भारतीय समाज के लिए बाल विवाह भी एक विकट समस्या बन चुकी है। बाल विवाह ने अपनी जड़ें इस प्रकार मजबूत कर रखी हैं कि कुछ स्थानों में दुधमुंहे और जन्म लेने से पूर्व ही विवाह कर दिया जाता है। आज हमारा समाज शिक्षित और विकसित होता जा रहा है परन्तु इस समस्या से अपने आपको अलग नहीं कर पा रहा है।
बाल विवाह का अर्थ
बाल विवाह का सामान्य अर्थ उस विवाह से है जो बालक-बालिका का उस अवस्था में कर दिया जाता है जब वे पूर्ण अबोध होते है, उन्हें न तो विवाह का अर्थ मालूम होता है और न ही वे वैवाहिक सम्बन्धों के विषय में कुछ जानते हैं। उनमें विवाह के बोझ व दायित्व को निभाने की शारीरिक तथा मानसिक योग्यता भी नहीं होती, उनके लिए विवाह एक खेल होता है।
बाल विवाह की उत्पत्ति
भारत में बाल विवाह प्रथा अत्यन्त प्राचीन समय से है, परन्तु वैदिक काल में बाल विवाह नहीं होते थे, इसका प्रमाण उस काल की आश्रम व्यवस्था है। वास्तव में वैदिक काल स्त्रियों के लिए स्वर्ण युग था। आश्रम व्यवस्था के अन्तर्गत गृहस्थ आश्रम में प्रवेश की अवस्था 25 वर्ष निर्धारित थी 'मनु' ने भी अपने ग्रन्थ में बाल विवाह को निषिद्ध कहा है। वैदिक युग के बाद धर्मशास्त्रों के नियमों में तत्कालीन धर्मशास्त्रियों ने परिवर्तन किये। उन्होंने बालिका के रजोधर्म से पूर्व विवाह पर जोर दिया। वैदिक काल के नियमों को किस तरह तोड़ा मरोड़ा गया यह स्मृतिकारों के इस कथन से स्पष्ट है- "रोम निकलते ही कन्या का भोग सोम, रजोधर्म होते ही गन्धर्व तथा स्तन प्रकट होने पर अरिन करता है। इसलिए कन्या के रजस्वला होने के पूर्व ही उसका विवाह कर देना चाहिए।"
रामायण तथा महाभारत जैसे अन्थों में भी इस बात का उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि ईसा से लगभग 400 वर्ष पूर्व बाल विवाह का प्रचलन शुरू हुआ। मुगल आक्रमण के समय कन्याओं की सुरक्षा को देखते हुए उनके बाल विवाह कर दिये जाते थे। कालान्तर में बाल विवाह प्रथा तीव्रता से अपनी जड़ें मजबूत करती गयीं।
बाल विवाह के कारण
बाल विवाह का प्रचलन अत्यन्त प्राचीन काल से है। इसके निम्न कारण हैं-
1. धार्मिक विश्वास
भारतीय समाज का प्रत्येक पहलू किसी न किसी प्रकार धर्म से जुड़ा रहा है। इस प्रकार 'कन्यादान' को माता-पिता के लिए सौ अश्वमेध यज्ञों के पुण्य के समान मानना एक धार्मिक विश्वास ही है। दूसरा पत्नी के लिए पति परमेश्वर समान होता है। अतः पत्नी को पतिव्रत धर्म का पालन करना अनिवार्य माना गया, जिसके फलस्वरूप यह भी माना जाने लगा कि कन्या का विवाह जितना शीघ्र कर दिया जायगा उसके अपने पतिव्रत धर्म पालन करने की गारण्टी उतनी ही अधिक होगी।
2. स्त्रियों की निम्न स्थिति
स्मृति काल से ही स्त्रियों की सामाजिक स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गयी। उससे सभी अधिकार जैसे- शिक्षा, सम्पत्ति, स्वतन्त्रता आदि छीन लिये गये। धर्मशास्त्रों के अनुसार एक स्त्री को बचपन में पिता, युवावस्था में पति तथा वृद्धावस्था में पुत्रों का आश्रित बना दिया गया। जो एक चहारदीवारी में ससुरालवालों की सेवा तथा सन्तानोत्पादन का साधन तथा पति के पैरों की जूती बनकर रह गयी।
3. कृषि व्यवस्था
सदियों से भारत का मुख्य व्यवसाय खेती ही रही है, जिसमे अधिकाधिक लोगों के सहयोग की आवश्यकता होती है, अतः परिवार ने सदस्यों की संख्या बढ़ाने के उद्देश्य से बाल-विवाह को प्रोत्साहित किया और बाल विवाह के प्रचलन की गति स्वाभाविक रूप से तीव्र हो गयी।
4. संयुक्त परिवार
संयुक्त परिवार का अस्तित्व परिवार के मुखिया या कर्ता पर निर्भर करता है। परिवार की व्यवस्था तथा सुख-सुविधा का पूरा दायित्व कर्त्ता पर ही होता है। अतः सन्तान वृद्धि का मुख्य उद्देश्य लिए हुए कर्त्ता के लिए यह आवश्यक नहीं था कि वह बालकों के विवाह के लिए उनकी आत्मनिर्भरता की प्रतीक्षा करता। माता-पिता अपने बलबूते पर बच्चों का बचपन में ही विवाह करके अपने को धन्य मानते थे। बालकों को भी भविष्य की कोई चिन्ता स्वयं करने की आवश्यकता नहीं थी। अतः वे भी अपने विवाह का विरोध नहीं करते थे। परिवार के बड़े-बूढ़ों को नाती, पोते, परपोते देखने की लालसा भी बाल-विवाह को प्रोत्साहन देने के लिए पर्याप्त सहायक थी। अतः बाल विवाह संयुक्त परिवार की खाद मिट्टी से लगातार पोषित व फलित होता रहा।
5. अशिक्षा और रूढ़िवादिता
अशिक्षा व रूढ़िवादिता दोनों परस्पर एक-दूसरे की सहयोगी स्थितियाँ हैं। प्राचीन समय में भारतीय समाज में अधिकांश व्यक्ति अशिक्षित व अज्ञानी थे। वे अपनी परम्पराओं के 'लकीर के फकीर हुआ करते थे। उन्हें बाल विवाह द्वारा कन्यादान के पुण्य के आगे बालकों के भविष्य की न तो कोई चिन्ता होती थी न ही उनके लाभ-हानि का ज्ञान।
6. मुस्लिम आक्रमण
बाल विवाह प्रथा के फलने-फूलने का एक कारण मुस्लिम आक्रमण भी है। मुसलमानों ने भारत पर आक्रमण करके सदियों तक राज्य किया। वे भारतीय नारियों का अपहरण करके उन्हें अपने हरम में रखते थे या उनका कौमार्य व सतीत्व भंग करते थे। नारी जाति की सुरक्षा तथा हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए हिन्दू अपनी कन्याओं का विवाह बाल्यावस्था में ही कर देते थे।
बाल विवाह से लाभ
बाल विवाह से निम्न लाभ हैं-
1. दायित्वों व आत्मोन्नति
बाल विवाह के द्वारा बचपन से ही दोनों पर विभिन्न दायित्व का भार आ जाता है। जैसे- बालिकाओं का ससुराल में गृहकार्य, लोगों की सेवा, अनेक बातें सहन करने की शक्ति आदि एक प्रकार से उनके जीवन में स्थिरता आ जाती है। सन्तानोत्पत्ति के पश्चात् दोनों अपने-अपने दायित्वों को निभाने के लिए भरसक अपनी-अपनी उन्नति करने में जुट जाते हैं। उनकी उच्छृंखलता समाप्त होकर उनमें व्यवहार कुशलता आ जाती है।
2. बच्चों के दायित्वों से मुक्ति
बाल विवाह होने से लोगों को शीघ्र सन्तानें भी होने लगती हैं। वे उनकी कम आयु में ही इतने बड़े हो जाते हैं कि माता-पिता सन्तान के प्रति अपने सभी दायित्वों से मुक्त हो जाते हैं।
3. बालकों को नैसर्गिक अधिकार प्रदान करना
भोजन की भाँति यौनेच्छा भी व्यक्ति की एक मौलिक आवश्यकता है। जिस प्रकार किसी व्यक्ति को भूखा रखना पाप है, उसी प्रकार उसकी यौनेच्छा का हनन करना भी पाप से कम नहीं है। युवावस्था आरम्भ होते ही उनमें यौनेच्छा जागृत होना स्वाभाविक है। देर में विवाह होने से उन्हें अपनी इच्छा का दमन करना पड़ता है। बाल विवाह के द्वारा एक बालक-बालिका को युवावस्था प्राप्त होते ही उसका सरल व स्वाभाविक रास्ता मिल जाता है जिसकी सन्तुष्टि से उसका जीवन सुखी रहता है।
4. वैवाहिक अनुकूलन
विवाह के द्वारा दो भिन्न-भिन्न प्रकृति के लड़की लड़के का आजीवन के लिए गठबन्धन हो जाता है, अतः बाल्यकाल से ही साथ-साथ रहने के कारण दोनों को एक-दूसरे से अनुकूलन करने में सुविधा होती है, उसका बाल मन इतना कोमल व लचीला होता है कि दोनों अपने को बड़ी सरलता से एक-दूसरे के अनुकूल बना लेते हैं। दोनों का शारीरिक व मानसिक विकास साथ-साथ होता है। फलतः दोनों के विचारों में साम्य स्थापित हो जाता है, संघर्ष की स्थिति की सम्भावना कम होती है। उनका गृहस्थ जीवन बड़ा सुखमय व्यतीत होता है।
5. अनैतिकता से बचाव
बाल विवाह हो जाने पर जब उनकी किशोरावस्था आरम्भ होती है और उनकी कामेच्छा जागृत होती है, उन्हें घर में विधिवत् अपनी इच्छा तृप्ति का अवसर प्राप्त हो जाता है, उन्हें इधर-उधर भटकने की आवश्यकता नहीं होती है, जिससे वे अनैतिक कार्य करने से बच जाते हैं। प्रायः उनके चरित्रहीन होने की सम्भावना भी कम हो जाती है।
6. अभिभावकों द्वारा वर-वधू का चुनाव
बाल विवाह में वर-वधू का चुनाव माता-पिता द्वारा होता है। वह दोनों की सभी स्थिति को सम्भालते रहने का पूरा दायित्व स्वयं निभाते हैं। प्रत्येक स्थिति में दोनों का साथ देते हैं, उनका मार्गदर्शन करते रहते हैं, अतः उनके दुःखभय या संघर्षमय जीवन की सम्भावना कम रहती है।
बाल विवाह से हानियाँ
बाल विवाह से निम्न हानियाँ हैं-
1. व्यक्तित्व विकास में बाधा
बाल विवाह से नन्हें-नन्हें बच्चों पर विभिन्न दायित्वों का बोझ उनके ऊपर ऐसी अवस्था में आ जाता है, जबकि उनके खेलने-कूदने व शारीरिक और मानसिक विकास की अवस्था होती है। वे अस्वाभाविक रूप से अनावश्यक भार से इस प्रकार दब जाते हैं कि उनके जीवन से उल्लास व उत्साह गायब हो जाता है। बालिकाएँ अपरिपक्व अवस्था में माँ बन जाती हैं जिससे उनका शारीरिक विकास यथोचित ढंग से नहीं होने पाता तथा नासमझी और दायित्व निर्वाह की चिन्ताओं के कारण उनकी मानसिक व बौद्धिक शक्ति भी निर्बल पड़ जाती है। इस प्रकार से उनके व्यक्तित्व का पूर्ण क्षय हो जाता है।
2. निर्बल सन्तानें
बाल्यकाल में न तो पति-पत्नी का शरीर परिपक्व हो पाता है न ही उनका रज और वार्य। फलत: कमजोर रज और वीर्य से उत्पन्न सन्तान भी स्वाभाविक रूप से कमजोर व विकलांग होगी। प्रथम तो उनका जीवन बचना ही कठिन होता है पर यदि किसी प्रकार बच भी जाते हैं तो उन्हें जीवन पर किसी न किसी अभावजन्य रोगों से पीड़ित होने की भी पूरी सम्भावना रहती है।
3. नववधुओं की मृत्यु
सन्तान उत्पन्न करना एक अत्यन्त कष्टदायी प्रक्रिया है। अल्प आयु में प्रायः नववधुएँ प्रसवकालीन कष्ट को सहन करने में असमर्थ होती है। उनकी असामयिक मृत्यु या प्रसव सम्बन्धी रोगों से ग्रस्त होने की सम्भावनाएँ रहती हैं।
4. जनसंख्या वृद्धि
जनसंख्या वृद्धि का बाल विवाह से धनिष्ठ सम्बन्ध है जो आज की देश की एक विकराल समस्या बनी हुई है। बाल विवाह होने से पति-पत्नी छोटी अवस्था से ही सन्तान उत्पन्न करने लगते हैं। युवावस्था तक सन्तानों की संख्या आवश्यकता से कहीं अधिक हो जाती है। सन्तान आवश्यक है लेकिन मरी- गिरी 10-15 सन्तानों की अपेक्षा हष्ट-पुष्ट एवं नीरोग सन्तान 2-3 ही पर्याप्त हैं। एक दम्पति 2-3 बच्चों से अधिक का उचित पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा, रहन-सहन आदि की व्यवस्था नहीं कर सकते। किन्तु बाल-विवाह के अनुसार अधिक सन्तानें किसी समय गौरव की बात रही होंगी, किन्तु आज यह अभिशाप से कम नहीं है।
5. शिक्षा में बाधा
शिक्षा व्यक्ति के मानसिक व बौद्धिक विकास का माध्यम है। बाल्यावस्था में विवाह हो जाने से उनकी उचित शिक्षा-दीक्षा का प्रश्न ही नहीं उठता। लड़कियाँ चिट्ठी-पत्री लिखने-पढ़ने लायक कुछ सीख लें यहाँ बहुत समझा जाता है। विवाहोपरान्त पति-पत्नी के आगे विभिन्न दायित्वों का भार ही इतना अधिक होता है कि शिक्षा की बात करना भी शिक्षा का उपहास करना है। परिणामस्वरूप दम्पति आजीवन अज्ञानता व अन्धविश्वास भरी जिन्दगी ढोते रहते हैं तथा वे अपने बच्चों को भी उचित दिशा-निर्देश करने में पूर्ण असमर्थ रहते हैं।
6. बाल विधवाओं की समस्या
बाल विवाह बाल विधवा समस्या को भी उत्पन्न करता है। भारतीय संस्कृति विधवा विवाह की आज्ञा नहीं देता। विभिन्न जटिल रोग बच्चों को बाल्यकाल में बड़े पैमाने पर मृत्यु का ग्रास बना देती है। फलतः बाल विधवाओं की समस्या भी बड़ी कष्टदायी होती है। बाल विधवाओं का जीवन यातनाग्रस्त हो जाता है। वे परिवार व समाज के लिए एक बोझ बन जाती हैं। वे पढ़ी-लिखी तो होती नहीं। अतः यदि परिवार में उन्हें किसी प्रकार का सहारा नहीं मिलता तो से भ्रष्टाचार व अनैतिकता का कारण बन जाती हैं।
7. बेकारी की समस्या
बाल विवाह से जनसंख्या वृद्धि और जनसंख्या वृद्धि से समाज में बेकारी की समस्या उत्पन्न होती है। जो देश के आर्थिक विकास और उन्नति में बाधा डालती है। केवल यही नहीं, बल्कि इनके साथ-साथ अनेक समस्याएँ भी उत्पन्न होने लगती है जैसे गरीबी, उचित शिक्षा का अभाव, रोग, विकलांगता, भ्रष्टाचार, अनैतिकता व आत्महत्या आदि।
8. स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव
बाल विवाह के द्वारा पति-पत्नी अनचाहे ही अपरिपक्व अवस्था में सम्भोग की ओर प्रेरित होने लगते हैं, जिसका प्रतिकूल प्रभाव उनके शारीरिक व मानसिक स्थिति पर पड़ता है। शीघ्र ही उनका शारीरिक पतन होने लगता है। वे विभिन्न तरह के यौन रोगों का शिकार होकर अपना स्वास्थ्य खो बैठते हैं। उनकी आयु भी कम हो जाती है। पत्नी के स्वास्थ्य पर विशेष रूप से इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।
बाल विवाह रोकने का कानून व अधिनियम
बाल विवाह प्रथा की रोकथाम के लिए सरकार द्वारा समय-समय पर विभिन्न अधिनियम बनाये गये हैं। कुछ समाज सुधारकों ने भी इस दिशा में प्रयास किये 1860 ई0 में 'राजा राममोहन राय' ने एक कानून पास करवाया, जिसके अनुसार 10 वर्ष से कम आयु की कन्या का विवाह करना अपराध घोषित किया गया। 'ईश्वरचन्द्र विद्यासागर' ने नारी चेतना को जागृत करने के लिए जनमत तैयार किया तथा बाल विवाह के खिलाफ आन्दोलन चलाया। समाज सुधारकों व तत्कालीन नारी आन्दोलनों के कारण आज बाल विवाह प्रथा बहुत पीछे चली गयी, परन्तु समाप्त नहीं हुई। आज भी कुछ प्रान्तों में उत्सव के साथ सामूहिक बाल विवाह किये जाते हैं।
सरकार द्वारा बाल विवाह की रोकथाम के लिए निम्न अधिनियम बनाये गये हैं-
1. भारतीय दण्ड विधान व्यवस्था (Indian Penal Code of 1870)
सर्वप्रथम यह अधिनियम सन् 1870 ई० में पारित किया गया, जिसके अनुसार 10 वर्ष की आयु से कम आयु की बालिका का विवाह अपराध घोषित किया गया, किन्तु यह अधिक प्रभावशाली नहीं हुआ।
2. 1891 का अधिनियम (Act of 1891)
सन् 1891 ई0 में बंगाल विधान सभा में मनमोहन घोष ने बालिका के विवाह की आयु 12 वर्ष करने का प्रस्ताव किया, किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली।
3. बाल विवाह निषेध कानून या शारदा एक्ट
सन् 1929 ई० में राम हर विलास शारदा के प्रयासों के फलस्वरूप बाल-विवाह निषेध कानून भी पास किया गया जो 'शारदा एक्ट' के नाम से प्रचलित हुआ यह एक्ट अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ। इस एक्ट के प्रमुख अनुबन्ध निम्न प्रकार हैं-
1. विवाह के समय लड़के की आयु कम से कम 18 वर्ष और लड़की की 15 वर्ष निश्चित की गयी।
2. उपर्युक्त नियम का उल्लंघन करने वाले के लिए दण्ड की व्यवस्था की गयी।
3. यदि किसी व्यक्ति की आयु 18 वर्ष से अधिक और 21 वर्ष से कम है और वह 15 वर्ष से कम आयु की लड़की से विवाह करता है तो उसे 15 दिन का कारावास या 1000 रुपये जुर्माना अथवा दोनों हो सकते हैं।
4. बाल विवाह सम्पन्न करानेवाले व्यक्ति को 3 मास की सजा भुगतनी पड़ेगी।
5. उपर्युक्त निर्धारित आयु से कम आयु में विवाह करनेवाले माता-पिता या संरक्षक को 3 मास का कारावास तथा 50 रुपये जुर्माने का दण्ड दिया जाएगा।
6. इस नियम के अनुसार स्त्रियाँ दण्डित नहीं होंगी।
हिन्दू विवाह अधिनियम
स्वतन्त्रता के पश्चात् सन् 1955 ई0 में 'हिन्दू विवाह अधिनियम' पास किया गया जिसमें विवाह सम्बन्धी विभिन्न विसंगतियों को दूर करने के लिए विभिन्न नियम बनाये गये तथा इस अधिनियम के अनुसार विवाह के समय लड़के की आयु 18 वर्ष और लड़की की 15 वर्ष निश्चित कर दी गयी। 1976 ई0 में इस नियम में पुनः सुधार किया गया जिसके अनुसार लड़कों की विवाह की आयु 21 वर्ष और लड़कियों की 18 वर्ष निश्चित कर दी गयी।
बाल विवाह की समस्या निवारण के लिए उपयोगी सुझाव
बाल-विवाह प्रथा का विरोध एक लम्बे समय से हो रहा है तथा इसके लिए कानूनी प्रावधान भी हैं परन्तु वास्तविकता यह है कि किसी भी सामाजिक कुप्रथा को एकाएक किसी कानून के द्वारा समाप्त कर सकना अत्यधिक कठिन है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से बाल- विवाह की समस्या के निराकरण के लिए नियोजित प्रयत्न करना आवश्यक है। इस कार्य के लिए निम्नलिखित सुझाव अधिक महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं-
(1) बाल-विवाह के निराकरण का सर्वोत्तम उपाय एक निश्चित आयु तक के सभी लड़के व लड़कियों के लिए अनिवार्य रूप से शिक्षा की व्यवस्था करना है। शिक्षा से न केवल उन्हें एक विवेकपूर्ण दृष्टिकोण प्राप्त होगा, बल्कि सभी युवा बाल विवाहों के दोषों को समझकर इनके प्रति उदासीन होने लगेगे।
(2) विलम्ब विवाहों को प्रोत्साहन देने से भी बाल-विवाह की समस्या में सुधार किया जा सकता है। वास्तव में विवाह की आयु में वृद्धि करने के औचित्य को अनेक आधारों पर समझा जा सकता है। सर्वप्रथम विलम्ब विवाह से दम्पति को केवल शिक्षा ग्रहण करने का ही अवसर नहीं मिलेगा, बल्कि वे अपने पारिवारिक दायित्वों को भी समझने में समर्थ हो सकेंगे। इसके अतिरिक्त स्वस्य सन्तानी तथा परिवार के छोटे आकार के दृष्टिकोण से भी विलम्ब विवाह एक उपयोगी व्यवस्था है।
(3) बाल-विवाहों का सबसे अधिक प्रचलन आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में ही है। इन क्षेत्रों में संचार तथा प्रचार के साधनों द्वारा ग्रामीणों को बाल विवाह के दुष्परिणामों की जानकारी देना आवश्यक है। दूरदर्शन इस कार्य में विशेष रूप से सहायक सिद्ध हो सकता है।
(4) बाल-विवाह को समाप्त करने के लिए केवल कानूनों को ही पारित करना पर्याप्त नहीं बल्कि कानूनों को सही ढंग से लागू करना कहीं अधिक आवश्यक है। समाज में जब तक एक सम्भ्रान्त राजनीतिक और आर्थिक वर्ग के लोग कानूनों का उल्लंघन करके बाल-दिवाह को प्रोत्साहन देते रहेंगे, तब तक इस समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता।
(5) बाल-विवाह पर नियन्त्रण लगाने के लिए दहेज प्रथा को समाप्त करना भी आवश्यक है। अधिकांश बाल-विवाह आज भी इसलिए किये जाते हैं जिससे बच्चों के माता-पिता उनके विवाह में दहेज की अधिक राशि के भुगतान से बच सकें।
(6) स्वस्थ और व्यापक जनमत के निर्माण द्वारा भी बाल विवाह को रोकना सम्भव हो सकता है। वास्तविकता यह है कि किसी भी सामाजिक कुप्रथा अथवा रूढ़ि को समाप्त करने के लिए उसके विरुद्ध प्रचार के द्वारा व्यक्तियों की मनोवृत्तियों को बदलना सबसे अधिक उपयोगी होता है।