समायोजन, भग्नाशा, तनाव एवं संघर्ष | Samaayojan, Bhagnaasha, Tanaav Evam Sangharsh

समायोजन का अर्थ 

एक छात्र अर्द्धवार्षिक परीक्षा में अपनी कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करना अपना लक्ष्य बनाता है पर दूसरे छात्रों की प्रतियोगिता और अपनी कम योग्यता के कारण वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल होता है। इससे वह निराशा और असन्तोष, मानसिक तनाव और संवेगात्मक संघर्ष का अनुभव करता है। ऐसी स्थिति में वह अपने मौलिक लक्ष्य को त्यागकर अर्थात् अर्द्धवार्षिक परीक्षा में अपनी असफलता के प्रति ध्यान न देकर वार्षिक परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करना अपना लक्ष्य बनाता है।

    अतः अब यदि वह अपने इस लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है, तो वह अपनी परिस्थिति या वातावरण से 'समायोजन' (Adjustment) कर लेता है। पर यदि उसे सफलता नहीं मिलती है, तो उसमें 'असमायोजन' (Maladjustment) उत्पन्न हो जाता है। लक्ष्य प्राप्ति के लिए परिस्थितियों को अनुकूल बनाना या परिस्थितियों के अनुकूल हो जाना ही समायोजन कहलाता है। यह समायोजन, व्यक्ति अपनी क्षमता, योग्यता के अनुसार करता है। 

    समायोजन और असमायोजन की परिभाषा 

    हम 'समायोजन' और 'असमायोजन' के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए कुछ परिभाषाएँ दे रहे हैं-

    1. बोरिंग, लँगफेल्ड व वेल्ड के अनुसार- "समायोजन वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा प्राणी अपनी आवश्यकताओं और इन आवश्यकताओं की पूर्ति को प्रभावित करने वाली परिस्थितियों में सन्तुलन रखता है।" 

    2. गेट्स व अन्य के अनुसार- "समायोजन निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है, जिसके द्वारा व्यक्ति अपने और अपने वातावरण के बीच सन्तुलित सम्बन्ध रखने के लिए अपने व्यवहार में परिवर्तन करता है।"

    3. गेट्स व अन्य के अनुसार- ''असमायोजन, व्यक्ति और उसके वातावरण में असन्तुलन का उल्लेख करता है।"

    अतः इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि समायोजन निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। साथ ही व्यक्ति, परिस्थिति तथा पर्यावरण के मध्य अपने को समायोजित करने के लिए अपने व्यवहार में परिवर्तन करता है। अतः समायोजन को सन्तुलित दशा कहा गया है।

    समायोजन के लक्षण

    समायोजन करने वाले व्यक्ति में ये लक्षण पाये जाते हैं-

    1. परिस्थिति का ज्ञान, नियन्त्रण तथा अनुकूल आचरण ।

    2. सन्तुलन ।

    3. पर्यावरण तथा परिस्थिति से लाभ उठाना।

    4. समाज के अन्य व्यक्तियों का ध्यान । 

    5. सन्तुष्टि एवं सुख।

    6. सामाजिकता, आदर्श चरित्र संवेगात्मक रूप से अस्थिर सन्तुलित तथा दायित्वपूर्ण 

    7. साहसी एवं समस्या का समाधान युक्त । इसीलिये गेट्स ने कहा है -समायोजित व्यक्ति वह है जिसकी आवश्यकतायें एवं तृप्ति सामाजिक दृष्टिकोण तथा सामाजिक उत्तरदायित्व की स्वीकृति के साथ संगठित हों।

    भग्नाशा का अर्थ 

    व्यक्ति की अनेक इच्छायें और आवश्यकतायें होती हैं। वह उनको सन्तुष्ट करने का प्रयास करता है। पर यह आवश्यक नहीं है कि वह ऐसा करने में सफल ही हो उसके मार्ग में बाधायें आ सकती हैं। वे बाधायें उसकी आशाओं को पूर्ण रूप से या आंशिक रूप से भंग कर सकती है। ऐसी दशा में वह 'भग्नाशा' का अनुभव करता है। जैसे- हम प्रातः काल चार बजे की गाड़ी से दिल्ली जाना चाहते हैं। हम समय से पहले उठने के लिए अलार्म घड़ी में चाभी लगा देते हैं, पर वह बजती नहीं है। अतः हम जाग नहीं पाते हैं और दिल्ली जाने से रह जाते हैं या मान लीजिए कि हम समय पर स्टेशन पहुँच जाते हैं पर भीड़ के कारण हमें टिकट नहीं मिल पाती है या हम गाड़ी में नहीं बैठ पाते है और वह चली जाती है। दोनों दशाओं में दिल्ली जाने की हमारी इच्छा में अवरोध उत्पन्न होता है। वह पूर्ण नहीं होती है, जिसके फलस्वरूप हम भग्नाशा का शिकार बनते हैं।

    इस प्रकार, हम कह सकते हैं कि 'भग्नाशा', तनाव और असमायोजन की वह दशा है जो हमारी किसी इच्छा या आवश्यकता के मार्ग में बाधा आने से उत्पन्न होती है। 

    भग्नाशा की परिभाषा 

    हम 'भग्नाशा' के अर्थ को और अधि एक स्पष्ट करने के लिए दो परिभाषाएँ दे रहे हैं- 

    1. गुड के अनुसार- "भग्नाशा का अर्थ है- किसी इच्छा या आवश्यकता में बाधा पड़ने से उत्पन्न होने वाला संवेगात्मक तनाव।"

    2. कोलेसनिक के अनुसार- "भग्नाशा उस आवश्यकता की पूर्ति या लक्ष्य की प्राप्ति में अवरुद्ध होने या निष्फल होने की भावना है, जिसे व्यक्ति महत्त्वपूर्ण समझता है।"

    भग्नाशा के प्रकार

    भग्नाशा दो प्रकार की होती है-

    1. बाह्य

    बाह्य भग्नाशा उस परिस्थिति का परिणाम होती है, जिसमें कोई बाह्य बाधा व्यक्ति को अपना लक्ष्य प्राप्त करने से रोकती है। जैसे- भौतिक बाधाओं, नियमों, कानूनों या दूसरों के अधिकारों या इच्छाओं का परिणाम बाह्य भग्नाशा हो सकती है। 

    2. आन्तरिक

    आन्तरिक भग्नाशा उस बाधा का परिणाम होती है, जो स्वयं व्यक्ति में होती है।जैसे- 'भय' जो व्यक्ति को अपना लक्ष्य प्राप्त करने से रोकता है या व्यक्तिगत कमियाँ (जैसे-पर्याप्त ज्ञान, शक्ति, साहस या कुशलता का अभाव) का परिणाम- आन्तरिक भग्नाशा हो सकती है।

    भग्नाशा व व्यवहार

    भग्नाशा की दशा में बालक या व्यक्ति चार प्रकार का व्यवहार करता है- 

    (1) वह आक्रमणकारी बन जाता है। 

    (2) वह आत्मसमर्पण कर देता है। 

    (3) वह कुछ समय के लिए एकान्तवासी बन जाता है। 

    (4) वह किसी रोग से ग्रस्त होने का विचार करता है। पर यह आवश्यक नहीं है कि इस प्रकार का कोई व्यवहार करने वाला व्यक्ति-भग्नाशा का शिकार है। इस विचार की पुष्टि करते हुए मोर्स एवं विंगो ने लिखा है- "जो व्यक्ति, भग्नाशा का शिकार होता है, वह इन चारों प्रकार के व्यवहार में से किसी प्रकार का व्यवहार करता है, पर यह आवश्यक नहीं है कि इन चारों प्रकार से व्यवहारों में से किसी प्रकार का व्यवहार करने वाला व्यक्ति, भग्नाशा का शिकार है।"

    भग्नाशा के कारण

    गेट्स एवं अन्य (Gates & Others) के अनुसार : भग्नाशा के कारण इस प्रकार हैं- 

    1. भौतिक वातावरण 

    व्यक्ति की भोजन सम्बन्धी अनेक आधारभूत आवश्यकतायें होती है, पर भौतिक वातावरण उनकी पूर्ति में बाधा उपस्थित कर सकता है। बाढ़, अकाल या भूचाल के कारण फसल नष्ट हो सकती है। फलस्वरूप, व्यक्ति में भग्नाशा की उत्पत्ति स्वाभाविक है।

    2. सामाजिक वातावरण 

    समाज का सदस्य होने के कारण व्यक्ति को सामाजिक वातावरण से अनुकूलन करना पड़ता है उसे समाज के नियमों, आदशों, परम्पराओं और मान्यताओं के विरुद्ध आचरण करने का अधिकार नहीं होता है। भारत में शूद्रों, जर्मनी में यहूदियों, अमरीका में नीग्रो जाति के लोगों को समाज के नियम अनेक अधिकार प्रदान नहीं करते हैं। स्वतन्त्रता के आधुनिक युग में इस प्रकार के प्रतिबन्ध उनको भग्नाशा का शिकार बना देते हैं।

    3. अन्य व्यक्ति

    व्यक्ति की कुछ इच्छाओं में दूसरे लोग बाधा उपस्थित करते है। बच्चे मेला, तमाशा या सिनेमा देखने जाना चाहते हैं, पर उनको अपने माता-पिता की आज्ञा नहीं मिलती है। मिल का मजदूर अधिक मजदूरी चाहता है, पर मालिक उसे अधिक मजदूरी देने के बजाय निकाल देता है। बच्चों और मजदूर की इच्छायें अवरोध के कारण पूर्ण नहीं होती हैं। अतः वे अपने को भग्नाशा की दशा में पाते हैं।

    4. आर्थिक कठिनाई

    आर्थिक कठिनाई, व्यक्ति की इच्छाओं और आवश्यकताओं के मार्ग में प्रबल अवरोध उत्पन्न करती है। धनाभाव के कारण उसे भरपेट भोजन और तन ढेंकने को कपड़े नसीब नहीं होते है। अतः वह भग्नाशा की चरम सीमा पर पहुँचकर समाज के विरुद्ध विद्रोह करता है। फ्रांस और रूस की क्रान्तियां इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं।

    5. शारीरिक दोष

    व्यक्ति के शारीरिक दोष उसकी अभिलाषाओं पर वज्र प्रहार करते है। लंगडा बालक खेलकूद में भाग नहीं ले सकता है। बहरा बालक संगीत के आनन्द से वंचित रह जाता है। अंधा बालक प्रकृति के सौन्दर्य का आस्वादन नहीं कर सकता है। इस प्रकार शरीर के दोष, व्यक्ति की आकांक्षाओं को अपूर्ण रखकर उसे भग्नाशा का चिर-मित्र बना देते हैं।

    6. विरोधी इच्छायें

    व्यक्ति की दो विरोधी इच्छाओं में से केवल एक ही पूर्ण होती है। एक नवयुवक विवाह भी करना चाहता है और विदेश जाकर उच्च अध्ययन भी करना चाहता है। एक नवयुवती नौकरी भी करना चाहती है और अपने भ्रमण करने वाले पति के साथ रहना भी चाहती है। ये दोनों केवल अपनी एक ही अभिलाषा पूर्ण कर सकते हैं। अतः दूसरी उनमें भग्नाशा उत्पन्न कर देती है। 

    7. विरोधी उद्देश्य

    व्यक्ति अपने दो विरोधी उद्देश्यों में से केवल एक को ही प्राप्त कर सकता है। एक युवती अपने दो प्रेमियों के साथ जीवन व्यतीत करने के उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल नहीं हो सकती है। वह उनमें से केवल एक का चयन कर सकती है। इस प्रकार अप्राप्य उद्देश्य उसकी भग्नाशा का कारण बनता है।

    8. नैतिक आदर्श

    व्यक्ति के नैतिक आदर्श उसकी इच्छा में अवरोध उपस्थित करते हैं। वह अपने क्षुधा पीडित बच्चों का पेट भरने के लिए चोरी करना चाहता है, पर उनका नैतिक आदर्श उसे ऐसा करने की आज्ञा नहीं देता है। अतः उसमे भग्नाशा उत्पन्न हो जाती है। 

    भग्नाशा या कुण्ठा का मनुष्य के व्यक्तित्व तथा जीवन व्यवहार पर बुरा प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति के विकास में भग्नाशा अनेक बाधायें उत्पन्न करती है। व्यक्ति की भावात्मक दशा अस्थिर हो जाती है, असन्तुलन बढ़ने के कारण व्यवहार अस्थिर असंयत हो जाता है, असामान्यता प्रकट होती है, असामाजिकता विकसित होने लगती है, मानसिक तनाव बढ़ते हैं और व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य विकृत होने लगता है। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि भग्नाशा के कारणों की खोज की जाय तथा उन्हें दूर करके व्यक्ति को मानसिक रूप से स्वस्थ बनाया जाय।

    तनाव का अर्थ 

    तनाव, व्यक्ति की शारीरिक और मनोवैज्ञानिक दशा है। यह उसमें उत्तेजना और असन्तुलन उत्पन्न कर देता है एवं उसे परिस्थिति का सामना करने के लिए क्रियाशील बनाता है। जैसे- जब व्यक्ति को भूख लगती है, तब उसमें तनाव उत्पन्न हो जाता है। उसकी भूख जितनी अधिक होती है, उतना ही अधिक उसमें तनाव होता है। यह तनाव उसे भोजन की खोज करने के लिए क्रियाशील बनाता है। जब उसे भोजन मिल जाता है और वह अपनी भूख को शान्त कर लेता है, तब उसकी असन्तुलित दशा में सन्तुलन आ जाता है और उसमें उत्पन्न होने वाला तनाव समाप्त हो जाता है। भोजन की आवश्यकता के अतिरिक्त, तनाव के और भी अनेक कारण हो सकते हैं, जैसे-इच्छा, लक्ष्य, अपमान, शारीरिक दोष आदि । 

    तनाव की परिभाषा 

    हम 'तनाव' के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए कुछ परिभाषाएँ दे रहे हैं-

    1. गेट्स व अन्य के अनुसार-" तनाव असन्तुलन की दशा है, जो प्राणी को अपनी उत्तेजित दशा का अन्त करने के लिए कोई कार्य करने के लिए प्रेरित करती है।" 

    2. ड्रेवर के अनुसार- "तनाव का अर्थ है- सन्तुलन के नष्ट होने की सामान्य भावना और परिस्थिति के किसी अत्यधिक संकटपूर्ण कारक का सामना करने के लिए व्यवहार में परिवर्तन करने की तत्परता।"

    तनाव कम करने की विधियाँ

    तनाव को कम करने के लिए दो प्रकार की विधियों का प्रयोग किया जा सकता है- प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष । इन विधियों के विषय में गेट्स तथा अन्य ने लिखा है- "तनाव: कम करने की ये विधियाँ, व्यक्ति को अपने वातावरण से बहुत समय तक समायोजन करने या न करने के लिए उपयुक्त हो सकती हैं पर इनका उद्देश्य उसके कष्ट की भावना को सदैव कम करना है।"

    (अ) तनाव कम करने की प्रत्यक्ष विधियाँ

    प्रत्यक्ष विधियों के सम्बन्ध में गेट्स व अन्य ने लिखा है-"प्रत्यक्ष विधियों का प्रयोग विशेष रूप से समायोजन की किसी विशेष समस्या के स्थायी समाधान के लिए किया जाता है।"

    गेट्स तथा अन्य (Gates & Others) के अनुसार : तनाव कम करने की मुख्य प्रत्यक्ष विधियाँ निम्नलिखित हैं-

    1. बाधा का विनाश या निवारण 

    इस विधि में व्यक्ति उस बाधा का विनाश या निवारण करता है, जो उसे अपने उद्देश्य को प्राप्त नहीं करने देती है। जैसे- हकलाने वाला मनुष्य, मुँह में पान रखकर बोलने का अभ्यास करके अपने शारीरिक दोष पर विजय प्राप्त करता है। राजनीति के क्षेत्र में बाधा का विनाश या निवारण करने के अनेक उदाहरण मिलते हैं। इण्डोनेशिया में डा. सुकर्ण (Dr. Soekarno) को राजनीतिक सत्ता से वंचित करके सुहार्तो (Suharto) ने राष्ट्रपति (President) का पद प्राप्त किया। ऐसा ही पाकिस्तान मे याहिया खां ने किया।

    2. अन्य उपाय की खोज 

    जब व्यक्ति बाधा का विनाश या निवारण नहीं कर पाता है, तब वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए किसी अन्य उपाय की खोज करता है। जैसे- यदि बालक पेड़ में लगा हुआ अमरूद, हाथ से नहीं तोड़ पाता है, तो वह उसे डण्डे से तोड़ लेता है।

    3. अन्य लक्ष्यों का प्रतिस्थापन 

    जब व्यक्ति अपने मौलिक लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल नहीं होता है तब वह उसके बजाय किसी अन्य लक्ष्य का निर्माण करता है जैसे- यदि खिलाड़ी, वर्षा के कारण हॉकी खेलने के लिए नहीं जा पाता है तो वह ताश या शतरंज खेलकर अपना मनोरंजन करता है।

    4. व्याख्या व निर्णय 

    जब व्यक्ति के समक्ष दो समान रूप से वांछनीय पर विरोधी लक्ष्य या इच्छाएँ होती हैं तब वह अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर उन पर विचार करता है और अन्त में उनमें से एक का चुनाव करने का निर्णय करता है।जैसे- जब एडवर्थ अष्टम् के समक्ष यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि वह इंगलैंड का राजा रहे या मिसेज सिम्पसन से विवाह करे, तब उसने राजपद का त्याग और मिसेज सिम्पसन से विवाह करने का निश्चय किया।

    (ब) तनाव कम करने की अप्रत्यक्ष विधियाँ 

    अप्रत्यक्ष विधियों के सम्बन्ध में मेटेंस व अन्य ने लिखा है- "अप्रत्यक्ष विधियों का प्रयोग केवल दुःखपूर्ण तनाव को कम करने के लिए किया जाता है।" 

    गेट्स तथा अन्य (Gates & Others) के अनुसार :  तनाव कम करने की मुख्य अप्रत्यक्ष विधियाँ निम्नलिखित  हैं-

    1. शोधन 

    जब व्यक्ति की काम प्रवृत्ति तृप्त न होने के कारण उसमें तनाव उत्पन्न करती है, तब वह कला, धर्म, साहित्य, पशु-पालन, समाज-सेवा आदि में रुचि लेकर अपने तनाव को कम करता है।

    2. पृथक्करण

    इस विधि में व्यक्ति अपने को तनाव उत्पन्न करने वाली स्थिति से पृथक कर लेता है।जैसे- यदि उसके मित्र उसका मजाक उड़ाते है, तो वह उनसे मिलना-जुलना बन्द कर देता है।

    3. प्रत्यावर्तन

    इस विधि में व्यक्ति अपने तनाव को कम करने के लिए वैसा ही व्यवहार करता है, जैसा वह पहले कभी करता था। जैसे- जब दो वर्षीय बालक को अपने छोटे भाई के जन्म के कारण अपने माता-पिता का पूर्ण प्रेम मिलना बन्द हो जाता है, तब वह छोटे बच्चे के समान घुटनो के बल चलने लगता है और केवल माँ द्वारा भोजन खिलाये जाने का हठ करता है। 

    4. दिवास्वप्न 

    इस विधि में व्यक्ति कल्पना जगत् में विचरण करके अपने तनाव को कम करता है। जैसे- निराश प्रेमी अपने काल्पनिक संसार में किसी सुन्दरी को अपनी पत्नी या प्रेयसी बनाकर उसके साथ समागम करता है।

    5. आत्मीकरण

    इस विधि में व्यक्ति किसी महान् पुरुष, अभिनेता, राजनीतिज्ञ आदि के साथ एक हो जाने का अनुभव करता है। बालक अपने पिता से और बालिका अपनी माता से तादात्म्य स्थापित करके उनके कार्यों का अनुकरण करते हैं। ऐसा करके उन्हें आनन्द का अनुभव होता है जिसके फलस्वरूप उनका तनाव कम हो जाता है।

    6. निर्भरता 

    इस विधि में व्यक्ति किसी दूसरे पर निर्भर होकर अपने जीवन का उत्तरदायित्व उसे सौप देता है। जैसे- सांसारिक कष्टों से परेशान होकर मनुष्य किसी महात्मा का शिष्य बन जाता है और उसी के आदेशों एवं उपदेशों के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करने लगता है।

    7. औचित्य स्थापन

    इस विधि में व्यक्ति किसी बात का वास्तविक कारण न बताकर ऐसा कारण बताता है, जिसे लोग अस्वीकार नहीं कर सकते हैं और इस प्रकार अपने कार्य के औचित्य को सिद्ध करता है। जैसे- देर से विद्यालय आने वाला बालक यह स्वीकार नहीं करता है कि वह स्वयं देर से आया है। इसके विपरीत, वह कहता है कि उसकी घड़ी सुस्त हो गई थी या उसे कहीं भेज दिया गया था।

    8. दमन

    इस विधि में व्यक्ति तनाव को कम करने के लिए अपनी इच्छाओं का दमन करता है।जैसे- वह अपनी काम प्रवृत्ति को व्यक्त करके समाज के नैतिक नियमों के विरुद्ध आचरण नहीं कर सकता है। अतः वह इस प्रवृत्ति का पूर्ण रूप से दमन करने का प्रयास करता है। 

    9. प्रक्षेपण

    इस विधि में व्यक्ति अपने दोष का आरोपण दूसरे पर करता है।जैसे- यदि बढ़ई द्वारा बनाई गई किवाड़ टेढ़ी हो जाती है, तो वह कहता है कि लकड़ी गीली थी। 

    10. क्षति पूर्ति

    इस विधि में व्यक्ति एक क्षेत्र की कमी को उसी क्षेत्र में या किसी दूसरे क्षेत्र में पूरा करता है। जैसे- पढ़ने-लिखने में कमजोर बालक दिन-रात परिश्रम करके अच्छा छात्र बन जाता है या पढ़ने-लिखने के बजाय खेलकूद की ओर ध्यान देकर उसमें यश प्राप्त करता है।

    संघर्ष का अर्थ 

    व्यक्ति को लक्ष्य प्राप्ति के दौरान अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ता है। कई बार समय कम होने, अनेक विकल्पों में से एक को चुनने तथा लक्ष्य प्राप्ति के बाद अगले लक्ष्य के निर्धारण में अनेक बाध् पायें आती हैं। ऐसे समय में मानसिक द्वन्द्व या संघर्ष उत्पन्न होने लगता है। यह स्थिति मानसिक उथल-पुथल की स्थिति होती है।

    'संघर्ष' का सामान्य अर्थ है-"विपरीत विचारों, इच्छाओं, उद्देश्यों आदि का विरोध।" "संघर्ष' की दशा में व्यक्ति में संवेगात्मक तनाव उत्पन्न हो जाता है, उसकी मानसिक शान्ति नष्ट हो जाती है और वह किसी प्रकार का निर्णय करने में असमर्थ होता है।

    'संघर्ष' के अनेक रूप हो सकते हैं. जैसे- एक व्यक्ति का दूसरे से संघर्ष, व्यक्ति का उसके वातावरण से संघर्ष, पारिवारिक संघर्ष, सांस्कृतिक संघर्ष आदि। इन सबसे कहीं अधिक गम्भीर और भयानक है- आन्तरिक संघर्ष। यह संघर्ष, व्यक्ति के विचारों, संवेगों, इच्छाओं, भावनाओं, दृष्टिकोणों आदि में होता है।

    'संघर्ष' का मुख्य आधार-उचित और अनुचित का विचार होता है। उदाहरणार्थ, बालक जानता है। कि उसके पिताजी का बटुआ अल्मारी में रखा रहता है। वह उसके बारे में सोचने लगता है। वह उसमे से कुछ धन निकाल लेना चाहता है। पर वह यह समझता है कि चोरी करना अनुचित कार्य है और यदि उसकी चोरी का पता लग जायगा, तो उसको दण्ड मिलेगा। वह इन विरोधी बातों पर विचार करता है। फलस्वरूप, उसमें मानसिक संघर्ष आरम्भ हो जाता है। वह इसका अन्त केवल उत्तम और उचित कार्य को करने का निर्णय करके ही कर सकता है।

    संघर्ष की परिभाषा 

    'संघर्ष' की कुछ परिभाषाएँ-

    1. डगलस व हालैंड के अनुसार- "संघर्ष का अर्थ है- विरोध और विपरीत इच्छाओं में तनाव के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाली कष्टदायक संवेगात्मक दशा।"

    2. क्रो व क्रो के अनुसार- "संघर्ष उस समय उत्पन्न होते हैं, जब व्यक्ति को अपने वातावरण में ऐसी शक्तियों का सामना करना पड़ता है, जो उसके स्वयं के हितों और इच्छाओं के विरुद्ध कार्य करती हैं।"

    3. क्रो एवं क्रो के अनुसार- "द्वन्द्व या संघर्ष उस समय उत्पन्न होते हैं जब एक व्यक्ति को पर्यावरण की उन शक्तियों का सामना करना पड़ता है जो उसकी स्वयं की रुचियों और इच्छाओं के विपरीत कार्य करती हैं। "

    4. फ्रायड के अनुसार- "इद, अहम, परम अहम् के मध्य सामंजस्य का अभाव होने से मानसिक द्वन्द्व उत्पन्न होता है।"

    संघर्ष से बचने के उपाय

    मन का कथन है-"निरन्तर रहने वाला संघर्ष कष्टदायक होने के साथ-साथ शारीरिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी है।"

    उक्त कथन की गम्भीरता को ध्यान में रखकर हम निस्संकोच रूप से कह सकते हैं कि बालकों को मानसिक संघर्षो का शिकार नहीं बनने देना चाहिए। सोरेनसन (Sorenson) के अनुसार, इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए निम्नांकित विधियों का प्रयोग किया जा सकता है-

    1. बालकों के समक्ष किसी प्रकार की समस्या उपस्थित नहीं होने देनी चाहिए। 

    2. बालकों को निराशाओं और असफलताओं का सामना करने के लिए प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। 

    3. बालकों के समक्ष विरोधी बातों और विरोधी प्रश्नों में चुनाव करने की परिस्थिति नहीं आने देनी चाहिए।

    4. बालकों को समूहों के सदस्यों के रूप में विभिन्न परिस्थितियों का सामना करने के अवसर दिये जाने चाहिए।

    5. बालकों के समक्ष न तो उच्च आदर्श प्रस्तुत किये जाने चाहिए और न उनसे उनके पालन की आशा की जानी चाहिए।

    6. बालकों को असन्तोषजनक परिस्थितियों का सामना करने और उनसे उपयुक्त समायोजन करने का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये। 

    7. बालकों की शक्तियों को किसी लक्ष्य की प्राप्ति की दशा में निर्देशित करना चाहिए, ताकि उनके मस्तिष्क, संघर्षो के निवास स्थान न बन सकें।

    8. बालकों को अपने से सम्बन्धित मामलों पर निर्णय करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, पर निर्णय करने के बाद उनको उसके कारणों पर विचार करने की आज्ञा नहीं देनी चाहिए।

    9. भय और चिन्ता से उत्पन्न होने वाले मानसिक और संवेगात्मक संघर्षो का निवारण करने के लिए बालको की मानसिक चिकित्सा की जानी चाहिए। 

    10. परिवार और विद्यालय का वातावरण, विवेक और समझदारी पर आधारित होना चाहिए।

    11. परिवार और विद्यालय के वातावरण में किसी प्रकार का तनाव नहीं होना चाहिए, क्योंकि तनाव-संवेगों में उथल-पुथल मचाकर संघर्ष को जन्म देता है।

    नोट- संघर्ष का निवारण करने के लिए तनाव कम करने की अप्रत्यक्ष विधियों का प्रयोग किया जा सकता है।

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