लार्ड मैकाले का विवरण पत्र | निस्यन्दन सिद्धान्त | एडम रिपोर्ट एवं शिक्षा नीति 1839

मैकॉले का विवरण पत्र

1813 में ब्रिटिश पार्लियामेंट ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को एक नया आज्ञा पत्र जारी किया था। इस आज्ञा पत्र में कम्पनी को भारतीयों की शिक्षा के सन्दर्भ में यह निर्देश दिया गया था कि प्रति वर्ष कम से कम एक लाख रुपये की धनराशि का प्रयोग साहित्य के रख-रखाव एवं विकास तथा भारतीय विद्वानों के प्रोत्साहन और भारत में कम्पनी (ब्रिटिश) शासित क्षेत्रों में रहने वालों को विज्ञान का ज्ञान कराने में किया जाए।

    परन्तु इस आदेश पत्र में न तो साहित्य शब्द की व्याख्या की गई थी और न भारतीय विद्वान की इस विषय में कम्पनी में दो विचारधाराओं को जन्म दिया- एक प्राच्यवादी और दूसरी पाश्चात्यवादी। इस मसले पर ब्रिटिश पार्लियामेंट में भी दो दल हो गए- एक प्राच्यवादी और दूसरा पाश्चात्यवादी और यह विवाद 20 वर्ष बाद प्रसारित 1833 के आज्ञा पत्र में भी नहीं सुलझाया जा सका।

    10 जून, 1834 को लार्ड मैकॉले गवर्नर जनरल की काउन्सिल का कानूनी सलाहकार बनकर भारत आया। मैकॉले अंग्रेजी भाषा और साहित्य का प्रकाण्ड विद्वान था। साथ ही वह एक कुशल वक्ता और लेखक था। तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैंटिक (Lord William Bentinck) ने उसे जन शिक्षा समिति (Public Instructions Commitee) का अध्यक्ष नियुक्त किया और उससे यह अपेक्षा की कि वह 1813 के आज्ञा पत्र में उल्लखित धनराशि को व्यय की मद स्पष्ट करे और साहित्य तथा भारतीय विद्वान का अर्थ स्पष्ट करे और प्राच्य पाश्चात्य विवाद का हल सुझाए। 

    मैकॉले ने सर्वप्रथम 1813 के आज्ञा पत्र की तत्सम्बन्धी धारा 43 का गम्भीरता से अध्ययन किया। इसके बाद उसने कम्पनी के प्राच्यवादी और पाश्चात्यवादियों के लिखित वक्तव्यों (दलीलों) का अध्ययन किया और अन्त में 2 फरवरी 1835 को अपना विवरण पत्र गवर्नर जनरल को पेश किया। इस विवरण पत्र को मैकॉले का विवरण पत्र कहते हैं। इस विवरण पत्र में मैकॉले ने सर्वप्रथम 1813 के आज्ञा पत्र की धारा 43 की व्याख्या की और उसके बाद इस सम्बन्ध में अपने ठोस सुझाव प्रस्तुत किए। यहाँ उस सबका क्रमबद्ध वर्णन प्रस्तुत है।

    यह भी पढ़ें-

    1813 के आज्ञा पत्र की 43वीं धारा की व्याख्या

    इस आज्ञा पत्र के तीन मुद्दे विवाद के विषय थे आवंटित धनराशि का व्यय कैसे हो, साहित्य शब्द से क्या अर्थ लिया जाए और भारतीय विद्वान की सीमा में कौन से विद्वान लिए जाएँ। मैकाले ने इन तीनों मुद्दों को स्पष्ट किया। 

    1. धनराशि के व्यय की व्याख्या 

    मैकॉले ने स्पष्ट किया कि इस धनराशि को व्यय करने के सम्बन्ध में कम्पनी पर किसी प्रकार का बन्धन नहीं है, वह इसे जिस मद पर जिस तरह व्यय करना चाहे कर सकती है। 

    2. साहित्य शब्द की व्याख्या 

    मैकॉले ने स्पष्ट किया कि साहित्य शब्द से तात्पर्य केवल भारतीय साहित्य संस्कृत, अरबी आदि के साहित्य से ही नहीं है अपितु इसकी सीमा में पाश्चात्य साहित्य (अंग्रेजी - साहित्य) भी आता है।

    3. भारतीय विद्वान की व्याख्या 

    भारतीय विद्वानों की सीमा के सम्बन्ध में मैकाले ने कहा कि इसमें केवल भारतीय भाषाओं (संस्कृत और अरबी) के विद्वान ही नहीं, अपितु अंग्रेजी साहित्य के विद्वान भी आते हैं, लॉक के दर्शन और मिल्टन की कविताओं के जानकार भी आते हैं।

    लार्ड मैकॉले के सुझाव

    1813 के आज्ञा पत्र की तत्सम्बन्धी धारा 43 की व्याख्या करने के बाद लार्ड मैकॉले ने भारतीयों की शिक्षा के स्वरूप के सम्बन्ध में अपने सुझाव प्रस्तुत किए। मैकॉले के उन सुझावों को निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध किया जा सकता है-

    1. प्राच्य साहित्य एवं ज्ञान की शिक्षा निरर्थक 

    भारतीय साहित्य (संस्कृत और अरबी) के विषय में मैकॉले ने लिखा कि भारतीय धर्म ग्रन्थ अन्धविश्वासों और मूर्खतापूर्ण तथ्यों से भरे हैं। इसके इतिहास में 30 फीट लम्बे राजाओं का वर्णन है और इसके भूगोल में शीरे और मक्खन के समुद्रों का वर्णन है। इसका चिकित्साशास्त्र ऐसा है जिस पर अंग्रेज पशु चिकित्सकों को भी शर्म आएगी और ज्योतिषशास्त्र ऐसा है जिस पर अंग्रेज स्कूली लड़कियाँ हँसेंगी। अतः इसका पढ़ना-पढ़ाना निरर्थक है। उसने यह भी सुझाव दिया कि संस्कृत और अरबी स्कूल तथा कॉलिजों पर सरकारी धन व्यय करना व्यर्थ है, उन्हें तुरन्त बन्द कर दिया जाए। साथ ही उसने यह भी सुझाव दिया कि प्राच्य साहित्य के मुद्रण और प्रकाशन पर सरकारी धन को व्यय नहीं किया जाए।

    और पढ़ें- राष्ट्रीय चेतना का विकास | राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन | गोखले बिल और शिक्षा नीति 1913

    2. पाश्चात्य साहित्य एवं ज्ञान की शिक्षा महत्त्वपूर्ण

    मैकॉले अंग्रेजी साहित्य को संसार का सर्वश्रेष्ठ साहित्य मानता था। संस्कृत और अरबी साहित्य को तो वह उसके आगे नगण्य मानता था। उसने अपने विवरण पत्र में लिखा कि एक अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की एक अलमारी की पुस्तकें भारत और अरब के सम्पूर्ण है साहित्य के बराबर है (A single shelf of a good European library was worth the whole native- literature of India and Arabia) उसने सुझाव दिया कि भारतीयों को अंग्रेजी भाषा और साहित्य का ज्ञान अनिवार्य रूप से कराया जाए।

    3. अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाना आवश्यक 

    प्राच्यवादी भारतीय भाषाओं (संस्कृत और अरबी आदि) को शिक्षा का माध्यम बनाना चाहते थे और पाश्चात्यवादी अंग्रेजी को मैकॉले ने अपने विवरण पत्र में अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाने का सुझाव दिया। अपने सुझाव के पक्ष में उसने निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए-

    • भारत में प्रचलित देशी भाषाएँ अविकसित और गँवारू हैं, इनका शब्दकोश बहुत सीमित है, इनके माध्यम से भारतीयों को पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान से परिचित नहीं कराया जा सकता। 
    • अंग्रेजी भाषा में संसार का सर्वश्रेष्ठ ज्ञान भण्डार है, जो अंग्रेजी भाषा को जानता है वह उस विशाल ज्ञान भण्डार को जान सकता है जिसे विश्व की सबसे बुद्धिमान जातियों ने रचा है, भारतीयों को पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान का ज्ञान अंग्रेजी के माध्यम से ही कराया जा सकता है।
    • संस्कृत और अरबी भारत की सर्वसाधारण की भाषा नहीं हैं और इन्हें सीखने में भारतीयों की रुचि भी नहीं है। वैसे भी इनकी अपेक्षा अंग्रेजी भाषा सीखना सरल है इसलिए इसे ही शिक्षा का माध्यम बनाया जाए।
    • अंग्रेजी शासकों की भाषा है, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की भाषा है और अब भारत के उच्च वर्ग के लोगों की भाषा है अतः इसे ही शिक्षा का माध्यम बनाया जाए।
    • अब प्रबुद्ध भारतीय राजा राममोहन राय आदि भी यह स्वीकार कर रहे हैं कि भारत के विकास और उत्थान के लिए अंग्रेजी सीखना आवश्यक है, पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान मोखना आवश्यक है। अतः अंग्रेजी को ही शिक्षा का माध्यम बनाना चाहिए।
    • मैकाले ने भारतीय कानून की शिक्षा के लिए अरबी और फारसी को माध्यम बनाए रखने का भी विरोध किया और सुझाव दिया कि भारतीय कानून का अंग्रेजी में अनुवाद किया जाए और उसकी शिक्षा भी अग्रेजी के माध्यम से दी जाए।

    4. उच्च वर्ग के लिए उच्च शिक्षा संस्थाओं की व्यवस्था 

    मैकॉले ने अपने विवरण पत्र में यह भी स्पष्ट किया कि सरकार के पास इतना धन नहीं है कि वह भारत में जन शिक्षा की व्यवस्था कर सके। उसने सुझाव दिया कि सरकार केवल उच्च वर्ग के लिए उच्च शिक्षा की व्यवस्था करे। अपने इस सुझाव के पक्ष में उसने निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए-

    • इससे भारत में एक ऐसे वर्ग का निर्माण होगा, जो शासक (अंग्रेज) और शासित (भारत की आम जनता) के बीच सन्देशवाहक का कार्य करेगा।
    • इससे भारत में दो वर्गों का निर्माण होगा, उच्च शिक्षा प्राप्त उच्च वर्ग और उच्च शिक्षा से वचित निम्न वर्ग।
    • इससे उच्च वर्ग में पड़े पाश्चात्य संस्कार धीरे-धीरे उनके सम्पर्क में आने वाले निम्न वर्ग के लोगों पर पड़ेंगे
    • इससे कम्पनी को कनिष्ठ पदों पर कार्य करने वाले भारतीय सरलता से मिल सकेंगे। 
    • और यह लाभ भी होगा कि उच्च वर्ग के शिक्षित लोगों के द्वारा शिक्षा निम्न वर्ग के लोगों तक स्वयं पहुँच जाएगी। 

    5. शिक्षा के क्षेत्र में धार्मिक तटस्थता की नीति आवश्यक 

    यूँ मैकॉले भारत में पाश्चात्य ईसाई धर्म, पाश्चात्य यूरोपियन संस्कृति और पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान का प्रसार कर भारतीयों को पाश्चात्य जामा पहनाने का प्रबल समर्थक था, परन्तु वह यह सब कार्य बहुत चतुरता से करना चाहता था। वह जान रहा था कि यदि इस सबके लिए सीधे और जबरन प्रयास किया जाए तो उससे एक ओर भारतीय अपने धर्मों की रक्षा और उनके प्रसार के लिए क्रियाशील हो जाएँगे और दूसरी ओर वे अंग्रेजी शासन का विरोध करने लगेंगे, इसलिए उसने विद्यालयों में किसी भी धर्म को शिक्षा अनिवार्य रूप से न दिए जाने का सुझाव दिया।

    यह भी पढ़ें-

    गवर्नर जनरल विलियम बैंटिक की स्वीकृति

    2 फरवरी, 1835 को गवर्नर जनरल बैटिंक को मैकॉले का विवरण पत्र प्राप्त हुआ। इस पर उसने गम्भीरता से विचार किया और 7 मार्च, 1835 को उसकी मुख्य सिफारिशों को स्वीकार करते हुए ब्रिटिश सरकार को नई शिक्षा नीति की घोषणा की। इस नीति की मुख्य घोषणाएँ इस प्रकार थीं-

    • शिक्षा के लिए निर्धारित धनराशि का सर्वोत्कृष्ट प्रयोग केवल अंग्रेजी शिक्षा के लिए ही किया जा सकेगा। (All government fund appropriated for the purposes of education would be best employed on English Education alone- Government Procumation of 1835)।  
    • संस्कृत, अरबी और फारसी की शिक्षण संस्थाओं को बन्द नहीं किया जाएगा। उनके शिक्षकों के वेतन और छात्रों की छात्रवृत्तियों के लिए आर्थिक अनुदान यथावत् जारी रहेगा।
    • भविष्य में प्राच्य साहित्य के मुद्रण और प्रकाशन पर कोई व्यय नहीं किया जाएगा। 
    •  मद 3 से बचने वाली धनराशि को अंग्रेजी भाषा, अंग्रेजी साहित्य और पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान को शिक्षा पर व्यय किया जाएगा।

    लार्ड मैकॉले के विवरण पत्र और विलियम बैटिंक की शिक्षा नीति के परिणाम 

    लार्ड मैकाले के विवरण पत्र के आधार पर घोषित विलियम बैटिंक की शिक्षा नीति के परिणामों को निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध किया जा सकता है-

    • भारत में अंग्रेजी माध्यम की अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली की शुरुआत ।
    • विद्यालयों पाठ्यचर्या में प्राच्य भाषा और साहित्यों और ज्ञान-विज्ञान के स्थान पर पाश्चात्य भाषा अंग्रेजी और पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान को स्थान ।

    मैकॉले और उसके विवरण पत्र का मूल्यांकन अथवा गुण-दोष विवेचन 

    किसी भी वस्तु, विचार अथवा क्रिया का मूल्यांकन किन्हीं निश्चित मानदण्डों के आधार पर किया जाता है। मैकॉले और उसके विवरण पत्र का मूल्यांकन तीन आधारों पर किया जा सकता है और किया भी जाना चाहिए-पहला यह कि उसका इरादा क्या था, दूसरा यह कि उसने जो सुझाव दिए थे वे भारतीयों के कितने हित में थे और तीसरा यह कि उनके परिणाम भारतीयों के कितने हित में रहे।

    मैकॉले का इरादा

    यूँ तो मैकाले की दलील थी कि प्राच्य साहित्य और ज्ञान-विज्ञान बहुत निम्न कोटि का है इसलिए भारतीयों की दशा सुधारने के लिए उन्हें अंग्रेजी साहित्य और ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देना आवश्यक है और यह शिक्षा अंग्रेजी भाषा के माध्यम से हो दी जा सकती है, परन्तु वास्तविकता यह है कि वह हमारे देश में एक ऐसे वर्ग का निर्माण करना चाहता था जो जन्म से तो भारतीय हो परन्तु आचार-विचार से अंग्रेज हो। 

    उसके अपने शब्दों में- 'हमें भारत में एक ऐसा वर्ग विकसित करना चाहिए जो हमारे और उनके बीच जिन पर हम राज्य करते हैं, सन्देश वाहक का कार्य करे। एक ऐसा वर्ग जो रक्त और रंग में भारतीय हो परन्तु विचार आदर्श और बुद्धि में अंग्रेज हो' (We must at present do our best to form a class who may be interpreters between us and the millions which we govern. A class of persons Indian in blood and colour but English in openion, in morals and in intellect.)। 

    इतना ही नहीं अपितु उसका इरादा भारतीय धर्म, दर्शन और संस्कृति को जड़मूल से समाप्त करने का था। उसने बंगाल से अपने पिता को लिखे पत्र में स्वयं लिखा था- 'यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि यदि हमारी शिक्षा योजना को लागू किया जाता है तो 30 वर्ष पश्चात् बंगाल के उच्च वर्ग में कोई भी मूर्ति उपासक शेष नहीं बचेगा' (It is my firm belief that if our plans of education are followed up, there will not be a single idolator among the respectable classes in Bengal thirty years hence.)। 

    साफ जाहिर है कि भारतीयों की दृष्टि से मैकॉले का इरादा नेक नहीं था, वह भारतीय धर्म, दर्शन और संस्कृति को नष्ट करना चाहता था और उसके स्थान पर यहाँ पाश्चात्य धर्म, दर्शन और संस्कृति का विकास करना चाहता था और साथ ही भारत में अपने देश के शासन की नींव सुदृढ़ करना चाहता था। उस समय भारतीय दृष्टि से मैकॉले और उसका विवरण पत्र, दोनों ही आलोचना के विषय थे, यह बात दूसरी है कि उसके दूरगामी प्रभाव भारत के हित में गए।

    मैकॉले के विवरण पत्र के सुझाव

    अब थोड़ा विचार करें मैकॉले के विवरण पत्र पर यदि निष्पक्ष भाव और भारतीय दृष्टिकोण से देखें-समझें तो स्पष्ट होगा कि इसमें कुछ अच्छाइयाँ और कुछ कमियाँ थीं। 

    मैकॉले के विवरण पत्र की अच्छाइयाँ अथवा गुण

    1. प्राच्य-पाश्चात्य विवाद के विषय में तर्कपूर्ण निर्णय- मैकॉले ने यूँ तो पाश्चात्यवादियों का ही समर्थन किया था और बहुत पक्षपातपूर्ण ढंग से किया था परन्तु जिस चतुराई के साथ किया था, वह उसको विशेषता ही कही जाएगी। बहरहाल विवाद का हल तो प्रस्तुत हुआ ही।

    2. पाश्चात्य भाषा साहित्य और ज्ञान-विज्ञान की वकालत- ज्ञान अपने में प्रकाश हैं, अमृत है, वह कहीं से भी प्राप्त हो उसे लेना चाहिए। मैकॉले ने पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान की श्रेष्ठता स्पष्ट की, उससे भारतीयों को परिचित कराने पर बल दिया, यह उसके विवरण पत्र में एक बड़ी अच्छाई की बात थी। 

    3. प्रगतिशील शिक्षा की वकालत- मैकॉले के समय भारत में जो शिक्षा चल रही थी वह रूढ़िवादी थी, प्राचीन साहित्य प्रधान थी। मैकॉले ने उसे आधुनिक ज्ञान-विज्ञान प्रधान बनाने पर बल दिया, उसे प्रगतिशील बनाने पर बल दिया। यह उसके विवरण पत्र की सबसे बड़ी अच्छाई थी।

    4. शिक्षा के क्षेत्र में धार्मिक तटस्थता की नीति- मैकॉले के समय हिन्दू पाठशालाओं में हिन्दू धर्म, मुस्लिम मकतब और मदरसों में इस्लाम धर्म और ईसाई मिशनरियों के स्कूलों में ईसाई धर्म की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जा रही थी। मैकॉले ने सरकार द्वारा अनुदान प्राप्त स्कूलों में किसी भी धर्म की शिक्षा न दिए जाने की सिफारिश की। भारतीय सन्दर्भ में यह उसका अति उत्तम सुझाव था। 

    मैकॉले के विवरण पत्र की कमियाँ अथवा दोष

    1. 1813 के आज्ञा पत्र की धारा 43 की व्याख्या पक्षपातपूर्ण- मैकॉले का शिक्षा के लिए स्वीकृत धनराशि को व्यय किए जाने के सम्बन्ध में यह कहना कि उसे किसी भी रूप में व्यय किया जा सकता है, साहित्य से तात्पर्य प्राच्य और पाश्चात्य साहित्य से है और भारतीय विद्वान से अर्थ भारतीय साहित्य के विद्वानों के साथ-साथ लॉक के दर्शन और मिल्टन की कविता को जानने वाले भारतीय विद्वानों से भी है, पक्षपात पूर्ण था। यह बात दूसरी है कि वह उसे अपने तर्कों से उचित सिद्ध कर सका।

    2. प्राच्य साहित्य की आलोचना द्वेषपूर्ण- मैकॉले ने प्राच्य साहित्य को अति निम्नकोटि का बताया और उसकी मखौल उड़ाई। यह उसकी द्वेषपूर्ण अभिव्यक्ति थी, नादानी थी, काश उसने ऋग्वेद और उपनिषदों के आध्यात्मिक ज्ञान, अथर्ववेद के भौतिक ज्ञान और चरक संहिता के आयुर्वेद विज्ञान आदि का अध्ययन किया होता तो वह ऐसा कहने का दुस्साहस कभी न कर पाता।

    3. अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाने का सुझाव अनुचित- किसी भी देश की शिक्षा का माध्यम उस देश के नागरिकों की मातृभाषा अथवा मातृभाषाएँ होती हैं। मैकॉले ने भारत में शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा अंग्रेजी को बनाने का सुझाव देकर न जाने कितने भारतीयों को शिक्षा प्राप्त करने से वंचित कर दिया।

    4. केवल उच्च वर्ग के लिए उच्च शिक्षा की व्यवस्था का सुझाव अनुचित- शिक्षा सबका जन्मसिद्ध अधिकार है, उसे किसी वर्ग तक सीमित रखना मानवीय अधिकारों का हनन है। इस दृष्टि से मैकाले का यह सुझाव अति दोषपूर्ण था।

    5. निस्यन्दन सिद्धान्त की पुष्टि अनुचित- यूँ तो मैकॉले से पहले भी कई अंग्रेज विद्वान यह बात कह चुके थे कि कम्पनी को केवल उच्च वर्ग के लोगों के लिए उच्च शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए, निम्न वर्ग के लोग उनके सम्पर्क में आकर स्वयं ज्ञान प्राप्त कर लेंगे परन्तु मैकॉले ने इसकी पुष्टि तर्क पूर्ण ढंग से की जो आगे चलकर एक बार सरकार की शिक्षा नीति का अंग बनी। यह उसका एक चालाकी भरा सुझाव था।

    इस प्रकार हम देखते हैं कि उस समय भारतीय दृष्टिकोण से उसके विवरण पत्र में अच्छाइयाँ कम और कमियाँ अधिक थीं। तब उसकी या उसके विवरण पत्र की प्रशंसा कैसे की जा सकती है। यह बात दूसरी हैं कि उसके परिणाम भारत के हित में रहे।

    अब अन्त में विचार करें मैकॉले के विवरण पत्र के भारतीय शिक्षा और भारतीयों पर पड़ने वाले प्रभाव पर। इसे हम दो रूपों में देखें समझें तो अधिक उपयुक्त होगा, तत्कालीन प्रभाव और दीर्घकालीन प्रभाव। 

    मैकॉले और उसके विवरण पत्र का तत्कालीन प्रभाव

    1. शिक्षा नीति की घोषणा 

    मैकॉले ने बड़ी चतुरता से 1813 के आज्ञा पत्र की धारा 43 की व्याख्या की और इतने तर्क पूर्ण ढंग से की कि तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैंटिक उससे सहमत हुआ और उसने अंग्रेजी माध्यम की यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान प्रधान शिक्षा नीति की घोषणा कर दी। इसके बाद जितनी भी शिक्षा नीतियाँ बनी वे सब इसी आधार पर बनी ।

    2. अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली की शुरुआत 

    नीति घोषित होते ही अंग्रेजी माध्यम के उच्च शिक्षा के स्कूल और कॉलिज खोले गए और यह नींव इतनी सुदृढ़ रूप से रखी गई कि हमारे देश में इस शिक्षा प्रणाली का विकास तेजी से हुआ और हमारी आज को शिक्षा भी मूल रूप से उसी पर आधारित है।

    3. अंग्रेजी राजकाज की भाषा घोषित 

    1837 में तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड ऑकलैण्ड ने फारसी के स्थान पर अंग्रेजी को राजकाज की भाषा घोषित किया। यह मैकॉले के अंग्रेजी के पक्ष में दिए गए तर्कों का ही परिणाम था। 

    4. सरकारी नौकरियों के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता 

    1844 में तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्टिंग ने एक आदेश जारी कर यह निर्देश दिया कि सरकारी नौकरियों में नियुक्ति के समय अंग्रेजी जानने वाले अभ्यर्थियों को वरीयता दी जाए। यह वरीयता व्यावहारिक रूप में अनिवार्यता बन गई। 

    मैकॉले और उसके विवरण पत्र का दीर्घकालीन प्रभाव 

    1. भारतीयों को पाश्चात्य साहित्य और ज्ञान-विज्ञान की जानकारी

    मैकॉले के सुझावों पर भारत में जिस अंग्रेजी माध्यम की यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान प्रधान शिक्षा की व्यवस्था की गई उसके द्वारा भारतीयों को पाश्चात्य साहित्य और ज्ञान-विज्ञान की जानकारी हुई जिससे हमें अनेक लाभ हुए।

    2. भारत में भौतिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त 

    मैकाले के समय भारतीय शिक्षा में सामाजिक व्यवहार और आध्यात्मिक विकास पर अधिक बल दिया जाता था, मैकॉले के सुझावों के आधार पर जिस शिक्षा प्रणाली को लागू किया गया उसमें समग्र रूप से देश की उन्नति का ध्यान रखा गया। उससे भारत की भौतिक क्षेत्र में बहुत उन्नति हुई।

    3. भारत में सामाजिक जागरुकता का उदय 

    उस समय हम अनेक सामाजिक बुराइयों से ग्रस्त थे। मैकॉले ने जिस शिक्षा प्रणाली को नींव रखी उससे हम उनके प्रति सचेत हुए, उन्हें दूर करने के लिए प्रयत्नशील हुए और उनमें अनेक सुधार किए।

    4. भारत में राजनैतिक जागरुकता का उदय 

    अंग्रेजों के समय राज्य विस्तार की होड़ तो बहुत थी पर यह राष्ट्रीय संकीर्णता थी, राजनैतिक जागरूकता नहीं। अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली ने हमें मानव अधिकारों का ज्ञान कराया, स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व का महत्त्व बताया, हममें राजनैतिक चेतना जागृत की। नुरुल्ला और नायक ने ठीक ही लिखा है कि यदि भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रादुर्भाव न हुआ होता तो कदाचित भारत में स्वतन्त्रता संग्राम ही नहीं शुरु हुआ होता।

    5. भारत में अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व 

    उपर्युक्त अच्छाइयों के साथ इसके कुछ कुप्रभाव भी पड़े। उन कुप्रभावों में सबसे मुख्य प्रभाव विदेशी भाषा अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ना है। हम देख रहे हैं कि इस देश में अंग्रेजी का वर्चस्व इतना बढ़ गया है कि उसे जितना कम करने का प्रयास किया जाता है वह उतना और अधिक बढ़ जाता है। अब इस देश से अंग्रेजी का वर्चस्व समाप्त करना दुर्लभ प्रतीत होता है।

    6. भारत में पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति का प्रवेश

    यूँ किसी सभ्यता और संस्कृति के अच्छे तत्त्वों को स्वीकार कर अपनी सभ्यता एवं संस्कृति में विकास करना अच्छी बात है परन्तु अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को हेय समझकर दूसरी सभ्यता एवं संस्कृति को स्वीकार करना अपनी पहचान को समाप्त करना है, अपनी अस्मिता को समाप्त करना है। मैकॉले द्वारा प्रस्तावित अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली का हमारे ऊपर कुछ ऐसा ही कुप्रभाव पड़ा है। 

     मैकॉले के विवरण पत्र का निष्कर्ष 

    कुछ विद्वानों का मत है कि मैकाले के इरादे तो नेक थे, वह भारतीयों की उन्नति करना चाहता था, यह बात दूसरी है कि उसके द्वारा प्रतिपादित अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली से हमें कुछ हानियाँ भी हुई हैं। परन्तु वास्तविकता यह है कि मैकाले के इरादे नेक नहीं थे, वह भारतीयों के साहित्य, धर्म और दर्शन को समाप्त कर उसके स्थान पर यहाँ पाश्चात्य साहित्य, धर्म और दर्शन का विकास करना चाहता था, यह बात दूसरी है कि उसके सुझावों के आधार पर भारत में जिस अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली को शुरु किया गया उससे हमें लाभ अधिक और हानियाँ अपेक्षाकृत कम हुई हैं। 

    सबसे बड़ा लाभ तो हमें यह हुआ कि देश में रूढ़िवादी शिक्षा के स्थान पर प्रगतिशील शिक्षा की शुरुआत हुई जिसके कारण देश में भौतिक तरक्की हुई, सामाजिक सुधार हुए, राष्ट्रीय चेतना जागृत हुई, स्वतन्त्रता संग्राम छिड़ा और हम स्वतन्त्र हुए। आज हमने कृषि और दूर संचार एवं अन्तरिक्ष तकनीकी में जो उल्लेखनीय उपलब्धियों की हैं, ये सब इस अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के ही परिणाम हैं। रही देश में विदेशी भाषा अंग्रेजी के वर्चस्व की बात और अंग्रेजी सभ्यता एवं संस्कृति के बढ़ते हुए प्रभाव की बात तो उससे भी हमें लाभ अधिक और हानि अपेक्षाकृत कम हुई है। आज इसी भाषा के माध्यम से हम देश-विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, विशेषकर विज्ञान और तकनीकी की और इसी के माध्यम से हम दूसरे देशों में अच्छी नौकरियाँ प्राप्त कर रहे हैं। 

    अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में सफलता का आधार भी यह अंग्रेजी भाषा ही है। रही जन शिक्षा की बात हमने स्वतन्त्र होने के बाद अपनी शिक्षा का माध्यम क्षेत्रीय भाषाओं को बनाया है। इससे जन शिक्षा का प्रसार हो रहा है। रही उच्च स्तर पर अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाए रखने की बात, यह एक और हमारी विवशता है और दूसरी ओर हमारी आवश्यकता है। यह अन्तर्राष्ट्रीयता का युग है। अतः हमें मैकॉले को उसके नापाक इरादों के लिए क्षमा कर देना चाहिए और उसके द्वारा प्रतिपादित अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली से हमें जो लाभ हुए हैं उसके लिए उसे साधुवाद देना चाहिए।

    निस्यन्दन सिद्धान्त

    भारतीय शिक्षा के सन्दर्भ में ब्रिटिश पार्लियामेन्ट के सदस्यों, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के संचालकों और ईसाई मिशनरियों में दो वर्ग थे। एक वर्ग के व्यक्ति भारत में केवल उच्च वर्ग के व्यक्तियों के लिए अंग्रेजी प्रणाली की उच्च शिक्षा की व्यवस्था करने के पक्ष में थे और दूसरे वर्ग के व्यक्ति इसकी व्यवस्था सभी व्यक्तियों के लिए करने के पक्ष में थे। इस विचार के पीछे सबके अपने-अपने तर्क थे।

    सर्वप्रथम इस प्रकार का विचार कुछ ईसाई मिशनरियों ने व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि यदि भारत में उच्च वर्ग के व्यक्तियों को ईसाई धर्म स्वीकार करा दिया जाए तो निम्न वर्ग के व्यक्ति उनके सम्पर्क में आकर स्वयं ईसाई धर्म स्वीकार कर लेंगे। 

    1823 में बम्बई प्रान्त के गवर्नर को कौंसिल के सदस्य वार्डेन (Warden) ने इसी बात को शिक्षा के सन्दर्भ में कुछ इस प्रकार कहा कि बहुत से व्यक्तियों को थोड़ा ज्ञान देने की अपेक्षा, थोड़े व्यक्तियों को अधिक ज्ञान देना अधिक उत्तम और निरापद है (It is better and safer to commence by giving a good deal of knowledge to a few than a little to many)। इसी प्रकार का एक परामर्श 1830 में कम्पनी के संचालकों ने मद्रास के तत्कालीन गवर्नर को दिया कि शिक्षा की प्रगति तभी हो सकती है जब उच्च वर्ग के उन व्यक्तियों को शिक्षा दी जाए जिनके पास शिक्षा प्राप्त करने के लिए अवकाश (समय) है और जिनका अपने देश के निवासियों पर प्रभाव है। 

    इसके बाद 1835 में मैकॉले ने अपने विवरण पत्र में यह सुझाव दिया कि प्रारम्भ में उच्च वर्ग के व्यक्तियों को अंग्रेजी प्रणाली की शिक्षा दी जाए जो हमारे और उन लाखों व्यक्तियों, जिन पर हम शासन करते हैं, के बीच विचार वाहक का कार्य करें (We must at present do our best to form a class who may be interpreters between us and the millions whom we govern.)। 

    इन सबसे एक सिद्धान्त विकसित हुआ और वह यह कि शिक्षा की व्यवस्था केवल उच्च वर्ग के व्यक्तियों के लिए की जाए, उच्च वर्ग के व्यक्तियों से वह निम्न वर्ग के व्यक्तियों में सम्पर्क द्वारा स्वाभाविक रूप से पहुंच जाएगी। शिक्षा जगत में इस सिद्धान्त को निस्यन्दन सिद्धान्त अथवा छनना सिद्धान्त कहते हैं। और क्योंकि इस प्रक्रिया में शिक्षा उच्च वर्ग (ऊपर) से निम्न वर्ग (नीचे) की ओर सम्पर्क द्वारा (छन-छन कर) आती है इसलिए कुछ विद्वान इसे अधोगामी निस्यन्दन सिद्धान्त (Downward Filteration Theory) भी कहते हैं।

    एडम रिपोर्ट

    गवर्नर जनरल लॉर्ड विलिम बैंटिक एक कुशल प्रशासक था। 1834 में जब लॉर्ड मैकॉले गवर्नर जनरल की काउंसिल का कानूनी सलाहकार बनकर भारत आया तो बैंटिक ने उसे जन शिक्षा समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया और उसे 1813 के आज्ञापत्र की धारा 43 का अर्थ स्पष्ट करने और साथ ही कम्पनी के अधीन भारतीयों की शिक्षा के स्वरूप के विषय में अपने सुझाव देने का कार्य सौंपा। 

    उसी समय उसने बैस्टिस्ट मिशनरी सर विलियम एडम (Sir William Adam) को कम्पनी के अधीन तत्कालीन बंगाल और बिहार प्रान्त में शिक्षा की स्थिति का सर्वेक्षण करने का कार्य सौंपा और साथ ही उससे यह अपेक्षा की कि वह कम्पनी के अधीन भारतीय क्षेत्र में भारतीयों की शिक्षा व्यवस्था के विषय में अपने सुझाव प्रस्तुत करे।

    अतः यहाँ हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि भारतीयों की शिक्षा के सन्दर्भ में अपने सुझाव दे लॉर्ड मैकॉले पाश्चात्यवादी था और सर विलियम एडम प्राच्यवादी और गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक इन दोनों के सुझाव प्राप्त करने के बाद ही अपनी शिक्षा नीति का निर्धारण करना चाहता था परन्तु हुआ यह कि लॉर्ड मेकॉले ने अपना विवरण पत्र 2 फरवरी, 1835 को ही प्रस्तुत कर दिया और लॉर्ड बेंटिक उसके विचार एवं तर्कों से इतना प्रभावित हुआ कि उसने इस विवरण पत्र के आधार पर ही अपनी शिक्षा नीति की घोषणा कर दी। 

    लॉर्ड विलियम बैंटिक उसी वर्ष, 1835 में इंग्लैण्ड चला गया और उसके स्थान पर लॉर्ड ऑकलैण्ड (Lord Auckland) भारत का नया गवर्नर जनरल बनकर भारत आया। 

    विलियम एडम एक समर्पित एवं उत्साही मिशनरी था। उसने लॉर्ड बैंटिक द्वारा नई शिक्षा नीति की घोषणा के बाद भी अपना सर्वेक्षण कार्य जारी रक्खा और अपनी रिपोर्ट लॉर्ड ऑकलैण्ड को तीन किस्तों में प्रस्तुत की। यहाँ उनका वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत है।

    प्रथम रिपोर्ट

    एडम ने अपनी प्रथम रिपोर्ट जुलाई, 1835 में प्रस्तुत की। इस रिपोर्ट में उसने सम्पूर्ण बंगाल प्रान्त के स्कूल सम्बन्धी आँकड़े प्रस्तुत किए। उसने स्पष्ट किया कि उस समय बंगाल में ऐसा कोई गाँव नहीं था जिसमें प्राथमिक स्कूल न हो और कुल मिलाकर लगभग एक लाख स्कूल चल रहे थे। परन्तु इन स्कूलों की स्थिति ठीक नहीं थी। इनमें कार्यरत शिक्षकों की मासिक आय भी बहुत कम थी।

    द्वितीय रिपोर्ट 

    विलियम एडम ने अपनी द्वितीय रिपोर्ट दिसम्बर, 1836 में प्रस्तुत की। इस रिपोर्ट में उसने जिला राजशाही के थाना नतूर के शिक्षा सम्बन्धी आँकड़े प्रस्तुत किए हैं। रिपोर्ट के अनुसार उस समय थाना नतूर क्षेत्र की कुल जनसंख्या 1,95,297 थी और उस समय इसके क्षेत्र में 485 गाँव थे जिनमें केवल 27 स्कूल चल रहे थे और इनमें से 10 में बंगाली पढ़ाई जा रही थी, 11 में अरबी, 4 में फारसी और 2 में बंगाली और फारसी दोनों पढ़ाई जा रही थीं। इन स्कूलों में कुल 562 छात्र अध्ययनरत थे। हाँ, उस समय इस क्षेत्र में बच्चों को अपने ही घरों पर पढ़ाने का प्रचलन अपेक्षाकृत अधिक था. 238 गाँवों में 1588 परिवार ऐसे थे जो अपने बच्चों की शिक्षा का प्रबन्ध अपने घरों पर ही कर रहे थे।

    तृतीय रिपोर्ट

    एडम ने अपनी तीसरी रिपोर्ट फरवरी, 1838 में प्रस्तुत की। इस रिपोर्ट में उसने मुरशिदाबाद, बर्दवान, बिरभुम, तिरहट और दक्षिण बिहार क्षेत्रों के सर्वेक्षण आँकड़े प्रस्तुत किए हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार उस समय इन क्षेत्रों में 2567 स्कूल चल रहे थे जिनमें बंगाली, संस्कृत, हिन्दी, अरबी और फारसी पढाई जाती थी। इनके अतिरिक्त 8 स्कूल ऐसे थे जिनमें अंग्रेजी भाषा पढ़ाई जाती थी। और बालिकाओं के लिए अलग से 6 स्कूल चल रहे थे परन्तु इन स्कूलों की दशा ठीक नहीं थी। स्कूलों के शिक्षकों के वेतन की व्यवस्था भी धनी वर्ग के कुछ लोग स्वेच्छा से कर रहे थे।

    एडम द्वारा प्रस्तावित शिक्षा योजना

    एडम प्राच्यवादी विचारधारा का था। उसने संस्कृत और बंगाली भाषाओं का अध्ययन भी किया था और वह इन भाषाओं की समृद्धता से भी परिचित था। उसने अपनी रिपोर्ट में बड़े स्पष्ट रूप में लिखा है कि भारत में जन शिक्षा की व्यवस्था को बहुत आवश्यकता है और इसकी व्यवस्था यहाँ की भाषाओं के माध्यम से ही की जा सकती है। एडम द्वारा प्रस्तावित जन शिक्षा योजना को निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध किया जा सकता है-

    • निस्यन्दन सिद्धान्त जन शिक्षा विरोधी है अतः इसे लागू न किया जाए।
    • भारत में चल रहे देशी स्कूल (पाठशालाएँ, मकतब और मदरसे) राष्ट्रीय शिक्षा की रीढ़ हैं, इनकी उन्नति करके ही जन शिक्षा की व्यवस्था की जा सकती है और राष्ट्रीय शिक्षा योजना को सफल बनाया जा सकता है।
    • भारत में जन शिक्षा के विकास के लिए यह भी आवश्यक है कि वह भारतीय आधार की हो उसमें भारतीय भाषा एवं साहित्यों तथा ज्ञान-विज्ञान का अध्ययन कराया जाए।
    • भारत कृषि प्रधान देश है। यहाँ कृषि शिक्षा की व्यवस्था प्रारम्भ से ही की जाए।
    • ग्रामीण स्कूलों को कृषि योग्य भूमि दी जाए। इससे दो लाभ होंगे-एक यह कि बच्चों को कृषि की शिक्षा दी जा सकेगी और दूसरा यह कि इससे स्कूलों का कुछ व्यय भी निकलेगा। 
    • सभी देशी स्कूलों को सरकार की तरफ से आर्थिक सहायता दी जाए और इनकी दशा सुधारी जाए।
    • भारतीय तथा पाश्चात्य शिक्षा विशेषज्ञों की सहायता से प्राच्य भाषाओं में पाठ्य पुस्तकों का निर्माण कराया जाए। 
    • छात्रों की परीक्षाएं अपने निर्धारित समय पर सम्पन्न कराई जाएँ।
    • शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए नार्मल स्कूलों की व्यवस्था की जाए। सेवारत अप्रशिक्षित शिक्षकों के लिए प्रतिवर्ष 3-3 माह का प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाकर 4 वर्ष के अन्दर उनका प्रशिक्षण कार्यक्रम पूरा किया जाए।
    • शिक्षकों के वेतन बढ़ाए जाएं, उनकी दशा सुधारी जाए।
    • विद्यालयों और शिक्षकों के निरीक्षण के लिए प्रत्येक जिले में निरीक्षक नियुक्त किए जाएँ। 
    • इस योजना को कार्यरूप में परिणित करने के लिए प्रारम्भ में इसे कुछ ही जिलों में शुरू किया जाए और धीरे-धीरे समस्त जिलों में चलाया जाए। 

    एडम रिपोर्ट का मूल्यांकन अथवा गुण-दोष विवेचन 

    इसमें कोई सन्देह नहीं कि एडम भारत में जन शिक्षा का पक्षधर था और भारतीयों के लिए भारतीय पद्धति की शिक्षा का समर्थक था परन्तु उसकी सर्वेक्षण रिपोर्ट पर दो प्रश्न चिह्न उपस्थित होते हैं- एक यह कि उसने बंगाल और बिहार, दोनों प्रान्तों के सम्पूर्ण क्षेत्र की शिक्षा का पूर्ण सर्वेक्षण नहीं किया था और जब सम्पूर्ण क्षेत्र का सर्वेक्षण नहीं किया तो यह कैसे कहा कि उस समय अकेले बंगाल प्रान्त में लगभग एक लाख स्कूल चल रहे थे। और दूसरा यह कि सभी ग्रामों में स्कूल होने और नगरों में भी स्कूलों का जाल बिछा होने के बाद भी उस समय अकेले बंगाल प्रान्त में लगभग एक लाख स्कूल होना सम्भव नहीं दिखाई देता। 

    एडम ने भारत के लिए जो शिक्षा योजना प्रस्तुत की थी वह भारतीयों के लिए उपयुक्त होते हुए भी एक अधूरी योजना थी। उपयुक्त इसलिए कि इसमें निस्यन्दन सिद्धान्त का विरोध किया गया है और भारतीयों को भारतीय आधार की भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा देने का समर्थन किया गया है और साथ ही देशी स्कूलों की दशा सुधारने, शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था करने, शिक्षकों के वेतन बढ़ाने और देशी स्कूलों की आर्थिक सहायता करने का सुझाव दिया गया है। और अधूरी इसलिए कि न तो इस योजना में भारतीयों की शिक्षा के उद्देश्य स्पष्ट किए गए और न उसका पाठ्यक्रम निश्चित किया गया। और ग्रामीण स्कूलों को कृषि योग्य भूमि देने का सुझाव तो दिया गया है परन्तु यह स्पष्ट नहीं किया गया कि यह भूमि कौन देगा और कहाँ से देगा।

    एडम योजना की अस्वीकृति

    तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड ऑकलैण्ड ने मैकॉले के विवरण पत्र, शिक्षा नीति, 1835 और एडम की तीनों रिपोर्टों का बारीकी से अध्ययन किया, उन पर विचार-विमर्श किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि उस समय सीमित साधनों से देश में जन शिक्षा की व्यवस्था नहीं की जा सकती थी अतः उसने एडम द्वारा प्रस्तुत योजना को अस्वीकृत कर दिया और निस्यन्दन सिद्धान्त को लागू करने का फैसला किया।

    निस्यन्दन सिद्धान्त को सरकारी नीति का रूप (लॉर्ड ऑकलैण्ड की शिक्षा नीति 1839)

    जब 1835 में लॉर्ड ऑकलैण्ड (Lord Auckland) भारत का गवर्नर जनरल बनकर आया तो उसके सामने शिक्षा सम्बन्धी दो समस्याएँ थी- प्राच्य-पाश्चात्य विवाद का निस्तारण और शिक्षा की नई नीति का निर्धारण। उसने सर्वप्रथम प्राच्य-पाश्चात्य विवाद के कारणों का अध्ययन किया और उसके बाद उसको समाप्त करने के उपाय खोजे। उसे यह समझने में देर नहीं लगी कि प्राच्यवादियों का मुख्य विशेष इसलिए है कि प्राज्यवादी शिक्षा के लिए अपेक्षाकृत कम धनराशि दी जाती है। 

    अतः उसने प्राच्यवादी शिक्षा के लिए अतिरिक्त 31 हजार रुपया प्रतिवर्ष स्वीकार किया। अब प्रश्न था पाश्चात्यवादियों को सन्तुष्ट करने का, उसने पाश्चात्यवादी शिक्षा की व्यवस्था के लिए भी अतिरिक्त एक लाख रुपया प्रतिवर्ष देना मंजूर किया। अब दूसरी समस्या थी शिक्षा की नई नीति के निर्धारण की। इस सन्दर्भ में वह मैकॉले के विचारों से प्रभावित था, निष्यन्दन सिद्धान्त का समर्थक था। 

    अतः उसने 24 नवम्बर 1830 को अपनी शिक्षा नीति की घोषणा की ओर उसमें स्पष्ट घोषणा की सरकार के प्रयास समाज के उच्च वर्ग के व्यक्तियों में उच्च शिक्षा का प्रसार करने तक सीमित रहने चाहिएं, जिनके पास अध्ययन के लिए अवकाश (समय) है और जिनकी संस्कृति छन-छन कर जन साधारण तक पहुँचेगी' (Attempts of government should be restricted to the extension of Higher Education to the upper class of society who have leisure for study and whose culture would filter down to the masses.-Auckland Minute)।  

    साथ ही उसने प्राच्यवादियों को पूर्ण रूप से सन्तुष्ट करने के लिए निम्नलिखित घोषणाएँ और की- 

    • प्राच्य विद्यालयों को यथावत् चलने दिया जाएगा और उनको आर्थिक अनुदान यथावत् दिया जाता रहेगा।
    • प्राच्य शिक्षा के लिए जो अतिरिक्त धनराशि 31 हजार रुपया प्रतिवर्ष मंजूर की गई है उसे प्राच्यवादी शिक्षा के प्रचार और प्राच्य पुस्तकों के प्रकाशन पर व्यय किया जा सकेगा। साथ ही यदि प्राच्य विद्यालय अपने अन्दर पाश्चात्य विषयों के अध्ययन की सुविधा उपलब्ध कराना चाहें तो वे इस धनराशि को उस मद में भी व्यय कर सकते हैं।
    • प्राच्य विद्यालयों के शिक्षकों को सम्मानजनक पर्याप्त वेतन दिया जाएगा। 
    • प्राच्य विद्यालयों में पढ़ने वाले 25 प्रतिशत छात्रों को छात्रवृत्तियाँ दी जाएँगी। 

    निस्यन्दन सिद्धान्त और ऑकलैण्ड की शिक्षा नीति का प्रभाव 

    निस्यन्दन सिद्धान्त और उस पर आधारित ऑकलैण्ड की शिक्षा नीति के प्रभाव को निम्नलिखित शीर्षको में देखा-समझा जा सकता है-

    • प्राच्य-पाश्चात्य विवाद का अन्त।
    • अंग्रेजी प्रणाली की उच्च शिक्षा का प्रसार
    • अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीयों को सरकारी नौकरियों के अवसर।
    • अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त उच्च वर्ग का निर्माण।
    • अंग्रेज भक्त और राष्ट्रभक्त दोनों प्रकार के व्यक्तियों का निर्माण।
    • वर्ग संघर्ष की शुरुआत।
    • शिक्षा ऊपर से नीचे पहुंचने का स्वप्न चूर।

    उपसंहार

    कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि निस्यन्दन सिद्धान्त अपने में त्रुटिपूर्ण था और इस सिद्धान्त पर आधारित ऑकलैण्ड की शिक्षा नीति एक धोखा थी। इसने देश में अनेक प्रकार के वर्ग उत्पन्न कर दिए-एक उच्च अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों का जो अपने को सभ्य और सुसंस्कृत मानते थे, दूसरा उच्च शिक्षा से वंचित व्यक्तियों का जो अपने को हेय समझते थे, एक सरकारी नौकरियों में कार्यरत व्यक्तियों का जो अपने को शासक समझते थे और दूसरा गैर सरकारी व्यक्तियों का जो अपने को शासित समझते थे। और जहाँ वर्ग भेद हो वहाँ वर्ग संघर्ष होना स्वाभाविक है। इस शिक्षा से एक वर्ग भेद और उत्पन्न हुआ अंग्रेज भक्त और राष्ट्रभक्तों का। अन्त में राष्ट्रभक्तों की विजय अंग्रेजों की इस पक्षपातपूर्ण शिक्षा नीति का ही सुपरिणाम था । अतः अन्त भला सो सब भला ।


    Post a Comment

    Previous Post Next Post