आधुनिक काल
भारत प्रारम्भ से ही विदेशियों के आकर्षण का केन्द्र रहा है। 15वीं शताब्दी के अन्त (1498) में पुर्तगाली नाविक वास्कोडिगामा ने यूरोप से भारत आने के समुद्री जल मार्ग की खोज की। वह पहला यूरोपीय व्यक्ति था जो जल मार्ग द्वारा भारत के पश्चिमी बन्दरगाह कालीकट पहुँचने में सफल हुआ। परिणामतः 1510 में पुर्तगालियों ने भारत में प्रवेश किया। लगभग 100 वर्ष तक इनका यहाँ के व्यापार के क्षेत्र में एकछत्र राज्य रहा। 17वीं शताब्दी के प्रारम्भ (1613) में यहाँ अंग्रेज व्यापारियों का प्रवेश हुआ। इनके बाद इसी शताब्दी में क्रमशः डच, फ्रान्सीसी और डेन व्यापारियों का आगमन हुआ। इन यूरोपीय व्यापरियों में संघर्ष होना स्वाभाविक था। अन्त में यहाँ अंग्रेज व्यापारी पैर जमाने में सफल हुए।
उस समय भारत की आन्तरिक स्थिति बहुत नाजुक थी। देश छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित था, कई अधीनस्थ राज्यों ने तो विद्रोह करना शुरू कर दिया था। औरंगजेब (1659-1707) तो अपने पूरे कार्यकाल में विद्रोह दमन में ही लगा रहा। सच बात तो यह है कि उसके शासन काल में ही इस देश में मुगल साम्राज्य का पतन शुरू हो गया था। 1200 से लेकर 1700 तक तो यहाँ मुस्लिम शासकों और इस्लाम धर्म का वर्चस्व रहा परन्तु उसके बाद एक नए युग की शुरुआत हुई। इतिहासकार इस नए युग (1700 से आज तक) को आधुनिक काल कहते हैं। आधुनिक काल को भी इतिहासकारों ने दो उपकालों में विभाजित किया है-ब्रिटिश काल (1700) से 1947 तक) और स्वतन्त्र काल (1947 से आज तक)। शिक्षा की दृष्टि से ब्रिटिश काल को पुनः दो उपकालों में विभाजित किया जाता है- ईस्ट इण्डिया कम्पनी काल (1700 से 1857 तक) और ब्रिटिश शासन काल (1858 से 1947 तक)।
हम इस लेख में भारत में आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा के विकास में यूरोपीय मिशनरियों और ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रारम्भिक प्रयासों का क्रमबद्ध वर्णन प्रस्तुत है।
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यूरोपीय ईसाई मिशनरियों के प्रारम्भिक शैक्षिक कार्य
यूँ तो भारत में यूरोपीय जातियों में सर्वप्रथम पुर्तगाली व्यापारी और पुर्तगाली ईसाई मिशनरियों ने प्रवेश किया था और इसके बाद क्रमशः अंग्रेज, डच, फ्रान्सीसी, डेन और डच व्यापारी एवं ईसाई मिशनरी आए थे, परन्तु अन्त में यहाँ अंग्रेज व्यापारी और अंग्रेज ईसाई मिशनरी ही कामयाब हुए इसलिए थोड़ा क्रम भंग करके अंग्रेज ईसाई मिशनरियों के कार्यों का वर्णन अन्त में करना उचित होगा।
पुर्तगाली ईसाई मिशनरियों के शैक्षिक कार्य
1406 में पुर्तगाली नाविक वास्कोडिगामा ने भारत के जलमार्ग की खोज की और 1510 में पुर्तगालियों ने भारत के गोआ पर अपना अधिकार कर लिया। गोआ पर अधिकार करने के बाद पुर्तगाली व्यापारियों ने यहाँ व्यापारिक केन्द्र खोलने शुरू किए और ईसाई मिशनरियों ने एक साथ दो कार्य शुरू किए पहला ईसाई धर्म एवं संस्कृति का प्रचार और दूसरा शिक्षा संस्थाओं की स्थापना एवं संचालन पुर्तगाली मिशनरियों में सेन्ट फ्रान्सिस जैवियर (SI. Francis xavier) और राबर्ट डी नोबिली (Robert De Novili) के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इन्होंने पैदल घूम-घूमकर ईसाई धर्म का प्रचार किया था और शिक्षा संस्थाएँ स्थापित की थी।
पुर्तगाली व्यापारियों ने सर्वप्रथम गोआ में अपना व्यापारिक केन्द्र स्थापित किया। पुर्तगाली मिशनरियों ने भी यहाँ से अपना कार्य शुरू किया। यहाँ इन्होंने प्राथमिक स्कूलों की स्थापना की। इन स्कूलों में इन्होंने पुर्तगाली भाषा, स्थानीय भाषा, गणित और स्थानीय शिल्पों की शिक्षा की व्यवस्था को और साथ ही ईसाई धर्म की शिक्षा की व्यवस्था की। इन स्कूलों में ईसाई धर्म स्वीकार करने वालों के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी। निर्धन बच्चों को भोजन, वस्त्र और पाठ्यपुस्तकें भी निःशुल्क दी जाती थी। 1550 में इन्होंने यहां एक प्रिन्टिंग प्रेस खोला जिसमें धर्म पुस्तकें और पाठ्यपुस्तकें तैयार की जाती थीं। और जैसे-जैसे पुर्तगाली व्यापारियों का क्षेत्र बढ़ता गया वैसे-वैसे पुर्तगाली मिशनरियों का कार्य क्षेत्र भी बढ़ता गया। गोआ के बाद इन्होंने दमन, डयू, हुगली, कोचीन, चटगांव और बम्बई में प्राथमिक स्कूलों की स्थापना की ।
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पुर्तगाली मिशनरियों ने भारत में आधुनिक प्राथमिक शिक्षा के साथ-साथ आधुनिक उच्च शिक्षा की भी शुरुआत की। इन्होंने सर्वप्रथम 1575 में गोआ में जैमुएट कॉलिज (Jesuct College) की स्थापना की और उसके बाद 1577 में बम्बई के निकट बांद्रा में सेंट एनी कॉलिज (St. Anni College) की स्थापना की। इन कॉलिजों में लैटिन भाषा, व्याकरण, तर्कशास्त्र और संगीत की शिक्षा की व्यवस्था की गई और साथ ही ईसाई धर्म की शिक्षा की व्यवस्था की गई। जैसुएट पादरियों से प्रभावित होकर तत्कालीन बादशाह अकबर ने भी आगरे में जैसुएट कॉलिज की स्थापना की थी। परन्तु जैसे ही पुर्तगालियों ने दिल्ली की तरफ आँख उठाई तत्कालीन बादशाह शाहजहाँ ने 1662 में उन्हें मार भगाया। परन्तु गोआ में उनका प्रभुत्व बरकरार रहा। पुर्तगाली भातर में यूरोपीय शिक्षा प्रणाली को नींव रखने वाले माने जाते हैं।
डच ईसाई मिशनरियों के शैक्षिक कार्य
17वीं शताब्दी के मध्य में भारत में हॉलैण्ड निवासी डच व्यापारियों ने प्रवेश किया। इन्होंने अपने व्यापारिक संस्थान समुद्र के किनारे बंगाल में चिनसुरा और हुगली में तथा मद्रास में नागापट्टम् और बिल्लीपट्टम् में स्थापित किए। इनके साथ डच ईसाई मिशनरी भी आए थे। इन डच ईसाई मिशनरियों ने कारखानों में काम करने वाले डच नागरिकों और भारतीय नागरिकों, दोनों के बच्चों की शिक्षा के लिए प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना की। इन विद्यालयों में सामान्य भारतीय नागरिकों के बच्चे भी प्रवेश ले सकते थे। इन स्कूलों में इन्होंने डच भाषा, स्थानीय भाषाओं, भूगोल, गणित और स्थानीय कला-कौशलों की शिक्षा की व्यवस्था यूरोपीय पद्धति पर की। इन्होंने विद्यालयों को ईसाई धर्म शिक्षा का केन्द्र नहीं बनाया। परन्तु अंग्रेजों से शत्रुता हो जाने के कारण इन्हें शीघ्र ही भारत छोड़ना पड़ा।
फ्रान्सीसी ईसाई मिशनरियों के शैक्षिक कार्य
1667 में भारत में फ्रान्सीसी व्यापारियों ने प्रवेश किया। ये भी अपने साथ फ्रान्सीसी ईसाई पादरी लाए थे। इन्होंने अपने कारखाने माही, यनाम, कारोकल, चन्द्रनगर और पाण्डिचेरी में स्थापित किए। इन्होंने कारखानों के निकट प्राथमिक विद्यालयों को स्थापना की। इन विद्यालयों की व्यवस्था फ्रान्सीसी ईसाई मिशनरियों के हाथ में थी। इन विद्यालयों में फ्रान्सीसी और स्थानीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा दी जाती थी। इनमें फ्रान्सीसी माध्यम से शिक्षा देने हेतु फ्रान्सीसी शिक्षक नियुक्त किए जाते थे और भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा देने हेतु भारतीय शिक्षक नियुक्त किए जाते थे। इनमें ईसाई धर्म (कैथोलिक) की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाती थी और इसके लिए प्रत्येक स्कूल में एक पादरी शिक्षक अवश्य नियुक्त किया जाता था।
फ्रान्सोसियों ने पाण्डिचेरी में एक माध्यमिक स्कूल की स्थापना भी की। इसमें फ्रान्सीसी भाषा और ईसाई धर्म शिक्षा अनिवार्य थी। परन्तु जैसे ही इनको राजनैतिक आकांक्षाएँ बढ़ी अंग्रेजों ने इन्हें कर्नाटक के युद्ध में परास्त कर भारत छोड़ने के लिए विवश कर दिया। इसके बाद इनके द्वारा संस्थापित शिक्षा संस्थाओं को अंग्रेज ने अपने तरीकों से चलाया।
डेन ईसाई मिशनरियों के शैक्षिक कार्य
17वीं शताब्दी के अन्त (1680) में भारत में डेनमार्क निवासी डेन व्यापारी और डेन ईसाई मिशनरी आए। डेन व्यापारियों ने सौरामपुर, ट्रावनकोर, तंजौर और चित्रनापल्ली में अपने कारखाने स्थापित किए। इनका उद्देश्य व्यापार के साथ-साथ ईसाई धर्म का प्रचार एवं प्रसार करना भी था। इन्होंने धर्म प्रचार के लिए शिक्षा को साधन बनाया और ट्रावनकोर, तंजौर और मद्रास में प्राथमिक स्कूलों की स्थापना की और इनकी व्यवस्था डेन मिशनरियों के हाथों में सौंप दी। इन स्कूलों में शिक्षा का माध्यम स्थानीय भाषाएँ थीं, इनमें ईसाई धर्म की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाती थी। दक्षिण भारत में तमिल भाषियों के लिए बाईबिल का तमिल भाषा में अनुवाद भी किया गया था और उसे छापने के लिए वहाँ तमिल भाषा का प्रिंटिंग प्रेस भी लगाया गया था। परिणामतः ये 50,000 भारतीयों को ईसाई बनाने में सफल हुए।
डेनों ने 1716 में ट्रावनकोर में एक शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय की स्थापना भी की। इस महाविद्यालय में अंग्रेजी और विभिन्न भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षण करने का प्रशिक्षण दिया जाता था परन्तु ये लोग व्यापार के क्षेत्र में सफल नहीं हुए और अन्त में 1845 में अपने सभी कारखाने अंग्रेजों को बेचकर स्वदेश लौट गए।
अंग्रेज ईसाई मिशनरियों के शैक्षिक कार्य
भारत में आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के विकास में सबसे अधिक योगदान अंग्रेज ईसाई मिशनरियों का रहा। 1613 में इस देश में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ब्रिटेन का प्रवेश हुआ ऐसा उल्लेख मिलता है कि इंग्लैण्ड से ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रत्येक जहाज के साथ एक पादरी आता था। इन पादरियों का उस समय एक ही उद्देश्य था- ईसाई धर्म एवं संस्कृति का प्रचार इस कार्य के लिए इन्होंने बंगाल को अपना केन्द्र बनाया। इन्होंने यह कार्य दो माध्यमों से करना शुरू किया- एक शिक्षा के माध्यम से और दूसरा दोन-दोनों को सेवा के माध्यम से। इस कार्य के सम्पादन के लिए इन्हें इंग्लैण्ड के अनेक मिशनरी संगठनों से पैसा प्राप्त होता था, साथ ही इस देश में कार्यरत ईस्ट इण्डिया कम्पनी का संरक्षण एवं आर्थिक सहयोग प्राप्त था।
अंग्रेज ईसाई मिशनरियों ने यहाँ कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में अनेक धर्मार्थ विद्यालयों (Charity Schools) की स्थापना की। इनमें दो प्रकार के विद्यालय थे- एक ऐसे जिनमें अंग्रेजी भाषा के माध्यम से शिक्षा दी जाती थी और दूसरे ऐसे जिनमें स्थानीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा दी जाती थी। परन्तु दोनों प्रकार के विद्यालयों में ईसाई धर्म की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाती थी
प्रारम्भ में यह कार्य कुछ धीमी गति से चला 1698 में ब्रिटेन की सरकार ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को जारी किए गए अपने आज्ञा पत्र में कम्पनी को अपनी छावनियों में पादरी रखने और विद्यालय चलाने की आज्ञा प्रदान की। इससे कम्पनी के संचालकों और पादरियों ने थोडे अधिक उत्साह से इस कार्य को आगे बढ़ाया और कुछ ही वर्षों में, 1731 तक इन्होंने बंगाल, बम्बई और मद्रास में सैकड़ों प्राथमिक स्कूलों की स्थापना कर डाली। मद्रास में इन्होंने एक माध्यमिक स्कूल की भी स्थापना की।
इन सभी स्कूलों में ईसाई धर्म की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाती थी। परन्तु इस बीच ईस्ट इण्डिया कम्पनी को राजनैतिक आकांक्षाएं आसमान छूने लगीं, वे भारत की आन्तरिक फूट का लाभ उठाकर यहाँ अपना साम्राज्य स्थापित करने की बात सोचने लगे और इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने शिक्षा सम्बन्धी अपनी नीति में कुछ परिवर्तन किया। स्कूलों के माध्यम से धर्म प्रचार पर कुछ अंकुश किया। 1757 के प्लासी और 1764 के बक्सर युद्ध की विजय के बाद कम्पनी तत्कालीन बंगाल, बिहार और अवध प्रान्तों को शासक बन गई। अब उसने ईसाई मिशनरियों को सहायता देने के साथ-साथ स्वयं अनेक शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की।
परन्तु बंगाल में यह कार्य अपनी गति से चलता रहा। इस सन्दर्भ में बंगाल के सौरामपुर के तीन ईसाई मिशनरी 'कैरे (Carey), वार्ड (Ward) और मार्शमैन (Marshman) के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। ये सीरामपुर त्रिमूर्ति (Serampore Tris) के नाम से प्रसिद्ध थे। IMK में इन्होंने एक पुस्तिका 'हिन्दू और मुस्लमानों के नाम निवेदन' (Address to Hindus and Muslims) प्रकाशित को इस पुस्तक में इन्होंने हिन्दू धर्म को अज्ञान और अन्धविश्वासपूर्ण बताया और मुहम्मद साहब को झुठा पैगम्बर बताया।
इससे हिन्दू और मुसलमान दोनों भड़क उठे। इन्हें शान्त करने के लिए तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड मिन्टी (Lord Mints) ने इन तीनों को बन्दी बना लिया और इनके प्रेस को जब्त कर लिया। साथ ही ईसाई मिशनरियों द्वारा धर्म प्रचार पर रोक लगा दी। इंग्लैण्ड में कम्पनी के इस निर्णय का विरोध शुरू हुआ। वहाँ को पार्लियामेन्ट में दो दल बन गए एक कम्पनी के निर्णय के समर्थक और दूसरे कम्पनी के निर्णय के विरोधी परिणामतः 1813 के आज्ञा पत्र में ईसाई मिशनरियों को भारत में बे रोक-टोक आने का अधिकार दिया गया और कम्पनी को ईसाई मिशनरियों को शिक्षा को आवस्था करने की छूट देने का आदेश दिया गया।
परोक्ष रूप में यह धर्म प्रचार का भी अधिकार था, और तब से भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की समाप्ति तक ये मिशनरियों भारत में विद्यालयों की स्थापना और ईसाई धर्म का प्रचार निर्वाध गति से करती रही और चौकाने वाला तथ्य यह है कि ये मिशनरियों आज भी हमारे देश में ये दोनों कार्य कर रही हैं। इन मिशनरियों द्वारा चलाई जा रही शिक्षा संस्थाओं के पीछे उद्देश्य कुछ भी हो, परन्तु ये उत्तम श्रेणी की शिक्षा संस्थाएँ है, हमारे आकर्षण की केन्द्र है।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रारम्भिक शैक्षिक कार्य
भारत प्राचीन समय से ही अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार केन्द्र रहा है। 1998 में नाविक पुर्तगाली वास्कोडिगामा द्वारा भारत के जल मार्ग की खोज के बाद यहाँ यूरोपीय व्यापारी आने लगे। इनमें सबसे पहले 1510 में पुर्तगाली व्यापारी आए। इनकी सफलता से प्रभावित होकर 1999 में इंग्लैण्ड के व्यापारियों ने 'ईस्ट इण्डिया कम्पनी' का निर्माण किया। 1600 में इंग्लैण्ड को तत्कालीन महारानी एलिजा प्रथम ने इस कम्पनी को भारत में व्यापार करने की अनुमति प्रदान की। 1600 में कैप्टिन हॉकिन्स भारत आए और उन्होंने तत्कालीन बादशाह जहाँगीर से भारत में अपने व्यापारिक केन्द्र स्थापित करने की आज्ञा मांगी। उस समय तो जहाँगीर सहमत नहीं हुआ, परन्तु 1613 में उसने उन्हें सूरत में अपने कारखाने एवं व्यापारिक केन्द्र खोलने की आज्ञा प्रदान कर दी। आरम्भ में कम्पनी ने सूरत को ही अपना व्यापारिक केन्द्र बनाया उसके बाद धीरे-धीरे बम्बई, कलकत्ता और मद्रास में अपने केन्द्र स्थापित किए।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी वाले अपने साथ ईसाई पादरी भी लाए थे। ऐसा उल्लेख मिलता है कि ब्रिटेन से आने वाले इनके प्रत्येक जहाज के साथ एक पादरी अवश्य आता था। कम्पनी ने इन पादरियों को कम्पनी में कार्य करने वालों के बच्चों की शिक्षा का कार्यभार सौंपा, परन्तु इन पादरियों का इरादा कुछ और ही था, यहाँ शिक्षा के माध्यम से ईसाई धर्म की भी शिक्षा देना चाहते थे। कम्पनी के संचालकों को इसमें क्या आपत्ति होती ! ईसाई मिशनरियों ने अपना यह कार्य शुरू किया और कम्पनी के अधिकारियों ने उनकी सहायता करनी शुरू की।
परन्तु प्रारम्भ में कम्पनी का मुख्य उद्देश्य अपना व्यापार जमाना था इसलिए शिक्षा को व्यवस्था और ईसाई धर्म के प्रचार की गति कुछ धीमी रही। 1608 में ब्रिटेन की सरकार ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को नया आज्ञा पत्र जारी किया। इस आज्ञा पत्र में उसने कम्पनी की अपनी छावनियों में पादरी रखने और विद्यालय चलाने की आज्ञा प्रदान की। इस आज्ञा पत्र को प्राप्त करने के बाद कम्पनी ने पादरियों को स्कूल चलाने में और अधिक सहायता देना शुरू किया। साथ ही उसने कम्पनी के कर्मचारियों के बच्चों के लिए स्कूलों की स्थापना की। परन्तु जब 1757 के प्लासी युद्ध और 1764 के बक्सर के युद्ध को विजय के बाद कम्पनी तत्कालीन बंगाल, बिहार और अवध प्रान्तों की शासक बन गई तो उसके हौसले बुलन्द हो गए।
अब उसके सामने प्रश्न था अपने अधीन क्षेत्र के बच्चों को शिक्षा का इस सम्बन्ध में कम्पनी में दो मत उधर एक वर्ग का मत था कि भारत में अंग्रेजी प्रणाली की शिक्षा की व्यवस्था की जाए भारतीयों को पाश्चात्य भाषा, साहित्य, ज्ञान और विज्ञान की शिक्षा दी जाए और उसके साथ-साथ उन्हें ईसाई धर्म एवं संस्कृति की शिक्षा दी जाए। दूसरे वर्ग का मत था कि भारतीयों को पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान से परिचित न कराया जाए, इन्हें केवल इनकी भाषाओं का सामान्य ज्ञान कराया जाए और साथ में ईसाई धर्म की शिक्षा दी जाए। 1792 में चार्ल्स ग्रांट (Charls grant) ने इंग्लैण्ड में एक पुस्तिका- 'ग्रेट ब्रिटेन' के एशियाई प्रजाजनों को सामाजिक स्थिति पर विचार (Observations on The States Society Among The Assiastic Subjects of Grcal Britain) प्रकाशित की। ग्रान्ट भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कर्मचारी के रूप में कार्य कर चुका था। उसने अपने अनुभव के आधार पर इस पुस्तक में दो बातें बल देकर लिखी पहली यह कि भारत के हिन्दू और मुसलमान दोनों अज्ञानी हैं और दूसरी यह कि इनके धर्म अन्धविश्वासों पर आधारित है। उसने यहाँ तक लिखा कि मुहम्मद साहब झूठे पैगम्बर है।
उसने अपनी इस पुस्तक में भारतीयों को अज्ञानता और अन्धविश्वासों को दूर करने के लिए पाँच मुझाव दिए-
- भारत में शिक्षा को उचित व्यवस्था की जाए,
- अंग्रेजी की शिक्षा का माध्यम बनाया जाए,
- भारतीयों को अंग्रेजी भाषा और साहित्य पढ़ाया जाए,
- भारत में पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान का प्रसार किया जाए और
- भारत में ईसाई धर्म का व्यापक रूप से प्रचार किया जाए।
ब्रिटेन की पार्लियामेन्ट के एक सदस्य रॉबर्ट विल्वर फोर्स (Robert Wilberforce) ग्रान्ट के विचारों से बहुत प्रभावित हुए। 1793 में जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी का आज्ञा पत्र (Charter) पुनरावर्तन के लिए वहाँ की पार्लियामेन्ट में पेश हुआ तो रॉबर्ट विल्वर फोर्स ने एक प्रस्ताव रखा कि इसमें एक ऐसी धारा जोड़ दी जाए जिससे मिशनरियों और स्कूल शिक्षकों को बड़ी संख्या में भारत भेजा जा सके और उनके द्वारा भारतीयों को यूरोपीय ज्ञान और सच्चे धर्म को शिक्षा दी जा सके।
उनके इस प्रस्ताव का सबसे अधिक विरोध किया पार्लियामेन्ट के मदस्य रेडल जैक्सन (Rendle Jacson) ने। उन्होंने कहा- हमने अपनी शिक्षा का प्रचार करके अमेरिका में अपने उपनिवेशों को खो दिया। है. हमें भारत में वही कार्य करने को आवश्यकता नहीं है (We lost our colonics in America by [imparting our education there, we need not to do so in India too) एक लम्बी बहस के बाद राबर्ट बिल्वर फोर्स का प्रस्ताव नामंजूर कर दिया गया। परन्तु इस आज्ञा पत्र (Charter Act, 1993) में एक धारा यह जोड़ दी गई कि भारत की जनता के उत्थान के लिए उन्हें उपयोगी ज्ञान और धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा दी जाएगी। परिणाम यह हुआ कि भारत में ईसाई मिशनरियों के आने में कुछ रोक लगी और प्राथमिक शिक्षा और ईसाई धर्म, दोनों के प्रसार की गति कुछ कम हो गई, परन्तु कम्पनी अपने प्राथमिक स्कूल बराबर चलाती रही।
इस बीच कम्पनी को अपने व्यापारिक और शासन दोनों क्षेत्रों में कनिष्ठ पदों पर कार्य करने के लिए अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीयों की और अधिक आवश्यकता हुई। अतः उसने अपनी शिक्षा नीति में थोड़ा परिवर्तन किया और उच्च शिक्षा को संस्थाएं खोलना शुरू किया। उसने 1781 में कलकत्ता मदरसा, 1791 में बनारस संस्कृत कॉलिज और 1800 में फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना की। यहां इन कॉलिजों का सामान्य परिचय प्रस्तुत है।
1. कलकना मदरसा
1772 में वारेन हेस्टिंग (Waren Hastings) भारत का गवर्नर जनरल नियुक्त हुआ। वारेन हेस्टिंग ने कलकता के सम्भ्रात मुसलमानों के निवेदन पर 1781 में इस मदरसे को स्थापना की। इस मदरसे की स्थापना के पीछे उसके दो प्रमुख उद्देश्य थे- कलकत्ता के मुसलमानों की सद्भावना प्राप्त करना और कम्पनी तथा शासन के कनिष्ठ पदों के लिए भारतीयों, विशेषकर मुसलमानों को तैयार करना। इस मदरसे में 7 वर्षीय उच्च शिक्षा की व्यवस्था की गई। इसके पाठ्यक्रम में अरबी, फारसी और मुस्लिम कानून की शिक्षा के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा और साहित्य, अंकगणित, रेखागणित, तर्कशास्त्र, नक्षत्रशास्त्र और दर्शन की शिक्षा को भी सम्मिलित किया गया। इसमें शिक्षा का माध्यम अरबी भाषा थी। कुछ ही समय में इस मदरसे की ख्याति भारतवर्ष में फैल गई और देश के हर भाग से छात्र इसमें प्रवेश लेने आने लगे।
2. बनारस संस्कृत कॉलिज
इस कॉलिज की स्थापना बनारस राज्य के तत्कालीन रेजीडेन्ट जानेवन डंकन (Jancthan Duncan) ने 1791 में की थी इस कॉलिज की स्थापना के पीछे दो मुख्य उद्देश्य थे- भारत के मूल निवासी हिन्दुओं की सद्भावना प्राप्त करना और कम्पनी तथा शासन के कनिष्ठ पदों पर कार्य करने के लिए भारतीयों, विशेषकर हिन्दुओं को तैयार करना। इस प्रकार जिन उद्देश्यों से कलकत्ता मदरसे की स्थापना की गई थी उन्हीं उद्देश्यों से बनारस संस्कृत कॉलिज को स्थापना की गई थी।
अतः इसका पाठ्यक्रम भी उसी तर्ज पर निश्चित किया गया, इसमें संस्कृत और हिन्दी भाषा हिन्दू धर्म-दर्शन और हिन्दू नियम-कानून को शिक्षा की व्यवस्था की गई और साथ ही अंग्रेजी भाषा और साहित्य, अंकगणित, रेखागणित, तर्कशास्त्र, नक्षत्रशास्त्र, दर्शन और इतिहास की शिक्षा की व्यवस्था की गई। इसमें शिक्षा का माध्यम हिन्दी और अंग्रेजी दोनों को रखा गया। कलकत्ता मदरसे को भांति इस कॉलिज की ख्याति भी उस समय पूरे भारतवर्ष में फैल गई और देश के हर भाग से छात्र यहाँ अध्ययन करने आने लगे।
3. फोर्ट विलियम कॉलिज
इस कॉलेज की स्थापना भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड वैलेजली (Lord Wellesly) ने 1800 में कलकत्ता में की। कलकत्ता मदरसा मुख्यत मुसलमानों के लिए स्थापित किया गया था और बनारस संस्कृत कॉलिज मुख्यतः हिन्दुओं के लिए स्थापित किया गया था परन्तु यह कॉलिज इन दोनों के लिए स्थापित किया गया था और साथ ही प्रवासी अंग्रेजों के बच्चों की शिक्षा के लिए किया गया था। इसके मुख्य उद्देश्य थे-हिन्दू, मुसलमान और अंग्रेज, सभी को उच्च शिक्षा प्रदान करना और उन्हें सभी प्रकार के असैनिक कार्यों के लिए तैयार करना। तदनुकूल इसका पाठ्यक्रम भी अति विस्तृत था। इसमें संस्कृत, हिन्दी, अरबी फारसी और अंग्रेजी भाषाओं की शिक्षा की व्यवस्था की गई और साथ ही इतिहास, भूगोल, राजनीतिशास्त्र, अंकगणित, रेखागणित, तर्कशास्त्र और दर्शन आदि अनेक अन्य विषयों की शिक्षा की व्यवस्था की गई। इसमें शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी था। डॉ० केरे (Carcy), कोलबुक (Colebrooke) और पं० ईश्वरचन्द्र विद्यासागर आदि विद्वान इसमें शिक्षक नियुक्त किए गए। डॉ० गिल क्राइस्ट (Gilchrist) 1804 से 1820 तक इसके प्रिन्सीपल रहे। इसमें हिन्दू, मुसलमान और ईसाई, विशेष रूप से कम्पनी के असैनिक कर्मचारी शिक्षा प्राप्त करते थे।
1806 में यहाँ सीरामपुर त्रिमूर्ति काण्ड हो गया। तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड मिन्टो (Lord Minto) ने ईसाई धर्म के प्रचार पर रोक लगा दी। इंग्लैण्ड में पादरियों ने इसका विरोध शुरू किया। चार्ल्स ग्रान्ट ने इस आन्दोलन का नेतृत्व किया। परिणामस्वरूप 1813 में जब कम्पनी का नया आज्ञा पत्र प्रसारित हुआ तो उसमें ईसाई मिशनरियों को भारत आने और ईसाई धर्म का प्रचार एवं प्रसार करने को खुली छूट दे दी गई और कम्पनी को यह आदेश दिया गया कि वह भारतीयों की शिक्षा पर कम से कम एक लाख रुपया प्रतिवर्ष व्यय करे। यहाँ से भारत में शिक्षा की व्यवस्था करना कम्पनी का संवैधानिक उत्तरदायित्व हो गया।
निष्कर्ष-
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ईसाई मिशनरियों ने भारत में शिक्षा का प्रसार किया तो ईसाई धर्म के प्रचार के लिए था परन्तु इस प्रयास में उन्होंने भारत में अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली की शुरुआत कर दी- स्कूलों की पाठ्यचर्या निश्चित की पाठ्यचर्या के अनुकूल पाठ्य पुस्तकें तैयार की और उनका प्रकाशन किया और शिक्षण की पाठ्य पुस्तक प्रणाली की शुरुआत की। ईसाई मिशनरियों ने ही भारत में प्रथम बार क्षेत्रीय भाषाओं के माध्यम से जन शिक्षा की व्यवस्था की, विद्यालयों में समय-सारणी के अनुसार शिक्षण कार्य शुरु किया, कक्षा प्रणाली लागू की और कक्षोन्नति के लिए परीक्षा की व्यवस्था की।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी की तो इस क्षेत्र में दोहरी भूमिका रही। प्रथमतः तो उसने ईसाई मिशनरियों को भारत में शिक्षा की व्यवस्था के लिए प्रोत्साहन दिया और उन्हें आर्थिक सहायता दी, भले ही उसका मुख्य उद्देश्य ईसाई धर्म का प्रचार एवं प्रसार रहा हो। द्वितीय उसने भारतीयों को शिक्षा की व्यवस्था करना अपना उत्तरदायित्व समझा और जब वह इस देश में शासक के रूप में स्थापित हुई तो उसने भारतीयों की शिक्षा की योजना बनाने और उस पर तदनुकूल व्यय करना शुरु किया, उसकी तदनुकूल व्यवस्था करनी शुरू की। यही से भारत में शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य के उत्तरदायित्व को सोमा में आना शुरू हुआ और कम्पनी ने अपने इस उत्तरदायित्व को 1857 तक निभाया।