता इस स्तर की हो कि उसे अपनी विकास क्षमता की उच्चतम सीमा तक पहुँचने के लिये विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता हो, असाधारण या विशिष्ट बालक कहलाता है।" 

    अतः हम इनमें से चार प्रकार के बालकों का विशेष अध्ययन करेंगे-

    1. प्रतिभाशाली बालक

    2. पिछड़े बालक 

    3. मन्दबुद्धि बालक 

    4. समस्यात्मक बालक 

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    (1) प्रतिभाशाली बालक 

    प्रतिभाशाली बालक का अर्थ

    प्रतिभाशाली बालक, सामान्य बालकों से सभी बातों में श्रेष्ठतर होता है। उसके विषय में कुछ विद्वानों के विचार निम्नलिखित हैं-

    1. स्किनर एवं हैरीमैनन के अनुसार- प्रतिभाशाली शब्द का प्रयोग उन 1 प्रतिशत बालकों के लिए किया जाता है, जो सबसे अधिक बुद्धिमान होते हैं।

    2. क्रो एवं क्रो के अनुसार- प्रतिभाशाली बालक दो प्रकार के होते हैं- 

    (i) वे बालक जिनकी बुद्धि-लब्धि 130 से अधिक होती है और जो असाधारण बुद्धि वाले होते है। 

    (ii) वे बालक, जो कला, गणित, संगीत, अभिनय आदि में एक या अधिक में विशेष योग्यता रखते हैं। 

    3. टरमन व ओडन के अनुसार- "प्रतिभाशाली बालक-शारीरिक गठन, सामाजिक समायोजन, व्यक्तित्व के लक्षणों, विद्यालय-उपलब्धि, खेल की सूचनाओं और रुचियों की बहुरूपता में सामान्य बालकों से बहुत श्रेष्ठ होते हैं। "

    प्रतिभाशाली बालक की विशेषताएँ

    स्किनर एवं हैरीमैन के अनुसार- प्रतिभाशाली बालक में निम्नलिखित विशेषताएँ पाई जाती हैं- 

    • विशाल शब्दकोश ।
    • मानसिक प्रक्रिया की तीव्रता।
    • दैनिक कार्यों में विभिन्नता।
    • सामान्य ज्ञान की श्रेष्ठता।
    • सामान्य अध्ययन में रुचि ।
    • अध्ययन में अद्वितीय सफलता ।
    • अमूर्त विषयों में रुचि ।
    • आश्चर्यजनक अन्तर्दृष्टि का प्रमाण ।
    • मन्दबुद्धि और सामान्य बालकों से अरुचि । 
    • पाठ्य विषयों में अत्यधिक रुचि या अरुचि ।
    • विद्यालय के कार्यों के प्रति बहुधा उदासीनता ।
    • बुद्धि परीक्षाओं में उच्च- बुद्धि-लब्धि (130+ से 170+ तक)।

    विटी (Witty) के अनुसार : प्रतिभाशाली बालक खेल पसन्द करते हैं, 50% मित्र बनाने की इच्छा रखते हैं, 80% धैर्यवान होते हैं, दूसरों का सम्मान करते हैं, 96% अनुशासन प्रिय होते हैं।

    प्रतिभाशाली बालक की शिक्षा

    प्रतिभाशाली बालक को किस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए ? इसका उत्तर देते हुए हैविगहर्स्ट (Havighurst) ने अपनी पुस्तक A Survey of the Education of Gifted Children में लिखा है-"प्रतिभाशाली बालकों के लिए शिक्षा का सफल कार्यक्रम वही हो सकता है, जिसका उद्देश्य उनकी विभिन्न योग्यताओं का विकास करना हो।" इस कथन के अनुसार, प्रतिभाशाली बालकों की शिक्षा का कार्यक्रम इस प्रकार होना चाहिये।

    सामान्य रूप से कक्षोन्नति

    कुछ मनोवैज्ञानिकों का विचार है- कि प्रतिभाशाली बालकों को एक वर्ष में दो बार कक्षोन्नति दी जानी चाहिए। उनके विपरीत, दूसरे मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि ऐसा करना, उनको सीखने की प्रक्रिया के क्रमिक विकास के लाभ से वंचित करना है। उनका विचार यह भी है कि यह आवश्यक नहीं है कि उनकी सब विषयों में विशेष योग्यता हो। ऐसी दशा में उच्च कक्षा में पहुँचकर उनमें असमायोजन उत्पन्न हो सकता है।

    अतः क्रो एवं क्रो का परामर्श है- "प्रतिभाशाली बालक को सामान्य रूप से विभिन्न कक्षाओं में अध्ययन करना चाहिए।" इसका अभिप्राय यह है कि प्रतिभाशाली बालकों को वर्ष के अन्त में उसी प्रकार कक्षोन्न्ती दी जानी चाहिए जिस प्रकार अन्य बालकों को दी जाती है।

    विशेष व विस्तृत पाठ्यक्रम 

    एक वर्ष में दो बार उन्नति देने के बजाय प्रतिभाशाली बालकों के लिए विशेष और विस्तृत पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाना चाहिए। इस पाठ्यक्रम में अधिक और कठिन विषय होने चाहिए, ताकि वे अपनी विशेष योग्यताओं के कारण अधिक ज्ञान का अर्जन कर सके । प्रतिभाशाली बालकों के पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए स्किनर ने लिखा है-"इन बालको के पाठ्यक्रम का निर्माण इस प्रकार किया जाना चाहिए जिससे उनकी मौखिक योग्यता, सामान्य मानसिक योग्यता और तर्क, चिन्तन एवं रचनात्मक शक्तियों का अधिकतम विकास हो सके। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उनको खोज, मौखिक और स्वतन्त्र कार्यों, क्रियात्मक और प्रयोगात्मक कार्यों के लिए उत्तम अवसर प्रदान किये जाने चाहिए।" 

    शिक्षक का व्यक्तिगत ध्यान

    शिक्षक को प्रतिभाशाली बालकों के प्रति व्यक्तिगत रूप से ध्यान देना चाहिए। उसे उनको नियमित रूप से परामर्श और निर्देशन देना चाहिए। इन विधियों का अनुसरण करके ही वह उनको उनकी विशेष योग्यताओं के अनुसार प्रगति करने के लिए अनुप्राणित कर सकता है।

    संस्कृति की शिक्षा

    हालिंगवर्थ (Hollingworth) ने अपनी पुस्तक (An Enriched Curriculum for Rapid Leamers) में लिखा है- "प्रतिभाशाली बालकों को अपनी संस्कृति के विकास की शिक्षा दी जानी चाहिए, ताकि वे समाज में अपना उचित स्थान ग्रहण कर सकें।" 

    सामान्य बालकों के साथ शिक्षा

    कुछ मनोवैज्ञानिकों का मत है कि प्रतिभाशाली बालको को सामान्य बालको से अलग विशिष्ट कक्षाओं और विशिष्ट विद्यालयों में शिक्षा दी जानी चाहिए। उनके मत के विरोध में दूसरे मनोवैज्ञानिकों का तर्क है कि ऐसी कक्षायें और विद्यालय, प्रतिभाशाली बालकों में असमायोजन की दोषपूर्ण प्रवृत्ति को सबल बनाते हैं। उन्हें इस प्रवृत्ति से मुक्त रखने और उनमें समायोजन के गुण का विकास करने के लिए आवश्यक है कि उनको सामान्य बालकों के साथ ही शिक्षा प्रदान की जाय।

    विशेष अध्ययन की सुविधाएँ 

    प्रतिभाशाली बालकों को सामान्य विषयों के अध्ययन में विशेष रुचि होती है। उनकी इस रुचि का विकास करने और उनको अधिक अध्ययन के लिए प्रोत्साहित करने के विचार से प्रत्येक विद्यालय में विभिन्न विषयों की पुस्तकों से सुसज्जित पुस्तकालय होना चाहिए। इस प्रकार की शैक्षिक सुविधाएँ उनको अधिक ज्ञान का अर्जन करने अपूर्व सहायता दे सकती हैं।

    पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का आयोजन 

    प्रतिभाशाली बालको में रुचियों का बाहुल्य होता है। उनकी तुष्टि केवल अध्ययन से ही नहीं हो सकती है। अतः विद्यालय को अधिक से अधिक पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का उत्तम आयोजन करना चाहिए।

    सामाजिक अनुभवों के अवसर 

    प्रतिभाशाली बालकों को सामान्य बालकों की सामाजिक क्रियाओं से पृथक नहीं रखना चाहिये। इन क्रियाओं में भाग लेकर ही उनको सामाजिक अनुभव प्राप्त हो सकते हैं। ये अनुभव उनको निश्चित रूप से सामाजिक समायोजन करने में सहायता दे सकते हैं। इन अनुभवों के अभाव में वे असमायोजित हो सकते हैं। क्रो एवं क्रो ने लिखा है- "प्रतिभाशाली बालक को सामाजिक अनुभव प्राप्त करने के अवसर दिये जाने चाहिये, ताकि वह सामाजिक असमायोजन से अपनी रक्षा कर सके।"

    नेतृत्व का प्रशिक्षण 

    क्रो एवं क्रो का कथन है-  "क्योंकि हम प्रतिभाशाली बालक से नेतृत्व की आशा करते हैं, इसलिए उसको विशिष्ट परिस्थितियों में नेतृत्व का अवसर और प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।" 

    व्यक्तित्व का पूर्ण विकास

    शेफील (Scheife) ने अपनी पुस्तक (The Gifted Child in the Regular Classroom) में लिखा है-  प्रतिभाशाली बालक की शिक्षा का मुख्य उद्देश्य सदैव उसके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करना होना चाहिए। इस दिशा में परिवार, विद्यालय और समाज को एक-दूसरे को इस प्रकार सहयोग देना चाहिये कि प्रारम्भिक बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक उसके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास हो जाय।

    (2) पिछड़े बालक 

    पिछड़े बालक का अर्थ

    जो बालक कक्षा का औसत कार्य नहीं कर पाता है और कक्षा के औसत छात्रों से पीछे रहता है, उसे 'पिछड़ा बालक' कहते हैं। पिछड़े बालक का मन्दबुद्धि होना आवश्यक नहीं है। पिछडेपन के अनेक कारण है, जिनमें से मन्दबुद्धि होना एक है। यदि प्रतिभाशाली बालक की शैक्षिक योग्यता अपनी आयु के छात्रों से कम है, तो उसे भी पिछड़ा बालक कहा जाता है। पिछड़े बालक के विषय में कुछ विद्वानों के विचार निम्नलिखित है-

    1. शोनेल एवं शोनेल के अनुसार- पिछडे बालक उसी जीवन आयु के अन्य छात्रों की तुलना में विशेष शैक्षिक निम्नता व्यक्त करते हैं।

    2. हिज मैजेस्टी कार्यालय के प्रकाशन पिछड़े बालकों की शिक्षा (Education of the Backward Children) में कहा गया है-"पिछड़े बालक वे हैं, जो उस गति से आगे बढ़ने में असमर्थ होते हैं, जिस गति से उनकी आयु के अधिकांश साथी आगे बढ़ रहे हैं। " 

    3. सिरिल बर्ट के अनुसार-"पिछड़ा बालक वह है, जो अपने विद्यालय जीवन के मध्य में (अर्थात् लगभग 10%, वर्ष की आयु में) अपनी कक्षा से नीचे की कक्षा के उस कार्य को न कर सके, जो उसकी आयु के बालकों के लिए सामान्य कार्य है।" 

    पिछड़े बालक की विशेषताएँ

    कुप्पूस्वामी  के अनुसार : पिछड़े बालक में निम्नलिखित विशेषताएँ पाई जाती हैं-

    • सीखने की धीमी गति ।
    • जीवन में निराशा का अनुभव।
    • समाज-विरोधी कार्यों की प्रवृत्ति ।
    • व्यवहार सम्बन्धी समस्याओं की अभिव्यक्ति । 
    • जन्मजात योग्यताओं की तुलना में कम शैक्षिक उपलब्धि ।
    • सामान्य विद्यालय के पाठ्यक्रम से लाभ उठाने में असमर्थता। 
    • सामान्य शिक्षण विधियों द्वारा शिक्षा ग्रहण करने में विफलता ।
    • मन्द बुद्धि, सामान्य बुद्धि या अति श्रेष्ठ बुद्धि का प्रमाण ।
    • मानसिक रूप से अस्वस्थ और असमायोजित व्यवहार ।
    • बुद्धि परीक्षाओं में निम्न बुद्धि-लब्धि (90 से 110 तक)।
    • विद्यालय कार्य में सामान्य बालकों के समान प्रगति करने की अयोग्यता । 
    • अपनी और उससे नीचे की कक्षा का कार्य करने में असमर्थता।

    पिछड़ेपन या शैक्षिक मन्दता के कारण 

    कुप्पूस्वामी के शब्दों में- "शैक्षिक पिछड़ापन अनेक कारणों का परिणाम है। अधिगम में मन्दता उत्पन्न करने के लिए अनेक कारक एक-साथ मिल जाते हैं।"

    हम प्रमुख कारणों को आपके हितार्थ पंक्तिबद्ध कर रहे हैं-

    सामान्य से कम शारीरिक विकास

    कुछ बालकों का वंशानुक्रम, वातावरण आदि के प्रभावों के कारण सामान्य से कम शारीरिक विकास (Subnormal Physical Development) होता है। ऐसे बालकों में शारीरिक और मानसिक शक्ति की न्यूनता होती है। फलस्वरूप, वे सामान्य बालकों के समान शारीरिक और मानसिक परिश्रम न कर सकने के कारण उनसे पीछे रह जाते हैं।

    शारीरिक दोष 

    कुछ बालकों में विभिन्न प्रकार के शारीरिक दोष होते हैं, जैसे- शारीरिक निर्बलता, कम सुनना, तुतलाना, हकलाना, बाँये हाथ से काम करना आदि। इनमें से एक अधिक शारीरिक दोष बालक को अधिक कार्य नहीं करने देते हैं। फलस्वरूप उसकी सीखने की गति मन्द रहती है और वह दूसरे बालकों से पिछड़ जाता है।

    शारीरिक रोग 

    कुछ बालकों में अस्वस्थ वातावरण, कुपोषण आदि के कारण अनेक शारीरिक रोग उत्पन्न हो जाते हैं, जैसे-खाँसी, नजला, टॉन्सिल, तपेदिक, आँतों की गड़बड़ी, निर्बल पाचन शक्ति, ग्रन्थियों (Glands) का ठीक कार्य न करना आदि। ये रोग बालक की शक्ति को क्षीण कर देते हैं, जिससे वह थोडा सा कार्य करने के बाद ही सिर-दर्द और मानसिक थकान का अनुभव करने लगता है। फलस्वरूप, वह कार्य को स्थगित कर देता है और कभी-कभी विद्यालय भी नहीं जा पाता है। ये दोनों बातें उसके पिछडेपन में योग देती हैं।

    निम्न सामान्य बुद्धि

    निम्न सामान्य बुद्धि शैक्षिक पिछड़ेपन और मन्दता का गम्भीर कारण है। शोनेल (Schonnel) का मत है कि 65% से 80% तक पिछड़े बालक मन्दबुद्धि होते हैं और शेष को संवेगात्मक एवं सामाजिक असमायोजन के कारण शैक्षिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। वैलेन्टीन का कथन है- "बर्ट ने जितने पिछड़े बालकों का अध्ययन किया, उनमें से 95% की बुद्धि, सामान्य बुद्धि से निम्न थी।"

    परिवार की निर्धनता

    परिवार की निर्धनता बालकों की शैक्षिक प्रगति पर तीन प्रकार के विपरीत प्रभाव डालती है- 

    • बालकों को पर्याप्त और पौष्टिक भोजन नहीं मिलता है। फलतः वे निर्बल हो जाते हैं और अधिक परिश्रम नहीं कर पाते हैं। 
    • उनकी शिक्षा की उत्तम सुविधायें और पठन सामग्री के लिए पर्याप्त धन नहीं मिलता है। फलतः वे धनी परिवार के बालकों के समान शैक्षिक प्रगति नहीं कर पाते है। 
    • उनको अपने परिवार की जीवन-सम्बन्धी आवश्यकताओं को जुटाने के लिए अपने माता-पिता के साथ या स्वतन्त्र रूप में कोई कार्य करना पड़ता है। फलतः उन्हें अध्ययन के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता है। इस प्रकार, परिवार की निर्धनता, बालकों के पिछडेपन की सीमा का विस्तार करती चली जाती है। 

    परिवार का बड़ा आकार 

    कुछ परिवारों में सदस्यों की संख्या तो अधिक होती है, पर उस अनुमति में निवास स्थान का अभाव होता है। यह बात आधुनिक नगरों में विशेष रूप से दिखाई देती है। इस प्रकार के परिवारों में बालकों को अध्ययन के लिए एकान्त स्थान नहीं मिलता। है। इसके अतिरिक्त, उनमें हर घड़ी इतना कोहराम मचा रहता है कि बालकों को पूरी नींद सोना या आराम करना हराम हो जाता है। ये दोनों कारण उनको अन्य बालकों से पीछे ढकेल देते हैं।

    परिवार के झगड़े 

    कुछ परिवार के सदस्यों में एक-दूसरे से सामंजस्य करने का गुण नहीं होता है। अतः वे निरन्तर किसी-न-किसी बात पर लड़ते-झगड़ते रहते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि बालक चिन्ताग्रस्त और असुरक्षित दशा में रहते हैं। परिणामतः वे अपने ध्यान को अध्ययन पर केन्द्रित नहीं कर पाते हैं और कक्षा में पिछड़ जाते हैं।

    माता-पिता की अशिक्षा 

    अशिक्षित माता-पिता, शिक्षा के महत्त्व को न समझने के कारण उसे अपने बालको के लिए निरर्थक समझते हैं। ऐसे माता-पिता के बच्चों के सम्बन्ध में कुप्पूस्वामी (Kuppuswamy) ने लिखा है- "ऐसे माता-पिता के बच्चों में न केवल शैक्षिक पिछड़ेपन का विकास होता है, वरन् वे शीघ्र ही निरक्षर हो जाते हैं।"

    माता-पिता की बुरी आदत

    कुछ माता-पिता में अनेक बुरी आदतें होती है, जैसे- आलस्य, लापरवाही, कामचोरी आदि। उनके निरन्तर सम्पर्क में रहने के कारण उनकी बुरी आदतों का उनके बालकों पर काफी प्रभाव पड़ता है। फलस्वरूप वे अध्ययन से जी चुराने लगते हैं, विद्यालय कार्य में लापरवाही करते है और नियमित रूप से कक्षा में उपस्थित नहीं रहते हैं। इन सब बातों का परिणाम होता है शिक्षा प्राप्त करने में पिछड़ जाना। 

    माता-पिता का दृष्टिकोण

    कुछ माता-पिता अपने बालकों के प्रति आवश्यकता से अधिक कठोर और कुछ उनको आवश्यकता से अधिक लाड़-प्यार करते हैं। दोनों प्रकार के माता-पिता अपने बच्चों में स्वतन्त्रता और आत्मविश्वास के गुणों का विकास नहीं होने देते हैं। इन गुणों के अभाव में शिक्षा में किसी प्रकार की प्रगति करना असम्भव है। 

    विद्यालय में अनुपस्थिति 

    कुछ बालक अनेक कारणों से विद्यालय में नियमित रूप से उपस्थित नहीं होते हैं, जैसे- बीमारी, देर में विद्यालय प्रवेश / पहुंचना, पिता का एक स्थान से दूसरे स्थान को तबादला आदि-आदि। उनकी अनुपस्थिति में ऐसी अनेक बातें पढ़ा दी जाती है, जिसको फिर कभी नहीं पढ़ाया जाता है। अतः इन बातों से बालकों का पिछड़ जाना स्वाभाविक है।

    विद्यालयों का दोषपूर्ण संगठन व वातावरण 

    जिन विद्यालयों का संगठन और वातावरण दोषपूर्ण होता है, वे न केवल बालकों के शैक्षिक पिछड़ेपन में वरन् शैक्षिक मन्दता में भी योग देते हैं। इस प्रकार के विद्यालयों में पाई जाने वाली कुछ अवाछनीय बातें हैं- 

    • पाठ्यक्रम के कठोर और संकीर्ण होने के कारण बालकों की आवश्यकताओं की आपूर्ति, 
    • अयोग्य अध्यापकों द्वारा अमनोवैज्ञानिक और परम्परागत शिक्षण विधियों का प्रयोग, 
    • अध्यापकों के कठोर व्यवहार के कारण बालकों में भय की उत्पत्ति, 
    • निर्देशन के अभाव के कारण बालकों के द्वारा गलत विषयों का चुनाव। 

    पुस्तकालय, प्रयोगशाला. पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं एवं शिक्षा की अन्य सुविधाओं के अभाव के कारण बालको की रुचियों और क्षमताओं के विकास के लिए उचित अवसरों की अप्राप्ति। ये सभी बातें किसी न किसी रूप में बालकों के पिछड़ेपन के लिये उत्तरदायी होती है।

    पिछडेपन या मन्दता निवारण के उपाय 

    शैक्षिक पिछड़ेपन या शैक्षिक मन्दता के लिये कोई एक कारण नहीं है, वरन् विभिन्न कारण सम्मिलित रूप से उत्तरदायी होते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक बालक के पिछड़ेपन के विभिन्न कारण होते हैं। इन कारणों का सम्बन्ध उसके परिवार एवं विद्यालय और स्वयं उसके शारीरिक, मानसिक तथा संवेगात्मक विकास के स्वरूप से होता है। अतः उसका उपचार तभी किया जा सकता है जब उसका विशेष अध्ययन करके उसके पिछडेपन के कारणों की खोज कर ली जाय। 

    इस सम्बन्ध में कुप्पूस्वामी (Kuppuswamy) ने लिखा है- "शिक्षकों, अभिभावकों, समाज सेवकों और विद्यालय-चिकित्सकों इन सबको सम्मिलित रूप से कार्य करना चाहिए, ताकि ठीक कारणों की खोज की जा सके और प्रत्येक बालक के लिए उपयुक्त उपचारों का प्रयोग किया जा सके।" 

    हम कुछ मुख्य उपायों या उपचारों की रूपरेखा प्रस्तुत कर रहे है-

    • बालकों के शारीरिक दोषों और रोगों का उपचार। 
    • बालकों की शारीरिक निर्बलता दूर करने के लिए सन्तुलित भोजन और शारीरिक व्यायाम की व्यवस्था ।
    • निर्धन परिवार के बालकों के लिए निःशुल्क शिक्षा और छात्रवृत्तियों की योजना । 
    • अनिवार्य शिक्षा प्राप्त करने की उच्चतम आयु तक बालकों द्वारा धनोपार्जन के लिए कार्य करने पर वैधानिक प्रतिबन्ध।
    • बालकों के परिवारों के वातावरण में सुधार।
    • बालकों के अभिभावकों को साक्षर बनाने के लिए अविराम क्रियाशीलता।
    • बालकों के माता पिता में अच्छी आदतों का निर्माण करने के लिए प्रचार,फिल्म प्रदर्शन आदि।
    • बालकों के प्रति माता-पिता का सन्तुलित दृष्टिकोण। 
    • बालकों की विद्यालयों में नियमित उपस्थिति का निरीक्षण करने के लिये निरीक्षकों की नियुक्ति ।
    • बालकों के लिए विशिष्ट विद्यालयों और विशिष्ट कक्षाओं की स्थापना। 
    • बालकों की योग्यताओं के अनुकूल पाठ्यक्रम का निर्माण ।
    • बालको के लिए शैक्षिक निर्देशन का प्रबन्ध।

    अन्त में, हम कुप्पूस्वामी के शब्दों में कह सकते हैं- "उपचार के उपाय चाहे जो भी हो, हमारा मुख्य कार्य प्रत्येक बालक की परिस्थितियों और जन्मजात योग्यताओं द्वारा निर्धारित की गई सीमाओं को ध्यान में रखकर उसको अपनी स्थिति की माँगों से पर्याप्त समायोजन करने में सहायता देना होना चाहिए।"

    पिछड़े बालक की शिक्षा

    स्टोन्स के शब्दों में- "आजकल पिछड़ेपन के क्षेत्र में किया जाने वाला अधिकांश अनुसंधान यह सिद्ध करता है कि उचित ध्यान दिये जाने पर पिछड़े बालक, शिक्षा में प्रगति कर सकते हैं।"

    पिछडे बालकों की शिक्षा के प्रति उचित ध्यान देने का अभिप्राय है- उनकी शिक्षा का उपयुक्त संगठन हम इस संगठन के आधारभूत तत्वों को प्रस्तुत कर रहे हैं-

    विशिष्ट विद्यालयों की स्थापना

    पिछड़े बालकों के लिए विशिष्ट विद्यालयों की स्थापना की जानी चाहिए। उनकी आवश्यकता पर बल देते हुए प्रो. उदय शंकर ने लिखा है-"यदि पिछड़े बालकों को सामान्य बालकों के साथ शिक्षा दी जायगी, तो वे पिछड़ जायेंगे और फलस्वरूप वे अपने स्वयं के स्तर के बालकों से और अधिक पिछड़े हुए हो जायेंगे। विशिष्ट विद्यालयों में उनको अपनी कमियाँ का कम ज्ञान होगा और वे अपने समान बालकों के समूह में अधिक सुरक्षा का अनुभव करेंगे। इन विद्यालयों में उनके लिये प्रतिद्वन्द्विता कम होगी और प्रोत्साहन अधिक।"

    यदि ये विशिष्ट विद्यालय, सावास (Residential) विद्यालय हों, तो पिछड़े बालकों को और अधिक लाभ हो सकता है। ऐसे विद्यालयों में उनके पिछड़ेपन के कारणों का सरलता से अध्ययन करके उपचार किया जा सकता है। इंग्लैण्ड में इस प्रकार के विद्यालय हैं और उनमें 100 से अधिक छात्र नहीं रखे जाते है।

    विशिष्ट कक्षाओं की स्थापना 

    यदि किसी कारण से पिछड़े बालकों के लिए विशिष्ट विद्यालयों की स्थापना सम्भव नहीं है, तो उनके लिए प्रत्येक विद्यालय में विशिष्ट कक्षायें स्थापित की जानी चाहिए। इन कक्षाओं के सम्बन्ध में स्टोन्स के तीन सुझाव हैं- 

    • इन कक्षाओं में 20 से अधिक छात्र नहीं होने चाहिए,
    • ये कक्षायें भिन्न-भिन्न विषयों की होनी चाहिए और इनमें उन विषयों में पिछड़े हुए विद्यालय के सब छात्रों को शिक्षा दी जानी चाहिए, 
    • जिन विद्यालयों में इस प्रकार की कक्षाओं के लिए पर्याप्त स्थान नहीं है, उनमें एक या दो कक्षाओं को चलाने की व्यवस्था अवश्य होनी चाहिए। इस कक्षा या इन दो कक्षाओं में विद्यालय के सब पिछड़े हुए छात्रों को व्यक्तिगत रूप से शिक्षा दी जानी चाहिए।

    विशिष्ट विद्यालयों का संगठन

    कुप्पूस्वामी के अनुसार- "पिछडे हुये बालकों के विशिष्ट विद्यालयों का संगठन इस प्रकार किया जाना चाहिए, जिससे कि उनमें विभिन्न प्रकार की अधिकतम छात्र-क्रियायें, बालकों को पर्याप्त पर नियन्त्रित स्वतन्त्रता, स्वतन्त्र अनुशासन और प्रत्येक बालक की प्रगति का पूर्ण अभिलेख विकसित हो सके।"

    अच्छे शिक्षकों की नियुक्ति

    पिछडे हुए बालकों को शिक्षा देने के लिए अच्छे शिक्षकों की नियुक्ति की जानी चाहिए। अच्छे शिक्षक का वर्णन करते हुए बर्ट (Burt, The Causes and Treatment of Backwardness) ने लिखा है-"पिछड़े बालकों का अच्छा शिक्षक साहित्यिक रुचियों वाला मनुष्य होने के बजाय व्यावहारिक मनुष्य होता है। उसकी रुचियों पुस्तकीय होने के बजाय मूर्त होती हैं और उसमें शारीरिक कार्य करने की योग्यता होती है।"

    छोटे समूहों में शिक्षा 

    पिछड़े हुए बालक वास्तविक प्रगति तभी कर सकते हैं, जब शिक्षकों द्वारा उनके प्रति व्यक्तिगत रूप से ध्यान दिया जाय। यह तभी सम्भव है जब उनको छोटे समूहों में शिक्षा दी जाय। इस सम्बन्ध में स्टोन्स के तीन सुझाव है- 

    (i) एक कक्षा में 20 से अधिक छात्र नहीं होने चाहिए। 

    (ii) यदि छात्रों में किसी प्रकार के शारीरिक दोष हैं, तो उनकी संख्या 20 से कम होनी चाहिए। 

    (iii) एक कक्षा के छात्रों को केवल एक अध्यापक द्वारा शिक्षा दी जानी चाहिए।

    विशेष पाठ्यक्रम का निर्माण

    पिछड़े बालकों के लिए विशेष प्रकार के पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाना चाहिए। पाठ्यक्रम अधिक-से-अधिक लचीला और सामान्य बालकों के पाठ्यक्रम से कम बोझिल एवं कम विस्तृत होना चाहिए। इसके अतिरिक्त, वह बालकों के लिए उपयोगी, उनके जीवन से सम्बन्धित और उनकी आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाला होना चाहिए। उसके उद्देश्य के बारे में कुप्पूस्वामी ने लिखा है- "पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए, जो पिछड़े बालकों को विद्वान् बनाने के बजाय जीवन के लिए तैयार करे एवं उनको बुद्धिमान नागरिक और कुशल कार्यकर्त्ता बनाये।"

    अध्ययन के विषय 

    पिछड़े बालकों में अमूर्त चिन्तन की योग्यता नहीं होती है। अतः उसके अध्ययन के विषय न तो अमूर्त होने चाहिए और न उनमे सिद्धान्तों एवं सामान्य नियमों की अधिकता होनी चाहिए। 

    स्किरन एवं हैरीमैन के अनुसार : "पिछड़े बालकों के अध्ययन के विषयों का सम्बन्ध उनके सामाजिक वातावरण से होना चाहिए, क्योंकि शिक्षा का उद्देश्य बालक में सामाजिक वातावरण उत्पन्न करना है।"

    हस्तशिल्पों की शिक्षा

    पिछड़े बालकों में तर्क और चिन्तन की शक्तियों का अभाव होता है। अतः उनके लिए मूर्त विषयों के रूप में हस्तशिल्पों की शिक्षा का प्रबन्ध किया जाना चाहिए। बालकों को अग्रांकित शिल्पों की शिक्षा दी जा सकती है- 

    (1) कताई, बुनाई, जिल्दसाजी और टोकरी बनाना, 

    (2) बेंत, धातु, लकड़ी और चमड़े का काम। बालिकाओं के लिए आगे लिखे शिल्प हो सकते हैं- बुनना, काढना, सिलाई करना, भोजन बनाना और गृह विज्ञान से सम्बन्धित अन्य कार्य ।

    सांस्कृतिक विषयों की शिक्षा

    पिछड़े बालकों की आत्म-अभिव्यक्ति की शक्तियों का विकास करने के लिए उनको उनकी रुचियों और क्षमताओं के अनुसार संगीत नृत्य, ब्राइ और अभिनय की शिक्षा दी जानी चाहिए उनमें नैतिक गुणों का विकास करने के लिए उनको वीर मनुष्यों और महान् पुरुषों एवं महिलाओं की कहानियों की नाटकों के रूप में शिक्षा दी जानी चाहिए।

    विशेष शिक्षण-विधियों का प्रयोग 

    सामान्य बालकों की तुलना में पिछड़े बालकों में सामान्य बुद्धि कम होती है। अतः उनके लिए विशेष शिक्षण विधियों की का प्रयोग किया जाना चाहिए। 

    इनमें निम्नलिखित पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए - 

    • सरल और रोचक शिक्षण विधियाँ,
    • शिक्षण की धीमी गति, 
    • शिक्षण का बालकों के दैनिक जीवन और मूर्त वस्तुओं से सम्बन्ध, 
    • शिक्षण के विभिन्न उपकरणों का उदार प्रयोग, 
    • कम-से-कम मौखिक शिक्षण,
    • पढाये गए विषय की बार-बार पुनरावृत्ति, 
    • अर्जित ज्ञान को प्रयोग करने के अवसर, 
    • योजना पद्धति के आधार पर कार्य, 
    • भौगोलिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक आदि स्थानों का भ्रमण, 
    • स्टोन्स के अनुसार- "इस बात की सावधानी रखनी चाहिए कि एक बार में अधिक न पढ़ा दिया जाय।"

    (3) मन्द बुद्धि बालक

    मानसिक रूप से मन्द बालक 

    "मानसिक मन्दता" का सामान्य अर्थ है, औसत से कम मानसिक योग्यता मानसिक मन्दता वाले बालकों की बुद्धि लब्धि, साधारण बालको की बुद्धि-लब्धि से कम होती है। अतः उनमें विभिन्न मानसिक शक्तियों की न्यूनता होती है।

    स्किनर  के अनुसार- 'मानसिक मन्दता' वाले बालकों के लिए अनेक पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया जाता है, जैसे- मन्द-बुद्धि (Mentally Retarded), अल्प-बुद्धि (Mentally Deficient), विकल-बुद्धि (Mentally Handicapped), धीमी गति से सीखने वाले ( Slow Learners), पिछडे हुए (Backward) और मूढ (Dull)

    सन् 1913 तक मन्द-बुद्धि और पिछड़े हुए व्यक्तियों में किसी प्रकार का अन्तर नहीं किया जाता था। उस वर्ष England ने "Mental Deficiency Act" बनाकर इस अन्तर को जन्म दिया। इससे सम्बन्धित वहाँ और अमरीका के मनोवैज्ञानिकों ने अध्ययन करने प्रारम्भ किये। 

    परिणामतः अमरीका में मन्द-बुद्धि बालकों और पिछडे बालकों में स्पष्ट अन्तर कर दिया गया। साथ ही 'मानसिक मन्दता' की सरकारी परिभाषा इस प्रकार की गई "मानसिक मन्दता औसत से निम्न मानसिक कार्यक्षमता का उल्लेख करती है। इसका आरम्भ बालक के विकास की अवधि में होता है और वह अग्रलिखित में से एक या अधिक से अनुकूल व्यवहार की कमी द्वारा सम्बन्धित रहती है-  (1) परिपक्वता,  (2) अधिगम और (3) सामाजिक समायोजन। "

    मन्द बुद्धि बालक का अर्थ

    मन्द-बुद्धि बालक मूढ़ (Dull) होता है। इसलिए उसमें सोचने, समझने और विचार करने की शक्ति कम होती है। इस सम्बन्ध में कुछ विद्वानों के विचार निम्नलिखित हैं- 

    1. क्रो एवं क्रो के अनुसार- जिन बालको की बुद्धि-लब्धि 70 से कम होती है, उनको मन्द बुद्धि बालक कहते हैं।

    2. स्किनर के अनुसार- प्रत्येक कक्षा के छात्रों को एक वर्ष में शिक्षा का एक निश्चित कार्यक्रम पूरा करना पड़ता है। जो छात्र उसे पूरा कर लेते हैं, उनको 'सामान्य छात्र' कहा जाता है। जो उसे पूरा नहीं कर पाते हैं, उनको मन्द बुद्धि छात्र की संज्ञा दी जाती है। विद्यालयों में यह धारणा बहुत लम्बे समय से चली आ रही है और अब भी है। 

    3. आधुनिक समय में मन्द-बुद्धि बालकों से सम्बन्धित उपर्युक्त धारणा में अत्यधिक परिवर्तन हो गया। इस पर प्रकाश डालते हुए पोलक व पोलक ने लिखा है- "मन्द-बुद्धि बालक को अब क्षीण बुद्धि बालकों के समूह में नहीं रखा जाता है, जिनके लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता है। अब हम यह स्वीकार करते हैं कि उनके व्यक्तित्व के उतने ही विभिन्न पहलू होते हैं, जितने सामान्य बालकों के व्यक्तित्व के होते हैं।"

    मन्द-बुद्धि बालक की विशेषताएँ

    विभिन्न लेखकों ने मन्द-बुद्धि बालक की विभिन्न विशेषताओं का उल्लेख किया है। हम उनमें से मुख्य-मुख्य का वर्णन कर रहे हैं-

    (अ) क्रो एवं क्रो  के अनुसार-

    • दूसरों को मित्र बनाने की अधिक इच्छा।
    • दूसरों के द्वारा मित्र बनाये जाने की कम इच्छा । 
    • विद्यालय में असफलताओं के कारण निराशा ।
    • संवेगात्मक और सामाजिक असमायोजन ।

    (ब) स्किनर (Skinner ) के अनुसार-

    • सीखी हुई बात को नई परिस्थिति में प्रयोग करने में कठिनाई। 
    • व्यक्तियों और घटनाओं के प्रति ठोस और विशिष्ट प्रतिक्रियाएँ।
    • मान्यताओं के सम्बन्ध में अटल विश्वास।
    • दूसरों की तनिक भी चिन्ता न करने के बजाय केवल अपनी चिन्ता ।
    • किसी बात का निर्णय करने में परिस्थितियों की अवहेलना जैसे- धन की चोरी बुरी बात पर भोजन और अन्य वस्तुओं की चोरी बिल्कुल ठीक बात।
    • कार्य और कारण के सम्बन्ध में ऊटपटाँग धारणाएँ जैसे- अपनी बीमारी के लिए थर्मामीटर पर दोषारोपण ।

    (स) फ्रेंडसन के अनुसार-

    • आत्म-विश्वास का अभाव। 
    • 50 से 70 या 75 तक बुद्धि-लब्धि ।
    • विभिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रकार का व्यवहार, जैसे-प्रेम, भय, मौन, चिन्ता, विरोध, पृथकता या आक्रमण पर आधारित व्यवहार ।
    • 'मन्द-बुद्धि बालक धीरे-धीरे सीखते हैं, अनेक गलतियाँ करते हैं, जटिल परिस्थितियों को ठीक तरह से नहीं समझते हैं, कार्य-कारण सम्बन्धों को समझने में साधारणतः असफल होते हैं और अनेक कार्यों के परिणामों पर उचित विचार किये बिना बहुधा भावावेशपूर्ण व्यवहार करते हैं।

    मन्द बुद्धि बालक की शिक्षा

    मन्द बुद्धि बालक की शिक्षा का वही स्वरूप होना चाहिए, जो पिछड़े बालक की शिक्षा का है। अतः हम उसकी पुनरावृत्ति न करके, अमरीका में मन्द-बुद्धि बालकों के लिए कार्यान्वित किये गये कार्यक्र पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्तों और कुछ अन्य उल्लेखनीय बातों को अंकित कर रहे हैं- 

    (अ) कार्यक्रम

    स्किनर के अनुसार : अमरीका में मन्दबुद्धि बालकों के लिए तीन विशेष कार्यक्रम प्रारम्भ किये गये हैं--

    1. अपनी देखभाल का प्रशिक्षण- मन्द-बुद्धि बालकों को अपनी देखभाल का प्रशिक्षण-कपड़े पहनने और उतारने के अभ्यास, भोजन करते समय शिष्टाचार, सफाई की आदतों और अपनी वस्तुओं एवं वस्त्रों की रक्षा करने की शिक्षा द्वारा दिया जाता है। 

    2. सामाजिक प्रशिक्षण- मन्द-बुद्धि बालको को सामाजिक प्रशिक्षण सह खेलों, सामूहिक कार्यों, पर्यटनों, अध्ययन की योजनाओं और विशिष्ट शिष्टाचार की शिक्षा द्वारा दिया जाता है।

    3. आर्थिक प्रशिक्षण- मन्द-बुद्धि बालकों को आर्थिक प्रशिक्षण- हस्तशिल्पों और छोटे-छोटे घरेलू कार्यों की शिक्षा द्वारा दिया जाता है।

    (ब) पाठ्यक्रम 

    स्किनर के अनुसार : अमरीका के राज्य में मन्द-बुद्धि बालको के लिए उनके जीवन की समस्याओं के आधार पर निम्नलिखित पाठ्यक्रम तैयार किया गया है-

    • शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की शिक्षा ।
    • पौष्टिक भोजन, सफाई और आराम की आदतों के साथ-साथ वास्तविक आत्म-मूल्यांकन की शिक्षा।  
    • सुरक्षा, प्राथमिक चिकित्सा और आचरण सम्बन्धी नियमों की शिक्षा।
    • सुनने, निरीक्षण करने, बोलने और लिखने की शिक्षा। 
    • घर और परिवार के उत्तरदायित्वों एवं उनके सदस्यों के रूप में सभी कार्यों को करने की शिक्षा।
    • स्थानीय यात्राओं को कुशलता से करने की शिक्षा।
    • निष्क्रिय और सक्रिय मनोरंजन की शिक्षा। 
    • अन्तर-वैयक्तिक और सामूहिक समाजीकरण में कुशलता प्राप्त करने की शिक्षा ।
    • धन, समय और वस्तुओं का उचित प्रबन्ध करने की शिक्षा ।
    • विभिन्न वस्तुओं का मूल्य आँकने की शिक्षा
    • कार्य, उत्तरदायित्व एवं साथियों और निरीक्षकों से मिलकर रहने की शिक्षा ।
    • मान्यताओं और विवेकपूर्ण नियमों की शिक्षा। 

    (स) व्यक्तिगत शिक्षण व छात्र संख्या

    फ्रेंडसन के अनुसार : मन्द-बुद्धि बालकों को व्यक्तिगत शिक्षण की आवश्यकता है। अतः कक्षा में छात्रों की संख्या 12 से 15 तक होनी चाहिए।  

    (द) विशिष्ट कक्षाएँ 

    फ्रैंडसन के अनुसार : मन्द-बुद्धि बलक अपनी सीमित योजनाओं के कारण सामान्य कक्षाओं में ज्ञान का अर्जन नहीं कर पाते है। ये कक्षायें उनमें सामाजिक असमायोजन का दोष भी उत्पन्न कर देती है। अतः उनको विशेष रूप से प्रशिक्षित शिक्षकों द्वारा विशिष्ट कक्षाओं में शिक्षा दी जानी चाहिए।

    (य) शिक्षा के उद्देश्य

    फ्रैंडसन के अनुसार : मन्द-बुद्धि बालकों की शिक्षा के निम्नांकित उद्देश्य होने चाहिए- 

    • जन्मजात व्यक्तियों का विकास करना ।
    • दैनिक जीवन में वैयक्तिक, सामाजिक और आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना । 
    • शारीरिक स्वास्थ्य की उन्नति करना।
    • स्वस्थ आदतों का निर्माण करना।
    • स्वतन्त्रता और आत्मविश्वास की भावनाओं का विकास करना। 

    मन्द-बुद्धि (पिछड़े) बालकों का शिक्षक

    मन्द-बुद्धि या पिछडे बालकों को शिक्षा देने वाले अध्यापक में निम्नलिखित गुण, विशेषताये या योग्यताएं होनी चाहिए-

    • शिक्षक को बालकों का सम्मान करना चाहिए। 
    • शिक्षक को बालकों की सहायता, परामर्श और निर्देशन देने के लिए तैयार रहना चाहिए।
    • शिक्षक को बालकों में संवेगात्मक सन्तुलन और सामाजिक समायोजन के गुणों का विकास करना चाहिए।
    • शिक्षक को बालकों की आवश्यकताओं का अध्ययन करके उनको पूर्ण करने का प्रयास करना चाहिए।
    • शिक्षक को बालकों के स्वास्थ्य समस्याओं और सामाजिक दशाओं के प्रति व्यक्तिगत रूप से ध्यान देना चाहिए। 
    • शिक्षक को बालकों की कमियों का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए, पर साथ ही उसे विश्वास होना चाहिए कि वे प्रगति कर सकते हैं।
    • शिक्षक को बालकों को दी जाने वाली शिक्षा का उनके वास्तविक जीवन से सम्बन्ध स्थापित करना चाहिए। 
    • शिक्षक को बालकों को एक या दो हस्तशिल्पों की शिक्षा देने में कुशल होना चाहिए।
    • शिक्षक को बालकों को उनकी संस्कृति से परिचित कराने के लिए सांस्कृतिक विषयों की शिक्षा देनी चाहिए।
    • शिक्षक को स्वयं शारीरिक श्रम को महत्त्व देना चाहिए और बालकों को उसे महत्त्व देने की शिक्षा देनी चाहिए।
    • शिक्षक को बालकों को शिक्षा देने के लिए सरल विधियां, मूर्त वस्तुओं और सामूहिक क्रियाओं का प्रयोग करना चाहिए।
    • शिक्षक को धीमी गति से पढ़ाना चाहिए और पढ़ाये हुए पाठ को बार-बार दोहराना चाहिए। 
    • शिक्षक को अपने शिक्षण को रोचक बनाने के लिए सभी प्रकार के उपयुक्त उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए।
    • शिक्षक में धैर्य और संकल्प के गुण होने चाहिए ताकि वह बालकों की मन्द प्रगति से हतोत्साहित न हो जाय।
    • शिक्षक में बालकों के प्रति प्रेम, सहानुभूति और सहनशीलता का व्यवहार करने का गुण होना चाहिए।

    सार रूप में, हम कुप्पूस्वामी  के शब्दों में कह सकते हैं- "मन्द बुद्धि बालकों के शिक्षकों को, उनको शिक्षा देने के लिए विशिष्ट कुशलता और प्रशिक्षण से सुसज्जित होने के अलावा बहुत धैर्यवान, सहनशील और सहानुभूतिपूर्ण होना चाहिए।"

    (4) समस्यात्मक बालक

    'समस्यात्मक बालक' उस बालक को कहते हैं, जिसके व्यवहार में कोई ऐसी असामान्य बात होती है, जिसके कारण वह समस्या बन जाती है, जैसे-चोरी करना, झूठ बोलना आदि। 'समस्यात्मक बालक' का अर्थ स्पष्ट करते हुए वेलेन्टाइन ने लिखा है- "समस्यात्मक बालकों शब्द का प्रयोग साधारणतः उन बालकों का वर्णन करने के लिए किया जाता है, जिनका व्यवहार या व्यक्तित्व किसी बात में गम्भीर रूप से असामान्य होता है।"

    समस्यात्मक बालकों के प्रकार 

    समस्यात्मक बालकों की सूची बहुत लम्बी है। इनमें से कुछ मुख्य प्रकार के बालक है- चोरी करने वाले झूठ बोलने वाले, क्रोध करने वाले, एकान्त पसन्द करने वाले मित्र बनाना पसन्द न करने वाले. आक्रमणकारी व्यवहार करने वाले, विद्यालय से भाग जाने वाले भयभीत रहने वाले छोटे बालकों को तंग करने वाले, गृह-कार्य न करने वाले, कक्षा में देर से आने वाले आदि-आदि। 

    हम इनमें से प्रथम तीन का वर्णन कर रहे हैं जो इस प्रकार से हैं-

    (A) चोरी करने वाला बालक

    (अ) चोरी करने के कारण : किसी-किसी बालक में चोरी करने की बुरी आदत होती है। इसके अनेक कारण हो सकते है-

    1. अज्ञानता- छोटा बालक. अज्ञानता के कारण चोरी करता है। वह यह नहीं जानता है कि जो वस्तु जिसके पास है, उसी का उस पर उचित अधिकार है या नही। 

    2. अन्य विधि से अपरिचित- कोई बालक इसलिए चोरी करता है, क्योंकि उसे वांछित वस्तु को प्राप्त करने की और कोई विधि नहीं मालूम होती है।

    3. उच्च स्थिति की इच्छा- किसी बड़े बालक में अपने समूह में अपनी उच्च स्थिति व्यक्त करने की प्रबल लालसा होती है। अपनी इस लालसा को पूरा करने के लिए वह वस्त्र और अन्य वस्तुओं की चोरी करता है।

    4. माता-पिता की अवहेलना-स्ट्रेंग (Strang) के अनुसार : जिस बालक की अपने माता-पिता के द्वारा अवहेलना की जाती है, वह उनको समाज में अपमानित करने के लिए चोरी करने लगता है।

    5. साहस दिखाने की भावना- किसी बालक में दूसरे बालकों को यह दिखाने की प्रबल भावना होती है कि वह उनसे अधिक साहसी है। वह इस बात का प्रमाण चोरी करके देता है।

    6. आत्म नियंत्रण का अभाव- बालक, आत्म-नियंत्रण के अभाव के कारण चोरी करने लगता है। उसे जो भी वस्तु अच्छी लगती है. उसी को वह चुरा लेता है या चुराने का प्रयत्न करता है।

    7. चोरी की लत- किसी-किसी बालक में चोरी की लत (Kleptomania) होती है। वह अकारण ही विभिन्न प्रकार की वस्तुओं की चोरी करता है। स्ट्रेंग (Strang) ने अपने एक बालक का उल्लेख किया है, जिसने 23 पेटियों (Belts) की चोरी की थी।

    8. आवश्यकताओं की अपूर्ति- जिस बालक की आवश्यकताएँ पूर्ण नहीं हो पाती है, वह उनको चोरी करके पूर्ण करता है। यदि बालक को विद्यालय में खाने-पीने के लिए पैसे नहीं मिलते हैं, तो वह उनको घर से चुरा ले जाता है।

    (ब) उपचार : बालक की चोरी की आदत को छुड़ाने के लिए निम्नांकित उपायों को काम में लाया जा सकता है-

    • बालक पर चोरी का दोष कभी नहीं लगाना चाहिए। 
    • बालक में आत्म-नियंत्रण की भावना का विकास करना चाहिए।
    • बालक को उचित और अनुचित कार्यों में अन्तर बताना चाहिए।
    • बालक की उसके माता-पिता द्वारा अवहेलना नहीं की जानी चाहिए।
    • बालक की सभी उचित आवश्यकताओं को पूरा करना चाहिए।
    • बालक को विद्यालय में व्यय करने के लिए कुछ धन अवश्य देना चाहिए। 
    • बालक को खेलकूद और अन्य कार्यों में अपनी साहस की भावना को व्यक्त करने का अवसर देना चाहिए।
    • बालक को यह शिक्षा देनी चाहिए कि जो वस्तु जिसकी है, उस पर उसी का अधिकार है। दूसरे शब्दों में उसको अन्य व्यक्तियों के अधिकारों का सम्मान करने की शिक्षा देनी चाहिए।

    (B) झूठ बोलने वाला बालक

    (अ) झूठ बोलने के कारण : बालक द्वारा झूठ बोले जाने के अनेक कारण हो सकते हैं-

    1. मनोविनोद- बालक कभी-कभी केवल मनोविनोद या मजा लेने के लिये झूठ बोलता है।

    2. द्विविधा- बालक कभी-कभी किसी बात को स्पष्ट रूप से न समझ सकने के कारण द्विविधा में पड़ जाता है और अनायास झूठ बोल जाता है।

    3. मिथ्याभिमान- किसी बालक में मिथ्याभिमान की भावना बहुत बलवती होती है। अतः वह उसे व्यक्त और सन्तुष्ट करने के लिए झूठ बोलता है। वह अपने साथियों को अपने बारे में ऐसी-ऐसी बातें सुनाता है, जो उसने कभी नहीं की है। 

    4. प्रतिशोध- बालक अपने बैरी से बदला लेने के लिए उसके बारे में झूठी बातें फैलाकर उसको बदनाम करने की चेष्टा करता है।

    5. स्वार्थ- बालक कभी-कभी अपने स्वार्थों के कारण झूठ बोलता है। यदि वह गृह-कार्य करके नहीं लाया है, तो वह दण्ड से बचने के लिए कह देता है कि उसे अकस्मात् पेचिश हो गई थी। 

    6. वफादारी- कोई बालक अपने मित्र, समूह आदि के प्रति इतना वफादार होता है कि वह झूठ बोलने में तनिक भी संकोच नहीं करता है। यदि उसके मित्र की तोड़-फोड़ करने की प्रधानाचार्य से शिकायत होती है, तो वह इस बात की झूठी गवाही देता है कि उसका मित्र तोड़-फोड़ के स्थान पर मौजूद नहीं था।

    7. भय- स्ट्रंग के अनुसार : "भय अनेक बालकों की झूठी बातों का मूल कारण होता है।"

    भय, जिसके कारण बालक झूठ बोलता है. अनेक प्रकार का हो सकता है, जैसे- कठोर दण्ड का भय, कक्षा या समूह में प्रतिष्ठा खोने का भय किसी पद से वंचित किये जाने का भय इत्यादि ।

    (ब) उपचार : बालक की झूठ बोलने की आदत को छुड़ाने के लिए निम्नांकित उपायों को काम में लाया जा सकता है-

    • बालकों को यह बताना चाहिए कि झूठ बोलने से कोई लाभ नहीं होता है। 
    • बालक में नैतिक साहस की भावना का अधिकतम विकास करने का प्रयत्न करना चाहिए।
    • बालक में सोच-विचार कर बोलने की आदत का निर्माण करना चाहिए। 
    • बालक से बात न करके, उसकी अवहेलना करके, और उसके प्रति उदासीन रह कर उसे अप्रत्यक्ष दण्ड देना चाहिए।
    • बालक को ऐसी संगति और वातावरण में रखना चाहिए, जिससे उसे झूठ बोलने का अवसर न मिले।
    • बालक से उसका अपराध स्वीकार करवा कर उससे फिर कभी झूठ न बोलने की प्रतिज्ञा करवानी चाहिए।
    • बालक की आत्म-सम्मान की भावना को इतना प्रबल बना देना चाहिए कि वह झूठ बोलने के कारण अपना अपमान सहन न कर सके। 
    • सत्य बोलने वाले बालक की निर्भयता और नैतिक साहस की प्रशंसा करनी चाहिए।

    (C) क्रोध करने वाला बालक

    (अ) क्रोध व आक्रमणकारी व्यवहार:  साधारणत: क्रोध और आक्रमणकारी व्यवहार का साथ होता है। क्रो एवं क्रो का कथन है-"क्रोध, आक्रमणकारी व्यवहार द्वारा व्यक्त किया जाता है।" 

    क्रुद्ध बालक के आक्रमणकारी व्यवहार के कुछ मुख्य स्वरूप है- मारना, काटना, नोचना, चिल्लाना, खरोंचना तोड़-फोड़ करना, वस्तुओं को इधर-उधर फेंकना, गाली देना, व्यंग्य करना, स्वयं अपने शरीर को किसी प्रकार की क्षति पहुँचाना इत्यादि । 

    (ब) क्रोध आने के कारण: बालक को क्रोध आने के अनेक कारण हो सकते हैं-

    • बालक के किसी उद्देश्य की प्राप्ति में बाधा पड़ना।
    • बालक मे किसी के प्रति ईर्ष्या होना। 
    • बालक के खेल, कार्य या इच्छा में विघ्न पड़ना ।
    • बालक को किसी विशेष स्थान को जाने से रोकना।
    • बालक की किसी वस्तु का छीन लिया जाना ।
    • बालक का किसी बात में निराश होना।
    • बालक का अस्वस्थ या रोगग्रस्त होना। 
    • बालक का किसी कार्य को करने में असमर्थ होना।
    • बालक के कार्य, व्यवहार आदि में निरन्तर दोष निकाला जाना। 
    • बालक पर अपने माता या पिता के क्रोधी स्वभाव का प्रभाव पड़ना ।

    (स) उपचार : बालक को क्रोध के दुर्गुण से मुक्त करने के लिए निम्नलिखित उपायों का प्रयोग किया जा सकता है-

    • बालक के रोग का उपचार और स्वास्थ्य में सुधार करना चाहिए।
    • बालक को जिस बात पर क्रोध आए, उस पर से उसके ध्यान को हटा देना चाहिए।
    • बालक को अपने क्रोध पर नियंत्रण करने की शिक्षा देनी चाहिए। 
    • बालक को केवल अनुचित बातों के प्रति क्रोध व्यक्त करने का परामर्श देना चाहिए।
    • बालक के क्रोध को क्रोध व्यक्त करके नहीं, वरन् शान्ति से शान्त करना चाहिए।
    • बालक के क्रोध को दण्ड और कठोरता का प्रयोग करके दमन नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से उसका क्रोध और बढ़ता है। 
    • बालक के खेल, कार्य आदि में बिना आवश्यकता के बाधा नहीं डालनी चाहिए। 
    • बालक की ईर्ष्या की भावना को सहयोग की भावना में बदलने का प्रयास करना चाहिए।
    • बालक के कार्य, व्यवहार आदि में अकारण दोष नहीं निकालना चाहिए।
    • जब बालक का क्रोध शान्त हो जाय तब उससे तर्क करके उसे यह विश्वास दिलाना चाहिए कि उसका क्रोध अनुचित था।

    (5) मादक पदार्थों / द्रव्यों का सेवन करने वाले बालक

    वैज्ञानिक आविष्कारों ने अनेक खाद्य पदार्थों को नया रूप दिया है। ऐसे द्रव्य क्षणिक आनन्द देने वाले होते हैं और व्यक्ति को मानसिक तथा शारीरिक रूप से अस्वस्थ करते हैं।

    आजकल मादक द्रव्यों का चलन छात्र तथा युवा वर्ग में बढ़ता जा रहा है। इसके दुष्परिणाम हो रहे है। युवा पीढ़ी विनाश के कगार पर खड़ी है। मादक द्रव्य केवल भारत में ही नहीं, विकसित देशों में भी एक नासूर बन गये हैं।

    मादक द्रव्यों में हैरोइन, कोकीन, ब्राउन शुगर तथा रासायनिक गोलियाँ तथा इंजेक्शन आदि का अधिक प्रचलन है. इनके अतिरिक्त शराब, अफीम, भाँग, सुलफा, तम्बाकू, ड्रग्स, उत्तेजक दवायें, गुटका, चाय, कॉफी, कोको आदि सम्मिलित किये जाते हैं। 

    छात्र वर्ग में अधिकांशतः ड्रग्स का प्रयोग किया जाता है। ड्रग्स- चरस, गाँजा, एल.एस. डी. हैरोइन, स्मैक या ब्राउन शुगर, मैरीजुआना के रूप में प्रचलित है। 

    इन नशीली दवाओं के सेवन की आदत छात्रों में इस प्रकार पड़ती है-

    • परिवार में अत्यधिक कलह । 
    • बच्चों को जेब खर्च के लिये अधिक पैसा देना।
    • बच्चों की बुरी संगत।
    • विद्यालयों की कैंटीन, विद्यालयों के आस-पास के स्थान जहाँ असामाजिक लोग ड्रग्स बेचते है।
    • दवा विक्रेताओं द्वारा।

    ड्रग्स से होने वाली हानियाँ

    ऐसे बालक जो किसी भी कारण से ड्रग्स के चक्कर में पड़ जाते हैं इससे होने वाली हानियाँ इस प्रकार है-

    • मस्तिष्क की कोशिकायें शिथिल पड़ जाती है।
    • क्षणिक रूप में मानसिक शान्ति।
    • आँखे लाल होना तथा चढ़ी चढ़ी रहना।
    • माँसपेशियाँ निष्क्रिय हो जाना।
    • पाचन क्रिया अनियमित हो जाना।
    • आँखों के नीचे काले दाग होना।
    • भूख कम लगना ।
    • अकेले में रहना।
    • कर्तव्यविमुखता।

    ड्रग्स लेने के तरीके

    सर्वेक्षण से पता चला है कि छात्र ड्रग्स इन तरीकों से सेवन करते हैं-

    • चॉकलेट के द्वारा। 
    • सिगरेट के द्वारा।
    • इंजेक्शन के द्वारा।
    • सूँघ कर।  

    आमतौर पर देखा गया है कि ड्रग्स के मूल में संगति, भूख तथा पैसा, एडवेंचर की इच्छा, काम का बोझ, पलायन की इच्छा, असमायोजन कारण है कोरेक्स एमीडीन, एलर्जिन, एस्मोटोन, जैडेक्स, टेडरॉल, ब्रोमोसिल, डिस्ट्रान, एपीडीन, पैथीडीन, मैवप्रालोल, एंटीनोलोल आदि उत्तेजक दवाइयों का प्रयोग भी किया जा रहा है।

    ड्रग्स से बचाव 

    ड्रग्स का प्रचलन एक जहर के रूप में हो रहा है। इससे युवा पीढ़ी विनाश के कगार तक पहुँच गई है। छात्रों को इस दानव से बचाना जरूरी है। 

    अतः इसके लिये ये उपाय किये जाने चाहिये-

    • अभिभावक अपने बच्चों पर कड़ी नजर रखे तथा यह जानकारी रखें कि बच्चों के मित्र कौन लोग है।
    • ड्रग्स के बारे में सम्पूर्ण जानकारी रखें।
    • बच्चों के असामान्य व्यवहार के प्रति सचेत रहें।
    • विद्यालय में अध्यापकगण ड्रग्स लेने वाले बच्चों की पहचान करें।
    • अनुपस्थित रहने वाले बच्चों के कारणों की खोज करें।
    • जिन बच्चों को ड्रग्स की आदत पड़ चुकी है, उनका उपचार कराने में सहयोग दें।
    • विद्यालय तथा उसके आस-पास असामाजिक तत्त्वों की पहचान करें तथा उनको हटाने का प्रयास करें। 
    • ड्रग्स लेने वाले बच्चों को सहानुभूति दी जाये।

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