लगभग ईसा पूर्व पाँचवीं शताब्दी से जन-जीवन की परवर्तित आवश्यकताओं की पूर्ति न कर सकने के कारण वैदिक कालीन अथवा ब्राह्मणीय शिक्षा में विश्रृंखलता के चिन्ह दृष्टिगोचर होने लगे थे। भारत के सौभाग्य से उसके एक शताब्दी पूर्व ही महात्मा गौतम बुद्ध ने इस देश की भूमि पर अवतरित होकर शिक्षा को समयानुकूल बनाने के विचार से उसके कलेवर में परिवर्तन करके बौद्ध शिक्षा को जन्म दिया। इस शिक्षा के विषय में डॉ० एफ० ई० केई ने लिखा है- "बौद्ध-शिक्षा 1,500 वर्ष से अधिक प्रचलित रही और उसने ऐसी शिक्षा पद्धति का विकास किया जो ब्राह्मणीय शिक्षा-पद्धति की प्रतिद्वन्द्वी थी, पर अनेक बातों में उसके सदृश थी।"
बौद्ध कालीन शिक्षा की व्यवस्था
बौद्ध धर्म का विकास मठों में हुआ था। ये मठ न केवल धर्म के वरन् शिक्षा के भी केन्द्र थे और शिक्षा देने का कार्य उनमें निवास करने वाले भिक्षुओं द्वारा किया जाता था। इन तथ्यों पर प्रकाश डालते हुए डॉ० आर० के० मुकर्जी ने लिखा है- बौद्ध मठ, बौद्ध-शिक्षा और ज्ञान के केन्द्र थे। बौद्ध- संसार अपने मठों से पृथक् या स्वतन्त्र रूप में शिक्षा प्राप्त करने का कोई अवसर नहीं देता था। धार्मिक और लौकिक, सब प्रकार की शिक्षा, भिक्षुओं के हाथ में थी । " प्राचीन काल के समान बौद्ध काल में भी केवल प्राथमिक एवं उच्च शिक्षा की व्यवस्था थी और शिक्षा के यही दो स्तर थे।
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- भारतीय शिक्षा आयोग (हण्टर कमीशन), 1882 | [Indian Education Commission, 1882]
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1. प्राथमिक शिक्षा
सामान्य परिचय : हमें जातक कथाओं से ज्ञात होता है कि प्राथमिक शिक्षा केवल बौद्ध धर्मावलम्बियों को ही नहीं, वरन् सब जातियों के बालकों को उपलब्ध थी। यह शिक्षा मठों में दी जाती थी और आरम्भ से पूर्णतया धार्मिक थी किन्तु जब कुछ समय के उपरान्त ब्राह्मणों ने प्रतिद्वन्द्वी शिक्षा-संस्थाएँ स्थापित करके उनमें लौकिक शिक्षा देनी आरम्भ कर दी, तब मठों में भी इस शिक्षा की व्यवस्था कर दी गई। पाँचवी शताब्दी में भारत आने वाले चीनी यात्री फाह्यान (Fa- Hien) के लेखों में इस बात का उल्लेख मिलता है।
प्रवेश व अवधि : सातवीं शताब्दी में भारत आने वाले चीनी यात्री, आइसांग (I-Tsing) के अनुसार, प्राथमिक शिक्षा आरम्भ करने की आयु 6 वर्ष की थी। इस शिक्षा की अवधि साधारणतः 6 वर्ष की थी।
पाठ्यक्रम : सातवीं शताब्दी में भारत आने वाले चीनी यात्री हेनसांग (Hiuen-Tsing) प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम का वर्णन इस प्रकार किया है-
बालकों को प्रथम 6 माह में सिद्धिरस्तु (Siddhirastu) नामक बालपोथी पढनी पडती थी। इस पोथी में 12 अध्याय और वर्णमाला के 49 अक्षर थे, जिनको विभिन्न क्रम में रखकर 300 से अधिक श्लोकों की रचना की गई थी। 16 माह के बाद बालकों को अग्रांकित पाँच विद्याओं की शिक्षा दी जाती थी शब्द-विद्या, तर्क-विद्या, चिकित्सा- विद्या, अध्यात्म-विद्या और शिल्प-स्थान- विद्या (Grammar Logic, Medicine, Metaphysics & Arts and crafts)। इस प्रकार पाठ्यक्रम में धार्मिक और लौकिक दोनों विषयों को स्थान दिया गया था।
शिक्षण विधि : एलबर्ट फिटके (Albert Fyiche) के अनुसार, सामान्य शिक्षण विधि इस प्रकार थी- कि शिक्षक, लकड़ी की तख्ती पर वर्णमाला के अक्षरों को लिखता था और उनका उच्चारण करता था। बालक उसके उच्चारण का अनुकरण करते थे। इस प्रकार, जब कुछ समय के बाद उनको अक्षरों का ज्ञान हो जाता था, तब वे उनको लिखते थे। पाठ्य विषय के शिक्षण का अध्यापक आगे-आगे बोलता था और बालक उसके कथन को उस समय तक दोहराते थे जब तक उनको पाठ्य-विषय कण्ठस्थ नहीं हो जाता था। इस प्रकार, शिक्षण विधि पूर्णतया मौखिक थी।
शिक्षा का माध्यम : मठ- विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम, जनसाधारण की भाषा पाली थी न कि ब्राह्मणीय शिक्षालयों की संस्कृति ।
2. उच्च शिक्षा
सामान्य परिचय : उच्च शिक्षा के द्वार सभी धर्मों और जातियों के बालकों के लिए खुले हुए थे। इस शिक्षा के प्रमुख केन्द्र - बौद्ध मठ थे, पर सब मठों में समान विषयों की शिक्षा नहीं दी जाती थी। इस शिक्षा की प्रशंसा में डॉ० ए० एस० अल्तेकर ने अग्रांकित शब्द लिपिबद्ध किये है-''मठों ने उच्च शिक्षा में अपनी दक्षता से कोरिया, चीन, तिब्बत और जावा जैसे सुदूर देशों के छात्रों को आकर्षित करके, भारत की अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति में वृद्धि की । "
प्रवेश व अवधि : उच्च शिक्षा का आरम्भ प्राथमिक शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् होता था। अतः बालक इसका आरम्भ साधारणतया 12 वर्ष की आयु में करते थे। अध्ययन की अवधि 12 वर्ष की थी ताकि छात्र प्राचीन परम्परा के अनुसार 25 वर्ष की आयु में किसी व्यवसाय को ग्रहण करके गृहस्थ के रूप में अपना जीवन व्यतीत कर सके।
पाठ्यक्रम : पाठ्यक्रम दो भागों में विभक्त था- धार्मिक और लौकिक धार्मिक पाठ्यक्रम भिक्षुओं और भिक्षुणियों के लिए था। इसका मुख्य उद्देश्य उनको निर्वाण प्राप्त करने और धर्म का प्रचार करने की योग्यता प्रदान करना था उनको धार्मिक और जीवनोपयोगी- दोनों प्रकार की शिक्षा दी जाती थी। मुख्य धार्मिक विषय थे- बौद्ध धर्म, साहित्य, त्रिपिटक, विनय, धम्म आदि जीवनोपयोगी विषयों में मठों और विहारों के निर्माण का व्यावहारिक ज्ञान, दान की सम्पत्ति का प्रबन्ध और हिसाब-किताब आदि सम्मिलित थे।
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लौकिक पाठ्यक्रम साधारण नागरिकों के लिए था। इसका मुख्य उद्देश्य उनको सुयोग्य नागरिक बनाना एवं आर्थिक और सामाजिक जीवन के लिए तैयार करना था। उनके पाठ्यक्रम में निम्नलिखित विषय सम्मिलित थे- धर्म, दर्शन, साहित्य, तर्कशास्त्र, न्यायशास्त्र चिकित्सा- शास्त्र आदि।
शिक्षा का माध्यम : शिक्षा का माध्यम सामान्य रूप से पाली भाषा थी, पर वैदिक साहित्य की शिक्षा, संस्कृत के माध्यम से दी जाती थी। इसके अतिरिक्त, देश की अन्य प्रचलित भाषाओं का भी प्रयोग किया जाता था। इसका कारण महात्मा बुद्ध की भिक्षुओं को यह अनुमति थी- ''ओ भिक्षुओ मैं तुममें से प्रत्येक को अपनी भाषा में बुद्ध की शिक्षाओं को सीखने की अनुमति देता हूँ।"
शिक्षा के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय : बौद्ध-काल में शिक्षा के मुख्य केन्द्र-मठ और विहार थे। इनसे छात्रावास सम्बद्ध थे। छात्रों को निःशुल्क शिक्षा, भोजन, वस्त्र, चिकित्सा आदि की सुविधा प्राप्त थी। कुछ मठों और विहारों ने विश्वविद्यालयों के रूप में विकसित होकर पर्याप्त ख्याति भी अर्जित की है जो इस प्रकार से हैं-
(i) नदिया विश्वविद्यालय- यह विश्वविद्यालय पूर्वी बंगाल में नदिया नामक स्थान पर था। 11वीं शताब्दी में राजा लक्ष्मण सेन के संरक्षण में यह शिक्षा का प्रसिद्ध केन्द्र हो गया।
(ii) वल्लभी विश्वविद्यालय- यह विश्वविद्यालय पूर्वी काठियावाड़ में वला नामक स्थान पर था। 7वीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी तक पश्चिमी भारत का प्रमुख शिक्षा केन्द्र था।
(iii) विक्रमशिला विश्वविद्यालय- यह विश्वविद्यालय उत्तरी मगध में गंगा नदी के तट पर एक अत्यन्त सुन्दर पहाड़ी पर स्थित था। इसमें 108 भिक्षु शिक्षक और 3,000 छात्र थे। इसे बख्तियार खिलजी ने सन् 1203 ई० में नष्ट कर दिया।
(iv) तक्षशिला विश्वविद्यालय- यह विश्वविद्यालय आधुनिक रावलपिंडी से लगभग 20 मील पश्चिम में था। यह अनेक शताब्दियों तक पहले वैदिक शिक्षा का और उसके बाद बौद्ध शिक्षा का प्रसिद्ध केन्द्र था। यह 600 ई० पू० में अपनी प्रसिद्धि की पराकाष्ठा पर था। वैयाकरण पाणिनी, राजनीतिज्ञ चाणक्य, अर्थशास्त्री कौटिल्य महात्मा बुद्ध के व्यक्तिगत चिकित्सक जीवक एवं सम्राट् चन्द्रगुप्त और पुष्यमित्र इसी विश्वविद्यालय की उपज थे। पाँचवीं शताब्दी के मध्य में बर्बर हूणों ने इसका सदैव के लिए विनाश कर दिया।
(v) नालन्दा विश्वविद्यालय- यह विश्वविद्यालय पटना से लगभग 50 मील दूर दक्षिण में था। यह लगभग एक मील लम्बा और आधा मील चौड़ा था एवं चहारदीवारी से घिरा हुआ था। इसमें 8 बड़े सभा भवन और 3,000 अध्ययन कक्ष थे। यह विशाल पुस्तकालयी मंजिल का था। इसमें 10 से अधिक सरोवर थे जिनमें छात्र, जल-क्रीड़ा करते थे जब अपनी पराकाष्ठा पर था, तब इसमें लगभग 1.500 शिक्षक एवं 10,000 छात्र थे और प्रतिदिन 100 भाषण होते थे इसमें चीन जावा, ब्रह्मा आदि सुदूर देशों के छात्र अध्ययन करने आते थे। इस प्रकार इसने अन्तर्राष्ट्रीय विश्व- विद्यालय का रूप ग्रहण कर लिया। सन् 1203 में बख्तियार खिलजी ने प्राचीन भारत की सभ्यता के प्रतीक इस विश्वविद्यालय को धराशायी कर दिया।
बौद्ध कालीन शिक्षा के अन्य क्षेत्र
1. स्त्री शिक्षा
वैदिक काल के अन्तिम चरण में लगभग 200 ई० पू० से स्त्री-शिक्षा की अवनति आरम्भ हो गई थी। महात्मा बुद्ध के कारण इस शिक्षा को नवजीवन प्राप्त हुआ। उन्होंने अपने प्रिय शिष्य आनन्द की प्रार्थना स्वीकार करके, स्त्रियों को संघ में प्रवेश करने की आज्ञा दे दी। इसके फलस्वरूप, स्त्री-शिक्षा का पर्याप्त विकास हुआ।
बौद्ध काल की सुशिक्षित स्त्रियों में निम्नांकित के नाम उल्लेखनीय है- बौद्ध धर्म की प्रसिद्ध प्रचारिकार्ये, सुभा, अनुपमा एवं सुमेधा, कवयित्री के रूप में कालिदास के बाद मानी जाने वाली विजयका और लंका में बौद्धधर्म का प्रचार करने के लिए भेजी जाने वाली सम्राट अशोक की पुत्री संघमित्रा थी।
उपरिअंकित उदाहरण इस बात का संकेत देते हैं कि स्त्रियों ने संघ में प्रवेश करके उच्चकोटि की शिक्षा प्राप्त की और कुछ क्षेत्रों में पुरुषों से प्रतिद्वन्द्विता करके उनसे समानता रखने का प्रमाण दिया। किन्तु यह इस बात का प्रमाण नहीं है कि स्त्री-शिक्षा की सामान्य रूप से प्रगति हुई है। इसकी पुष्टि में चार कारण दिये जा सकते है।
- पहला, बौद्ध धर्म में स्त्रियों का स्थान पुरुषों से निम्नतर है। अतः सामान्य स्त्रियों की शिक्षा के प्रति ध्यान नहीं दिया गया।
- दूसरा संघों में स्त्रियों का प्रवेश भिक्षुओं की आज्ञा पर निर्भर था क्योंकि भिक्षुओं को स्त्रियों से दूर रहने का उपदेश दिया जाता था, इसलिए उन्होंने बहुत ही कम स्त्रियों को संघ में प्रवेश करने की आज्ञा दी।
- तीसरा संघों में प्रवेश करने का अधिकार विशेष रूप से समाज के कुलीन और व्यावसायिक वर्गों की स्त्रियों एवं बालिकाओं को प्राप्त हुआ। अतः इन्हीं की शिक्षा को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ, सामान्य स्त्रियों की शिक्षा को नहीं।
- चौथा, बौद्ध मठ में प्रवेश करने वाली स्त्रियाँ, भिक्षुणियाँ कहलाती थीं और उनके लिए अलग मठों की स्थापना की गई थी पर उन्होंने भिक्षुओं के समान अपने मठों में स्त्रियों और बालिकाओं को शिक्षा प्रदान करने का कार्य नहीं किया।
उपर्युक्त कारणों को ध्यान में रखते हुए, हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि बौद्ध धर्म ने कुलीन और व्यावसायिक स्त्रियों की शिक्षा को, जिनकी संख्या प्रायः नगण्य थी प्रोत्साहन दिया, पर सामान्य स्त्रियों की शिक्षा के लिए कुछ भी नहीं किया। डॉ० ए० एस० अल्तेकर का अग्रांकित वाक्य में अमर सत्य है- "स्त्री-शिक्षा को बौद्ध धर्म से किसी प्रकार की प्रेरणा प्राप्त न हो सकी।"
2. व्यावसायिक शिक्षा
बौद्ध शिक्षा धर्म-प्रधान थी किन्तु बौद्ध साहित्य में हमको इस बात के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं कि भिक्षुओं और जनसाधारण को व्यावसायिक शिक्षा की अत्युत्तम सुविधाएँ प्राप्त थीं। हम इस शिक्षा के प्रमुख अंगों पर प्रकाश डाल रहे है-
(i) हस्तशिल्पों की शिक्षा : महावारग (Maha-vagga) में हमें एक स्थान पर इस बात का उल्लेख मिलता है कि बौद्ध काल में भिक्षुओं को अपने मठों में विभिन्न प्रकार के हस्तशिल्पों की शिक्षा प्रदान की जाती थी। जैसे- उनको सूत कातने, कपड़ा बुनने और वस्त्र सीने की शिक्षा दी जाती थी, ताकि वे वस्त्र सम्बन्धी अपनी आवश्यकताओं की स्वयं पूर्ति कर सकें।
(ii) लाभप्रद व्यवसायों की शिक्षा : बौद्धधर्म के अनुयायियों और जनसाधारण के लिए अनेक लाभप्रद व्यवसायों की शिक्षा की सुन्दर व्यवस्था थी, ताकि वे अपनी जीविका का सरलता से उपार्जन कर सकें। इस प्रकार के कुछ व्यवसाय थे- कृषि, वाणिज्य, लेखन कला, पशु-पालन और हिसाब-किताब ।
(iii) भवन निर्माण कला, मूर्तिकला व चित्रकला की शिक्षा : बौद्ध कला में भवन निर्माण कला की विशिष्ट शिक्षा उपलब्ध होने के कारण इस कला का आश्चर्यजनक विकास हुआ। इस कला के बौद्ध बिहार और स्तूप एवं नालन्दा और विक्रमशिला की विशाल इमारतें भवन निर्माण कला की सजीव प्रमाण हैं। इस कला के साथ-साथ मूर्तिकला और चित्रकला की भी शिक्षा की सुविधाओं के कारण, असाधारण प्रगति हुई। अजन्ता और अलोरा के भित्तिचित्र, मूर्तिकला और चित्रकला इस प्रगति के आज भी साक्षी है।
(iv) प्राविधिक व वैज्ञानिक शिक्षा : हमें मिलिन्द पान्हा (Milinda Panha) में बौद्ध कला में प्रचलित 19 सिप्याओं अर्थात् शिल्पों (Sippas or Shilps) का वर्णन मिलता है। इनका सम्बन्ध प्राविधिक और वैज्ञानिक शिक्षा से था। इनमें से अग्रांकित 10 की शिक्षा तक्षशिला में प्रदान की जाती थी-आखेट, चिकित्सा, धनुर्विद्या, इन्द्र जाल (Magic Charm) हस्ति-ज्ञान (Elephant Love), भविष्य कथन, शारीरिक लक्षणों का अर्थ, मृत व्यक्तियों को जीवित करने का मंत्र, सब पशुओं की बोलियाँ समझने का ज्ञान और इन्द्रिय सम्बन्धी सब कार्यों पर नियन्त्रण करने की कला।
इस प्रकार, जैसा कि डॉ० आर० के० मुकर्जी ने लिखा है-सिप्याओं के ज्ञान अर्थात विधिक और वैज्ञानिक शिक्षा की माँग, सामान्य शिक्षा या धार्मिक अध्ययन की माँग से कम नहीं थी।"
(v) चिकित्सा शास्त्र की शिक्षा : बौद्ध-काल में चिकित्सा शास्त्र की शिक्षा का अभूतपूर्व विकास हुआ। इस शिक्षा का मुख्य केन्द्र तक्षशिला विश्वविद्यालय था और इसकी अवधि 7 वर्ष की थी। जीवक, चरक, धन्वन्तरि आदि महान आयुर्वेदाचार्य, बौद्ध युग की ही देन है।
बौद्ध कालीन शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ
बौद्धधर्म के आदर्श, उद्देश्य और सिद्धान्त-वैदिक धर्म से बहुत कुछ भिन्न थे। अतः बौद्धधर्म के प्रचार और प्रसार के लिए एक विशिष्ट शिक्षा प्रणाली का संगठन किया गया। हम इस प्रणाली की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन निम्नांकित शीर्षकों के अन्तर्गत कर रहे है जैसे-
(1) पब्बज्जा संस्कार
'पब्बज्जा' का शाब्दिक अर्थ है- बाहर जाना' (Going out) इस संस्कार का अभिप्राय था कि बालक अपने परिवार और पूर्व स्थिति का परित्याग करके, संघ में प्रवेश करता था। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इस संस्कार का सम्बन्ध केवल उन व्यक्तियों से था, जिनके जीवन का उद्देश्य बौद्ध भिक्षु बनना था। यह संस्कार 8 वर्ष की आयु से पहले सम्पन्न नहीं हो सकता था।
'विनय पिटक' (Vinaya Pitaka) में पब्बज्जा संस्कार' का वर्णन इस प्रकार किया गया है- "बालक अपने सिर के बाल मुडाता था, पीले वस्त्र धारण करता था, प्रवेश करने वाले मठ के भिक्षुओं के चरणों को अपने मस्तक से स्पर्श करता था और उनके सामने पालती मार कर भूमि पर बैठ जाता था। तदुपरान्त, मठ का सबसे बड़ा भिक्षु उससे तीन बार यह शपथ लेने को कहता था-'बुद्ध शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघ शरणं गच्छामि।"
जब बालक यह शपथ ले लेता था तब भिक्षु उसको अग्रांकित 10 आदेश देता था-
- चोरी मत करना,
- जीव हत्या मत करना,
- असत्य भाषण मत करना,
- अशुद्ध आचरण मत करना,
- वर्जित समय पर आहार मत करना,
- मादक वस्तुओं का प्रयोग मत करना,
- श्रृंगार की वस्तुओं का प्रयोग मत करना,
- बिना दिए हुए किसी वस्तु को ग्रहण मत करना,
- सोना, चाँदी और बहुमूल्य वस्तुओं का दान मत लेना,
- नृत्य, संगीत, तमाशे आदि के पास जाने का प्रयास मत करना।
इन आदेशों के पश्चात् बालक 'नव-शिष्य', 'श्रमण' या 'सामनेर (Novice or Samanera) उन्हें कहा जाता था और अपने द्वारा चुने जाने वाले भिक्षु से 12 वर्ष तक शिक्षा ग्रहण करता था।
(2) उपसम्पदा संस्कार
नवशिष्य के रूप में 22 वर्ष की शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् छात्र के लिए मठ को छोड़ना अनिवार्य था। पर वह उपसम्पदा संस्कार सम्पादित करके पूर्ण भिक्षु की स्थिति प्राप्त कर सकता था और बौद्ध संघ का स्थायी सदस्य बन सकता था।
'उपसम्पदा संस्कार'- बौद्ध संघ के कम से कम 10 भिक्षुओं की उपस्थिति में होता था। उसमें नवशिष्य का आचार्य भी होता था। वह अन्य भिक्षुओं को नवशिष्य का परिचय देता था। तत्पश्चात् भिक्षु, नवशिष्य से अनेक प्रकार के प्रश्न पूछते थे। उसके उत्तरों को सुनने के बाद वे बहुमत से यह निर्णय करते थे कि नवशिष्य को उपसम्पदा ग्रहण करने का अधिकार है या नहीं इस प्रकार का निर्णय यह सिद्ध करता है कि उपसम्पदा संस्कार में जनतन्त्रीय प्रणाली का प्रयोग किया जाता था।
यदि निर्णय नवशिष्य के पक्ष में होता था, तो उसे भिक्षु के रूप में संघ में प्रवेश करने की अनुमति दे दी जाती थी। इस अवसर पर उसे संघ से अग्रांकित 8 नियमों का पालन करने का आदेश दिया जाता था-
- वृक्षों के नीचे वास करना।
- साधारण वस्त्र धारण करना।
- सात्विक भोजन का प्रयोग करना
- भोजन के लिए भिक्षा माँगना
- औषधि के रूप में गौ मूत्र सेवन करना।
- चोरी और जीव-हत्या मत करना।
- अलौकिक शक्तियों का दावा मत करना।
- स्त्री से यौन सम्बन्ध स्थापित मत करना।
नोट- बालकों और पुरुषों के समान बालिकाओं और स्त्रियों को भी 'पव्वज्जा' और 'उपसम्पदा' का अधिकार प्राप्त था।
(3) विद्यार्थित्व
बौद्ध शिक्षा के द्वार सभी धर्मों, वर्गों और जातियों के व्यक्तियों के लिए खुले हुए थे। केवल चांडालों को इस शिक्षा से वंचित रखा गया था। छात्रों में राजाओं व्यापारियों, दर्जियों और मछली पकड़ने वालों के पुत्र थे। इनमें अधिकांश संख्या ब्राह्मण और क्षत्रिय जातियों के छात्रों की थी।
(4) विद्यार्थियों का चुनाव
सिद्धान्त रूप में, शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार समाज के सभी व्यक्तियों को प्राप्त था किन्तु निम्नांकित 10 वर्गों के किसी व्यक्ति का विद्यार्थित्व के लिए चुनाव नहीं किया जाता था -
- जो नपुंसक हो।
- जो दास या ऋणी हो ।
- जो राजा की नौकरी में हो।
- जो डाकू घोषित किया गया हो।
- जो कारावास से भाग आया हो।
- जिसका कोई अंग भंग हो।
- जिसके शरीर का कोई भाग विकृत हो।
- जिसको राज्य से कोई दण्ड मिला हो।
- जिसने अपने माता-पिता की आज्ञा प्राप्त न की हो।
- जिसको क्षय, कोढ, खुजली आदि कोई छूत का रोग हो।
(5) शिक्षा आरम्भ करने की आयु
डॉ० ए० एस० अल्तेकर के अनुसार- शिक्षा आरम्भ करने की न्यूनतम आयु 8 वर्ष की थी। यह आयु उन्हीं बालकों के लिए निर्धारित की गई थी, जो संघ में प्रवेश करने का निश्चय कर लेते थे। संघ में प्रवेश करने वाला बालक उसके किसी भिक्षु को अपने शिक्षक के रूप में चुनता था।
(6) अध्ययन की अवधि
'पब्बज्जा' के बाद अध्ययन की अवधि 12 वर्ष की और 'उपसम्पदा' की 10 वर्ष की थी। पब्बज्जा संस्कार 8 वर्ष की आयु में होता था। इस प्रकार शिक्षा की पूर्ण अवधि 30 वर्ष थी।
(7) अध्ययन के विषय
अध्ययन के विषयों के सम्बन्ध में डॉ० ए० एस० अल्तेकर ने लिखा है- यद्यपि मठों में प्रदान की जाने वाली शिक्षा, बौद्धों द्वारा आयोजित और संगठित की गई थी तथापि अध्ययन के विषयों का स्वरूप न तो पूर्णतया धार्मिक था और न पूर्णतया लौकिक शिक्षा में बौद्ध दर्शन की प्रधानता अवश्य थी पर हिन्दू और जैन धर्मों के अध्ययन के प्रति भी पर्याप्त ध्यान दिया गया था। शिक्षा केवल धर्म, दर्शन और तर्कशास्त्र तक ही सीमित नहीं थी वरन् संस्कृत साहित्य, न्याय-शास्त्र, चिकित्सा शास्त्र आदि विषयों की भी शिक्षा दी जाती थी, ताकि छात्र, नागरिकों के रूप में राज्य और समाज के लिए उपयोगी बनकर उनकी सेवा कर सकें।
(8) शिक्षा की पद्धति
बौद्धों ने ब्राह्मणों की वैयक्तिक शिक्षा-पद्धति का अनुकरण न करके, सामूहिक शिक्षा-पद्धति का प्रयोग किया। शिक्षा-केन्द्रों में विभिन्न भिक्षुओं द्वारा छात्रों को सामूहिक रूप में विभिन्न विषयों की शिक्षा दी जाती थी।
(9) शिक्षण की विधि
शिक्षण विधि प्राय: मौखिक थी। इसके सामान्य अंग थे- भाषण, प्रवचन और प्रश्नोत्तर शिक्षण विधि की एक विशेषता यह थी कि उसमें देशाटन, प्रकृति-निरीक्षण और विशेषज्ञों के व्याख्यानों को महत्त्व दिया जाता था। एक अनोखी विशेषता को गन्नार मिरडल ने इन शब्दों में अंकित किया है-"शास्त्रीय विवादों को प्रोत्साहित किया जाता था। इस प्रकार की विद्वत् सभाएँ- बौद्ध उच्च शिक्षा की एक अनोखी विशेषता थी।"
(10) छात्र जीवन सम्बन्धी नियम
छात्रों के जीवन के सम्बन्ध में अनेक नियम थे, जिनका उनको अनिवार्य रूप से पालन करना पड़ता था,जैसे-
(i) भोजन- छात्रों का भोजन अत्यन्त साधारण था वे दिन में केवल तीन बार भोजन कर सकते थे। वे और उनके शिक्षक अपने रात्रि-भोजन के लिए प्रायः कहीं न कहीं निमंत्रित रहते थे।
(ii) वस्त्र- छात्रों को कम और सामान्य जनता से भिन्न प्रकार के वस्त्र पहनने का आदेश था। वे साधारणतः तीन वस्त्र धारण करते थे, जिनको समग्र रूप में तिसिवरा (Ticivara) कहा जाता था।
(iii) स्नान- छात्रों को सरोवरों में स्नान करते समय कुछ निश्चित नियमों का पालन करना पड़ता था जैसे जल में खेल न करना, एक-दूसरे पर पानी न फेंकना और अपने शरीर को किसी वस्तु या सरोवर में स्नान करने वाले किसी छात्र के शरीर से न रगड़ना ।
(iv) भिक्षाटन- छात्रों को प्रातःकाल भिक्षाटन के लिए जाना पड़ता था। वे वैदिक युग के ब्रह्मचारियों के समान बोलकर नहीं, वरन् मौन रूप में ही भिक्षा की याचना कर सकते थे। वे उतनी मिक्षा मांग सकते थे, जितनी उनके लिए आवश्यक थी।
(v) अनुशासन- छात्र अनुशासन पर अत्यधिक बल दिया जाता था। छात्र को फूल-पत्तियों को तोड़ने, सम्पत्ति रखने, सार्वजनिक स्थानों में तमाशे देखने, हानिप्रद खेलों में भाग लेने, शरीर को अलंकृत करने, गाली-गलौज और झगड़ा करने का पूर्ण निषेध था। जो छात्र निषिद्ध कार्यों को करते थे, उनको दण्ड दिया जाता था। डॉ० आर० के० मुकर्जी ने लिखा है- कि एक बार एक संघ के सब सदस्यों को अनुशासनहीनता के अपराध के कारण संघ से निकाल दिया गया।
(11) गुरु-शिष्य सम्बन्ध
बौद्ध काल में गुरु-शिष्य का सम्बन्ध वैदिक काल की ही भाँति पवित्र और स्नेहपूर्ण था। इस सम्बन्ध का मुख्य आधार उनके पारस्परिक कर्तव्य थे।
छात्र अपने शिक्षक से पहले उठकर उसके लिए दाँतौन और मुँह धोने के लिए जल लाकर रख देता था। वह अपने शिक्षक के बैठने के स्थान को साफ करता था जब शिक्षक आता था, तब वह उसे कोई पेय पदार्थ देता था। वह शिक्षक के बर्तनों को साफ करता था और उसके साथ मिक्षाटन के लिए जाता था। वह शिक्षक से पहले लौटकर उसके भोजन की व्यवस्था करता था। यदि शिक्षक बीमार हो जाता था, तो वह उसकी सेवा में उपस्थित रहता था।
केवल छात्र के ही शिक्षक के प्रति कर्तव्य नहीं थे, वरन शिक्षक के भी छात्र के प्रति कर्तव्य थे। शिक्षक का सर्वश्रेष्ठ कर्त्तव्य यह था कि वह प्रत्येक सम्भव विधि का प्रयोग करके छात्र का मानसिक, चारित्रिक और आध्यात्मिक विकास करे। इसके अतिरिक्त वह छात्र के भोजन, वस्त्र मिक्षा पात्र रहन-सहन आदि की व्यवस्था करता था। छात्र के अस्वस्थ हो जाने पर, वह उसकी सेवा करता था और उसके लिए औषधि का प्रबन्ध करता था।
अतः इस प्रकार छात्र और शिक्षक में एक-दूसरे के प्रति प्रेम आदर और विश्वास की भावनाएँ निहित थी। डॉ० ए० एस० अल्तेकर के शब्दों में- "छात्र और उसके शिक्षक के सम्बन्ध पुत्र और पिता के समान थे। वे पारस्परिक सम्मान, विश्वास और प्रेम के द्वारा एक-दूसरे से आबद्ध थे।"
(12) खेल-कूद व शारीरिक व्यायाम
बौद्ध काल में केवल छात्रों के मानसिक और नैतिक विकास को ही नहीं, वरन उनके शारीरिक विकास को भी महत्व दिया जाता था। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार के खेल-कूद और शारीरिक व्यायाम निर्धारित थे। छल्लवग्ग (Challavagga) में हमें इनकी एक विस्तृत सूची मिलती है, यथा कुश्ती लड़ना, मुक्केबाजी करना, भूमि जोतना, तीर चलाना, तुरही बजाना रथों की दौड़ करना इत्यादि। आई-सिंग (I-Tsing) ने नियमित रूप से टहलने जाने का उल्लेख किया है।
(13) सामान्य विद्यालय
भारत में सामान्य विद्यालयों की परम्परा स्थापित करने का श्रेय बौद्ध धर्म को प्राप्त है। इसका कारण यह है कि बौद्ध मठ, धार्मिक शिक्षा के अतिरिक्त सामान्य शिक्षा के भी केन्द्र थे। बालक घर पर अपने माता-पिता के साथ रहकर शिक्षा को प्राप्त कर सकते थे। इस प्रकार ये मठ बहुत कुछ सामान्य विद्यालयों की भाँति थे। इस सन्दर्भ में गन्नार मिरडल ने लिखा है- मठ विद्यालय अधिकतर सामान्य विद्यालयों की भाँति कार्य करने लगे, क्योंकि बालक अपने परिवारों के साथ रह कर शिक्षा ग्रहण कर सकते थे।
(14) लोकभाषाओं को प्रोत्साहन
महात्मा बुद्ध के आदेशानुसार, भिक्षुओं को उनकी स्वयं की भाषाओं में शिक्षा दी जाती थी। इसका परिणाम बताते हुए डॉ० आर० के० मुकर्जी ने लिखा है- "बौद्धधर्म ने देश की लोकभाषाओं को प्रोत्साहन प्रदान किया और बौद्ध- शिक्षा संस्थाओं में संस्कृत के बजाय लोकभाषाओं ने शिक्षा के माध्यम का स्थान ग्रहण किया।"
(15) सार्वजनिक प्रारम्भिक शिक्षा
बौद्ध शिक्षा आरम्भ में धार्मिक थी और उन्हीं व्यक्तियों तक सीमित थीं, जो बौद्धधर्म को अंगीकार करके, भिक्षु बनते थे। किन्तु जैसा कि डॉ० ए० एस० अल्तेकर का विचार है, कि बौद्ध धर्म को जनप्रिय बनाने के लिए बौद्धों ने मठों में सार्वजनिक प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने का कार्य लगभग पहली शताब्दी के आरम्भ से शुरू कर दिया। इस विचार के समर्थन में डॉ० एफ० ई० केई ने लिखा है- "बौद्ध मठों ने पर्याप्त सार्वजनिक प्रारम्भिक शिक्षा प्रदान की।"
(16) शिक्षा का जनतन्त्रीय आधार
बौद्धों ने शिक्षा को जनतन्त्रीय आधार प्रदान करके, चाण्डालों के अतिरिक्त सभी जातियों के बालकों और बालिकाओं को शिक्षा के समान अवसर प्रदान किये। उनके इस उदार कार्य की सराहना करते हुए, डॉ० आर० के० मुकर्जी ने लिखा है- "बौद्ध-शिक्षा-केन्द्रों में विभिन्न वर्गों, विभिन्न जातियों और विभिन्न परिस्थितियों के सब बालक बिना किसी भेदभाव के पारिवारिक सम्पर्क स्थापित करते थे और ज्ञान का अर्जन करते थे।"
(17) शिक्षा संस्थाओं का जनतन्त्रीय संगठन
बौद्ध शिक्षा केन्द्रों का संगठन जनतन्त्रीय आधार पर किया गया था। डॉ० महेश चन्द्र सिंघल ने इसके स्वरूप का वर्णन अग्रांकित वाक्यों में किया है-"शिक्षा केन्द्रों का संचालन जनतन्त्र के सिद्धान्तों पर होता था। एक विद्वान् भिक्षु-शिक्षा केन्द्रों का प्रधान संचालक नियुक्त किया जाता था। प्रधान की अधीनता में विभिन्न विषयों के महोपाध्याय होते थे। इन शिक्षा केन्द्रों को तत्कालीन राजाओं तथा धनिकों से सहायता मिलती थी, किन्तु इनके प्रबन्ध में किसी प्रकार का बाह्य हस्तक्षेप नहीं था।"
(18) संगठित शिक्षा-संस्थाओं का उदय
वैदिक काल में संगठित शिक्षा संस्थाओं का अभाव था, क्योंकि शिक्षा प्रदान करने का कार्य व्यक्तिगत शिक्षकों द्वारा किया जाता था। इसके विपरीत बौद्ध काल में शिक्षा प्रदान करने का कार्य संगठित शिक्षा-संस्थाओं द्वारा किया जाना आरम्भ हुआ।
डॉ० ए० एस० अल्तेकर का मत है- कि ऐसा होना स्वाभाविक था, क्योंकि बौद्ध मठ, जिन्होंने इस कार्य का भार सम्हाला, वे पहले से ही एक धार्मिक सम्प्रदाय के रूप में संगठित थे। अपने इस मत के आधार पर डॉ० अल्तेकर ने लिखा है- यह कहना उचित है कि संगठित सार्वजनिक शिक्षा संस्थाओं का उदय, बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण हुआ।
बौद्ध कालीन शिक्षा के प्रमुख दोष
डॉ० एफ० ई० केई के अनुसार- बौद्ध शिक्षा के आदशों और प्रयोग का ब्राह्मणीय शिक्षा आदशों और प्रयोग से घनिष्ठ सम्बन्ध था ।
डॉ० केई के उक्त कथन को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि जिस प्रकार ब्राह्मणीय शिक्षा में कतिपय दोष थे उसी प्रकार बौद्ध शिक्षा में भी थे।
अतः हम इन दोषों का संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत कर रहे है-
(1) बौद्धधर्म का पतन
शिक्षा के केन्द्रों के रूप में मठों और विहारों का जनतन्त्रीय आधार पर संगठन किया गया था। पर उसके संगठन में कुछ समय के उपरान्त शिथिलता आ गई। फलस्वरूप पृथक् मठों में रहते हुए भी भिक्षुओं और भिक्षुणियों का सम्पर्क आरम्भ हो गया। इस सम्पर्क ने व्यभिचार को जन्म दिया, जो कुछ समय के पश्चात् बौद्ध- धर्म के पतन का कारण बना।
(2) देश की दुर्बलता
अहिंसा में विश्वास करने के कारण बौद्धधर्म ने 'अहिंसा परमो धर्मः' के सिद्धान्त का पोषण किया। अतः बौद्ध काल में युद्ध कला, सैनिक विज्ञान, अस्त्र-शस्त्र निर्माण की शिक्षा के प्रति लेशमात्र भी ध्यान नहीं दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि देश सैनिक दृष्टि से दुर्बल हो गया। अतः जब भारत पर मुसलमानों के आक्रमण आरम्भ हुए, तब इस देश के निवासी सैनिक शक्ति से उनका सामना न कर सकने के कारण पददलित हुए और कई शताब्दियों तक यवनों के दास रहे।
(3) हस्तकार्य के प्रति घृणा
मठों में प्रदान की जाने वाली शिक्षा मुख्यतः धार्मिक और आध्यात्मिक थी। उसमें लौकिक विषयों को तो स्थान दिया गया था, किन्तु हस्तकार्यों से सम्बन्धित शिक्षा की उपेक्षा की गई थी। अतः जैसा कि डॉ० महेश चन्द्र सिंघल ने लिखा है- "हस्तकार्यों को हेय समझा जाने लगा, जिससे उच्च वर्गों के लोगों ने इसे पूर्णतः छोड़ दिया। इस प्रकार, श्रम की गुरुता की भावना का विनाश हुआ। "
(4) स्त्री-शिक्षा की उपेक्षा
बौद्ध शिक्षा से केवल धनी और कुलीन परिवारों की स्त्रियों ही लाभान्वित हुई। जहाँ तक सामान्य स्त्रियों की शिक्षा का प्रश्न था, उसके लिए बौद्धों ने कोई कदम नहीं उठाया। इसका दोष मुख्यतः भिक्षुणियों पर था, क्योंकि जिस प्रकार बालकों और पुरुषों की शिक्षा का भार भिक्षुओं पर था उसी प्रकार बालिकाओं और स्त्रियों की शिक्षा का उत्तरदायित्व भिक्षुणिओं पर था। किन्तु भिक्षुणियों ने अपने मठों में किसी प्रकार की शिक्षा का कार्यक्रम आयोजित नहीं किया। अतः डॉ० एफ० ई० केई का मत है- "यह कल्पना करना उचित न होगा कि बौद्ध-धर्म ने भारत में स्त्रियों की शिक्षा के लिए कोई विशेष कार्य किया।"
(5) लौकिक जीवन की उपेक्षा
धर्म-प्रधान होने के कारण बौद्ध शिक्षा में व्यात्मिक विकास पर विशेष बल दिया जाता था। बौद्धों और अबौद्धों को जीवन को मिथ्या और संसार को क्षण-भंगुर मानने की निरन्तर शिक्षा दी जाती थी। इस प्रकार बौद्धधर्म, जो शिक्षा प्रदान करता था. वह व्यक्तियों को इस जीवन और संसार के लिए तैयार न करके दूसरे संसार के लिए तैयार करती थी। इस प्रसंग में डॉ० एफ० ई० कई ने लिखा है- ''बौद्धधर्म ने जीवन का ऐसा आदर्श उपस्थित किया, जिसमें इस क्षण-भंगुर संसार के लिए घृणा थी और इसलिए इस धर्म ने शिक्षा द्वारा व्यक्ति को दूसरे संसार के लिए तैयार किया।"
(6) कट्टर धार्मिक विचारों का समावेश
बौद्ध-शिक्षा पर धर्म की इतनी गहरी छाप थी कि इस शिक्षा को प्राप्त करने वाले व्यक्ति धर्म की सीमा से बाहर किसी बात की कल्पना नहीं कर सकते थे। इस प्रकार बौद्धों ने अपनी शिक्षा द्वारा जनसाधारण के मस्तिष्क में धार्मिक कट्टरता का समावेश कर दिया। डॉ० ए० एस० अल्तेकर ने ठीक ही लिखा है- "जन साधारण के मस्तिष्क में शनैः शनैः कट्टर धार्मिक विचारों का समावेश करने के लिए बौद्ध लोग उत्तरदायी है।"
आधुनिक भारतीय शिक्षा को देन
आधुनिक भारतीय शिक्षा को बौद्ध शिक्षा का योगदान अत्यन्त व्यापक और अभिनन्दनीय है। शिक्षा के क्षेत्र में ऐसे अनेक कार्य आयोजित किए गए है, जो बौद्ध-शिक्षा के अभिन्न अंग थे जैसे-
- सामान्य विद्यालयों का आयोजन।
- सार्वजनिक प्राथमिक शिक्षा का आयोजन।
- स्त्रियों के लिए उच्च शिक्षा का आयोजन ।
- खेल-कूद और शारीरिक व्यायाम का आयोजन।
- प्राविधिक और वैज्ञानिक शिक्षा का आयोजन ।
- व्यावसायिक और लाभप्रद विषयों की शिक्षा का आयोजन ।
- लौकिक और सामान्य विषयों की शिक्षा प्रदान करने का आयोजन।
- बहु-शिक्षक और सामूहिक शिक्षा की प्रणालियों का आयोजन।
- उच्च स्तर पर सैद्धान्तिक और प्रयोगात्मक शिक्षा का आयोजन।
- लोकसभाओं को प्रोत्साहन और उनको शिक्षा का माध्यम बनाने का आयोजन ।
- शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर अध्ययन की निश्चित अवधि का आयोजन।
- शिक्षा-संस्थाओं में प्रवेश सम्बन्धी न्यूनतम आयु नियमों और परीक्षा का आयोजन।
- माता-पिता और अभिभावकों के साथ रहने वाले बालकों के लिए शिक्षा की सुविधाओं का आयोजन
- सभी धर्मों, वर्गों और जातियों के बालकों को शिक्षा के समान अवसर प्रदान करने का आयोजन।
बौद्ध व वैदिक शिक्षा की समानता व असमानता
समानता (Similarity)- डॉ० ए० एस० अल्तेकर के शब्दों में- "जहाँ तक सामान्य शैक्षिक सिद्धान्त या प्रयोग की बात है, हिन्दुओं और बौद्धों में कोई अन्तर नहीं था। दोनों प्रणालियों के समान आदर्श थे और दोनों समान विधियों का अनुसरण करती थीं।"
वस्तुतः वैदिक शिक्षा का अनुकरण करके ही बौद्ध-शिक्षा का संगठन किया गया था। अतः दोनों प्रणालियों में समानताएँ होना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी।
मुख्य समानताओं का विवरण इस प्रकार है-
- दोनों प्रणालियों में शिक्षा बाह्य नियन्त्रण से मुक्त थी।
- दोनों प्रणालियों में शिक्षण विधि मुख्यतः मौखिक थी।
- दोनों प्रणालियों छात्रों की दिनचर्या में एकरूपता थी।
- दोनों प्रणालियों में शारीरिक दण्ड साधारणतया वर्जित था।
- दोनों प्रणालियों में धार्मिक और नैतिक जीवन को प्रमुखता दी जाती थी।
- दोनों प्रणालियों में शिक्षा सम्बन्धी संस्कारों को महत्व दिया जाता था।
- दोनों प्रणालियों में शिक्षा, भोजन और निवास की निःशुल्क व्यवस्था थी।
- दोनों प्रणालियों में गुरु-शिष्य सम्बन्ध पवित्र स्नेहपूर्ण और आध्यात्मिक थे।
- दोनों प्रणालियों में छात्रों को अपने भोजन के लिए भिक्षा माँगने जाना पड़ता था।
- दोनों प्रणालियों में शिक्षा आरम्भ करने की आयु और अध्ययन की अवधि निर्धारित थी।
- दोनों प्रणालियों में सदाचार, सरल जीवन और उच्च विचारों पर बल दिया जाता था।
- दोनों प्रणालियों में शिक्षा की संस्थाएँ नगरों के कोलाहल से दूर प्रकृति के शान्त वातावरण में स्थित थीं।
असमानता (Dissimilarity) - बौद्धधर्म का उदय, वैदिक धर्म के विरुद्ध प्रतिक्रिया के फलस्वरूप हुआ था। अतः वैदिक काल और बौद्ध काल की शिक्षा में कुछ असमानताओं का होना स्वाभाविक था।
मुख्य असमानताओं का विवरण इस प्रकार है-
- वैदिक काल में सार्वजनिक शिक्षा की व्यवस्था नहीं थी। इसके विपरीत, बौद्ध काल में इस शिक्षा की व्यवस्था थी।
- वैदिक काल में शिक्षा का माध्यम, संस्कृत थी। इसके विपरीत, बौद्ध काल में शिक्षा का माध्यम, लोकभाषायें थीं।
- वैदिक काल में सामान्य विद्यालयों का प्रचलन नहीं था। इसके विपरीत, बौद्ध काल में इन विद्यालयों का प्रचलन था ।
- वैदिक काल में शिक्षक केवल ब्राह्मण थे। इसके विपरीत, बौद्ध काल में विभिन्न जातियों के भिक्षु शिक्षक थे।
- वैदिक काल में शिक्षा का स्वरूप, व्यक्तिगत और पारिवारिक था। इसके विपरीत, बौद्ध काल में शिक्षा का स्वरूप संस्थागत और सामूहिक था।
- वैदिक काल में शिक्षा संस्थायें, एकतन्त्रवाद के सिद्धान्त पर आधारित थीं। इसके विपरीत, बौद्ध काल में शिक्षा संस्थायें जनतन्त्रवाद के सिद्धान्त पर आधारित थीं।
- वैदिक काल में शिक्षा के केन्द्र- आश्रम और गुरुकुल थे। इसके विपरीत, बौद्ध काल में शिक्षा के केन्द्र मठ, विहार और सुसंगठित शिक्षा संस्थाएँ थीं।
- वैदिक काल में केवल ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था। इसके विपरीत, बौद्ध काल में शिक्षा के द्वार सभी धर्मों, वर्गों और जातियों के लिए खुले हुए थे।
- वैदिक काल में छात्रों का जीवन सादा और तपोमय था। इसके विपरीत, बौद्ध काल में छात्रों का जीवन सादा पर सुविधापूर्ण था, क्योंकि उनको जीवन-सम्बन्धी सब सुख और सुविधायें उपलब्ध थीं।
- वैदिक काल में गुरु की श्रेष्ठता और प्रधानता थी। इसके विपरीत, बौद्ध काल में गुरु का महत्त्व कम हो गया था, क्योंकि भिक्षु के रूप में मठ में प्रवेश करने के बाद छात्र पूर्ण स्वतन्त्रता और जीवन सम्बन्धी सब अधिकारों का उपभोग करता था।
आधुनिक शिक्षा के लिए ग्रहणीय तत्त्व
यद्यपि बौद्धकालीन शिक्षा का भारत में लोप हो चुका है, तथापि इसके कुछ तत्त्व आधुनिक भारतीय शिक्षा के लिए ग्रहणीय है जैसे-
(1) छात्रों का जीवन
बौद्ध काल में छात्रों के जीवन के दो मुख्य आदर्श थे सादगी और श्रेष्ठ विचार इन आदर्शों के बावजूद उनके लिए तपस्यापूर्ण जीवन के बजाय सुख-सुविधापूर्ण जीवन को अच्छा माना जाता था। इसलिए, उनको भोजन, वस्त्र, निवास, चिकित्सा आदि की सुविधायें प्रदान की गई थीं। आधुनिक भारत में उस मध्य मार्ग का अनुसरण सर्वथा उचित प्रतीत होता है। छात्रों को आधुनिक आविष्कारों से प्राप्त होने वाली सुख-सुविधाओं से वंचित न करके सादगी और श्रेष्ठ विचारों के आदर्शों को प्राप्त करने के लिए अनुप्राणित किया जा सकता है।
(2) छात्रों के अधिकार
बौद्ध काल में जब छात्र को भिक्षु के रूप में मठ में प्रवेश करने की आज्ञा मिल जाती थी तब उसे पूर्ण स्वतन्त्रता और जीवन-सम्बन्धी सभी अधिकार प्राप्त हो जाते थे।
आधुनिक भारतीय शिक्षा में इस तत्त्व का अत्यन्त महत्त्व है। छात्रों को अपनी शिक्षा-संस्थाओं से सम्बन्धित सभी कार्यों में भाग लेने की स्वतन्त्रता और अधिकार होना चाहिए। आधुनिक शिक्षा में इस तत्त्व को समाविष्ट करके अनेक समस्याओं का समाधान किया जाता है।
डॉ० महेश चन्द्र सिंघल के शब्दों में- "आज भारतीय विश्वविद्यालयों के समस्त उपकुलपतियों ने इस तथ्य को स्वीकार किया है कि शिक्षा के विभिन्न पक्षों में, जिनमें प्रशासन भी शामिल है, किस सीमा तक छात्रों को सम्मिलित किया जाय और उन्हें अधिकार प्रदान किये जाएँ।"
(3) अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा का केन्द्र
बौद्ध काल में भारत अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा का केन्द्र था। सुदूर देशों से आने वाले छात्र अध्ययन समाप्त करके अपने देशों को लौटते थे और वहाँ दया, प्रेम, अहिंसा, बौद्ध धर्म, विश्व बन्धुत्व और भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का संदेश फैलाते थे।
हमारा देश आज भी प्रेम शान्ति और अहिंसा के सिद्धान्तों का उपासक माना जाता है। अतः भारत को एक बार फिर अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा का केन्द्र बनाकर इन सिद्धान्तों का विश्व में व्यापक प्रचार किया जा सकता है।
डॉ० महेश चन्द्र सिंघल के अनुसार- "शान्ति, अहिंसा, प्रेम और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का सिद्धान्त विश्व में फैलाने का कार्य भारतीय शिक्षा और विश्वविद्यालयों के द्वारा आज भी किया जा सकता है।"
(4) शिक्षा संस्थाओं का जनतन्त्रीय संगठन
बौद्ध काल में शिक्षा संस्थायें बाह्य नियन्त्रण से मुक्त थीं और उनका संगठन जनतन्त्रीय आधार पर किया गया था। आज हमारे देश में ऐसी सहस्रों शिक्षा-संस्थायें हैं, जो न तो बाह्य नियन्त्रण से मुक्त है और न जिनका संगठन ही जनतन्त्रीय है। इन संस्थाओं का स्वरूप बौद्ध काल की शिक्षा संस्थाओं के अनुरूप बनाया जाना वांछनीय है।
इस स्वरूप को अंकित करते हुए डॉ० आर० के० मुकर्जी ने लिखा है- "बौद्ध प्रणाली में शिक्षा, बिहार या मठ में दी जाती थी, जिसमें सामूहिक जीवन, भ्रातृत्व भावना और जनतन्त्र के लिए अवसर प्रदान होता था।"