जीवन-परिचय
बिहारी का जन्म ग्वालियर राज्य के अन्तर्गत बसुआ गोविन्दपुर नामक गाँव में सन् 1603 ई0 में हुआ था। ये मथुरा के चौबे ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम केशव राय था, इनका बचपन बुन्देलखण्ड और युवावस्था ससुराल मथुरा में बीता। ससुराल से किसी बात पर अपमानित होने पर ये जयपुर के राजा मिर्जा जयसिंह के दरबार में आकर रहने लगे थे। जयपुर में रहकर इन्होंने अपने एकमात्र काव्य ग्रन्थ 'सतसई' की रचना की जिसमें 719 दोहे हैं। जीवन के अन्तिम दिनों में पत्नी के देहान्त हो जाने पर ये वृन्दावन चले गये थे और वहीं सन् 1663 ई० में इनका देहान्त हो गया।
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रचनाएँ
बिहारी की एकमात्र रचना 'बिहारी सतसई' है जो दोहा छन्द में लिखी गयी है। बिहारी की ख्याति केवल इसी ग्रन्थ पर आधारित है। बिहारी के इन दोहों में भक्ति, नीति और शृंगार आदि विषयों की विविधता है।
काव्यगत विशेषताएँ
(क) भाव पक्ष
(1) बिहारी रीतिकालीन सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। यद्यपि इन्होंने रीतिकालीन परम्परा के अनुसार किसी लक्षण ग्रन्थ की रचना नहीं की है फिर भी इनके काव्य को देखने से स्पष्ट होता है कि काव्य-रचना के समय इनका ध्यान काव्यांगों की ओर अवश्य था। सतसई के अनेक दोहे रसों, अलंकारों और नायिका भेदों के उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत किये जा सकते हैं।
(2) बिहारी के छोटे-छोटे दोहे के भावों की दृष्टि से गागर में सागर भरने की अद्भुत क्षमता है। बिहारी सतसई की भाव-प्रवणता केवल इसी एक बात से सिद्ध हो जाती है कि उनकी आज तक हिन्दी में जितनी टीकाएँ प्रकाशित हुई हैं शायद उतनी टीकाएँ किसी भाषा काव्य में नहीं प्रकाशित हुई हैं। बिहारी के किसी-किसी दोहे के अभीष्ट अर्थ को समझने के लिए काव्य-परम्परा की समस्त पृष्ठभूमि की जानकारी आवश्यक हो जाती है।
(3) यद्यपि इनके काव्य का मुख्य वर्ण्य विषय शृंगार ही है। किन्तु शृंगार के अतिरिक्त इन्होंने भक्ति विनय नीति दर्शन आदि पर भी अपनी मोहक अभिव्यक्ति प्रदान की है। शृंगार वर्णन में बिहारी ने संयोग और वियोग दोनों ही क्षेत्रों में अद्भुत सफलता प्राप्त की है।
(4) बिहारी की रचनाओं को दो कोटियों में विभक्त किया जा सकता है -
(क) कला प्रधान रचनाएँ- जिनमें शाब्दिक चमत्कार प्रदर्शित किये गये हैं।
(ख) भाव प्रधान रचनाएँ- जिनमें भावों की गम्भीरता निहित है।
(5) बिहारी के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता उनके भाषा की समाहार शक्ति है। कम-से-कम शब्दों में अधिक भाव व्यंजित करने की क्षमता बिहारी में है। बिहारी की भावप्रवणता को समझने के लिए गहराई में डूबना पड़ता है। भाषा और भाव दोनों दृष्टियों से बिहारी बेजोड़ हैं, इसलिए इनके सम्बन्ध में यह उक्ति सत्य चरितार्थ होती है-
सतसैया के दोहरे, ज्यों नाविक के तीर ।
देखन में छोटन लगे, घाव करें गम्भीर।।
(ख) कला पक्ष
(1) भाषा : बिहारी के काव्य की भाषा ब्रजी है जिसमें निखार और मंजा हुआ रूप दिखलाई पड़ता है। विषय के अनुकूल उनकी भाषा में कोमलता और माधुर्य है। ब्रजी के साथ-साथ यत्र-तत्र बुन्देलखण्डी, अरबी और फारसी के शब्द प्रयुक्त हुए हैं। दोहों में शब्द नगीने की तरह जड़े हुए से प्रतीत होते हैं। चित्रांकन की क्षमता बिहारी की भाषा का मुख्य गुण है। उनकी शब्द योजना और काव्य रचना बड़ी ही व्यवस्थित और गठित है।
(2) शैली : बिहारी की शैली मुक्तक काव्य की शैली है। विषयानुसार बिहारी की शैली को तीन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है-
1. प्रसाद पूर्ण सरल शैली- (भक्ति और नीति सम्बन्धी दोहों में)
2. माधुर्य पूर्ण व्यंजना प्रधान शैली- (श्रृंगार सम्बन्धी दोहों में)
3. चमत्कारपूर्ण शैली- ( दर्शन, ज्योतिष, गणित आदि विषयक दोहे में)
(3) रस-छन्द- अलंकार :
बिहारी की रचनाओं में शृंगार रस की प्रधानता है। श्रृंगार के अतिरिक्त उसमें हास्य, शान्त तथा भक्ति रस की भी रचनाएँ उपलब्ध होती हैं। शृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का बड़ा ही विशद् वर्णन इनकी रचनाओं में प्राप्त होता है।
गम्भीर भावों की अभिव्यक्ति के लिए बिहारी ने दोहा जैसे छोटे से छन्द को अपनाया है। इनकी सारी रचना दोहों में ही है जिसमें यमक, श्लेष, स्मरण, अन्योक्ति, उत्प्रेक्षा आदि विविध अलंकारों का प्रयोग हुआ है।
साहित्य में स्थान
सचमुच ही अपने काव्यगत गुणों के कारण ही बिहारी किसी महाकाव्य की रचना न करने पर भी केवल एक बिहारी सतसई की रचना के आधार पर हिन्दी के महाकवियों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। बिहारी के कला और भाव पक्ष पर विचार करने के पश्चात् यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि काव्य जो सिद्धहस्तता तुलसी को शान्त रस में, सूर को वात्सल्य रस में और भूषण को वीर रस में प्राप्त हुई, कवि बिहारी को शृंगार रस में प्राप्त हुई है।