1813 का आज्ञा पत्र
कम्पनी का आज्ञा पत्र प्रति 200 वर्ष बाद पुनरावर्तन हेतु ब्रिटिश पार्लियामेन्ट में पेश होता था। 1793 में जब कम्पनी का आज्ञा पत्र पुनरावर्तन के लिए ब्रिटिश पार्लियामेन्ट में पेश हुआ था तब उसके सदस्य रॉबर्ट विवरफोर्स ने चार्ल्स ग्रान्ट और ईसाई मिशनरियों के विचारों का समर्थन करते हुए यह प्रस्ताव रखा था कि आज्ञा पत्र में एक ऐसी धारा जोड़ दी जाए जिससे यूरोपीय ईसाई मिशनरियों को भारत जाने और वहाँ ईसाई धर्म एवं शिक्षा के प्रसार को खुली छूट हो।
- किसी भी यूरोपीय देश की मिशनरियों को भारत में प्रवेश करने और वहाँ ईसाई धर्म एवं शिक्षा के प्रसार करने की पूरी छूट होगी।
- अब ईस्ट इण्डिया कम्पनी का यह उत्तरदायित्व होगा कि वह अपने शासित प्रदेशों में शिक्षा की व्यवस्था करे।
- प्रतिवर्ष कम से कम एक लाख रुपयों की धनराशि का प्रयोग साहित्य के रख-रखाव एवं विकास तथा भारतीय विद्वानों के प्रोत्साहन और भारत में ब्रिटिश शासित क्षेत्र में रहने वालों को विज्ञान का ज्ञान कराने में किया जाए (a sum of not less than one lac of rupees in each year shall be set apart and applied to the revival and improvement of literature and the encouragement of the learned natives of India and for the introduction and promotion of a knowledge of the science among the inhabitants of the British territories in India-Charter of 1813, Section 43.)।
परन्तु इस आज्ञा पत्र में शिक्षा के स्वरूप और माध्यम के विषय में कोई संकेत नहीं था। फिर धारा 43 के सम्बन्ध में भी बड़ी भ्रान्ति थी। कम्पनी अधिकारी साहित्य और भारतीय विद्वान शब्दों का भिन्न-भिन्न अर्थ कर रहे थे। कुछ विद्वान साहित्य से अर्थ भारतीय साहित्य से ले रहे थे, कुछ पाश्चात्य साहित्य से भारतीय साहित्य के विषय में भी भिन्न-भिन्न मत थे- कुछ संस्कृत, हिन्दी, अरबी और फारसी साहित्य से ले रहे थे और कुछ सभी भारतीय भाषाओं के साहित्यों से ले रहे थे। इनके विपरीत कुछ सदस्य साहित्य से अर्थ लैटिन और अंग्रेजी साहित्य से ले रहे थे। भारतीय विद्वान का अर्थ भी सदस्य भिन्न-भिन्न रूप में ले रहे थे।
परिणाम यह हुआ कि कम्पनी इस एक लाख रुपये की धनराशि को व्यय करने के सम्बन्ध में कोई निश्चित नीति नहीं बना पाई और प्रतिवर्ष यह धनराशि भिन्न-भिन्न रूप में व्यय होती रही। परन्तु भारतीयों की शिक्षा का स्वरूप क्या हो, इसका माध्यम क्या हो और यह किस प्रकार व्यवस्थित की जाए इस सन्दर्भ में दो विचारधाराएँ उभरी एक प्राच्यवादी और दूसरी पाश्चात्यवादी और ये दो विचारधाराएँ कम्पनी के सदस्यों के बीच ही नहीं उभरी, ब्रिटिश पार्लियामेन्ट के सदस्यों के बीच भी उभरी और आश्चर्य की बात यह है कि इस सन्दर्भ में भारतीय भी दो खेमों में बंट गए एक प्राच्यवादी और दूसरे पाश्चात्यवादी और भारत और ब्रिटेन दोनों स्थानों पर प्राच्य पाश्चात्य विवाद खड़ा हो गया।
इसे भी पढ़ें-
- बौद्ध कालीन शिक्षा क्या है
- मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली
- भारत में आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली
- लार्ड मैकाले का विवरण पत्र | निस्यन्दन सिद्धान्त | एडम रिपोर्ट एवं शिक्षा नीति 1839
प्राच्य पाश्चात्य विवाद
इस विवाद का जन्म ईस्ट इण्डिया कम्पनी के 1813 के आज्ञा पत्र (Character Act, 1813) से हुआ। प्रथम बात तो यह है कि इस आज्ञा पत्र में यह तो निर्देश दिया गया था कि ब्रिटिश कम्पनी शासित क्षेत्रों में शिक्षा की व्यवस्था करना कम्पनी का उत्तरदायित्व होगा परन्तु यह स्पष्ट नहीं किया गया था कि शिक्षा का स्वरूप क्या होगा। दूसरी बात यह है कि उसकी धारा 43 में जो एक लाख रुपये की धनराशि प्रतिवर्ष साहित्य के रख-रखाव और भारतीय विद्वानों के प्रोत्साहन और भारतीयों को पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान का ज्ञान कराने के लिए निश्चित की गई थी उसमें साहित्य और भारतीय विद्वान की व्याख्या नहीं की गई थी। कम्पनी के अधिकारियों ने इन दोनों शब्दों का अर्थ अलग-अलग लिया जिसके कारण दो वर्ग बन गए एक प्राच्यवादी और दूसरा पाश्चात्यवादी।
यह भी पढ़ें-
जानिए 1854 के वुड का घोषणा पत्र के बारे में सब कुछ। वुड का घोषणा पत्र, 1854 - (Wood Despatch, 1854)
प्राच्यवादी वर्ग
इस वर्ग में अधिकतर कम्पनी के वरिष्ठ एवं अनुभवी अधिकारी थे। ये 1813 के आज्ञा पत्र के साहित्य शब्द से अर्थ भारतीय साहित्यों से लेते थे और भारतीय विद्वान से अर्थ भारतीय साहित्यों के विद्वानों से लेते थे। ये चाहते थे कि -
- भारत में भारतीय भाषाओं (संस्कृत, हिन्दी और अरबी आदि) के माध्यम से शिक्षा दी जाए।
- भारत में भारतीय साहित्यों एवं ज्ञान-विज्ञान को शिक्षा दी जाए।
- कुछ उदारवादी भारतीयों को पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान का सामान्य ज्ञान कराने के भी पक्ष में थे ।
परन्तु इस सम्बन्ध में इनके अपने-अपने तर्क थे, कोई भारत के हित की दृष्टि से ऐसा सोच रहे थे और कुछ ब्रिटेन के हित की दृष्टि से ऐसा सोच रहे थे।
अतः भारत के हित की दृष्टि से सोचने वालों के अपने तर्क थे-
- भारत की अपनी संस्कृति है, उसकी संस्कृति की रक्षा के लिए उसकी भाषा और साहित्य की शिक्षा देना आवश्यक है।
और ब्रिटेन के हित की दृष्टि से सोचने वालों के अपने तर्क थे-
- प्रिन्सप आदि का तर्क था कि भारतीय पाश्चात्य भाषा, साहित्य और ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा प्राप्त करने योग्य नहीं हैं।
- विल्सन आदि का तर्क था कि भारत में पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देने से भारत में अंग्रेजों का विरोध हो सकता है।
- कुछ का तर्क था कि पाश्चात्य भाषा, साहित्य और ज्ञान-विज्ञान का ज्ञान प्राप्त कर ये उनके (यूरोपियों के) समकक्ष हो जाएँगे।
- कुछ का तर्क था कि पाश्चात्य भाषा, साहित्य और ज्ञान विज्ञान का ज्ञान प्राप्त कर ये जागरूक हो जाएँगे और भारत में ब्रिटेन के शासन को उखाड़ फेंकेंगे।
पाश्चात्यवादी वर्ग
इस वर्ग में अधिकतर कम्पनी के युवा अधिकारी थे। ये 1813 के आज्ञा पत्र के साहित्य शब्द का अर्थ पाश्चात्य साहित्य से लेते थे और भारतीय विद्वान का अर्थ पाश्चात्य साहित्य के भारतीय विद्वानों से लेते थे। ये चाहते थे कि-
- भारतीयों की शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी हो ।
- भारतीयों को पाश्चात्य भाषा और साहित्यों का ज्ञान कराया जाए।
- कुछ कट्टरवादी ईसाई धर्म की शिक्षा अनिवार्य करने के पक्ष में थे।
परन्तु इस सम्बन्ध में इनके अपने-अपने तर्क थे, कोई भारत के हित की दृष्टि से ऐसा सोच रहे थे और कुछ ब्रिटेन के हित की दृष्टि से ऐसा सोच रहे थे।
भारत के हित की दृष्टि से सोचने वालों के अपने तर्क थे-
- राजा राममोहन आदि का तर्क था कि इस शिक्षा से भारतीय आधुनिकतम ज्ञान-विज्ञान से परिचित होंगे और अपनी उन्नति करेंगे।
और ब्रिटेन के हित की दृष्टि से सोचन वालों के तर्क थे-
- भारत में पश्चिमी संस्कृति का विकास किया जा सकेगा।
- कम्पनी के व्यापार और शासन कार्य के लिए अंग्रेजी पढ़े-लिखे कनिष्ठ कर्मचारी तैयार किए जा सकेंगे।
- भारत में अंग्रेजपरस्त लोग तैयार किए जा सकेंगे जो जन्म से भारतीय होंगे परन्तु विचारों से अंग्रेज ।
- भारत में ब्रिटिश शासन की जड़ें मजबूत होंगी।
परिणाम
इस प्राच्य पाश्चात्य विवाद के कारण कम्पनी 200 वर्ष तक अपनी कोई शिक्षा नीति निश्चित नहीं कर सकी और सबसे बड़ी बात तो यह थी कि यह विवाद न केवल कम्पनी के अधिकारियों के बीच था अपितु ब्रिटेन की पार्लियामेन्ट के सदस्यों के बीच भी उत्पन्न हो गया था। भारतीयों के बीच में तो यह विवाद होना स्वाभाविक था। 1823 में कम्पनी ने इस समस्या पर विचार करने हेतु 10 सदस्यीय एक समिति का गठन किया। परन्तु इनमें भी दो वर्ग बन गए एक प्राच्यवादी और दूसरा पाश्चात्यवादी, और यह समस्या यथावत् बनी रही।
1813 के आज्ञा पत्र का प्रभाव
कम्पनी के 1813 के आज्ञा पत्र में यूरोपीय ईसाई मिशनरियों को भारत आने की खुली छूट दी गई। परिणामतः भारत में बड़ी संख्या में ईसाई मिशनरियों का प्रवेश शुरू हुआ और उनके धर्म प्रचार और शिक्षा प्रसार के काम में तेजी आई। इनसे प्रेरणा पाकर देश में अनेक गैरमिशनरी संगठन बने और उन्होंने भी शिक्षा की व्यवस्था में अपना सहयोग दिया। परन्तु इस बीच कम्पनी अपनी कोई शिक्षा नीति नहीं बना पाई, इसलिए उसके शैक्षिक कार्यों में उतनी गति नहीं रही जितनी होनी चाहिए थी। यहाँ 1813 के आज्ञा पत्र के बाद से लेकर 1833 के आज्ञापत्र तक की शिक्षा प्रगति का वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत है।
ईसाई मिशनरियों के शैक्षिक कार्य
कम्पनी के 1813 के आज्ञा पत्र के प्रकाशित होते ही भारत में बैस्टिस्ट मिशन सोसाइटी, लन्दन मिशनरी सोसाइटी, बैसलियन मिशन, चर्च मिशनरी सोसाइटी और स्कॉच मिशन सोसाइटी आदि से सम्बन्धित मिशनरियों ने प्रवेश किया और ईसाई धर्म एवं शिक्षा का प्रसार कार्य शुरु किया। इनके मुख्य कार्य क्षेत्र थे- बंगाल, बम्बई और मद्रास ।
बंगाल क्षेत्र में किए गए शैक्षिक कार्य
बंगाल में वैस्टिस्ट मिशनरियाँ अधिक सक्रिय रहीं। इन्होंने 1817 में सीरामपुर में 'सीरामपुर कॉलिज' की स्थापना की और इसमें पाश्चात्य भाषा, साहित्य एवं ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा को उचित व्यवस्था की। साथ ही इसे धर्म प्रचार का केन्द्र बनाया। चर्च मिशनरी सोसाइटी ने 1814 से 1818 के बीच चिन्सूरा और उसके आस-पास 26 स्कूल स्थापित किए और लन्दन मिशनरी सोसाइटी ने वर्द्धमान और उसके आस-पास 10 स्कूल स्थापित किए। 1820 में इन्होंने शिवपुर में 'विशप कॉलिज' की स्थापना की।
बम्बई क्षेत्र में किए गए शैक्षिक कार्य
बम्बई में अमरीकन मिशन अधिक सक्रिय रहा। उसने 1815 में लड़कों के लिए एक स्कूल स्थापित किया और इसके बाद 1834 से 1826 के बीच लड़कियों के लिए 9 स्कुल स्थापित किए। स्कॉच मिशनरी डॉ० विलसन ने 1829 में लड़कियों के लिए और 1932 में लड़कों के लिए एक स्कूल की स्थापना की। लन्दन मिशनरी सोसाइटी ने गुजरात और कोंकण क्षेत्र में आयरिश आस्टर मिशनरी सोसायटी ने कठियावाड़ क्षेत्र में और चर्च मिशनरी सोसाइटी ने बम्बई, थाना, नासिक और सूरत अनेक स्कूल स्थापित किए।
मद्रास क्षेत्र में किए गए शैक्षिक कार्य
मद्रास में चर्च मिशनरी सोसाइटी अधिक सक्रिय रही। इन मिशनरियों ने 1815 से 1830 के बीच मद्रास में 107 स्कूल स्थापित किए। ईसाई ज्ञान प्रचारक समिति ने 1817 में यहाँ 9 स्कूलों की स्थापना की। वेसलियन मिशन ने भी यहाँ 1819 में 2 स्कूल स्थापित किए। इस बीच मिशनरियों ने कोयम्बटूर, विशाखापट्टम, किल्लारी, कुम्भकोणम्, बिंदूर और मेलन आदि स्थानों पर भी मिशनरी स्कूलों की स्थापना की।
अन्य क्षेत्रों में किए गए शैक्षिक कार्य
यूँ ईसाई मिशनरियों ने मुख्य रूप से बंगाल, बम्बई और मद्रास क्षेत्र में अधिक स्कूल खोले थे, परन्तु कुछ स्कूल लुधियाना, जौनपुर, बनारस, आजमगढ़, आगरा, मथुरा, मेरठ और अजमेर में भी स्थापित किए। अजमेर शहर में तो लंका स्ट्रियन प्रणाली के 5 स्कूल स्थापित किए थे।
गैरमिशनरियों के शैक्षिक कार्य
गैरमिशनरी संगठन दो प्रकार के थे- एक भारतीय और दूसरे ब्रिटिश कुछ भारतीयों ने व्यक्तिगत रूप से भी इस यज्ञ में भाग लिया। इनमें से कुछ का उल्लेख करना आवश्यक है।
राजा राममोहन राय का योगदान
राजा राममोहन राय बंगाली और संस्कृत भाषा के विद्वान थे। वे भारतीय संस्कृति के पुजारी और पाश्चात्य संस्कृति के प्रशंसक थे। इन्होंने एक ओर अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए भारतीय भाषा, साहित्य और दर्शन की शिक्षा के महत्त्व को स्वीकार किया और दूसरी ओर अपनी भौतिक उन्नति के लिए पाश्चात्य अंग्रेजी भाषा अंग्रेजी साहित्य और विज्ञान की शिक्षा के महत्व को स्वीकार किया।
उन्होंने 1817 में कलकत्ता में 'हिन्दू कॉलिज' की स्थापना की। इस कॉलिज की स्थापना का मुख्य उद्देश्य हिन्दू जाति के बच्चों को उच्च स्तर की अंग्रेजी शिक्षा प्रदान करना था। इसमें बंगला, संस्कृत, अंग्रेजी, इतिहास, भूगोल, गणित और ज्योतिष विषयों की शिक्षा का प्रबन्ध किया गया और शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी को बनाया गया। राजा राममोहन राय ने उसी वर्ष 1817 में कलकत्ता समाज को स्थापना की जिसका कार्य सस्ते मूल्यों पर पाठ्य पुस्तकें तैयार करना था। इसके बाद इन्होंने 1819 में 'कलकत्ता विद्यालय समाज' की स्थापना की जिसने कलकत्ता क्षेत्र में 115 स्कूलों की स्थापना की। राजा राममोहन राय भारत में पुनर्जागरण के अग्रदूत माने जाते हैं।
श्री जयनारायण घोसाल का योगदान
श्री जयनारायण घोसाल राजा राममोहन राय के विचारों से सहमत थे। उन्होंने स्वयं उस समय 20 हजार रुपये की धनराशि दान में देकर 1818 में बनारस में 'जयनारायण स्कूल' की स्थापना की। इस स्कूल में संस्कृत, हिन्दी, बंगला, फारसी और अंग्रेजी भाषा की शिक्षा की व्यवस्था की गई। साथ ही इतिहास, भूगोल और गणित आदि विषयों के शिक्षण की व्यवस्था की गई। पुनर्जागरण के युग में इस स्कूल की बड़ी भूमिका रही।
पं० गंगाधर शास्त्री का योगदान
इन्होंने एक मुश्त एक लाख पचास हजार रुपये की धनराशि दान देकर आगरे के संस्कृत कॉलिज को 'आगरा कॉलिज' में बदलवा दिया और इसमें संस्कृत भाषा और भारतीय साहित्य की शिक्षा के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा और पाश्चात्य साहित्य की शिक्षा की व्यवस्था की गई। साथ ही पश्चात्य ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा की उचित व्यवस्था की गई।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शैक्षिक कार्य
जैसा कि प्रारम्भ में ही कहा गया है इस बीच ईस्ट इण्डिया कम्पनी शिक्षा के क्षेत्र में कुछ कम सक्रिय रही। पर 1813 के आज्ञा पत्र के पालन में उसने ईसाई मिशनरियों को पूरी छूट अवश्य दी। साथ ही भारतीयों के प्रयासों पर भी किसी प्रकार के बन्धन नहीं लगाए। हाँ, यह बात अवश्य है कि आर्थिक सहायता देने में उसने भेदभावपूर्ण नीति ही जारी रखी, केवल मिशनरियों द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों को ही आर्थिक सहायता दो। इस बीच उसने एक बड़ा कार्य अवश्य किया और वह था 'पूना संस्कृत कॉलिज' की स्थापना। अतः यहाँ उसका परिचय देना आवश्यक है।
पूना संस्कृत कॉलिज (Poona Sanskrit College)
1818 में अंग्रेजों ने पेशवा राज्य का अन्त कर बम्बई प्रेसीडेन्सी का निर्माण किया। 1819 में एल्फिन्सटन (Elphinstone) इस प्रेसीडेन्सी का गवर्नर नियुक्त हुआ। उसे जब यह जानकारी हुई कि पेशवा अपने दक्षिणा कोष से लगभग 5 लाख रुपया प्रतिवर्ष ब्राह्मणों को दान में देते थे तो उसने दक्षिणा कोष के एक अंश से 1821 में पूना में 'पूना संस्कृत कॉलिज' की स्थापना की। इस संस्था की स्थापना का पहला मुख्य उद्देश्य दक्षिण के प्रभावशाली ब्राह्मणों को सन्तुष्ट करना तथा और दूसरा उद्देश्य संस्कृत भाषा और साहित्य की शिक्षा के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा और साहित्य की शिक्षा और पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा की व्यवस्था करना था।
निष्कर्ष
1813 के आज्ञा पत्र से एक ओर ईसाई मिशनरियों के शैक्षिक प्रयासों में तेजी आई तो दूसरी ओर गैरमिशनरी संगठन भी इस क्षेत्र में सक्रिय हुए। इस क्षेत्र में राजा राममोहन राय का पदार्पण भारतीयों को वरदान सिद्ध हुआ। एक ओर अपनी भाषा, साहित्य और संस्कृति की रक्षा और दूसरी और पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान की प्राप्ति । सचमुच हमारे देश को उस समय इन दोनों की आवश्यकता थी। राजा राममोहन राय के कारण ही यह काल भारतीय शिक्षा के विकास में अपना विशेष महत्त्व रखता है। यह वह युग है जब भारत में आधुनिक शिक्षा प्रणाली के स्कूल और कॉलिजों की स्थापना हुई।
1813 से 1833 के 20 वर्ष के काल में देशी शिक्षा की स्थिति
उस समय हमारे देश में एक ओर पहले से चली आ रही देशी पाठशालाएँ- गुरुकुल, संस्कृत विद्यालय, ग्रामीण स्कूल, मकतब और मदरसे चल रहे थे और दूसरी ओर ईसाई मिशनरियों और ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा संचालित स्कूल एवं कॉलिज चल रहे थे। 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपने अधीनस्थ भारतीय क्षेत्र का सर्वेक्षण कराया।
अतः इस सर्वेक्षण से कई तथ्य उजागर हुए-
- उस समय देश के सभी भागों में शिक्षा संस्थाओं की संख्या पर्याप्त थी।
- उस समय देश के नगरों में मुख्य रूप से मदरसे और ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित स्कूल चल रहे थे और ग्रामीण क्षेत्रों में मुख्य रूप से हिन्दू पाठशालाएँ चल रही थीं।
- उस समय छोटे-छोटे गाँवों में भी एक हिन्दू पाठशाला चल रही थी।
- इन देशी शिक्षा संस्थाओं में शिक्षा का माध्यम संस्कृत, अरबी और फारसी था।
- उस समय हिन्दू शिक्षा संस्थाओं में अनुसूचित जाति अथवा जनजाति के बच्चों को प्रवेश नहीं दिया जाता था।
- उस समय मुस्लिम उच्च शिक्षा संस्थाओं (मदरसों) में केवल चुने हुए योग्य छात्रों को प्रवेश दिया जाता था।
- उस समय बालिकाओं की शिक्षा का बड़ा अभाव था।
- उस समय साक्षरता प्रतिशत लगभग 7 प्रतिशत था।
- उस समय देशी पाठशालाएँ अवनति की ओर थीं और ईसाई मिशनरियों द्वारा चलाए जा रहे स्कूल प्रगति कर रहे थे।
देशी पाठशालाओं के पतन के कारण
इन 1813 के बाद देशी पाठशालाओं का पतन होना शुरु हो गया था। इसके दो मुख्य कारण थे- एक तो देशी पाठशालाओं को अपनी कमियाँ और दूसरा ईसाई मिशनरियों और कम्पनी द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों की अच्छाइयाँ । उन सब कारणों को हम निम्नलखित रूप में क्रमबद्ध कर सकते हैं-
- देशी पाठशालाओं को शासन की ओर से बहुत कम आर्थिक सहायता दी जाती थी।
- अंग्रेजों ने देशी रियासतों को भी अपने अधीन कर लिया था परिणामस्वरूप इनसे मिलने वाली आर्थिक सहायता भी बन्द हो गई थी। अतः धीरे-धीरे ये पाठशालाएँ बन्द होने लगीं।
- अंग्रेजों ने देशी उच्च शिक्षा संस्थाओं (मदरसों और कॉलिजों) को तो कुछ प्रोत्साहन दिया परन्तु प्राथमिक शिक्षा की अवहेलना की।
- देशी पाठशालाओं का पाठ्यक्रम संकुचित था, बच्चों की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करता था।
- इन विद्यालयों में पुरानी शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाता था और रटने पर अधिक बल दिया जाता था।
- इन विद्यालयों में छात्रों को कठोर अनुशासन में रखा जाता था।
- इन विद्यालयों में कार्यरत अधिकतर शिक्षक कम योग्य थे और अप्रशिक्षित थे ।
- इन विद्यालयों में छात्रों के साथ भेद-भाव किया जाता था, अनुसूचित जाति के बच्चों को तो प्रवेश ही नहीं दिया जाता था।
- इन विद्यालयों की स्थिति भी ठीक नहीं थी, न अच्छे भवन थे, न टाट-पट्टी और न शिक्षण साधन व खेल का सामान आदि।
- दूसरी ओर ईसाई मिशनरियों द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों को शासन की ओर से पर्याप्त आर्थिक सहायता दी जाती थी। इन्हें ईसाई संगठनों से भी आर्थिक सहयोग मिलता था।
- ईसाई मिशनरियों और कम्पनी द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों में शिक्षा तो निःशुल्क थी ही, साथ ही निर्धन बच्चों को पाठ्यपुस्तकें आदि भी निःशुल्क दी जाती थीं और अति निर्धन छात्रों को छात्रवृत्तियाँ भी दी जाती थी।
- ईसाई मिशनरियों और कम्पनी द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों का पाठ्यक्रम भी समयानुकूल था, उनमें भाषा, गणित और इतिहास के साथ-साथ स्थानीय कला-कौशलों की शिक्षा का भी प्रबन्ध था।
- ईसाई मिशनरियों और कम्पनी द्वारा संचालित स्कूलों में नवीन रोचक शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाता था और अंग्रेजी के साथ-साथ देशी स्थानीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा की व्यवस्था थी।
- अनुशासन की स्थापना के लिए दण्ड नहीं दिया जाता था। बच्चों के साथ प्रेम एवं सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार किया जाता था।
- इन स्कूलों में शिक्षण करने वाले व्यक्ति योग्य और प्रशिक्षित थे।
- इनके द्वारा संचालित विद्यालयों में बच्चों के साथ भेद-भाव नहीं बरता जाता था, सभी को प्रवेश दिया जाता था, अनुसूचित जाति के बच्चों को भी ।
- इनके द्वारा संचालित विद्यालयों की स्थिति ठीक थी, अच्छे भवन थे, आवश्यक साज-सज्जा थी, समय-सारणी थी, सब कार्य नियमित रूप से होते थे।
- इनके द्वारा संचालित स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ने वाले छात्रों को आगे चलकर सरकारी नौकरी प्राप्त होती थी। यह इन स्कूलों का सबसे बड़ा आकर्षण था।
निष्कर्ष
इस काल के प्रारम्भ में जहाँ गाँव-गाँव में देशी पाठशालाएँ थीं वे आर्थिक सहायता न मिलने के कारण धीरे-धीरे कम होती गई और शिक्षा के प्रसार में एक बार कमी आई। 1833 के आज्ञा पत्र में (Charter Act, 1833) जब शिक्षा हेतु धनराशि को एक लाख से बढ़ाकर 10 लाख रुपया किया गया और देशी पाठशालाओं को भी कुछ आर्थिक सहायता बढ़ाई गई तब इन देशी पाठशालाओं को कुछ जीवन मिला। परन्तु इनको प्रगति वुड डिस्पेच 1854 के बाद ही शुरू हुई।
1833 का आज्ञा पत्र
1813 के 21 वर्ष बाद 1833 में ब्रिटिश पार्लियामेन्ट ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को नया आज्ञा पत्र (Charter Act, 1833) जारी किया। इस आज्ञा पत्र में कम्पनी का यह उत्तरदायित्व निश्चित किया गया कि वह अपने द्वारा शासित प्रदेशों में शिक्षा की उचित व्यवस्था करें।
इस आज्ञा पत्र की शिक्षा सम्बन्धी कुछ धाराएँ इस प्रकार है-
- बंगाल प्रान्त का गवर्नर गवर्नर जनरल होगा और अन्य प्रान्तों के गवर्नर कुछ मामलों में उसके अधीन होंगे।
- गवर्नर जनरल की कौमिल में एक कानूनी सलाहकार होगा जो गवर्नर जनरल को किसी भी मामले में कानून में अवगत कराएगा।
- शिक्षा के लिए 1813 के आज्ञा पत्र में स्वीकृत धनराशि एक लाख प्रतिवर्ष थी यह अब 10 लाख रुपया प्रतिवर्ष निश्चित की जाती है।
- किसी भी भारतीय को जाति, धर्म या वर्ग के आधार पर कम्पनी में नौकरी के लिए अयोग्य नहीं माना जाएगा किसी भी पद पर नियुक्ति अभ्यर्थी की शैक्षिक योग्यता और कार्यक्षमता के आधार पर की जाएगी।
- किसी भी देश की ईसाई मिशनरियों को भारत आने को पूरी छूट होगी पर वे भारतीयों की धर्म भावना को ठेस नहीं पहुंचाएंगे।
समालोचना
इस आज्ञा पत्र से कई लाभ हुए-
- गवर्नर जनरल द्वारा शिक्षा नीति के निर्धारण की शुरूआत,
- भारत में ईसाई मिशनरियों का बड़ी संख्या में प्रवेश और शिक्षा के विकास में सहयोग,
- शिक्षा पर व्ययः की जाने वाली धनराशि के एकदम दस गुना हो जाने से शिक्षा के विकास में तेजी और
- भारतीयों के लिए नौकरी के द्वार खुलने से अंग्रेजी शिक्षा के प्रति आकर्षण।
परन्तु साथ ही कुछ अलाभ भी हुए
- शिक्षा की स्पष्ट नीति का अभाव,
- ईसाई मिशनरियों के नापाक इरादों को प्रोत्साहन,
- भारतीय पद्धति के स्कूलों के साथ सौतेला व्यवहार।
- अंग्रेजी के प्रति अति आकर्षण, वर्ग भेद की शुरूआत।
परन्तु लाभ-हानि तो एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। शुक्र है स्वतन्त्रता सेनानियों का जिन्होंने हमें अंग्रेजों के चंगुल से शीघ्र मुक्त करा दिया अन्यथा पता नहीं इस देश की क्या स्थिति होती ।