चिन्तन का अर्थ
मनुष्य को संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहा गया है। इसका प्रमुख कारण है, उसका चिन्तनशील होना। जीवधारियों में मनुष्य ही सर्वाधिक चिन्तनशील है और यही चिन्तन मनुष्य और उसके समाज के विकास का कारण है। शिक्षा के द्वारा मनुष्य की चिन्तन शक्तियों को भी विकसित किया जाता है।
मनुष्य के सामने कभी-कभी किसी समस्या का उपस्थित होना स्वाभाविक है। ऐसी दशा में वह उस समस्या का समाधान करने के उपाय सोचने लगता है। वह इस बात पर विचार करना आरम्भ कर देता है कि समस्या को किस प्रकार सुलझाया जा सकता है। उसके इस प्रकार सोचने या विचार करने की क्रिया को 'चिन्तन' कहते हैं। दूसरे शब्दों में, चिन्तन विचार करने की वह मानसिक प्रक्रिया है, जो किसी समस्या के कारण आरम्भ होती है और उसके अन्त तक चलती रहती है।
चिन्तन की परिभाषा
चिन्तन की परिभाषाएं निम्नलिखित है-
रॉस के अनुसार : "चिन्तन, मानसिक क्रिया का ज्ञानात्मक पहलू है या मन की बातों से सम्बन्धित मानसिक क्रिया है।"
वेलेन्टाइन के अनुसार : "चिन्तन शब्द का प्रयोग उस क्रिया के लिए किया जाता है, जिसमें श्रृंखलाबद्ध विचार किसी लक्ष्य या उद्देश्य की ओर अविराम गति से प्रवाहित होते हैं।"
रायबर्न के अनुसार : "चिन्तन, इच्छा-सम्बन्धी प्रक्रिया है, जो किसी असन्तोष के कारण आरम्भ होती है। और प्रयास एवं त्रुटि के आधार पर चलती हुई उस अन्तिम स्थिति पर पहुँच जाती है, जो इच्छा को सन्तुष्ट करती है।"
वारेन के अनुसार : "चिन्तन एक प्रतीकात्मक स्वरूप की विचारात्मक प्रक्रिया है। इसका आरम्भ व्यक्ति के समक्ष उपस्थित किसी समस्या या कार्य से होता है। प्रयत्न तथा भूल से युक्त समस्या प्रवृत्ति से प्रभावित क्रिया होती है। इसके अन्त में समस्या का समाधान मिलता है।"
अतः इन परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि चिन्तन मानसिक क्रिया का एक ज्ञानात्मक पथ है। यह प्रक्रिया किसी विशेष उद्देश्य की ओर परिलक्षित होती है। इसमें इच्छा तथा असतोष का महत्त्व है। इच्छा तथा असतोष मनुष्य को चिन्तन करने के लिए विवश करते हैं।
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चिन्तन की विशेषताएँ
सी. टी. मार्गन के शब्दों में-"वास्तव में प्रतिदिन की वार्ता में प्रयोग होने वाले चिन्तन शब्द में विभिन्न क्रियाओं की संरचना निहित है।" तथा इसका सम्बन्ध गम्भीर विचारशील क्रिया से है।
अतः इस दृष्टि से चिन्तन की विशेषतायें निम्नलिखित हैं-
विशिष्ट गुण
चिन्तन, मानव का एक विशिष्ट गुण है, जिसकी सहायता से वह अपनी बर्बर अवस्था से सभ्य अवस्था तक पहुँचने में सफल हुआ है।
मानसिक प्रक्रिया
चिन्तन, मानव की किसी इच्छा, असन्तोष, कठिनाई या समस्या के कारण आरम्भ होने वाली एक मानसिक प्रक्रिया है।
भावी आवश्यकता की पूर्ति हेतु व्यवहार
चिन्तन किसी वर्तमान या भावी आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए एक प्रकार का व्यवहार है। हम अंधेरा होने पर बिजली का स्विच दबाकर प्रकाश कर लेते हैं और मार्ग पर चलते हुए सामने से आने वाली मोटर को देखकर एक ओर हट जाते हैं।
समस्या समाधान
मर्सेल के अनुसार : चिन्तन उस समय आरम्भ होता है, जब व्यक्ति के समक्ष कोई समस्या उपस्थित होती है और वह उसका समाधान खोजने का प्रयत्न करता है।
अनेक विकल्प
चिन्तन की सहायता से व्यक्ति अपनी समस्या का समाधान करने के लिए अनेक उपायों पर विचार करता है। अन्त में वह उनमें से एक का प्रयोग करके अपनी समस्या का समाधान करता है।
समस्या समाधान तक चलने वाली प्रक्रिया
इस प्रकार, चिन्तन एक पूर्ण और जटिल मानसिक प्रक्रिया है, जो समस्या की उपस्थिति के समय से आरम्भ होकर उसके समाधान के अन्त तक चलती रहती है।
चिन्तन के प्रकार
चिन्तन मुख्य रूप से चार प्रकार का होता है-
- प्रत्यक्षात्मक चिन्तन (Perceptual Thinking)
- प्रत्ययात्मक चिन्तन (Conceptual Thinking)
- कल्पनात्मक चिन्तन (Imaginative Thinking)
- तार्किक चिन्तन (Logical Thinking)
1. प्रत्यक्षात्मक चिन्तन
इस चिन्तन का सम्बन्ध पूर्व अनुभवों पर आधारित वर्तमान की वस्तुओं से होता है। जिस प्रकार माता-पिता के बाजार से लौटने पर यदि बालक को उनसे काफी दिनों तक लगातार टाफी मिल जाती है, तो जब भी वे बाजार से लौटते हैं, तभी टाफी का विचार उसके मस्तिष्क में आ जाता है और वह दौड़ता हुआ उनके पास जाता है। यह निम्न स्तर का चिन्तन है। अतः यह विशेष रूप से पशुओं और बालकों में पाया जाता है। इसमें भाषा और नाम का प्रयोग नहीं किया जाता है।
2. प्रत्ययात्मक चिन्तन
इस चिन्तन का सम्बन्ध पूर्व-निर्मित प्रत्ययों से होता है जिनकी सहायता से भविष्य के किसी निश्चय पर पहुंचा जाता है। कुत्ते को देखकर बालक अपने मन में प्रत्यय का निर्माण कर लेता है। अतः जब वह भविष्य में कुत्ते को फिर देखता है, तब वह उसकी और संकेत करके कहता है कुता। इस चिन्तन में भाषा और नाम का प्रयोग किया जाता है।
3. कल्पनात्मक चिन्तन
इस चिन्तन का सम्बन्ध पूर्व अनुभवों पर आधारित भविष्य से होता है। जब माता-पिता बाजार जाते हैं. तब बालक कल्पना करता है कि वे वहाँ से लौटने पर उसके लिए टाफी लायेंगे। इस चिन्तन में भाषा और नाम का प्रयोग नहीं किया जाता है।
4. तार्किक चिन्तन
यह सबसे उच्च प्रकार का चिन्तन है। इसका सम्बन्ध किसी समस्या के समाधान से होता है। जॉन डीवी ने इसको विचारात्मक चिन्तन (Reflective Thinking) की संज्ञा दी है।
चिन्तन की क्रिया में अनेक क्रियायें शामिल रहती है। इसमें प्रमुख भूमिका रहती है प्रयत्न एवं भूल की। इसमें विचार का संकेत रहता है। सड़कों पर लिखा रहता है- सावधानी हटी दुर्घटना घटी। इसमें सावधान रहने का संकेत है।
चिन्तन एक ज्ञानात्मक (Cognitive) क्रिया है। इसमें प्रत्ययात्मक तथा कल्पनात्मक ज्ञान निहित होता है। प्रतीकों का प्रयोग भी इसमें किया जाता है।
चिन्तन के सोपान
ह्यूजोज (Hughos) ने चिन्तन के निम्नलिखित सोपान बताये है-
समस्या का आकलन
चिन्तन समस्या के उत्पन्न होने से सम्पन्न होता है। मूर्त तथा अमूर्त समस्यायें, जिज्ञासा के माध्यम से चिन्तन का आरम्भ करती है। मूर्त से अमूर्त की ओर इस पद में बढ़ा जाता है।
सम्बन्धित तथ्यों का संकलन
समस्या को समझने के बाद उन तथ्यों को एकत्र किया जाता है जो समस्या का कारण खोजने में सहायक होते हैं। तथ्यों के संकलन में प्रेरणा का महत्त्व भी होता है।
निष्कर्ष पर पहुँचना
तथ्यों का संकलन कर उनका विश्लेषण किया जाता है। इस विश्लेषण से किसी निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है।
निष्कर्ष का परीक्षण
चिन्तन में प्राप्त परिणामों का परीक्षण कर उसकी जाँच की जाती है। इससे चिन्तन की वैधता तथा विश्वसनीयता की परीक्षा हो जाती है।
चिन्तन के विकास के उपाय
क्रो व क्रो के शब्दों में : "स्पष्ट चिन्तन की योग्यता सफल जीवन के लिए आवश्यक है। जो लोग उद्योग, कृषि या किसी मानसिक कार्य में दूसरों के आगे होते हैं, वे अपनी प्रभावशाली चिन्तन की योग्यता में साधारण व्यक्तियों से श्रेष्ठ होते हैं।"
इस कथन से चिन्तन का महत्व स्पष्ट हो जाता है। अतः यह आवश्यक है कि शिक्षक, बालको की चिन्तन-शक्ति का विकास करे। वह ऐसा अधोलिखित उपायों की सहायता से कर सकता है-
1. भाषा, चिन्तन के माध्यम और अभिव्यक्ति की आधारशिला है। अतः शिक्षक को बालकों के भाषा ज्ञान में वृद्धि करनी चाहिए।
2. ज्ञान चिन्तन का मुख्य स्तम्भ है। अतः शिक्षक को बालकों के ज्ञान का विस्तार करना चाहिए।
3. तर्क, वाद-विवाद और समस्या समाधान चिन्तन-शक्ति को प्रयोग करने का अवसर देते हैं। अतः शिक्षक को बालकों को इन बातों के लिए अवसर देना चाहिए।
4. उत्तरदायित्व, चिन्तन को प्रोत्साहित करता है। अतः शिक्षक को बालकों को उत्तरदायित्व के कार्य सौपने चाहिए।
5. रुचि और जिज्ञासा का चिन्तन में महत्वपूर्ण स्थान है। अतः शिक्षक को बालकों की इन प्रवृत्तियों को जाग्रत रखना चाहिए।
6. प्रयोग, अनुभव और निरीक्षण, चिन्तन को शक्तिशाली बनाते है। अतः शिक्षक को बालकों के लिए इनसे सम्बन्धित वस्तुएँ जुटानी चाहिए।
7. शिक्षक को अपने अध्यापन के समय बालकों से विचारात्मक प्रश्न पूछ कर उनकी चिन्तन की योग्यता में वृद्धि करनी चाहिए।
8. शिक्षक को बालको को विचार करने और अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
9. शिक्षक को प्रश्न पत्र में ऐसे प्रश्न देने चाहिए, जिनके उत्तर बालक भली-भाँति विचार करने के बाद ही दे सके।
10. शिक्षक का कर्त्तव्य है कि बालकों में निष्क्रिय रटने की आदत नहीं पड़ने देनी चाहिए, क्योंकि इस प्रकार का रटना, चिन्तन का घोर शत्रु है।
11. शिक्षक को बालको की समस्या को समझने और उसका समाधान खोजने के लिए प्रेरित करना चाहिए। यह उपाय बालको में चिन्तन और अधिगम दोनों की प्रक्रियाओं के विकास में प्रमुख योग देता है।
मरसेल का मत है : "समस्या का ज्ञान और उसके समाधान की खोज यही चिन्तन की प्रक्रिया है और यही सीखने की भी प्रक्रिया है।"