प्राकृतिक आपदा क्या है | प्राकृतिक आपदा के प्रकार एवं बचाव | (आपदा प्रबन्धन)

आपदा क्या है ? 

प्राकृतिक आपदा पर्यावरण में अचानक होने वाला विशाल परिवर्तन है जिसकी जानकारी पहले से नहीं होती है और जिसका मानव तथा मानवीय क्रियाओं पर प्रतिकूल एवं हानिकारक प्रभाव पड़ता है। इसमें जन-धन की अपार क्षति होती है। ज्वालामुखी उद्गार, भूकम्प, बाढ़, सूखा, हिमपात, ओला वृष्टि, भयंकर तूफान, विभिन्न प्रकार की महामारी तथा मनुष्यों, पशुओं और पौधों की बीमारियों आदि प्राकृतिक संकट के अन्तर्गत आते हैं।

उन समस्त घटनाओं या दुर्घटनाओं को जो या तो प्राकृतिक कारकों या मानव जनित कारकों से घटित होती हैं, चरम घटना (Extreme events) कहते हैं जो कभी-कभी घटित होती हैं। ये प्राकृतिक पारिस्थितिकी तन्त्र के जैविक एवं अजैविक संघटकों से सहनशक्ति से बहुत अधिक हो जाती हैं तथा घटना क्षेत्र में लापरवाही स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ये चरम घटनाएँ विश्व स्तर पर विभिन्न समाचार माध्यमों, रेडियो, टेलीविजन, समाचार-पत्रों की प्रमुख सुर्खियाँ बन जाती हैं।

आपदा की परिभाषा 

आपदा (Disaster) का अर्थ है, 'विपत्ति' अचानक होने वाली ऐसी विध्वंसकारी घटना जिससे व्यापक स्तर पर जैविक एवं भौतिक क्षति होती है, आपदा कहते हैं। प्रायः प्रकोप एवं आपदा शब्दों का प्रयोग समानार्थी रूप में किया जाता है, किन्तु इनकी परिणति में अन्तर है। आपदा के साथ जन-धन की व्यापक क्षति जुड़ी होती है।

पर्यावरण क्या है ?

पर्यावरण प्रदूषण का अर्थ, परिभाषा, कारण, प्रकार एवं प्रभाव

आपदा के प्रकार

आपदा को सामान्यतः दो वर्गों में बाँटते हैं- (i) प्राकृतिक आपदा तथा (ii) मानवजनित आपदा।

 (i) प्राकृतिक आपदा

(A). भूतलीय आपदा- 
  • ज्वालामुखी 
  • भूकम्प 
  • भूस्खलन 
(B). वायुमंडलीय आपदा- 
  1. चक्रवात
  2. आंधी तूफ़ान  
चक्रवात-
 अतिवृष्ट और बाढ़, अनावृष्टि, सूखा, लू, शक्तिहर,शीतलहर, हिमावरण, हिमद्रवण एवं समुद्रतल में परिवर्तन।

(ii) मानवजनित (मानवीय) आपदा

(A). भौतिक आपदा-
  • भूस्खलन
  • मृदा अपरदन भूकम्प 
  • भूमण्डलीय तापवृद्धि
  • ओजोन क्षरण
(B). जैविक आपदा-
  • जनसंख्या वृद्धि
  • जीव-जन्तु का लोप
  • सांस्कृतिक अपक्षरण
  • युद्ध
इन आपदाओं से होने वाली अप्रत्याशित दबाव एवं हानि कभी-कभी इतनी भयंकर होती है कि सारे वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकी विकास के बावजूद मनुष्य इनके सामने बौना बन जाता है। इन प्राकृतिक आपदाओं का सीधा सम्बन्ध पर्यावरण से है। 

उल्लेखनीय है कि ये प्रकोप अनादिकाल से सतत चले आ रहे हैं, किन्तु इनकी बारम्बारता, प्रभाव, विस्तार और सघनता में पहले की अपेक्षा अब अधिक परिवर्तन महसूस किया जा रहा है तथा मानव सहित दूसरे जीवों पर भी इसका प्रभाव अधिक हानिकारक है।

 मानव संख्या और समृद्धि में वृद्धि के कारण प्राकृतिक आपदाओं के प्रभाव भयावह रूप प्रस्तुत करने लगे हैं, बाढ़ की विभीषिका पहले से अधिक लोगों के अधिवासों को प्रभावित करता है, भूकम्प का घाव अधिक गहरा हो जाता है क्योंकि कभी-कभी समूचा शहर श्मशान बन जाता है।

सर्वविदित है कि प्राकृतिक आपदाओं का तीसरी दुनिया के देशों में बाहुल्य रहता है। वस्तुतः अधिकांश विकासशील देश उष्ण एवं उपोष्ण प्रदेशों (Tropical Regions) में स्थित हैं जहाँ वायुमण्डलीय प्रक्रमों द्वारा आये दिन कई प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं का आविर्भाव होता रहता है- जैसे बाढ़, सूखा, वनाग्नि आदि नगरीकरण में तेजी से वृद्धि, औद्योगिक विस्तार, कृषि में विकास, जनसंख्या मैं वृद्धि तथा सामाजिक विकास के कारण प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति तथा मात्रा में दिनोदिन वृद्धि होती जा रही है। 

इन आपदाओं के कारण सम्पूर्ण विश्व, किन्तु विकासशील देशों में विशेषतः इतनी अधिक आर्थिक क्षति होती है कि विकास परियोजनाओं के अनुकूल परिणाम दृष्टिगोचर नहीं हो पाते हैं, बल्कि वे मटियामेट हो जाते हैं क्योंकि विकास परियोजनाओं के लिए निर्धारित धनराशि को प्रकोपों से उत्पन्न क्षति की पूर्ति के लिए लगाना पड़ता है।

प्राकृतिक घटनाएँ जिनके आगमन की पूर्व सूचना प्राप्त होना असम्भव होता है, अत्यन्त विनाशकारी होती हैं-ज्वालामुखी, भूकम्प, भूस्खलन आदि ऐसी घटनाएँ इसका प्रमुख उदाहरण हैं। इनके आगमन के पूर्व मनुष्यों को सूचना प्राप्त नहीं होती है तथा वह असावधान रहता है फलस्वरूप अत्यधिक जन-धन की हानि होती है। कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं, जिनके आगमन के 24 घण्टे पूर्व में ही सूचना प्राप्त हो जाती है, लोग सावधान हो जाते हैं, फलतः नुकसान कम होता है। 

इसके विपरीत कुछ घटनाओं का अनुमान वर्षों पूर्व होने लगता है। सम्बन्धित वैज्ञानिक अथवा विषय विशेषज्ञ अपना अनुमान व्यक्त कर देते हैं। जलवायु परिवर्तन, ओजोन परत का क्षीण होना, ग्लोबल वार्मिंग आदि घटनाओं की सूचना वैज्ञानिक बहुत पहले से ही दे रहे हैं। वायुमण्डलीय तूफान- टारनैडो, हरीकेन, आंधी-तूफान आदि की सूचना मौसम विज्ञान कार्यालय में इनके आगमन से पूर्व प्राप्त हो जाती है। अतः वैज्ञानिक अनुसंधान किये जा रहे हैं, ताकि जिन घटनाओं को रोका नहीं जा सकता, उनसे सावधान होकर प्रत्यक्ष प्रभाव को कम से कमतर अवश्य किया जा सकता है।

मानव प्राकृतिक आपदाओं की मार प्राचीनकाल से ही झेलता आया है। वह इन्हें रोक तो नहीं सकता, किन्तु आपदा प्रबन्धन द्वारा इनसे होनेवाली जन-धन की हानि को कम कर सकता है। रेडक्रॉस तथा रेड क्रेसेण्ट सोसायटी विश्व की सबसे बड़ी आपात स्वयंसेवी संस्थाएँ हैं, जो विश्व के किसी भी भाग में आपदा आने पर बचाव व सहायता के लिए तैयार रहती हैं। 

आपदा की रोकथाम तथा प्रभाव कम करने के प्रयास, आपदा से निपटने की तैयारी, बचाव, राहत व पुनर्वास के सम्मिलित एवं नियोजित उपायों को आपदा प्रबन्धन कहते हैं।

अग्निकाण्ड :

पर्यावरण को नुकसान पहुँचानेवाली आपदाओं में अग्निकाण्ड की बड़ी भूमिका होती है। अग्निकाण्ड न सिर्फ प्राकृतिक पर्यावरण को क्षति पहुँचाता है, बल्कि मानव जीवन और उसकी सम्पत्तियों का भी विनाश करता है। अग्निकाण्ड एक ऐसी आपदा है जिसे समय रहते यदि इस पर काबू नहीं पाया गया तो यह महाविनाश का कारण बन जाती है। अनेक देशों में जंगलों, शहरों और जहाजों में लगी आग और उससे हुए महाविनाश को नहीं भुलाया जा सकता है। अग्निकाण्ड जैसे महाविनाश से भविष्य में बचने के लिए उसके कारणों और प्रभाव क्षेत्र को चिह्नित करना आवश्यक होता है। आपदा प्रबन्धन के लिए अग्निकाण्ड का पूर्वानुमान करना भी आवश्यक है। अग्निकाण्ड को पूर्वानुमान से बचाव का उपाय करना कुछ आसान हो जाता है।

अग्निकाण्ड के कारण

अग्निकाण्ड के कारणों का अध्ययन समय, स्थान और परिस्थिति के आधार पर किया जाता है। वन क्षेत्र में अग्निकाण्ड बहुधा ग्रीष्मकाल में घटित होता है। नगरों में अग्निकाण्ड परिस्थितियों पर आधारित होता है। कारखानों, कार्यालयों आदि में अग्निकाण्ड रिकार्ड सेक्शन एवं विद्युत कनेक्शन की परिधि में घटित होता है। देहाती क्षेत्रों में घरों एवं खलिहानों में अक्सर अग्निकाण्ड से तबाही आती है। 

अतः इन घटनाओं का अध्ययन करने से अग्निकाण्ड के तीन कारण स्पष्ट होते हैं- 

(i) प्राकृतिक कारण, (ii) मानवीय कारण, (iii) पारिस्थितिक कारण।

(i) प्राकृतिक कारण

वन क्षेत्र, खदानों, तेल के कूपों आदि में घटित अग्निकाण्ड का कारण प्राकृतिक है। घने जंगल में हवाओं के प्रभाव से बाँस बहुल क्षेत्रों में और वृक्षों की डालों के घर्षण से अग्निकाण्ड उत्पन्न हो जाती है जो देखते ही देखते सम्पूर्ण जंगल को अपनी गिरफ्त में ले लेती है, देखा यह गया है कि वर्षों तक प्रयास करने के बाद ही वन क्षेत्र के अग्निकाण्ड पर काबू पाया जा सका है। इसी तरह तेल के कुएँ और खदानों में लगी आग को काफी प्रयास से बुझाया जा सका है। 

(ii) मानवीय कारण 

अग्निकाण्ड के मानवीय कारण में दो बातें देखने को मिलती है। प्रथम तो मानवीय असावधानी के कारण अग्निकाण्ड की घटना होती है। भोजन बनाते समय या अन्य अवसरों पर टिकी आग धीरे-धीरे सुलगती हुई विकराल रूप धारण कर लेती है। इसमें मानव जीवन की क्षति होती है। दूसरा कारण कोई व्यक्ति जान-बूझकर किसी को नुकसान पहुँचाने के लिए अग्निकाण्ड की घटना को अंजाम देता है।

(iii) पारिस्थितिक कारण 

कभी-कभी परिस्थितिवश अग्निकाण्ड की घटना हो जाती है। विद्युत की शार्ट मरकिट से लगी आग को इसी श्रेणी में रखा जाता है। कभी-कभी बुझी हुई राख में अग्नि के कुछ अवशेष रहते हैं जो अग्निकाण्ड की घटना के कारण बनते हैं। जलयानों, वायुयानों या अन्तरिक्ष यानों में लगी आग भी इसी श्रेणी में आते हैं।

प्रभाव क्षेत्र

अग्निकाण्ड के प्रभाव क्षेत्र आवास, खाद्यान्न भण्डार, सार्वजनिक गृह, मनोरंजन स्थल, मेला क्षेत्र, फैक्टरियों, ज्वलनशील रसायन के स्थल, कोयले की खदानें, तेल के कुएँ परिवहन एवं यातायात के साधन, कृषकों के खलिहान आदि हैं। वन क्षेत्र में लगी आग को दैवीय विपदा के रूप में चिह्नित किया जाता है।

पूर्वानुमान

अग्निकाण्ड के कारणों और उसके प्रभाव क्षेत्र का अध्ययन करने के बाद अग्निकाण्ड का पूर्वानुमान करना आसान हो जाता है। किन परिस्थितियों में, किन स्थानों पर और कहाँ कह यह घटना घटती है इसका पूर्वानुमान करना कठिन नहीं है। अब ऐसी परिस्थितियों उत्पन्न होंगी जिसमें अग्निकाण्ड की घटना हो सकती है तो इन्हें चिह्नित करके सावधानी से उपाय करना आवश्यक हो जाता है। अग्निकाण्ड का पूर्वानुमान बड़ी क्षति को सीमित कर सकता है।

बचाव के उपाय

अग्निकाण्ड की आपदा बहुमुखी विनाश का दृश्य उपस्थित करती है। यह घटना अचानक होती है और देखते ही देखते विकराल रूप धारण कर लेती है। यदि अग्निकाण्ड सीमित क्षेत्र में हो तो थोड़े प्रयास से इस पर काबू पाया जा सकता है। किन्तु देखने में यह आता है कि सीमित क्षेत्र का अग्निकाण्ड बचाव के उपाय के अभाव में विस्तृत क्षेत्र में फैल जाता है। इसलिए अग्निकाण्ड के आपदा प्रबन्धन का शीघ्र उपाय होना चाहिए। 

बचाव के मुख्य उपाय निम्नलिखित है-

1. जल की उपलब्धता 

अग्निकाण्ड स्थल के निकट जल की उपलब्धता बचाव का प्राथमिक उपाय है। पानी के छिड़काव से अग्नि बुझाना पारम्परिक और सर्वोत्तम उपाय है।

2. अग्निशमन यन्त्रों की उपलब्धता 

अग्निकाण्ड स्थल के निकट अग्निशमन सिलेण्डरों की उपलब्धता बचाव का विश्वसनीय उपाय है। इन सिलेण्डरों में भरी गैस आग बुझाने में तत्काल सफल होती है। इसीलिए रेलवे स्टेशनों, औद्योगिक संस्थानों एवं महत्त्वपूर्ण स्थलों पर इसकी उपलब्धि सदैव रहती है।

3. अग्निशमन दस्ता (फायर ब्रिगेड) 

अग्नि स्थल पर फायर ब्रिगेड की शीघ्रातिशीघ्र उपस्थिति अग्निकाण्ड से होनेवाली क्षति को सीमित कर देती है। अग्निकाण्ड की सूचना मिलते ही फायर ब्रिगेड बिना विलम्ब किये घटनास्थल पर पहुँचता है। 

4. निकटवर्ती क्षेत्रों की सुरक्षा 

अग्निकरण्ड स्थल पर अग्नि का विस्तार न हो, इसके लिए निकटवर्ती क्षेत्रों की सुरक्षा का भी तत्काल उपाय करना चाहिए, यदि ऐसा नहीं किया गया तो अनि विस्तृत क्षेत्र में फैल जायगा ऐसी परिस्थितियाँ उपस्थित होने पर आग पर काबू पाना आसान नहीं होगा।

5. सतर्कता और सावधानी 

अग्निकाण्ड से बचाव का सुरक्षित उपाय सतर्कता और सावधानी है। घर में खाना बनाते समय गैस सिलेण्डर के फटने या गैस के लीक होने से अचानक आग लग जाती है। यदि खिड़की-दरवाजे खुले हो और सावधानी बरती गयी हो तो नुकसान से बचाव हो सकता है। इसी तरह अन्य स्थलों पर भी सतर्कता एवं सावधानी पर विशेष ध्यान दिया जाय तो यह सबसे अच्छा बचाव का उपाय सिद्ध होगा।

6. विद्युत स्वीच बोडों की देखभाल 

विद्युत शार्ट सर्किट के कारण लगी आग भयावह होती है। इस तरह की घटनाएँ लापरवाही के कारण होती है। यदि स्वीच बोडों की नियमित देखभाल होती रहे तो ऐसी दुर्घटनाओं से बचा जा सकता है।

7. कानूनी उपाय 

सार्वजनिक स्थलों पर परिवहन, यातायात, रेलवे ट्रेन के भीतर या इसी तरह के महत्त्वपूर्ण स्थलों पर सिगरेट पीना, किसी उद्देश्य से आग जलाना या अवलनशील पदार्थ ले जाने या रखने पर कानूनी पाबन्दी होनी चाहिए। इसे सख्ती से पालन भी करवाना चाहिए।

भूकम्प (Earthquakes) :

भूकम्प अत्यन्त विनष्टकारी आपदाओं में से एक है। पृथ्वी की सतह से कुछ किलोमीटर तक गहराई में स्थित चट्टानों में उपस्थित दरारों, शो कमजोर सतहों पर परस्पर टकराव, गति, हलचल, घर्षण आदि से उत्पन्न एवं प्रसारित कम्पन को उत्पत्ति केन्द्र से चारों तरफ प्रसारित होकर सतह पर स्थित वस्तुओं आदि को हिला-डुलाकर असन्तुस्मित कर देती है, को भूकम्प की संज्ञा दी जाती है। कुछ ऐसी भी सूक्ष्म तरंगें होती हैं जिन्हें मनुष्य अनुभव नहीं कर पाता, किन्तु संवेदनशील प्राणी, जैसे कुत्ते, बिल्ली, चमगादड़, पक्षी आदि द्वारा महसूस कर लिया जाता है। आधुनिक भूकम्पीय यन्त्र द्वारा ऐसी तरंगें भी रिकार्ड की जा सकती हैं।

भूकम्प के कारण

पृथ्वी एक गतिशील एवं सक्रिय ग्रह है जिसकी सबसे ऊपरी सतह क्रस्ट का निर्माण करनेवाले विशाल भूखण्ड तथा जलमण्डल की रचना करनेवाली विशाल प्रस्तरीय प्लेटें आदि प्रत्यास्थ एवं सान्द्र प्रकृति की भीतरी सतह मैटिल में उत्पन्न संवहन तरंगों के कारण निरन्तर गतिशील, संघनित एवं प्रसारित हुआ करती हैं। इसका मूल कारण पृथ्वी का केन्द्रीय भाग है जो अति रेडियोधर्मिता तथा अत्यधिक दाब के कारण 3000°C से अधिक तक गर्म होता है। 

इस प्रकार के उत्पन्न संवहन तरंगों के कारण सतह की प्लेटें परस्पर गति करती रहती हैं, जिसे भू-विवर्तनिका कहा जाता है। पर्वत, समुद्र, मैदान, पठार, द्वीप आदि की उत्पत्ति का कारण यही गतियाँ हैं। यही वह प्रक्रिया है जिसके कारण हमारी पृथ्वी पर आज जैसी जलवायुविक जैविक एवं प्राकृतिक विविधता है, साथ ही क्षेत्र विशेष में खनिजों की उत्पत्ति आदि भी इसी प्रकार से विवर्तन का परिणाम है। 

अतः भूकम्प को समझने के लिए तीन बिन्दुओं को जानना अत्यन्त आवश्यक है-

1. भूकम्प केन्द्र  

पृथ्वी की सतह के नीचे जिस स्थान पर भूखण्डीय प्लेटें टकराती हैं या जहाँ से आन्तरिक संघनित ऊर्जा दरारों, अंशों आदि के अनुसार त्वरित कम्पनों को जन्म देती हैं, उस स्थान को भुकम्प का केन्द्र कहा जाता है। 

2. अभिकेन्द्र 

भूगर्भ में स्थित केन्द्र के सापेक्ष पृथ्वी की सतह पर स्थित उस बिन्दु को जहाँ तरंगें सतह पर टकराती हैं, अभिकेन्द्र (Epicenter) कहा जाता है। यहाँ भूकम्प की तरंगें सबसे पहले पहुँचती हैं। उनका परिणाम भी सर्वाधिक होता है। 

3. परिमाण 

भूकम्प के माध्यम से अवमुक्त हुई ऊर्जा का आकलन ही परिमाण कहलाता है। परिमाण को अंकों के रूप में प्रदर्शित किया जा सकता है।

भूकम्पीय तरंगों के प्रकार

भूकम्पीय तरंगे चार प्रकार की होती हैं-

1. प्राथमिक या प्रधान तरंगें 

अनुदैर्ध्य तरंगें जिनकी गति तीव्र होती है, यह भूकम्प केन्द्र से कई सौ किलोमीटर तक प्रसारित होती हैं। इन्हें सर्वप्रथम अनुभव किया जा सकता है।

2. द्वितीयक या अनुप्रस्थ तरंगें 

अनुप्रस्थ तरंगें प्रकृति के औसत आयात के कम्पन होते हैं। यह अधिक हानि नहीं कर पाती। यह ठोस चट्टानों से गुजर सकती हैं। 

3. धरातलीय तरंगें 

यह पृथ्वी की सतह से समान्तर प्रवाहित होने के कारण सर्वाधिक विनाशकारी होती हैं। यह पृथ्वी की सतह को अगल-बगल हिलाती हैं।

4. रेलें तरंगें 

सबसे अधिक कम्पन इन्हीं तरंगों के कारण होता है ये तरंगे पृथ्वी की सतह पर लुढ़कती हैं। 

भूकम्प का आकलन- भूकम्प का आकलन स्केल द्वारा किया जाता है। रिएक्टर द्वारा 1958 में गुणात्मक आकलन के आधार पर जो स्केल बनाया गया उसे 'रिक्टर स्केल' कहा जाता है। आजकल यही प्रचलित है। इसमें तीव्रताओं के अनुसार I से XII तक का स्केल वर्णित है। स्केल 1 से स्केल II में परिमाण की शक्ति का अन्तर 32 गुना होता है।

भूकम्प की दृष्टि से भारत का विभाजन 

भारत सरकार के नगरीय विकास मन्त्रालय द्वारा बी० एस० टी० पी० सी० के सहयोग से प्रकाशित पातकता मानचित्रावली में सम्पूर्ण भारत को भूकम्पीय दृष्टि से चार भागों में विभाजित किया गया है- 

जोन II-  इसके अन्तर्गत तमिलनाडु, उत्तरी-पश्चिमी राजस्थान, मध्य प्रदेश का उत्तरी भाग, पूर्वी राजस्थान, छत्तीसगढ़, पश्चिमी उड़ीसा तथा प्रायद्वीपीय पठार के आन्तरिक भाग आते हैं। 

जोन III- उत्तरी प्रायद्वीपीय पठार।

जोन IV- जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल, उत्तर प्रदेश एवं बिहार का मैदानी भाग तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश सम्मिलित हैं।

जोन V- हिमालय पर्वत श्रेणी, नेपाल, बिहार सीमावर्ती क्षेत्र, उत्तर-पूर्वी राज्य तथा कच्छ प्रायद्वीप और अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह इस जोन के अन्तर्गत सम्मिलित हैं।

भूकम्प आने के पूर्व के लक्षण

भूकम्प का पूर्वानुमान एवं भविष्यवाणी करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। किन्तु कुछ अप्रत्याशित एवं असामान्य प्राकृतिक-जैविक व्यवहार एवं घटनाओं के द्वारा कुछ लक्षण अवश्य प्रतीत होने लगते हैं, जिनका उल्लेख निम्नलिखित ढंग से किया जा सकता है-  

  • भूकम्प से पूर्व पृथ्वी की रेडियोधर्मिता में हुई वृद्धि एवं असामान्य गैसों के निकलने से वातावरण में कुछ परिवर्तन हो सकता है। इससे विपदा की आशंका की जा सकती है। 
  • जलीय स्रोतों तथा कुओं का जल गन्दा होने लगता है। 
  • कुछ संवेदनशील प्राणियों जैसे कुत्ता, बिल्ली, चमगादड़ तथा पक्षी अचानक उत्प्रेरित हो जाते हैं तथा अप्रत्याशित व्यवहार करने लगते हैं।
  • भूकम्प आने के पूर्व प्रारम्भिक अवस्था में भवन के दरवाजे तथा खिड़कियाँ धीरे-धीरे खटखटाने लगती है। बर्तन, चारपाई, भेज, फूलदान आदि में कम्पन होने लगता है मन्दिरों तथा गिरिजाघरों की घण्टियाँ बजने लगती हैं।

आपदा से पूर्व सावधानियाँ

  • चेतावनी जारी होते ही भवन को छोड़कर मैदान में आ जायें। 
  • जोखिम से बचने के लिए विशेषज्ञों का परामर्श लें।
  • ऊपर लटकती हुई वस्तुएँ हटा दें।
  • कमजोर दीवारों को सहारा दें।
  • दीवारों, पेड़ों तथा खम्भों के पास न खड़े हों।

आपदा के समय सावधानियाँ

  • डरिये नहीं, शान्ति से काम लीजिए।
  • जहाँ हैं, वहीं खड़े रहिए किन्तु दीवारों, पेड़ों या खम्भों का सहारा न लें।
  • चलती कार में हों तो सड़क के एक किनारे बैठ जाइए। पुल या सुरंग पार न करें। 
  • बिजली बन्द कर दें। गैस पाइप बन्द कर सिलेंडर को सील कर दें।

आपदा के बाद क्या करें?

  • गैस सिलेंडर बन्द रखें। आग न जलायें।
  • परिवार के सदस्यों खासकर वृद्धों तथा बच्चों की देखभाल करें।
  • रेडियो या टी०वी० बन्द कर दें। आपातकालीन घोषणाएँ सुनते रहें।
  • क्षतिग्रस्त खाँचों से दूर रहें।
  • बाद में आनेवाले झटकों से सचेत रहे।

बाढ़ क्या है ? 

बाढ़ का तात्पर्य किसी क्षेत्र में निरन्तर वर्षा होने या नदियों का जल फैल जाने से उस क्षेत्र का जलमग्न होना है। वर्षा काल में नदियों का जल स्तर वर्षा के कारण अपने जल स्तर से ऊपर बहने लगता है और तटबन्धों को तोड़कर निकटवर्ती क्षेत्रों में फैल जाना है, जिससे आस-पास का सम्पूर्ण क्षेत्र जलमग्न हो जाता है। ऐसी स्थिति में नदियों के किनारे स्थित गाँवों तथा नगरों की स्थिति भयावह हो जाती है। वास्तव में बाढ़ एक प्राकृतिक घटना है, किन्तु जब यह मानव जीवन तथा सम्पत्ति को हानि पहुँचाती है तो यह प्राकृतिक आपदा बन जाती है। 

विश्व की प्रमुख नदियाँ जो बाढ़ के लिए प्रसिद्ध हैं उनके नाम इस प्रकार हैं-गंगा, यमुना, रामगंगा, गोमती, घाघरा, गण्डक, कोसी, थामोदर, ब्रह्मपुत्र, कृष्णा, गोदावरी आदि (भारत) सिन्धु ( पाकिस्तान), दजला-फरात (इराक), मिसीसिपीमिसौरी (संयुक्त राज्य अमेरिका), यांगसी एवं हांगहो (चीन), इरावदी (म्यामांर ) तथा नाइजर (नाइजेरिया)। बाढ़ों के ही कारण दामोदर नदी 'बंगाल का शोक' तथा कोसी नदी 'बिहार का शोक' कही जाती हैं। ब्रह्मपुत्र नदी को 'असम का शोक' कहते हैं।

बाढ़ के कारण

  • भारत में भारी मानसूनी वर्षा या चक्रवाती वर्षा से नदियों का जल स्तर इतना बढ़ जाता है कि वह तटबन्धों को तोड़कर आस- पास के क्षेत्रों को जलमग्न कर देता है। इससे बाढ़ का आ जाना स्वाभाविक है। 
  • भूस्खलन भी बाढ़ का एक कारण है। इससे नदी का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है जिससे उसका जल आस-पास के क्षेत्रों में फैल जाता है।
  • वनों के कटाव के कारण भी बाढ़ की सम्भावनाएं बढ़ गयी हैं। हिमालय में बड़े पैमाने पर वन विनाश ही हिमालयी नदियों में बाढ़ का कारण है।

बाढ़ का प्रभाव

बाढ़ का निम्नलिखित प्रभाव पड़ता है-

  • बाढ़ के बड़े पैमाने पर कार्बनिक पदार्थों के अपरदन से महामारी, वायरल संक्रमण, मलेरिया, पेचिश आदि बीमारियाँ फैल जाती हैं।
  • बाढ़ से मैदानी इलाकों में खड़ी फसलें नष्ट हो जाती हैं।
  • बाढ़ के पानी के दबाव के कारण बहुत से मकान, बाँध तथा वृक्ष टूट जाते हैं, भूस्खलन होता है पशु भी शिकार जल प्रवाह के हो जाते हैं। इससे अपार जन धन की हानि होती है।
  • कभी-कभी जल का प्रवाह अधिक होने से मिट्टी का कटाव भी होता है।
  • बाढ़ से लाभ भी होता है। मैदानों में आमतौर पर नदियाँ मिट्टी लाकर जमा कर देती हैं, जिससे वहाँ की पैदावार बढ़ जाती है।

आपदा के पूर्व हमें क्या करना चाहिए?

  • सदैव अपने क्षेत्र के भू-दृश्य की विशेषताओं की जानकारी कीजिए।
  • अपने क्षेत्र की नदियों की भौगोलिक स्थिति की जानकारी कीजिए। 
  • मकान की नींव और बाहरी दीवारों को भजबूत बनाइए ।
  • तैरना सीखिए।

आपदा के समय आपका कर्त्तव्य

  • सतह पर बहाव के मार्ग में रेत के बैले रखिए। 
  • पेड़ों पर मत चड़िए, वे गिर सकते हैं।
  • रबड़ की हवादार नावे प्राप्त कीजिए।
  • पर खतरे में हो, तो घर से बाहर निकल जाइए।

आपदा के पश्चात् आपका कर्त्तव्य

  • अपने घर, पड़ोस तथा आस-पास के क्षेत्र की सफाई कीजिए और कीटनाशक दवाएं डालिए।
  • मृदा संरक्षण के उपायों को अपनाइए ।
  • वृक्षारोपण पर बल दीजिए।
  • रोगों की रोकथाम हेतु टीके लगवाइए। मरीजों को अस्पताल ले जाइए।
  • पशुओं को पशु चिकित्सालय ले जाकर इलाज कराइए।

सूखा किसे कहते हैं ? (Drought) :

बाढ़ के समान सूखा भी एक प्राकृतिक आपदा है। आमतौर पर किसी भी क्षेत्र में होनेवाली सामान्य वर्षा में 25 प्रतिशत से 50 प्रतिशत कमी होने पर सूखा (Drought) की स्थिति मानी जाती है। जब सामान्य वर्षा में 50 प्रतिशत से भी अधिक कमी आये अथवा किसी क्षेत्र में निरन्तर यो वर्ष तक सूखे की स्थिति बनी रहे तो उसे गम्भीर सूखा या अकाल (Famine) कहते हैं। 

सूखा पड़ने पर जलस्रोत सूख जाते हैं तथा भूगर्भिक जल स्तर काफी गिर जाता है। चारे पानी के अभाव में पशुधन की व्यापक हानि होती है। जल के अभाव में कृषि नहीं होने से खाद्यात्र संकट उत्पन्न हो जाता है। इससे भुखमरी व बेरोजगारी बढ़ती है। किसी क्षेत्र में साल भर सुखा की पुनरावृत्ति होने पर इसकी भयावहता बढ़ जाती है। अनाज, चारे व पानी की एक साथ कमी होने पर अकाल को 'त्रिकाल' की संज्ञा दी जाती है।

सूखा व अकाल पड़ने पर बड़ी संख्या में लोग पशुधन के साथ पलायन कर जाते हैं। इससे अर्थव्यवस्था कमजोर होती है तथा विकास कार्य ठप्प हो जाते हैं। इथियोपिया में पढ़े भयंकर सूखा से देश की समूची अर्थव्यवस्था ही ठप्प हो गयी थी। राजस्थान सूखा से सर्वाधिक प्रभावित होनेवाला राज्य है। विगत 50 वर्षों से यहाँ 44 बार सूखा पड़ चुका है। अकाल का पर्याय बन चुके मारवाढ़ क्षेत्र ने तो स्वतन्त्रता के बाद 46 भीषण अकाल झेले हैं। प० उत्तर प्रदेश, सौराष्ट्र, कच्छ, रायलसीमा, तेलंगाना आदि क्षेत्र भी सूखा से अधिक प्रभावित रहते हैं।

सूखा आपदा के लिए उत्तरदायी कारक

सूखा का प्रमुख कारण जलवायु दशाओं का प्रतिकूल होना है। कुछ सीमा तक सूखा की स्थिति के लिए मानवीय क्रिया-कलाप भी उत्तरदायी हैं, जिनमें प्रमुख निम्न हैं-

  • बनों की अत्यधिक कटाई के कारण वर्षा का औसत घटना तथा भू-जल स्रोतों व प्राकृतिक जलधाराओं का सूखना।
  • सतही जल के प्रबन्धन के अभाव में वर्षा जल का अधिकांश भाग बह जाना।
  • जल संग्रहण के परम्परागत तरीकों की उपेक्षा करना। 
  • दीर्घ अवधि तक सतही जल रिस-रिसकर भूगर्भ में एकत्रित होने से भू-जल स्रोत समृद्ध होते हैं। जब लम्बे समय तक वार्षिक आपूर्ति की तुलना में भू-जल की निकासी अधिक हो तो भू-जल भण्डार रीतने लगते हैं तथा सूखा की समस्या उत्पन्न होती है। भू-जल दोहन के मामले में पंजाब व हरियाणा के बाद राजस्थान तीसरे स्थान पर आ गया है। टेरी (Tata Energy Research Institute) ने अपनी ताजा रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि समय रहते राज्य सरकार नहीं चेती तो अगले कुछ दशकों में राजस्थान के समक्ष भीषण जल-संकट उत्पन्न हो जायगा।
  • अनियन्त्रित व अवैज्ञानिक खनन के कारण भू-जल स्तर का नीचे गिरना
  • बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण तथा वैश्विक तापन (Global Warming) के कारण जलवायु चक्र बाधित होना।
  • फसल चक्र में तीव्र परिवर्तन व मिट्टी में जैविक तत्वों की कमी होने से मिट्टी की जलधारण क्षमता पट जाना।

सूखा पड़ने के प्रतिकूल प्रभाव

सूखा एक ऐसी आपदा है जिसके परिणामस्वरूप सम्बन्धित क्षेत्र में जल की कमी या अभाव हो जाता है। यह एक गम्भीर आपदा है तथा इसके विभिन्न प्रतिकूल प्रभाव क्रमशः स्पष्ट होने लगते हैं। सर्वप्रथम सूखे का प्रभाव कृषि उत्पादनों पर पड़ता है। फसलें सूखने लगती हैं तथा क्षेत्र में खाद्य पदार्थों की कमी होने लगती है। इस स्थिति में अनाज आदि के दाम बढ़ जाते हैं तथा गरीब परिवारों की आर्थिक स्थिति दयनीय हो जाती है। 

सूखे का प्रतिकूल प्रभाव क्षेत्र के पशुओं पर भी पड़ता है क्योंकि उनको पर्याप्त मात्रा में चारा तथा जल उपलब्ध नहीं हो पाता। इससे क्षेत्र में दूध एवं मांस आदि की भी कमी होने लगती है। कृषि कार्य पट जाने के कारण अनेक कृषि- श्रमिकों को रोजगार मिलना बन्द हो जाता है तथा क्षेत्र की अर्थव्यवस्था बिगड़ने लगती है। सूखे की दशा में कृषि उत्पादनों में कमी आ जाती है। 

इस स्थिति में कृषि आधारित कच्चे माल से सम्बन्धित औद्योगिक संस्थानों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस स्थिति में सम्बन्धित उत्पादनों की कमी हो जाती है तथा उनकी कीमत भी बढ़ जाती है। इसके अतिरिक्त किसी क्षेत्र में निरन्तर सूखे की स्थिति बने रहने से वहाँ के निवासी अन्य क्षेत्रों में चले जाते हैं। इससे सामाजिक ढाँचा प्रभावित होता है तथा जनसंख्या का क्षेत्रीय सन्तुलन बिगड़ने लगता है। सूखे की समस्या विकराल हो जाने की स्थिति में बेरोजगारी तथा भुखमरी की समस्याएँ भी प्रबल होने लगती हैं।

सूखा आपदा पर नियन्त्रण

सूखा जैसी प्राकृतिक आपदा पर पूर्ण नियन्त्रण तो नहीं किया जा सकता है, किन्तु निम्न उपायों में इस आपदा से निपटा जा सकता है-

  • वनों के संरक्षण के साथ ही भौगोलिक दशाओं के अनुरूप वृक्षों का चयन करते हुए वनारोपण करना। 
  • छोटे-छोटे तालाब व एनीकट बनाकर वर्षा जल का अधिकाधिक संग्रहण 
  • जल की प्रत्येक बूँद का सही उपयोग तथा सीमित जल संसाधनों के अनुरूप जीवन शैली अपनाना।
  • जल के पारम्परिक स्रोतों, जैसे कुआँ, बावड़ी, जोहड़, टाँका आदि की उपेक्षा न कर उन्हें पुनर्जीवित किया जाय।
  • भू-जल के अन्धाधुन्ध दोहन पर नियन्त्रण करना।
  • भवनों की छतों पर एकत्रित वर्षा जल के घरो में संग्रहण के उपाय करना। 
  • जल की उपलब्धता के अनुरूप कृषि पद्धति व फसलों का चयन करना।
  • पानी व बिजली के दुरुपयोग को रोकने के प्रभावी उपाय करना तथा उपलब्ध संसाधनों का कुशलतम प्रयोग करना। 
  • सूखा नियन्त्रण की दीर्घकालीन कार्ययोजना बनाते हुए सूखा राहत के अन्तर्गत स्थायी निर्माण कार्यों को प्राथमिकता देना। 
  • सिचाई तथा पेयजल आपूर्ति योजनाओं को निर्धारित अवधि में पूर्ण करने पर जोर देना। 
  • पेयजल के इतर उपयोग पर प्रभावी रोक लगाना।
  • देश की प्रमुख नदियों को जोड़ने की महत्त्वाकांक्षी योजना का शीघ्र क्रियान्वयन करना।

सुनामी या समुद्री लहरें: प्राकृतिक आपदा

तीव्र गति से आने वाली एक प्राकृतिक आपदा सुनामी या समुद्री लहरें भी हैं। समुद्री लहरें कभी-कभी विनाशकारी रूप धारण कर लेती हैं। इनकी ऊंचाई 15 मीटर और कभी-कभी इससे भी अधिक तक होती है। ये तट के आस-पास की बस्तियों को तबाह कर देती हैं। ये लहरें मिनटों में ही तट तक पहुँच जाती हैं। जब ये लहरें उबले पानी में प्रवेश करती हैं, तो भयावह शक्ति के साथ तट से टकराकर कई मीटर ऊपर तक उठती हैं। तटवर्ती मैदानी इलाकों में इनकी रफ्तार 50 किमी प्रति घण्टा तक हो सकती है।

इन विनाशकारी समुद्री लहरों को 'सुनामी' कहा जाता है। 'सुनामी', जापानी भाषा का शब्द है जो दो शब्दों 'सू' अर्थात् 'बन्दरगाह' और 'नामी' अर्थात् 'लहर' से बना है। सुनामी लहरें अपनी भयावह शक्ति के द्वारा विशाल चट्टानों, नौकाओं तथा अन्य प्रकार के मलबे को भूमि पर कई मीटर अन्दर तक धकेल देती हैं। ये तटवर्ती इमारतों, वृक्षों आदि को नष्ट कर देती हैं। 26 दिसम्बर, सन् 2004 ई. को दक्षिण-पूर्व एशिया के 11 देशों में 'सुनामी' द्वारा फैलायी गयी विनाशलीला से हम सब परिचित हैं।

समुद्री लहरों के कारण

समुद्रों में लहरों के आने के निम्नलिखित कारण हैं-

1. ज्वालामुखी विस्फोट

सन् 1993 ई. में इण्डोनेशिया में क्रकटू नामक विख्यात ज्वालामुखी में भयानक विस्फोट हुआ और इसके कारण लगभग 40 मीटर ऊँची सुनामी लहरें उत्पन्न हुई। इन लहरों ने जावा व सुमात्रा में जन-धन की अपार क्षति पहुँचाई। 

2. भूकम्प  

समुद्र तल के पास या उसके नीचे भूकम्प आने पर समुद्र में हलचल पैदा होती है और यही हलचल विनाशकारी सुनामी का रूप धारण कर लेती है। 26 दिसम्बर, सन् 2004 ई. को दक्षिण पूर्व एशिया में आयी विनाशकारी सुनामी लहरे, भूकम्प का ही परिणाम थीं।

3. भूस्खलन 

समुद्र की तलहटी में भूकम्प व भूस्खलन के कारण ऊर्जा निर्गत होने से बड़ी-बड़ी लहरें उत्पन्न होती है जिनकी गति अत्यन्त तेज होती है। मिनटों में ही ये लहरे विकराल रूप धारण कर तट की ओर दौड़ती हैं।

चेतावनी व अन्य युक्तियाँ

सुनामी लहरों की उत्पत्ति को रोकना मानव के वश में नहीं है। समय से इसकी चेतावनी देकर लोगों की जान व सम्पति की रक्षा की जा सकती है। 

1. उपग्रह प्रौद्योगिकी

उपग्रह प्रौद्योगिकी के प्रयोग से सुनामी सम्भावित भूकम्पों की तुरन्त चेतावनी देना सम्भव हो गया है। चेतावनी का समय तट रेखा से अभिकेन्द्र की दूरी पर निर्भर करता है। फिर भी उन तटवर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को जहाँ सुनामी कुछ घण्टों में विनाश फैला सकती है, सुनामी के अनुमानित समय की सूचना दे दी जाती है।

2. तटीय ज्वार जाली 

तटीय ज्वार जाली का निर्माण करके सुनामियों को तट के निकट रोका जा सकता है। गहरे समुद्र में इसका प्रयोग नहीं किया जा सकता। 

3. सुनामीटर

सुनामीटर के द्वारा समुद्र तल में होने वाली हलचलों का पता लगाकर, उपग्रह के माध्यम से चेतावनी प्रसारित की जा सकती है। इसके लिए सुनामी सतर्कता यन्त्र समुद्री केबुलों के द्वारा भूमि से जोड़े जाते हैं और उन्हें समुद्र में 50 किमी तक आड़ा-तिरछा लगाया जाता है।

सुनामी की आशंका पर सावधानियाँ

यदि आप ऐसे तटवर्ती क्षेत्र में रहते हैं जहाँ सुनामी की आशंका है, तो आपको निम्नलिखित सावधानियाँ बरतनी चाहिए-

  • तट के समीप न तो मकान बनवाएँ और न ही किसी तटवर्ती बस्ती में रहें।
  • तट के समीप रहना आवश्यक हो, तो घर को ऊंचे स्थान पर बनवाएँ। ये स्थान 10 फुट से ऊँचे स्थान पर ही हों, क्योंकि सुनामी लहरें अधिकांशतः इससे कम ऊंची होती हैं।
  • अपने घरों को बनाते समय भवन-निर्माण विशेषज्ञ की राय लें तथा मकान को सुनामी निरोधक बनायें। 
  • सुनामी के विषय में प्राप्त चेतावनी के प्रति लापरवाही न बरतें तथा आने वाली बाढ़ को रोकने के लिए तैयारी रखें।
  • सुनामी के समय यदि आप नौका या जलयान में हो तो उस समय समुद्र तट की ओर कदापि न जायें सुनामी के समय सर्वाधिक विनाश समुद्र तट के निकट होता है। ऐसे में तट से दूर खुले समुद्र में चला जाना सुरक्षित रहता है।

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