मध्यकाल
प्राचीन काल में भारत विदेशी शासकों के आकर्षण का केन्द्र था। इसकी उत्तर सीमा पार के शासक इस पर सदैव आक्रमण करते रहते थे। इन आक्रमणकारियों में सर्वप्रथ नाम परसिया (वर्तमान ईरान) के राजा साइरस (538 ई० पू०-530 ई० पू०) का आता है। उसने इसके उत्तरीय सोमावर्ती राज्य गांधार पर आक्रमण कर उसके एक भाग पर कब्जा भी कर लिया था। उसके बाद मैसोडोनिया (यूनान, ग्रीस) के राजा सिकन्दर ने 327 ई० पू में आक्रमण किया। उसने सर्वप्रथम यहाँ से पारसियों को खदेड़ा और उसके बाद तक्षशिला के राजा आम्भी के सहयोग से आगे बढ़ा। परन्तु कुछ परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि उसे अपने देश लौटना पड़ा। ईसा की 5वीं शताब्दी में इसको उत्तरी सीमा पर हूणों ने आक्रमण शुरू किए परन्तु ये गांधा से आगे नहीं बढ़ पाए।
यह भी पढ़ें-
इतिहासकारों ने कुतुबुद्दीन ऐबक और उसके वंशजों को गुलाम वंश की संज्ञा दी है। गुलाम वंश के बाद भारत में क्रमशः खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैयद वंश, लोदी वंश और मुगल वंश का शासन रहा। मुगल वंश में औरंगजेब ने 1659 से 17007 तक राज्य किया। यह बड़ा कट्टरपंथी था। इसने इस्लाम धर्म न मानने वालों के ऊपर जजिया कर लगा दिया था परिणामस्वरूप चारों ओर विद्रोह की आग भड़क उठी थी और औरंगजेब के शासन काल के अन्तिम चरण में नही मुगल साम्राज्य का वैभव समाप्त होने लगा था। 1200 से 1700 तक यहाँ मुसलमान बादशाहों और इस्लाम धर्म का वर्चस्व रहा। इतिहासकारों ने 1200 से 1700 ई० तक के काल को मध्यकाल अथवा मुस्लिम काल की संज्ञा दी है।
पर इससे पहले कि हम मध्यकालीन इस मुस्लिम शिक्षा प्रणाली का वर्णन करें यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि इस काल के प्रथम बादशाह कुतुबुद्दीन ऐबक ने भारत में शासन की बागडोर सम्भालते ही अपने सेनापति बख्तियार खिलजी द्वारा यहां के उस समय के बौद्ध शिक्षा के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों- नालन्दा और विक्रमशिला को नष्ट करवा डाला था उनके पुस्तकालयों को जलवा डाला था और उनके शिक्षकों को मरवा डाला था। इससे भयभीत हो बौद्ध शिक्षा के अन्य केन्द्र स्वयं निष्क्रिय हो गए थे और धीरे-धीरे समाप्त हो गए थे।
परन्तु चौकाने वाला तथ्य यह है कि इस देश में वैदिक शिक्षा प्रणाली के शिक्षा केन्द्र-इस काल में भी निरन्तर चलते रहे। प्रथमत: तो इसलिए कि ये न तो बहुत विशाल थे और न बहुत चमक-धमक वाले थे इनकी ओर मुसलमान शासकों का ध्यान ही नहीं गया। दूसरे ये देश भर में बिखरे पड़े थे। और तीसरे से हमारी मूलभूत वैदिक संस्कृति से जुड़े थे, हमारे जीवन से जुड़े थे। यदि मुसलमान बादशाह इन्हें नष्ट करना भी चाहते तो नष्ट कर नहीं सकते थे।
इसे भी पढ़ें-
- बौद्ध कालीन शिक्षा क्या है
- भारत में आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली
- 1813 और 1833 के आज्ञा पत्र | प्राच्य-पाश्चात्य विवाद क्या है ?
इस प्रकार इस काल में दो शिक्षा प्रणालियाँ समानान्तर रूप से चली, एक वैदिक शिक्षा प्रणाली और दूसरी मुस्लिम शिक्षा प्रणाली, यह बात दूसरी है कि इस काल को वैदिक शिक्षा प्रणाली वैदिक कालीन वैदिक शिक्षा प्रणाली से कुछ भिन्न थी। वैदिक शिक्षा प्रणाली का वर्णन हम प्रथम अध्याय में कर चुके है इस अध्याय में मध्यकाल में विकसित मुस्लिम शिक्षा प्रणाली का वर्णन प्रस्तुत है।
मुस्लिम शिक्षा प्रणाली के मुख्य अभिलक्षण
हमारे देश में मध्यकाल में मुसलमान शासकों के सहयोग से एक नई शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ जिसे मुस्लिम शिक्षा प्रणाली कहते हैं। यहाँ मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली का क्रमबद्ध वर्णन प्रस्तुत है-
शिक्षा का प्रशासन एवं वित्त
मुस्लिम शिक्षा के प्रशासन एवं वित्त के सम्बन्ध में तीन तथ्य उल्लेखनीय हैं-
1. राज्य का परोक्ष नियन्त्रण- इस काल में सभी मुसलमान बादशाहों ने इस्लाम धर्म और संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार के लिए मकतब और मदरसों का निर्माण कराया और उन्हें आर्थिक सहायता दी। तब इनके द्वारा शासनानुकूल कार्य करना स्वाभाविक था। इसे हम राज्य का परोक्ष नियन्त्रण कह सकते हैं।
2. निःशुल्क शिक्षा- इन मकतब और मदरसों में छात्रों से किसी प्रकार का शुल्क नहीं लिया जाता था। मदरसों के छात्रावासों में रहने वाले छात्रों को भोजन एवं वस्त्र भी निःशुल्क दिए जाते थे। मेधावी छात्रों को छात्रवृत्तियाँ दी जाती थीं।
3. आय का मुख्य स्रोत राज्य सहायता- इस काल के सभी बादशाहों ने इन मकतब और मदरसों को आर्थिक सहायता दी। शासन में उच्च पदों पर आसीन लोग भी इन्हें आर्थिक सहायता देते थे। इस्लाम प्रेमी भी इस कार्य में पीछे नहीं रहे, वे इन संस्थाओं को चलाना अपना पवित्र कार्य मानते थे।
शिक्षा की संरचना एवं संगठन
मुस्लिम शिक्षा भी दो स्तरों में विभाजित थी प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था मकतबों में होती थी और उच्च शिक्षा की व्यवस्था मदरसों में।
शिक्षा का अर्थ
मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में शिक्षा ज्ञान का पर्याय मानी जाती थी और शिक्षा से तात्पर्य केवल मकतब एवं मदरसों में दिए जाने वाले ज्ञान से लिया जाता था। यह शिक्षा का संकुचित अर्थ था।
शिक्षा के उद्देश्य एवं आदर्श
मुस्लिम शिक्षा का सर्वप्रमुख उद्देश्य एवं आदर्श इस्लाम धर्म एवं संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार था। इसके साथ-साथ इसमें ज्ञान के विकास, कला-कौशल के प्रशिक्षण और सांसारिक ऐश्वर्य की प्राप्ति पर भी बल दिया गया था। मुस्लिम शिक्षा के इन सब उद्देश्यों एवं आदर्शों को हम आज की भाषा में निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध कर सकते हैं-
1. ज्ञान का विकास- इस्लाम धर्म के प्रतिपादक हज़रत मोहम्मद साहब ज्ञान को अमृत मानते थे, निजात (मुक्ति) का साधन मानते थे। ज्ञान से उनका तात्पर्य भौतिक एवं आध्यात्मिक, दोनों प्रकार के ज्ञान से था और आध्यात्मिक ज्ञान से तात्पर्य इस्लाम के ज्ञान से था। कुरान शरीफ में कलम की स्याही को शहीदों के खून से भी अधिक पवित्र बताया गया है।
2. इस्लाम संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार- मुसलमान भारत में अपनी संस्कृति लेकर आए थे, उनकी अपनी भाषा थी अपने रीति-रिवाज थे, अपने रहन-सहन की विधियां थी और इन्हीं में उनकी आस्था थी। उन्होंने यहाँ इन्ही सबकी शिक्षा पर बल दिया। मकतब और मदरसों में बच्चों को अनिवार्य रूप से फारसी भाषा पढाई जाती थी, शरिअत (इस्लामी धर्म एवं कानून) का ज्ञान कराया जाता था और इस्लामी तहजीब सिखाई जाती थी।
3. नैतिक एवं चारित्रिक विकास- मुसलमान इस्लामी नैतिकता के हामी हैं। इनकी नैतिकता के आदर्श एवं मूल्य हिन्दुओं की नैतिकता के आदर्श एवं मूल्यों से कुछ भिन्न हैं। मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में इस्लामी नैतिकता के विकास पर बल दिया गया था। अन्यथा आचरण करने पर इस्लामिक मानदण्डों के आधार पर प्रायश्चित करने पर बल दिया गया था।
4. शासन के प्रति वफ़ादारी- मुसलमान बादशाह भारत के लिए विदेशी थे इसलिए वे शिक्षा द्वारा भारतीयों को शासन के प्रति वफादार बनाना चाहते थे। यह मुस्लिम शिक्षा का एक बड़ा उद्देश्य एवं आदर्श था। यही कारण है कि उन्होंने अरबी और फारसी भाषा जानने वाले और इस्लामी तहजीब को अपनाने वाले हिन्दुओं को ही शासन में ऊँचे-ऊंचे पद दिए।
5. कला-कौशलों एवं व्यवसायों की शिक्षा- जिस समय मुसलमान बादशाह इस देश में आए यहाँ कला-कौशलों के क्षेत्र में बड़ा विकास हो चुका था। ये भी अपने साथ अनेक कला-कौशलों को लेकर आए थे। प्रायः सभी मुसलमान बादशाह कला और शिल्प प्रेमी थे इसलिए इन्होंने इनकी शिक्षा पर विशेष बल दिया। इस शिक्षा के परिणाम स्वरूप ही उस काल में कला-कौशलों के क्षेत्र में बहुत अधिक उन्नति हुई। साथ ही विभिन्न व्यवसायों को शिक्षा की व्यवस्था भी की गई थी जिससे देश का आर्थिक विकास शुरु हुआ।
6. सांसारिक ऐश्वर्य की प्राप्ति- इस्लाम पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता यही कारण है कि इस्लाम धर्म के मानने वाले मौहम्मद साहब के दिखाए हुए मार्ग पर चलते हुए सांसारिक सुख की प्राप्ति के पक्षधर है। मध्यकालीन सभी मुसलमान बादशाह (औरंगजेब को छोड़कर) ऐश्वर्य भागी थे। यही कारण है कि उन्होंने शिक्षा द्वारा मनुष्यों को उपयोगी सामग्री के उत्पादन की शिक्षा देना आवश्यक समझा।
7. इस्लाम धर्म का प्रचार एवं प्रसार- यह मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा का सर्वप्रमुख उद्देश्य एवं आदर्श था। उस काल के सभी मकतब और मदरसों में इस्लाम धर्म की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाती थी और इस्लाम साहित्य एवं इतिहास अनिवार्य रूप से बढ़ाया जाता था। उस काल में जो भारतीय इस्लाम धर्म स्वीकार कर लेते थे उन्हें शासन की ओर से सब प्रकार की सहूलियतें दी जाती थीं और योग्य एवं सक्षम व्यक्तियों को शासन में ऊंचे-ऊंचे पद दिए जाते थे।
शिक्षा की पाठ्यचर्या
मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में शिक्षा दो स्तरों में विभाजित थी- प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्तर पर सभी विषय अनिवार्य रूप से पढ़ाए जाते थे और उच्च स्तर पर अरबी एवं फारसी के अतिरिक्त अन्य विषय वैकल्पिक रूप से पढ़ाए जाते थे।
प्राथमिक स्तर की पाठ्यचर्या- इस शिक्षा प्रणाली में प्राथमिक स्तर पर लिपि ज्ञान, कुरानशरीफ का 30 वां भाग, लिखना पढ़ना, अंकगणित पत्र लेखन, बातचीत और अर्जीनवीसी पढ़ाई-सिखाई जाती थी। बच्चों को प्रारम्भ से ही कुरान शरीफ को कुछ आयतें रटाई जाती थीं और इस्लाम के पैगम्बरों और मुसलमान फकीरों की जीवनियाँ पढ़ाई जाती थीं। बच्चों के नैतिक विकास के लिए उन्हें शेरदादी की प्रसिद्ध पुस्तकें गुलिस्ता और बोस्तां पढ़ाई जाती थीं। इनके अतिरिक्त अरबी-फारसी के कवियों की कविताएँ पढ़ाई जाती थीं। इस काल में प्रारम्भ से ही बच्चों के उच्चारण और लेख पर बहुत ध्यान दिया जाता था और उन्हें शुद्ध उच्चारण और सुलेख का अभ्यास कराया जाता था।
उच्च स्तर की पाठ्यचर्या- इस शिक्षा प्रणाली में उच्च स्तर को शिक्षा का पाठ्यक्रम अति विस्तृत था। इस स्तर की पाठ्यचर्या को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- लौकिक और धार्मिक,लौकिक पाठ्यचर्या में अरबी तथा फारसी भाषाएं एवं उनके साहित्य, अंकगणित, ज्यामिति, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, राजनीति, नीतिशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, इस्लामी कानून, यूनानी चिकित्सा और विभिन्न कला-कौशलों एवं व्यवसाय की शिक्षा को स्थान दिया गया था। धार्मिक पाठ्यचर्या में कुरान शरीफ, इस्लामी इतिहास, इस्लामी साहित्य, सूफी साहित्य और शरिअत (इस्लामी कानून) को स्थान दिया गया था। अकबर बादशाह उदारवादी था, उसने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई थी इसलिए उसने कुछ मदरसों में संस्कृत भाषा, वैदिक धर्म-दर्शन और वैदिक साहित्य की शिक्षा की व्यवस्था भी करवाई थी।
शिक्षण विधियाँ
मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में भिन्न-भिन्न स्तरों पर भिन्न-भिन्न विषयों के शिक्षण के लिए भिन्न-भिन्न शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाता था।
अतः यहाँ उन सब विधियों का वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत है-
1. अनुकरण अभ्यास एवं स्मरण विधि- मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में इस विधि का प्रयोग मुख्य रूप से प्राथमिक स्तर पर किया जाता था। उस्ताद (शिक्षक) उच्च स्वर में कुरान शरीफ की आयतों अक्षरी और पहाड़ों का उच्चारण करते थे, शागीर्द (छात्र) सामूहिक रूप में उनका अनुकरण करते थे, आवृत्ति द्वारा कण्ठस्थ करते थे और स्मरण करते थे। उच्चारण और सुलेख की शिक्षा भी इसी विधि से दी जाती थी। आइने अकबरी में ऐसा उल्लेख है कि उस समय तख्ती, स्याही और सरकण्डे की कलम का प्रयोग होता था, शिक्षक शिक्षार्थियों को लिखकर दिखाते थे, शिक्षार्थी उनका अनुकरण करते थे और अभ्यास द्वारा अपना लेख सुधारते थे। उस समय इस स्तर पर रटने, शुद्ध उच्चारण और सुलेख पर विशेष ध्यान दिया जाता था।
2. भाषण, व्याख्यान एवं व्याख्या विधि- मदरसे का अर्थ है- भाषण देना। उस समय उच्च स्तर पर प्रायः भाषण विधि से पढ़ाया जाता था इसीलिए उच्च शिक्षा की संस्थाओं को मदरसा कहा जाता था। भाषण का विकसित रूप है व्याख्यान और व्याख्यान विधि की सफलता निर्भर करती है व्याख्यान में आए तथ्यों की व्याख्या पर उस समय मदरसों में सैद्धान्तिक विषयों का शिक्षण प्रायः इन तीनों विधियों के संयुक्त रूप से ही किया जाता था।
3. तर्क विधि- इस विधि का प्रयोग दर्शन एवं तर्कशास्त्र जैसे विषयों के शिक्षण के लिए किया जाता था। यह तर्क विधि वैदिक कालीन तर्क विधि और बौद्ध कालीन तर्क विधि से कुछ भिन्न थी। इसमें प्रत्यक्ष उदाहरणों और इस्लामिक सिद्धान्तों का विशेष महत्त्व था।
4. स्वाध्याय विधि- मुसलमान बादशाहों ने मुख्य ग्रंथों की हस्तलिखित प्रतियाँ तैयार करने पर खुल-कर पैसा खर्च किया और इनके रख-रखाव के लिए बड़े-बड़े पुस्तकालयों का निर्माण कराया। परिणामतः स्वाध्याय के अवसर सुलभ हुए। छात्र इन पुस्तकालयों में बैठकर इन पुस्तकों का अध्ययन करते थे।
5. प्रदर्शन प्रयोग एवं अभ्यास विधि- यह विधि अनुकरण विधि का ही विकसित रूप है। इसका प्रयोग प्रायोगिक विषयों, कला-कौशलों और व्यवसायों की शिक्षा के लिए किया जाता था। शिक्षक सर्वप्रथम यथा वस्तु अथवा क्रिया का प्रदर्शन करते थे, शिक्षार्थी देखते थे और देखकर उसके स्वरूप को समझते थे। इसी प्रकार वे क्रियाओं को करके दिखाते थे, छात्र ठीक उसी प्रकार अन्य क्रियाओं को करते थे, बार-बार करते थे और उन्हें सीखते थे।
विशेष
मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली की शिक्षण विधियों के विषय में निम्नलिखित दो तथ्य और उल्लेखनीय हैं-
1. शिक्षा का माध्यम अरबी और फारसी- यद्यपि मध्य काल में भारत के बहुसंख्यकों की भाषा प्राकृत हिन्दी थी परन्तु मुस्लिम शिक्षा केन्द्रों- मकतब और मदरसों में विदेशी मुस्लिम भाषा अरबी और फारसी को शिक्षा का माध्यम बनाया गया। हाँ, अकबर ने कुछ मकतब व मदरसों में हिन्दी के माध्यम से भी शिक्षा की व्यवस्था कराई थी।
2. नायकीय पद्धति- इस शिक्षा प्रणाली में कुछ वरिष्ठ एवं योग्य छात्रों को कनिष्ठ छात्रों को पढ़ाने का अवसर दिया जाता था। इसे नायकीय पद्धति कहते हैं। इससे दो लाभ हुए, पहला यह कि अध्यापकों की कमी की पूर्ति हुई और दूसरा यह कि छात्रों को अपने अध्ययन काल में ही शिक्षण में प्रशिक्षण प्राप्त हुआ।
अनुशासन
मध्यकालीन शिक्षा प्रणाली में शिक्षकों के आदेशों और मकतब तथा मदरसों के नियमों का पालन करना ही अनुशासन माना जाता था। आदेशों और नियमों का पालन न करने वाले छात्रों को कठोर दण्ड दिया जाता था, उन्हें दिन भर खड़ा रखा जाता था, मुर्गा बनाया जाता था, बैतों से पीटा जाता था, कोड़े लगाए जाते थे और कभी-कभी कपड़े से बाँध कर टांग दिया जाता था। इसे आज की भाषा में दमनात्मक अनुशासन कहा जाता है। परन्तु इस दण्ड व्यवस्था के साथ योग्य एवं अनुशासित छात्रों को पारितोषिक देने की भी व्यवस्था थी।
शिक्षक (उस्ताद)
मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा में इस्लाम धर्म को मानने वाले, अरबी और फारसी के विद्वान और अपने विषय के अच्छे जानकार व्यक्ति ही शिक्षक पद पर नियुक्त किए जाते थे। नियुक्ति के बाद ये अपने ज्ञान और आचरण के प्रति सदैव सचेष्ट रहते थे। परन्तु साथ ही ये भारी वेतन पाते थे और ऐश्वर्य पूर्ण जीवन जीते थे। यही कारण है कि उस समय उन्हें समाज में उच्च स्थान प्राप्त था।
शिक्षार्थी (शागिर्द)
मध्यकालीन शिक्षा प्रणाली में शिक्षार्थियों को शिक्षकों और मकतब तथा मदरसों के कठोर अनुशासन में रहना होता था, उन्हें किसी भी प्रकार की स्वतन्त्रता नहीं थी। वे मकतब एवं मदरसों में दबे-दबे रहते थे। परन्तु इस काल में वे वैदिक एवं बौद्ध काल की तरह कठोर जीवन नहीं जीते थे, आरामदायक जीवन जीते थे। छात्रावासों में कालीनों पर सोते थे और भोजन में चपाती, पुलाव और मुर्गा खाते थे।
शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्ध
प्राचीन वैदिक एवं बौद्ध शिक्षा प्रणालियों की भाँति मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में भी शिक्षक और शिक्षार्थियों के बीच अच्छे सम्बन्ध थे। शिक्षक शिक्षार्थियों को प्रेम करते थे और उन्हें परिश्रम से पढ़ाते थे और शिक्षार्थी उनका आदर करते थे और उनके आदेशों का पालन करते थे। परन्तु अन्तर इतना था कि प्राचीन काल में शिष्य गुरुओं के आदेशों का पालन श्रद्धा से करते थे और मध्यकाल में गुरुओं के भय से करते थे।
शिक्षण संस्थाएँ (मकतब और मदरसे)
मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था मुख्य रूप से मकतबों और उच्च शिक्षा की व्यवस्था मदरसों में होती थी। इनके अतिरिक्त खानकाहें, दरगाहें, कुरान स्कूल, फारसी स्कूल, फारसी कुरान स्कूल और अरबी स्कूलों की व्यवस्था भी थी।
मकतब- मकतब शब्द अरबी भाषा के 'कुतुब' शब्द से बना है जिसका अर्थ है- वह स्थान जहाँ पढ़ना-लिखना सिखाया जाता है। मध्यकाल में ये मकतब प्रायः मस्जिदों से संलग्न होते थे और एक अध्यापकीय होते थे। उस समय पर्दा प्रथा थी, इसके बावजूद, मकतबों में लड़के-लड़कियां एक साथ पढ़ते थे।
मकतबों में बच्चों का प्रवेश 4 वर्ष 4 माह और 4 दिन की आयु पर किया जाता था। प्रवेश के समय सभी बच्चों की विस्मिल्लाह खानी की रस्म होती थी। बच्चे को नए वस्त्र पहनाकर शिक्षक (उस्ताद, मौलवी) के सामने उपस्थित किया जाता था। शिक्षक बच्चे से कुरान शरीफ की कुछ आयतें दोहरवाते थे और जो बच्चे क़ुरान शरीफ की आयतें दोहराने में असमर्थ होते थे उनसे विस्मिल्लाह शब्द का उच्चारण करवाते थे। बिस्मिल्लाह का अर्थ है- अल्लाह के नाम पर और इसके बाद बच्चे को मकतब में प्रवेश दिया जाता था। मकतबों में सभी बच्चों को अनिवार्य रूप से कुरान शरीफ की आयतें रटाई जाती थीं, इस्लाम धर्म की शिक्षा दी जाती थी, अरबों और फारसी पढ़ाई जाती थी और गणित को शिक्षा दी जाती थी।
मदरसा- मदरसा शब्द अरबी भाषा के 'दरस' शब्द से बना है जिसका अर्थ है- भाषण देना और चूंकि उस समय उच्च शिक्षा प्रायः भाषण द्वारा दी जाती थी इसलिए उन स्थानों को जहाँ भाषण द्वारा शिक्षा दी जाती थी मदरसा कहा गया। मध्यकाल में ये मदरसे प्रायः राजधानियों और मुस्लिम बाहुल्य बड़े-बड़े नगरों में स्थापित किए गए थे। इन मदरसों के भवन, पुस्तकालय और छात्रावासों आदि के निर्माण में उस समय के मुसलमान शासकों का बड़ा योगदान रहा। ये मदरसे बहुअध्यापकीय थे। इनके अध्यापकों को उच्च वेतन दिया जाता था। वेतन आदि की व्यवस्था के लिए भी राजकोष से आर्थिक सहायता दी जाती थी।
इब्नबतूता के लेखों से पता चलता है कि अधिकतर मदरसों में बड़े-बड़े पुस्तकालय थे। इन पुस्तकालयों 'के बड़े-बड़े भवन थे और इनमें अरबी एवं फारसी भाषा और इस्लाम धर्म के सभी मुख्य ग्रंथों की कई-कई प्रतियाँ थीं। साथ ही अध्यापक निवास और छात्रावास भी थे। ये भी बहुत उच्च श्रेणी के थे और इनमें हर प्रकार की सुविधा थी। मनोरंजन के लिए पार्क, तालाब और खेल के मैदानों की व्यवस्था थी। छात्रावासों में छात्रों को खाने में चपाती, पुलाव और मुर्गा दिया जाता था और सोने के लिए कालीन दिए जाते थे।।
यूँ मध्यकाल में मदरसों की सम्पूर्ण व्यवस्था (भवन, पुस्तकालय और छात्रावास निर्माण, शिक्षकों एवं अन्य कर्मचारियों का वेतन भुगतान और छात्रावासों में रहने वाले छात्रों की भोजन व्यवस्था) आदि के लिए राज्य से आर्थिक सहायता मिलती थी परन्तु इनका प्रबन्ध पूर्ण रूप से अध्यापकों के हाथ में था। प्रत्येक मदरसे में अध्यापकों की एक प्रबन्ध समिति का गठन किया जाता था जो निर्माण कार्य, नियुक्ति कार्य और प्रवेश कार्य का सम्पादन करती थी, छात्रावासों की व्यवस्था करती थी. छात्रावासों के छात्रों के भोजन आदि की व्यवस्था करती थी। बड़े-बड़े मदरसों में भिन्न-भिन्न कार्यों की देखभाल के लिए भिन्न-भिन्न उपसमितियों का गठन किया। जाता था।
मध्यकालीन मदरसों में आज जैसी परीक्षाएँ नहीं होती थीं। शिक्षा पूरी करने पर शिक्षकों की संस्तुति पर ही किसी छात्र को सफल घोषित किया जाता था। इन मदरसों में इस्लाम धर्म में विशेष योग्यता प्राप्त करने वालों को आमिल, अरबी व फारसी साहित्य में विशेष योग्यता प्राप्त करने वालों को काबिल और तर्क तथा दर्शनशास्त्र में विशेष योग्यता प्राप्त करने वालों को फाजिल को उपधियां दी जाती थी। उस काल में काबिल उपाधि प्राप्त व्यक्तियों को ही शासन में उच्च पदों पर नियुक्त किया जाता था।
खानकाहे- ये प्राथमिक शिक्षा के केन्द्र थे इनमें केवल मुसलमान बच्चे ही प्रवेश ले सकते थे। इनका व्यय दान से प्राप्त धनराशि से चलाया जाता था।
दरगाहें- ये भी प्राथमिक शिक्षा के केन्द्र थे। इनमें भी केवल मुसलमान बच्चों को प्रवेश दिया जाता था।
कुरान स्कूल- ये धार्मिक शिक्षा केन्द्र थे। इन स्कूलों में केवल कुरान शरीफ की पढ़ाई ही की जाती थी।
फारसी स्कूल- ये उच्च शिक्षा के ऐसे केन्द्र थे जिनमें मुख्य रूप से फारसी भाषा और मुस्लिम संस्कृति को शिक्षा दी जाती थी और हिन्दू और मुसलमानों दोनों को शासन कार्य के लिए तैयार किया जाता था।
फारसी- कुरान स्कूल- ये धार्मिक शिक्षा केन्द्र थे। इन स्कूलों में फारसी भाषा और कुरान शरीफ की शिक्षा दी जाती थी।
अरबी स्कूल- ये ऐसे उच्च शिक्षा केन्द्र थे जिनमें केवल अरबी भाषा और उसके साहित्य की शिक्षा दी जाती थी।
शिक्षा के अन्य विशेष पक्ष
मुस्लिम काल में जन शिक्षा, स्त्री शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा और धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा का रूप आज से कुछ भिन्न था अतः यहाँ इन पर भी थोड़ा प्रकाश डालना आवश्यक है।
जन शिक्षा- मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में जन शिक्षा की बात ही नहीं सोची गई। मुसलमान बादशाहों का मुख्य उद्देश्य भारत में अपना शासन कायम रखना था और इस्लाम धर्म एवं संस्कृति का प्रचार करना था। यहाँ के जन उत्थान की बात उनके मस्तिष्क में कभी नहीं रही। उन्होंने इस देश में जिस शिक्षा प्रणाली का विकास किया वह इस्लाम धर्म और संस्कृति प्रधान थी। परिणामतः बहुत कम हिन्दू उसकी और आकृष्ट हुए। दूसरी ओर हिन्दुओं के लिए जो ब्राह्मणीय शिक्षा दबे पाँव चल रही थी उसे जन-जन तक पहुँचाना सम्भव नहीं था। परिणाम यह था कि उस समय हमारे देश में केवल 6% लोग ही साक्षर थे।
स्त्री शिक्षा- मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में प्राथमिक शिक्षा केन्द्र मकतबों में तो लड़के-लड़कियों दोनों को प्रवेश दिया जाता था परन्तु उच्च शिक्षा के मदरसों में केवल लड़कों को ही प्रवेश दिया जाता था। हाँ, शहजादियों की शिक्षा का प्रबन्ध व्यक्तिगत रूप से महलों में और शासन में उच्च पदों पर कार्यरत व्यक्तियों और धनी वर्ग के लोगों की बच्चियों की शिक्षा का प्रबन्ध व्यक्तिगत रूप से उनके अपने-अपने घरों में अवश्य होता था।
मालवा के शासक गयासुद्दीन ने सारंगपुर में एक मदरसा केवल लड़कियों की शिक्षा के लिए अवश्य स्थापित किया था परन्तु पहली बात तो यह है कि उस समय पर्दा प्रथा होने के कारण लोग अपनी बच्चियों को घर से बाहर नहीं भेजते थे और दूसरी बड़ी बात यह है कि इस मदरसे में बच्चियों का पूरा व्यय अभिभावकों को उठाना होता था इसलिए कुछ धनी लोग हो इसका लाभ उठा सके। फिर इतने बड़े देश में एक महिला मदरसे से होना भी क्या था। यूँ इस काल में अनेक विदुषी महिलाएं हुई जिनमें बाबर की बेटी गुलबदन लेखिका के रूप में प्रसिद्ध हुई।
हूमायूँ की भतीजी सलीमा सुल्तान कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हुई, नूरजहाँ, मुमताज और जहाँआरा आदि अरबों एवं फारसी की विद्वान के रूप में प्रसिद्ध हुई रजिया बेगम और चांदबीबी कुशल शामक के रूप में प्रसिद्ध हुई और औरंगजेब की पुत्री जेबुन्निसा अरबी और फारसी की अच्छी कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हुई परन्तु ये सब राजघरानों से सम्बन्धित थीं, शहजादियाँ थीं। आम महिलाओं को उच्च शिक्षा के अवसर बिल्कुल भी प्राप्त नहीं थे। परिणामतः इस काल में स्त्री शिक्षा और अधिक पिछड़ गई, हमारे देश की इस आधी मानव शक्ति का बिल्कुल भी विकास नहीं हुआ।
कला-कौशल एवं व्यावसायिक शिक्षा- प्रथमतः तो उस समय हमारे देश में ही कला-कौशलों और व्यवसायों के क्षेत्र में बड़ा विकास हो चुका था, द्वितीय ये मुसलमान अपने साथ अपने कला कौशल लाए थे और तीसरे उस काल के मुसलमान बादशाह बड़े कला प्रेमी थे इसलिए उन्होंने जो भी मदरसे स्थापित किए उनमें से अधिकतर में अरबी-फारसी भाषा और साहित्य तथा इस्लाम धर्म एवं संस्कृति की शिक्षा के साथ विभिन्न कला-कौशलों और व्यवसायों की शिक्षा का उत्तम प्रबन्ध किया।
मदरसों के साथ-साथ कुछ कला, कौशल और व्यवसायों की शिक्षा कुशल कारीगरों के घरों और कारखानों में भी दी जाती थी। इस काल में संगीत, नृत्य और चित्रकला, मलमल निर्माण और काशीदारी कौशल और भवन निर्माण कला के क्षेत्र में बहुत विकास हुआ। आगरे का ताजमहल और दिल्ली को कुतुबमीनार इस तथ्य के जीवित प्रमाण हैं।
उस काल में इस देश में आयुर्वेद विज्ञान शिक्षा की व्यवस्था पहले से ही चली आ रही थी। मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में कुछ मदरसों में यूनानी चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा की व्यवस्था की गई। आगरे और रामपुर के मदरसे यूनानी चिकित्सा विज्ञान के मुख्य केन्द्र थे।
यह मध्यकाल युद्धों का युग था अतः सैनिक शिक्षा के लिए विशेष मदरसों का निर्माण किया गया। इनमें सामान्य व्यक्तियों को घुड़सवारी और भाला व तलवार चलाना सिखाया जाता था और शहजादों को इसके साथ-साथ किलाबन्दी और सैन्य संचालन की शिक्षा दी जाती थी और कुछ सैनिकों को अस्त्र-शस्त्र निर्माण की शिक्षा दी जाती थी। मुगलकाल में बन्दूक चलाने और तोपों से गोले दागने का प्रशिक्षण भी दिया जाने लगा था।
धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा- मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में धर्म के नाम पर इस्लाम धर्म को शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाती थी और नैतिकता के नाम पर शरिअत (इस्लामिक नियम और कानून) की शिक्षा दी जाती थी। यह धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा का संकुचित रूप था।
मध्यकालीन मुख्य शिक्षा केन्द्र
मध्यकाल में मुसलमानों ने भारत में जगह-जगह मस्जिदों का निर्माण कराया और लगभग सभी मस्जिदों के साथ मकतब स्थापित किए और इन मकतबों में प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था की। इस कार्य में उस काल के मुसलमान बादशाहों ने बड़ा सहयोग दिया। साथ ही इन बादशाहों ने अपने राज्यों के बड़े-बड़े नगरों में उच्च शिक्षा हेतु मदरसों का निर्माण कराया और इनके संचालन के लिए आर्थिक सहायता दी। यहाँ एक तथ्य और उल्लेखनीय है और वह यह कि इस काल में भारत में बौद्ध शिक्षा केन्द्र तो समाप्त प्रायः हो गए थे, परन्तु वैदिक शिक्षा केन्द्र निरन्तर चलते रहे। यहाँ मध्यकालीन मुख्य शिक्षा केन्द्रों का वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत है।
मध्यकालीन मुख्य मुस्लिम शिक्षा केन्द्र
मध्यकाल में मुस्लिम बादशाहों ने अपने राज्यों के मुख्य नगरों में बड़े-बड़े मदरसे और पुस्तकालयों का निर्माण कराया और इन्हें उच्च शिक्षा केन्द्रों के रूप में विकसित किया। यहां मध्यकालीन कुछ मुख्य मुस्लिम शिक्षा केन्द्रों का वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत है-
1. दिल्ली- दिल्ली का सबसे पहला मुसलमान बादशाह था कुतुबुद्दीन ऐबक उसने गद्दी पर बैठते ही दिल्ली में कई मस्जिदें बनवाई और इन्हें इस्लामी शिक्षा केन्द्रों के रूप में विकसित किया। कुतुबुद्दीन ऐबक के बाद इल्तुतमिश ऐबक गद्दी पर बैठा। उसने दिल्ले में मदरसा-ए-मुअज्जी को स्थापना की। 1290 में दिल्ली में खिलजी वंश का शासन शुरु हुआ।
खिलजी वंश के प्रथम बादशाह जलालुदीन खिलजी ने दिल्ली में एक शाही पुस्तकालय की स्थापना की। खिलजी वंश के एक अन्य बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने दिल्लों के मदरसों में इस्लाम धर्म और कानून के उच्च कोटि के विद्वानों को नियुक्त कराया। उसके कार्यकाल में दिल्ली इस्लाम धर्म और कानून की शिक्षा के उच्च केन्द्र के रूप में विकसित हुआ।
इसके बाद मुगल वंश के द्वितीय बादशाह हुमायूँ ने 16वीं शताब्दी में दिल्ली में भूगोल और ज्योतिष की शिक्षा के लिए एक अन्य मदरसे का निर्माण कराया। साथ ही उसने एक बड़े पुस्तकालय का निर्माण भी कराया। मुगल वंश के पंचम बादशाह शाहजहाँ ने भी दिल्ली की जामा मस्जिद के निकट एक बड़े मदरसे की स्थापना की जिसमें संगीत और काव्य को उच्च शिक्षा की उत्तम व्यवस्था थी। दिल्ली उस काल में इस्लामी शिक्षा का विश्वविख्यात केन्द्र था। आज भी दिल्ली मुस्लिम शिक्षा का एक बड़ा केन्द्र है।
2. फिरोजाबाद- खिलजी वंश के बाद भारत में 1320 में तुगलक वंश का राज्य स्थापित हुआ। तुगलक बादशाहों ने अपने शासन काल में अनेक मकतब और मदरसों का निर्माण कराया। फिरोज तुगलक ने अपने शासन काल में 300 मदरसे स्थापित किए थे। इन मदरसों में फिरोजाबाद का फिरोजशाही मदरसा उस समय का एक बड़ा विश्वविद्यालय था। आज भी फिरोजाबाद मुस्लिम शिक्षा का एक बड़ा केन्द्र है।
3. बदायूँ- तुगलक वंश के पतन के बाद 1441 में भारत में सैयद वंश का राज्य स्थापित हुआ। इस वंश के अन्तिम बादशाह सैयद अलाउद्दीन ने बदायूँ में अनेक मकतब और मदरसों का निर्माण कराया और इसे दिल्ली की तरह मुस्लिम शिक्षा के मुख्य केन्द्र के रूप में विकसित किया। आज भी बदायूँ मुस्लिम शिक्षा का एक बड़ा केन्द्र है।
4. आगरा एवं फतेहपुर सीकरी- 1451 में भारत में लोदी वंश का शासन स्थापित हुआ। लोदी वंश के द्वितीय बादशाह सिकन्दर लोदी ने दिल्ली के स्थान पर आगरा को अपनी राजधानी बनाया। उसने अपने शासनकाल में यहाँ कई बड़े-बड़े मदरसों का निर्माण कराया और इनमें योग्य शिक्षकों की नियुक्ति की। 1526 में भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना हुई। मुगल साम्राज्य के तृतीय बादशाह अकबर ने भी आगरा और फतेहपुर सीकरी में बड़े-बड़े मकतब और मदरसे स्थापित किए।
उसने इन मदरसों के पाठ्यक्रमों में तर्कशास्त्र, गणित, भूमिति, रेखागणित, नक्षत्र विद्या, लेखाशास्त्र, सार्वजनिक प्रशासन और कृषि शिक्षा को सम्मिलित किया। एक मदरसे में केवल यूनानी चिकित्साशास्त्र की शिक्षा की व्यवस्था की गई। आगरा उस समय चिकित्सा विज्ञान को शिक्षा का मुख्य केन्द्र था। अकबर एक उदारवादी बादशाह था। उसने कुछ मदरसों में संस्कृत भाषा और वैदिक धर्म-दर्शन को शिक्षा की भी व्यवस्था की। उसके कार्यकाल में आगरा उच्च शिक्षा के उच्च शिक्षा केन्द्र के रूप में विकसित हुआ। आज भी आगरा मुस्लिम शिक्षा का एक बड़ा केन्द्र है।
5. जौनपुर- 15वीं शताब्दी में इब्राहिम शर्की ने यहाँ कई बड़े-बड़े मदरसों की स्थापना की और उनके साथ जागीरें लगाकर उन्हें राजकीय संरक्षण प्रदान किया। यहाँ के मदरसे अरबी, फारसी, इतिहास, दर्शन राजनीतिशास्त्र, हस्तकला और सैनिक शिक्षा के लिए प्रसिद्ध थे। शेरशाह सूरी की शिक्षा जौनपुर के ही मदरसे में हुई थी। मुगल साम्राज्य के पाँचवें बादशाह शाहजहाँ ने जौनपुर को शिराजे-ए-हिन्द कहकर इसका गौरव बढ़ाया था। आज भी जौनपुर मुस्लिम शिक्षा का एक बड़ा केन्द्र है।
6. बीदर- बीदर दक्षिण भारत में बहमनी राज्य का प्रमुख नगर था। महमूद गावा ने यहाँ कई बड़े-बड़े - मदरसों की स्थापना की थी। उसने यहाँ एक विशाल पुस्तकालय का निर्माण भी कराया था जिसमें इस्लाम धर्म और संस्कृति, ज्योतिष, इतिहास, कृषि और यूनानी चिकित्साशास्त्र की 30 हजार पुस्तकें थीं। परन्तु बहमनी वंश के प्रभाव के साथ-साथ इस शिक्षा केन्द्र का वैभव भी समाप्त हो गया।
7. मालवा- मालवा राज्य के संस्थापक महमूद ने इसे मुस्लिम शिक्षा के उच्च केन्द्र के रूप में विकसित किया। मालवा में स्त्री शिक्षा के लिए एक अलग मदरसा था। यहाँ के मदरसे कला और संगीत की उच्च शिक्षा के लिए प्रसिद्ध थे। परन्तु राज्य संरक्षण समाप्त होते ही यहाँ के मदरसों की स्थिति बिगड़ गई।
मध्यकालीन मुख्य हिन्दू शिक्षा केन्द्र
जैसा कि हमने प्रारम्भ में ही कहा इस काल में बौद्ध शिक्षा केन्द्र तो समाप्त प्रायः हो गए थे परन्तु वैदिक शिक्षा केन्द्र निरन्तर चलते रहे। इस काल में वैदिक शिक्षा के मुख्य केन्द्र धार्मिक स्थान थे, प्रयाग, काशी, अयोध्या, उज्जैनी, नासिक और कर्नाटक आदि। और चौकाने वाला तथ्य यह है कि इस काल में मुस्लिम शिक्षा के प्रतिद्वन्दी के रूप में स्थान-स्थान पर संस्कृत एवं वैदिक पाठशालाएँ और देशी पाठशालाएँ स्थापित हुईं। तो ये वैदिक शिक्षा प्रणाली पर ही आधारित थीं परन्तु इनका स्वरूप वैदिक कालीन शिक्षा संस्थाओं से बहुत भिन्न था, इसलिए विद्वान इन्हें वैदिक शिक्षा संस्थाएँ न कहकर हिन्दू शिक्षा संस्थाएँ कहते हैं।
हिन्दू शिक्षा प्रणाली और मुस्लिम शिक्षा प्रणाली का तुलनात्मक अध्ययन
प्राचीन काल में भारत में दो शिक्षा प्रणालियों का विकास हुआ, प्रारम्भ में वैदिक शिक्षा प्रणाली का और उसके बाद बौद्ध शिक्षा प्रणाली का इन दोनों प्रणालियों को हिन्दू शिक्षा प्रणाली कहते हैं। हिन्दू शिक्षा प्रणाली इसलिए कि इन दोनों शिक्षा प्रणालियों का विकास भारत की अपनी पृष्ठभूमि, अपनी सभ्यता और अपनी संस्कृति के आधार पर हुआ था। यही कारण है कि इन दोनों में आधारभूत समानता थी।
परन्तु मध्यकाल में जिस मुस्लिम शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ उसकी पृष्ठभूमि विदेशी थी, वह इस्लाम धर्म और मुस्लिम संस्कृति पर आधारित थी, इसलिए यह प्राचीन कालीन हिन्दू शिक्षा प्रणाली से बहुत भिन्न थी। यहाँ प्राचीन कालीन हिन्दू शिक्षा प्रणाली और मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणालियों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत है, उनकी समानताएँ एवं असमानताएँ प्रस्तुत हैं।
हिन्दू शिक्षा प्रणाली और मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में समानताएँ
हिन्दू शिक्षा प्रणाली और मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में निम्नलिखित समानताएँ हैं-
- दोनों शिक्षा प्रणालियों में शिक्षा राज्य के प्रत्यक्ष नियन्त्रण से मुक्त थी।
- दोनों शिक्षा प्रणालियों में शिक्षा केवल दो स्तरों में विभाजित थी- प्रारम्भिक और उच्च ।
- दोनों शिक्षा प्रणालियों में शिक्षा के धार्मिक एवं नैतिक विकास के उद्देश्य की प्राप्ति पर सबसे अधिक बल दिया जाता था।
- दोनों शिक्षा प्रणालियों में उच्च शिक्षा की पाठ्यचर्या अति विस्तृत थी और उसमें विशिष्टीकरण की व्यवस्था थी।
- दोनों शिक्षा प्रणालियों में मुख्यरूप से शिक्षण की मौखिक विधियों का प्रयोग किया जाता था और रटने पर बल दिया जाता था।
- दोनों शिक्षा प्रणालियों में शिक्षण हेतु नायक विधि का प्रयोग किया जाता था।
- दोनों शिक्षा प्रणालियों में शिक्षक शिक्षार्थियों को परिश्रम से पढ़ाते थे।
- दोनों शिक्षा प्रणालियों में शिष्य गुरुओं की आज्ञा का पालन करते थे।
- दोनों शिक्षा प्रणालियों में शिक्षक और शिक्षार्थियों के बीच अच्छे सम्बन्ध थे।
- दोनों शिक्षा प्रणालियों में उच्च शिक्षा केन्द्रों पर विशिष्टीकरण की व्यवस्था थी, भिन्न-भिन्न प्रकार के पाठ्यक्रमों के लिए भिन्न-भिन्न विशिष्ट संस्थाएँ थीं।
- दोनों शिक्षा प्रणालियों में जन शिक्षा के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया।
- दोनों शिक्षा प्रणालियों में स्त्री शिक्षा की व्यवस्था के लिए ठोस प्रयास नहीं किए गए।
- दोनों शिक्षा प्रणालियों में कला कौशल और व्यवसायों की शिक्षा की उत्तम व्यवस्था थी।
- दोनों शिक्षा प्रणालियों में चिकित्सा विज्ञान की उच्च शिक्षा की उत्तम अवस्था थी।
- दोनों शिक्षा प्रणालियों में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा का स्वरूप अति संकुचित था, वैदिक शिक्षा प्रणाली में केवल वैदिक धर्म को, बौद्ध शिक्षा प्रणाली में केवल बौद्ध धर्म की और मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में केवल इस्लाम धर्म की शिक्षा दी जाती थी।
हिन्दू शिक्षा प्रणाली और मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में असमानताएँ
हिन्दू शिक्षा प्रणाली और मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में निम्नलिखित असमानताएँ हैं-
- प्राचीन काल की अपेक्षा मध्यकाल में शासकों ने शिक्षा के क्षेत्र में अधिक आर्थिक सहयोग दिया परिणामतः उन्होंने उसके स्वरूप और अध्यापकों की नियुक्ति आदि के लिए नियम बनाए और इस प्रकार शिक्षा पर उनका परोक्ष रूप से नियन्त्रण शुरू हुआ।
- वैदिक काल में प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था घरों में और उच्च शिक्षा की व्यवस्था गुरुकुलों में होती थी, बौद्ध काल में दोनों प्रकार को शिक्षा की व्यवस्था बौद्ध मठों और विहारों में होती थी परन्तु मध्यकाल में प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था मकतबों और उच्च शिक्षा को व्यवस्था मदरसों में होती थी।
- वैदिक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य वैदिक धर्म और वैदिक संस्कृति का प्रचार था, बौद्ध शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बौद्ध धर्म और मानव संस्कृति का प्रचार था और मुस्लिम शिक्षा का मुख्य उद्देश्य इस्लाम धर्म और मुस्लिम संस्कृति का प्रचार था।
- वैदिक शिक्षा में संस्कृत भाषा और वैदिक साहित्य अनिवार्य विषय थे, बौद्ध शिक्षा में पाली भाषा और बौद्ध साहित्य अनिवार्य विषय थे और मुस्लिम शिक्षा में अरबी और फारसी भाषाएँ और इस्लाम साहित्य अनिवार्य विषय थे।
- प्राचीन काल में शिक्षण की तर्क विधि को अधिक महत्त्व दिया जाता था, मध्यकाल में भाषण विधि को।
- प्राचीन काल की अपेक्षा मध्यकाल में नायक विधि का अधिक प्रचलन था।
- वैदिक काल में शिक्षा का माध्यम शिष्ट भाषा संस्कृत थी, बौद्ध काल में लोकभाषा पाली थी और मध्यकाल में विदेशी भाषा अरबी और फारसी थीं।
- प्राचीन काल में अनुशासनहीनता करने पर छात्रों को प्रायश्चित भर करना होता था, व्रत आदि करना होता था, परन्तु मध्यकाल में छोटे-छोटे अपराधों पर छात्रों को कठोर शारीरिक दण्ड दिया जाता था।
- प्राचीन काल में शिक्षक-शिक्षार्थियों के बीच पिता-पुत्र तुल्य सम्बन्ध थे, मध्यकाल में उनके बीच शासक-शासित तुल्य सम्बन्ध थे।
- प्राचीन कालीन शिक्षण संस्थाएँ संस्कार प्रधान थीं मध्यकालीन शिक्षण संस्थाएँ वैभवपूर्ण थी।
- प्राचीन काल की अपेक्षा मध्यकाल में स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में अधिक ह्रास हुआ।
- वैदिक शिक्षा प्रणाली में सभी राजकुमारों और क्षत्रियों को सैनिक शिक्षा दी जाती थी, बौद्ध शिक्षा प्रणाली में कुछ ही केन्द्रों में सैनिक शिक्षा की व्यवस्था थी, मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में सैनिक शिक्षा की व्यवस्था अपेक्षाकृत अधिक उत्तम थी।
- प्राचीन शिक्षा प्रणाली में आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा दी जाती थी मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में यूनानी चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा दी जाती थी।
- प्राचीन काल की अपेक्षा मध्यकाल में कला-कौशलों की शिक्षा का बहुत अच्छा प्रबन्ध था।
- धार्मिक शिक्षा के नाम पर वैदिक शिक्षा प्रणाली में वैदिक धर्म, बौद्ध शिक्षा प्रणाली में बौद्ध और मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में इस्लाम धर्म की शिक्षा की व्यवस्था की गई थी और अनिवार्य रूप से की गई थी।
मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली का मूल्यांकन अथवा गुण-दोष विवेचन
किसी वस्तु, विचार अथवा क्रिया का मूल्यांकन अथवा गुण-दोष विवेचन किन्हीं आधारभूत मानदण्डों के आधार पर किया जाता है। शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है, कोई समाज इसकी व्यवस्था अपने उद्देश्य एवं लक्ष्यो की प्राप्ति के लिए करता है। साफ जाहिर है कि किसी समाज की शिक्षा उसकी तत्कालीन परिस्थितियों और उसकी भविष्य की आकांक्षाओं और सम्भावनाओं के अनुकूल होती है। अतः किसी शिक्षा प्रणाली का मूल्याकन इन्हीं आधारों पर किया जाना चाहिए।
हमारे देश भारत को वर्तमान स्थिति मध्यकालीन भारत को स्थिति से बहुत भिन्न है। तब हमारे देश पर विदेशियों का राज्य था, आज हमारे देश पर हमारा राज्य है; तब एकतन्त्र शासन प्रणाली थी, आज लोकतन शासन प्रणाली है, तब धर्म जीवन का आधार था, आज विज्ञान जीवन का आधार है और नब हम संकीर्णता से ग्रसित थे, आज हम अन्तर्राष्ट्रीयता के हामी हैं। साफ जाहिर है कि उस काल में विकसित शिक्षा प्रणाली आज की स्थिति में उपयोगी नहीं हो सकती। परन्तु ऐसा भी नहीं है कि उसके कुछ भी तत्त्व ग्रहणीय न हो, अतः यहाँ वर्तमान भारत के सन्दर्भ में मुस्लिम शिक्षा प्रणाली का मूल्यांकन अथवा गुण-दोष विवेचन प्रस्तुत है।
मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली के गुण
यदि हम मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली का मूल्यांकन अपने देश भारत की वर्तमान परिस्थितियों और इसकी भविष्य की आकांक्षाओं एवं सम्भावनाओं के आधार पर करें तो उसमें निम्नलिखित गुण पाएँगे। इन गुणों को हमें अपनी आज की शिक्षा प्रणाली में भी अपनाना चाहिए।
1. शिक्षा को राज्य का संरक्षण प्राप्त
लोकतन्त्रीय शासन में शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य का उत्तरदायित्व माना जाता है। भारत में इस कार्य की शुरुआत मध्यकालीन मुसलमान बादशाहों ने ही कर दी थी। उन्होंने इस देश में अनेक मकतबों, मदरसों और पुस्तकालयों का निर्माण कराया और उन्हें खुले हाथों से आर्थिक सहायता दी। उन्होंने उच्च कोटि के मदरसों के साथ बड़ी-बड़ी जागीरें भी लगा दी थीं। उन्होंने मदरसों में योग्य शिक्षकों की नियुक्ति में भी सहयोग दिया था। इस प्रकार मध्यकाल में शिक्षा को राज्य का संरक्षण प्राप्त हुआ। यह मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा की सबसे बड़ी विशेषता थी। आज तो हम शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य का उत्तरदायित्व मानते हैं, उसका अनिवार्य कार्य मानते हैं।
2. निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था
मध्यकाल में मुस्लिम शिक्षा प्रणाली के मकतब और मदरसों में किसी प्रकार का शुल्क नहीं लिया जाता था। इतना ही नहीं अपितु मदरसों के छात्रावासों में रहने वाले छात्रों को आवास एवं भोजन की निःशुल्क व्यवस्था थी। यह सब व्यय राज्य (शासक) और समाज (प्रजा, विशेषकर धनी वर्ग के लोग) दोनों मिलकर उठाते थे। उच्च कोटि के मदरसों के साथ तो बड़ी-बड़ी जागीरें लगी थीं। आज हम सम्पूर्ण शिक्षा को तो निःशुल्क नहीं कर सकते परन्तु एक विशेष स्तर की शिक्षा की व्यवस्था अनिवार्य एवं निःशुल्क करने के लिए प्रयत्नशील हैं।
3. छात्रवृत्तियों का शुभारम्भ
मध्यकाल में मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में इस्लाम साहित्य, धर्म, दर्शन और कला-कौशल के क्षेत्र में विशेष योग्यता रखने वाले छात्रों का विशेष सम्मान किया जाता था और उन्हें अपने ज्ञान एवं कला-कौशल में निरन्तर वृद्धि करने हेतु विशेष आर्थिक सहायता दी जाती थी। यह आधुनिक छात्रवृत्तियों की शुरुआत थी। आज भारत में छात्रवृत्तियों का मुख्य आधार जाति है परन्तु होना चाहिए योग्यता ।
4. प्राथमिक एवं उच्च शिक्षा की अलग-अलग व्यवस्था
वैदिक काल में प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था, परिवारों में और तच्च शिक्षा गुरुकुलों में होती थी बौद्ध काल में इन दोनों प्रकार की शिक्षा को व्यवस्था बौद्ध मठों एवं बिहारों में होती थी। मध्यकाल में मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में प्राथमिक शिक्षा का व्यवस्था मकतबों और उच्च शिक्षा की व्यवस्था मदरसों में की गई। यह भिन्न-भिन्न स्तर की शिक्षा के लिए भिन्न-भिन्न विद्यालयों की व्यवस्था की शुरुआत थी। रास्ता मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में बनाया गया, इस पर अब चल हम रहे है।
5. ज्ञान के विकास पर बल
मुहम्मद साहब ज्ञान को अमृत मानते थे। यही कारण है कि मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में इस्लाम धर्म एवं संस्कृति के विकास के साथ-साथ ज्ञान के विकास पर बल दिया गया। आज भारत में भौतिक ज्ञान के विकास और देश के आधुनिकीकरण पर विशेष बल दिया जा रहा है। यह मार्ग भी हमें मुस्लिम शिक्षा प्रणाली ने ही दिखाया था।
6. साहित्य रचना को प्रोत्साहन
मुसलमान बादशाहों ने अपने काल में साहित्य रचना की बहुत प्रोत्साहन दिया। उन्होंने साहित्यिक रचना को प्रवृत्ति वाले छात्रों को सम्मान दिया, उनकी आर्थिक सहायता की उन्हें प्रोत्साहित किया। आज हम बच्चों की सृजनात्मकता को उसके व्यापक रूप में लेते हैं, उन्हें किसी भी क्षेत्र में सृजनात्मक कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।
7. इतिहास लेखन की शिक्षा
मुसलमान बादशाह आत्मप्रशंसक थे। उन्होंने अपने पूर्वजों तथा अपने कार्यों का बढ़-चढ़कर वर्णन कराया और इस सबको स्कूली पाठ्यचर्या में सम्मिलित कराया। साथ ही उनहोंने मदरसों में इस कार्य को दक्षता के साथ करने की शिक्षा की व्यवस्था भी की और इस प्रकार भारत में काल क्रमानुसार इतिहास लेखन की शुरुआत हुई। यह इस काल की शिक्षा की एक नई विशेषता थी।
8. नायकीय पद्धति का विकास
मध्यकाल में मुस्लिम मदरसों में उच्च कक्षाओं के योग्य छात्र निम्न कक्षाओं के छात्रों को पढ़ाते थे, इसे नायकीय पद्धति कहते हैं। यूँ इस पद्धति की शुरुआत प्राचीन काल में ही हो गई थी परन्तु मध्यकाल में इस विधि में थोड़ा विकास किया गया, पहले वरिष्ठ छात्रों को इसका प्रशिक्षण दिया जाता था और फिर उन्हें यह कार्य सौंपा जाता था।
9. उच्च शिक्षा की उत्तम व्यवस्था
मध्यकाल में मुसलमान बादशाहों ने भिन्न-भिन्न प्रकार की उच्च शिक्षा के लिए भिन्न-भिन्न मदरसों का निर्माण कराया और उनमें उच्च कोटि के पुस्तकालयों और योग्य अध्यापकों की व्यवस्था कराई। इस प्रकार इस काल में उच्च शिक्षा की उत्तम व्यवस्था हुई। उस समय शासन के उच्च पदों पर उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों की ही नियुक्ति होती थी परिणामतः उच्च शिक्षा का विकास हुआ।
10. कला-कौशल एवं व्यवसायों की शिक्षा की उत्तम व्यवस्था
पहली बात तो यह है कि उस काल तक भारत में कला-कौशलों और व्यवसायों के क्षेत्र में काफी विकास हो चुका था और दूसरी बात यह है कि प्रायः सभी मुसलमान बादशाह कला प्रेमी हुए कौशल प्रेमी हुए और तरक्की पसन्द हुए। यही कारण है कि उन्होंने मदरसों में कला-कौशलों और व्यवसायों की शिक्षा की उत्तम व्यवस्था कराई। आज तो शिक्षा को व्यवसाय परख बनाने पर बल दिया जाता है।
मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली के दोष
यदि निष्पक्ष भाव से देखें तो मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में दोष भी कुछ कम नहीं थे। उसका आधार बहुत संकुचित था, वह बहुत पक्षपातपूर्ण थी।
उसकी इन कमियों अथवा दोषों को निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध किया जा सकता है-
1. आर्थिक सहायता में पक्षपात
यह बात सत्य है कि मध्यकाल में मुसलमान बादशाहों ने शिक्षा के विकास में विशेष रुचि ली और उन्होंने अनेक मकतब और मदरसों का निर्माण कराया। यह बात भी सत्य है। कि उन्होंने इन शिक्षण संस्थाओं को पूरी-पूरी आर्थिक सहायता दी। परन्तु दूसरी ओर यह बात भी सत्य है कि मुगल सम्राट अकबर को छोड़कर अन्य किसी भी मुसलमान बादशाह ने हिन्दू शिक्षा संस्थाओं को किसी प्रकार को आर्थिक सहायता नहीं दी। आज ऐसी पक्षपातपूर्ण नीति का समर्थन नहीं किया जा सकता।
2. तत्कालीन भारतीय शिक्षा पर प्रहार
मध्यकाल में मुगल सम्राट अकबर को छोड़कर अन्य सभी मुसलमान बादशाह कट्टरपंथी थे। उन्होंने केवल इस्लाम धर्म एवं संस्कृति प्रधान शिक्षा की व्यवस्था की। तत्कालीन ब्राह्मणीय शिक्षा संस्थाओं को सहयोग देना तो दूर उन्हें नष्ट करने का प्रयत्न किया। इस देश के मुसलमान बादशाह कुतुबुद्दीन ऐबक ने तो गद्दी पर बैठते ही अपने सेनापति बख्तियार खिलजी द्वारा यहाँ के विश्वविख्यात बौद्ध विश्वविद्यालय नालन्दा और विक्रमशिला को नष्ट करवा डाला था। मुसलमान बादशाहों उस काल की ब्राह्मणीय शिक्षा पर भी कड़े प्रहार किए, यह बात दूसरी है कि वे किसी प्रकार जीवित रहीं।
3. शिक्षा का मूल उद्देश्य इस्लाम धर्म और संस्कृति का प्रचार
मध्यकाल में लगभग सभी मुसलमान शासकों ने इस्लाम धर्म और संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार पर बहुत अधिक बल दिया। परिणामत: चाहे मकतब हों, चाहे मदरसे, सभी में इस्लाम धर्म और संस्कृति की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाती थी। यही मुस्लिम शिक्षा का मुख्य उद्देश्य था। यह बात बहु संख्यक हिन्दुओं की भावना के प्रतिकूल थी। आज तो इस प्रकार की संकीर्णता को सहन ही नहीं किया जा सकता।
4. भारतीय भाषाओं, साहित्य धर्म और दर्शन की अवहेलना
मध्यकाल में अकबर बादशाह से पहले इस देश में जितने भी मकतब और मदरसे स्थापित किए गए उनमें न भारतीय भाषाएँ पढ़ाई जाती थी और न भारतीय साहित्य पढ़ाया जाता था। तव भारतीय धर्म एवं दर्शन की शिक्षा तो बहुत दूर की बात है। उच्च स्तर पर सैन्य शिक्षा भी इस्लामी पद्धति को दी जाती थी और चिकित्सा शिक्षा भी यूनानी पद्धति की दी जाती थी। अकबर ने अपने समय में कुछ मदरसों में भारतीय भाषा, साहित्य, धर्म और दर्शन की शिक्षा को व्यवस्था अवश्य कराई थी परन्तु कट्टरपंथी औरंगजेब ने उसे पुनः समाप्त कर दिया था। यह इस शिक्षा प्रणाली का एक बड़ा दोष था।
5. शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषाएँ
मध्यकाल में मुसलमान शासकों और रहीसों के सहयोग से जितने भी मकतब और मदरसे स्थापित हुए उन सबमें शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषाएँ अरबी और फारसी थीं। अतः सभी बच्चों को प्रारम्भ से ही इन भाषाओं को सीखना होता था। भारतीय भाषा-भाषी हिन्दुओं के लिए यह अतिरिक्त बोझ था। वैसे भी तब अधिकतर हिन्दू इन भाषाओं को सीखना हेय समझते थे। परिणामतः इस देश के बहुसंख्यक इस शिक्षा का लाभ नहीं उठा पाए शासन में उच्च पद प्राप्त करने के इच्छुक कुछ हिन्दू ही इस शिक्षा को प्राप्त करते थे। यही कारण है कि तब शिक्षा को सर्वसुलभ नहीं बनाया जा सका।
6. रटने पर अधिक बल
मध्यकाल में मकतबों में प्रारम्भ से ही कुरान शरीफ की आयतें रटाई जाती थीं, गिनती और पहाड़े रटाए जाते थे और इस्लामी शिक्षाएँ और कानून रटाए जाते थे। बच्चों की आधे से अधिक शक्ति इन सबके रटने में ही व्यय होती थी। यह उस समय की मुस्लिम शिक्षा प्रणाली का बहुत बड़ा दोष था। आज रटने पर नहीं, समझने पर बल दिया जाता है।
7. दमनात्मक अनुशासन
मध्यकाल में शिक्षक अपने में तानाशाह होते थे। वे छात्रों को छोटे-छोटे अपराधों पर कठोर दण्ड देते थे। बच्चों को दिनभर खड़े रखना, मुर्गा बनाना, बैंतों से पीटना, कौड़े लगाना और कपड़ों से बांधकर लटका देना, उस समय को दण्ड व्यवस्था थी। छात्र शिक्षकों के भय से आतंकित रहते थे। सम्भवतः इसी भय से वे उनका आदर करते थे, उनके आदेशों का पालन करते थे। इसे आज के विद्वान दमनात्मक अनुशासन कहते हैं और इसे निकृष्ट कोटि का अनुशासन मानते हैं। मनोवैज्ञानिक तो दण्ड के भय से स्थापित व्यवस्था को अनुशासन ही नहीं मानते। उनकी दृष्टि से अनुशासन आन्तरिक होना चाहिए।
8. जन शिक्षा की अवहेलना
मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा एकदम विदेशी पौधा था, इसके उद्देश्य विदेशी थे, इसकी पाठ्यचर्या विदेशी थी, इसका माध्यम विदेशी भाषाएँ थीं। यही कारण है कि भारत के बहुसंख्यक हिन्दू इस शिक्षा का लाभ नहीं उठा सके, केवल शासन के उच्च पदों के इच्छुक हिन्दू ही इस शिक्षा को प्राप्त करते थे। वैसे भी यहाँ को आम जनता को शिक्षा की बात उस काल के किसी बादशाह ने नहीं सोची इस प्रकार इस शिक्षा प्रणाली में जन शिक्षा को पूरे तौर से अवहेलना की गई।
9. स्त्री शिक्षा की अवहेलना
मध्यकाल में बच्चियों को मकतबों में तो प्रवेश दिया जाता था परन्तु मदरसों में नहीं। मकतबों में भी बहुत कम लोग अपनी बच्चियों को भेजते थे। हिन्दुओं के लिए यह शिक्षा अनुकूल नहीं थी और मुसलमानों में पर्दा प्रथा थी। हाँ, शासक और उच्च वर्ग के कुछ लोग अपनी बच्चियों को शिक्षा की व्यवस्था व्यक्तिगत रूप से अपने घरों में अवश्य करा लेते थे। इस प्रकार इस काल में स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में बड़ा ह्रास हुआ।
10. धार्मिक और नैतिक शिक्षा का संकुचित रूप
मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में धार्मिक और नैतिक शिक्षा के नाम पर केवल इस्लाम धर्म की शिक्षा दी जाती थी और इस्लामिक कानून की शिक्षा दी जाती थी और यह शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाती थी। आज की दृष्टि से यह बहुत ही संकुचित दृष्टिकोण था ।
आधुनिक भारतीय शिक्षा पर प्रभाव
मुस्लिम शिक्षा का आधुनिक भारतीय शिक्षा पर प्रभाव प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में पड़ा है। प्रत्यक्ष रूप में आज भी देश भर में इस्लाम धर्म के शिक्षा केन्द्र चल रहे हैं, मकतब और मदरसे चल रहे हैं, अरबी, फारसी और कुरान स्कूल चल रहे हैं और इनका स्वरूप वही है जो मुस्लिम काल में था। अप्रत्यक्ष रूप में हमने अपनी भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली में उसके गुणों को अपनाया है; जैसे- व्यावसायिक शिक्षा पर विशेष बल आदि और उसके दोषों को त्यागा है; जैसे- किसी धर्म विशेष की शिक्षा की अनिवार्यता आदि ।
निष्कर्ष-
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली भारत के लिए एक विदेशी पौधा थी। यूँ उसमें कुछ बातें ऐसी थी जो किसी भी शिक्षा प्रणाली में होनी चाहिए, आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली में भी; जैसे- शिक्षा की व्यवस्था में राज्य और समाज का सहयोग, निःशुल्क शिक्षा को व्यवस्था, योग्य एवं निर्धन छात्रों के लिए छात्रवृत्तियों की व्यवस्था और समस्त ज्ञान-विज्ञान को उच्च शिक्षा की उत्तम व्यवस्था ।
परन्तु साथ ही उसमें कुछ दोष ऐसे थे जो आज कम से कम लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली वाले देशों को शिक्षा में नहीं होने चाहिए; जैसे- शिक्षा संस्थाओं की आर्थिक सहायता में पक्षपात, संकीर्ण उद्देश्य, एवं संकीर्ण पाठ्यचर्या, शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा, कठोर दण्ड व्यवस्था और जन शिक्षा की अवहेलना। हमें अच्छे का ग्राहक होना चाहिए।
मुस्लिम शिक्षा प्रणाली का आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली के विकास में योगदान
वर्तमान की नींव अतीत में होती है। हमारे देश में सर्वप्रथम वैदिक शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ। यह हमारी आधुनिक शिक्षा प्रणाली की नींव है। इसके बाद बौद्ध शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ। इसका मूल स्वरूप तो वैदिक शिक्षा प्रणाली का सा ही था परन्तु समय की माँग के अनुसार उसमें कुछ मूल परिवर्तन भी हो गए थे। मध्य काल में इस देश में विदेशी मुसलमानों का शासन रहा, इनके शासन काल में एक नई शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ जिसे मुस्लिम शिक्षा प्रणाली कहते हैं।
मुस्लिम शिक्षा प्रणाली इसलिए कि यह मुस्लिम धर्म और संस्कृति पर आधारित थी। यह प्रणाली भारत में एक विदेशी पौधा थी। 1700 ई० के बाद भारत में अंग्रेजों का शासन शुरु हुआ। अंग्रेजों के शासन काल में इस देश में एक नई शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ जिसे अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली कहते हैं। यह शिक्षा प्रणाली भी भारत में एक विदेशी पौधा थी, परन्तु यह उतनी संकीर्ण नहीं थी जितनी मुस्लिम शिक्षा प्रणाली थी। फिर यह आधुनिक युग की माँग के अनुसार थी। यही कारण है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद हमने जिस आधुनिक शिक्षा प्रणाली का विकास किया वह मुख्य रूप से अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के आधार पर किया है।
परन्तु इसके बहुत से तत्त्वों की नींव तो वैदिक और बौद्ध शिक्षा प्रणालियों में ही रख दी गई थी और इसके कुछ तत्त्वों की शुरुआत मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में हो गई थी। हमारी आधुनिक शिक्षा प्रणाली के विकास में मुस्लिम शिक्षा प्रणाली का भी अपना कुछ योगदान है। आज देश भर में जो मकतब और मदरसे दिखाई दे रहे हैं, वे इसी शिक्षा प्रणाली के अवशेष हैं।
आज जो देश में इस्लाम धर्म की शिक्षा के केन्द्र दिखाई दे रहे हैं, ये भी इसी शिक्षा प्रणाली की देन हैं। देवबन्द का दारूलेउलम तो इस्लाम धर्म की शिक्षा का विश्वविख्यात केन्द्र है, देश-विदेश के इस्लाम धर्मावलम्बी इसमें शिक्षा प्राप्त करते हैं। अरबी, फारसी और उर्दू की शिक्षा की व्यवस्था की निरन्तरता इसी प्रणाली का फलता-फूलता फल है। परोक्ष रूप में भी इस शिक्षा प्रणाली का अपना कुछ योगदान है। उस योगदान को हम निम्नलिखित रूप में देख-समझ सकते हैं।
नियमित आर्थिक सहायता की शुरुआत
हमारे देश में शिक्षण संस्थाओं को नियमित रूप से आर्थिक सहायता देने की शुरुआत मध्यकाल में मुसलमान बादशाहों ने को यह बात दूसरी है कि वे यह सहायता केवल मुस्लिम शिक्षा संस्थाओं को ही देते थे यूँ सामान्यतः यह माना जाता कि हमारे देश में शिक्षा के क्षेत्र में अनुदान प्रणाली की शुरुआत अंग्रेजी काल में बुड के घोषणा पत्र (1854) के बाद हुई थी, परन्तु वास्तविकता यह है कि इसकी शुरुआत मुस्लिम काल के बादशाहों ने ही कर दी थी।
निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था एवं छात्रवृत्तियों की शुरुआत
मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में प्राथमिक एवं उच्च दोनों स्तरों की शिक्षा निःशुल्क थी। इतना ही नहीं अपितु मदरसों के छात्रावासों में रहने वाले छात्रों को आवास और भोजन की सुविधा भी निःशुल्क थी। योग्य बच्चों को आर्थिक सहायता (छात्रवृत्तियों) की शुरुआत भी इस युग में हो गई थी। यूँ आइ की परिस्थितियों में शिक्षा को पूर्ण रूप से निःशुल्क करना तो सम्भव नहीं परन्तु एक निश्चित स्तर तक की शिक्षा को तो निःशुल्क कर ही दिया है। पिछड़े और मेधावी तथा निर्धन छात्रों को छात्रवृत्तियां भी दी जाती हैं। यह आधुनिक शिक्षा प्रणाली की मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा की ही देन मानना चाहिए।
शिक्षा की व्यवस्था में राज्य के हस्तक्षेप की शुरुआत
वैदिक काल में शिक्षा गुरुओं के व्यक्तिगत नियन्त्रण में थी और बौद्ध काल में बौद्ध संघों के केन्द्रीय नियन्त्रण थी, परन्तु मध्यकाल में मुसलमान शासकों ने मकतब और मदरसों को आर्थिक सहायता देने के साथ उनकी व्यवस्था में हस्तक्षेप करना शुरु किया। उनके पाठ्यक्रम निर्माण, उनमें बच्चों के प्रवेश और उनमें शिक्षकों की नियुक्ति करने में हस्तक्षेप शुरु किया। इसे हम शिक्षा पर राज्य के नियन्त्रण की शुरुआत कह सकते हैं। यह मध्यकालीन शिक्षा प्रणाली का आधुनिक शिक्षा प्रणाली के विकास में योगदान ही माना जाएगा।
शिक्षा का विभिन्न स्तरों और वर्गों में विभाजन
यूँ तो मध्यकाल में भी शिक्षा को केवल दो ही स्तरों में विभाजित किया गया था- प्राथमिक और उच्च लेकिन इस काल में इन दोनों स्तरों की शिक्षा को भिन्न-भिन्न वर्गों में विभाजित कर शिक्षा के किसी स्तर पर विभिन्न वर्गों के निर्माण को शुरुआत कर दी गई थी।
मनुष्य के भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों पक्षों का विकास
यूँ अधिकतर विद्वान वैदिक, बौद्ध और मुस्लिम, तीनों शिक्षा प्रणालियों को धर्मप्रधान मानते हैं और किसी हद तक यह बात सही भी है क्योंकि तीनों प्रणालियों में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा पर सबसे अधिक बल दिया गया था। परन्तु दूसरी तरफ यह बात भी सही है कि मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में गुरु और शिष्य दोनों सादे जीवन के स्थान पर ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीते थे, ऐश्वर्य भोग इस शिक्षा प्रणाली का एक मुख्य उद्देश्य था। आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली में प्रत्यक्ष रूप से तो मनुष्य के भौतिक विकास पर ही बल है, पर परोक्ष रूप से आध्यात्मिक विकास की मांग बलवती है।
उच्च शिक्षा में विशिष्टीकरण और उपाधि प्रदान करने की शुरुआत
यूँ तो वैदिक और बौद्ध शिक्षा प्रणालियों में भी उच्च शिक्षा में विशिष्टीकरण की व्यवस्था थी, परन्तु किसी एक ही विषय, कला, कौशल अथवा व्यवसाय में विशिष्टीकरण की शुरुआत मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में ही की गई। इसी के साथ भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में विशिष्ट योग्यता प्राप्त करने वाले छात्रों को भिन्न-भिन्न उपाधियाँ देने की शुरुआत भी की गई। इस्लाम धर्म में विशेष योग्यता प्राप्त करने वालों को आमिल, अरबी अथवा फारसी साहित्य में विशेष योग्यता प्राप्त करने वालों को काबिल और तर्क तथा दर्शन में विशेष योग्यता प्राप्त करने वालों को फाजिल की उपाधियाँ दी जाती थीं। आज भी आधुनिक शिक्षा प्रणाली में उसी क्रम में अनेक प्रकार की उपाधियाँ दी जाती हैं।
भिन्न-भिन्न प्रकार की उच्च शिक्षा के लिए भिन्न-भिन्न मदरसों का निर्माण
मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में भिन्न-भित्र प्रकार की उच्च शिक्षा के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के मदरसों का निर्माण कराया गया था। बस तभी से हमारे देश में उच्च शिक्षा स्तर पर विशिष्ट महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों का निर्माण होने लगा। यह मुस्लिम शिक्षा प्रणाली की आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली को एक बड़ी देन है।
कला-कौशल एवं व्यवसायों की शिक्षा की विशेष व्यवस्था
मुसलमान बादशाह कला प्रेमी थे और वैभव भोगी थे। यही कारण है कि उन्होंने अपने शासन काल में कला-कौशलों और व्यवसायों की शिक्षा की उत्तम व्यवस्था की थी। आज तो शिक्षा को रोजगार पर बनाने पर बल है। क्या इसे आप आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली को मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली की देन नहीं मानेंगे।
कटु अनुभवों से सीख
हमने तो मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली की कमियों से भी कुछ सीखा है और उसे आधुनिक शिक्षा प्रणाली के विकास में उसका परोक्ष योगदान मानते हैं। मुस्लिम शिक्षा प्रणाली का मूल उद्देश्य था, इस्लाम धर्म और संस्कृति का प्रचार और इसकी पाठ्यचर्या का मुख्य एवं अनिवार्य विषय था, इस्लाम धर्म और इस्लामी साहित्य इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि हिन्दू लोग इसकीओर आकर्षित नहीं हुए। इस अनुभव से हमने लाभ उठाया और शिक्षा के क्षेत्र में भी धर्मनिरपेक्षता की नीति अपनाई।
मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा अरबी और फारसी थीं। इसका परिणाम यह हुआ कि यहाँ के भारतीय भाषा-भाषी बहुसंख्यक इसका लाभ नहीं उठा सके। इस अनुभव के आधार पर हमने आधुनिक शिक्षा प्रणाली में मातृभाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाया है। यूँ अभी उच्च शिक्षा के कुछ क्षेत्रों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है परन्तु भविष्य में मातृभाषाएँ ही होगी, यह हमारी नीति है। इसी प्रकार हमने उसके अन्य दोषों से भी लाभ उठाया है और उन्हें भी हम आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली के विकास में उसका योगदान मानते हैं।
उपसंहार
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली इस देश में एक विदेशी पौधा थी, वह इस देश के मूल निवासियों को उतनी उपयोगी नहीं हो सकी जितनी कि किसी भी समाज की शिक्षा प्रणाली को होना चाहिए। परन्तु इस प्रणाली में कुछ ऐसी अच्छी बातें भी थीं जो अब किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली में आवश्यक समझी जाती हैं; जैसे- शिक्षा संस्थाओं को राज्य का संरक्षण और नियमित आर्थिक अनुदान, निःशुल्क शिक्षा और छात्रवृत्तियों को व्यवस्था और शिक्षा की व्यवस्था में राज्य का हस्तक्षेप आदि ।
अतः हमने अपनी आधुनिक शिक्षा प्रणाली में इन सबको थोड़े व्यापक रूप में अपनाया है। इसी के साथ-साथ हमने इसकी कमियों से भी लाभ उठाया है और उन्हें अपनी आधुनिक शिक्षा प्रणाली में स्थान नहीं दिया है विकास का यही क्रम है- उपयोगी को अपनाना, अनुपयोगी को त्यागना और अधिक उपयोगों को निरन्तर खोज करना।