अध्ययन का अर्थ, प्रकार, उद्देश्य, कारक एवं आवश्यकता

अध्ययन का अर्थ

अध्ययन : व्यक्ति जब दूसरों के अनुभवों को शब्दों, निरीक्षण, चिन्तन, मनन द्वारा ग्रहण करता है तथा उनका लाभ उठाता है तो यह प्रक्रिया अध्ययन कहलाती है। व्यक्ति सदा अध्ययनरत् रहता है। यह आवश्यक नहीं है कि वह केवल शब्दों का अध्ययन करता हो, वह व्यवहार का भी अध्ययन करता है। ज्ञान को ग्रहण करने की प्रक्रिया का नाम ही अध्ययन है।

    अध्ययन का सर्वमान्य अर्थ है- उन तथ्यों, विचारों, विषयों, विधियों, समस्याओं आदि का ज्ञान प्राप्त करना, जिससे छात्र या व्यक्ति अनभिज्ञ हैं। अधिक विस्तृत रूप में, हम कह सकते हैं कि नवीन विषय-सामग्री का ज्ञान प्राप्त करने के लिए किसी समस्या का समाधान करने के लिए विभिन्न विषयों क्रियाओं एवं परिस्थितियों के सम्बन्धों की खोज करने के लिए या किसी उद्देश्यपूर्ण क्रिया का ज्ञान प्राप्त करने के लिए छात्र या सीखने वाले के द्वारा जो प्रयास किया जाता है, उसी को अध्ययन माना जाता है। अध्ययन, वास्तव में नवीन ज्ञान को प्राप्त करने के लिए छात्र द्वारा किया जाने वाला नियोजित प्रयास है। यदि उसका प्रयास एक निश्चित योजना या विधि के अनुसार नहीं है, तो वह नवीन ज्ञान को प्राप्त करने में कदापि सफल नहीं हो सकता है।

    अध्ययन की परिभाषा 

    अध्ययन की प्रमुख परिभाषायें निम्नलिखित हैं-

    1. रिस्क के अनुसार : "अध्ययन- ज्ञान या ग्रहण-शक्ति को सुरक्षित रखने, योग्यताओं को प्राप्त करने या समस्याओं का समाधान करने के लिए किया जाने वाला नियोजित प्रयास है।"

    2. क्रो व क्रो के अनुसार : "अध्ययन का अभिप्राय है- उन तथ्यों, विचारों या विधियों में दक्षता प्राप्त करने के लिए की जाने वाली खोज, जिनको व्यक्ति अभी तक नहीं जानता है या केवल आंशिक रूप में जानता है।"

    3. ली के अनुसार : "किसी बात को सीखने के लिए व्यक्ति द्वारा सचेत रूप से किया जाने वाला उद्योग ही अध्ययन है। किसी संग्रहालय में कला की कृतियों का निरीक्षण, अध्ययन का बहुत-कुछ रूप है, जो गहन पठन का है।

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    अध्ययन के प्रकार

    ली के अनुसार :  अध्ययन मुख्यतः निम्नलिखित तीन प्रकार का होता है-

    1. विधिवत् नियन्त्रित अध्ययन (Formally Supervised Study) 
    2. स्वतन्त्र अध्ययन (Independent Study)
    3. घर पर किया जाने वाला अध्ययन (Home Study)

    1. विधिवत् नियन्त्रित अध्ययन 

    इस अध्ययन का स्थान साधारणतया विद्यालय का कोई कक्ष होता है। उस कक्ष में छात्रों का एक समूह, शिक्षक के निरीक्षण मेंअध्ययन करता है। शिक्षक से पाँच बातों की आशा की जाती है -

    1. शिक्षक छात्रों को अध्ययन की प्रभावशाली विधियों का ज्ञान प्रदान करे। 

    2. शिक्षक, छात्रों की अध्ययन-सम्बन्धी कमियों और कठिनाइयों का ज्ञान प्राप्त करके, उनका निवारण करे। 

    3. शिक्षक, छात्रों को अपनी अध्ययन सम्बन्धी विशिष्ट एवं सामान्य समस्याओं का समाधान करने में सहायता दे। 

    4. शिक्षक, छात्रों की विशेष योग्यताओं की जानकारी प्राप्त करके, उनकी अध्ययन-सम्बन्धी योग्यताओं में उन्नति करने की चेष्टा करे।

    5. शिक्षक, समस्त छात्रों की व्यक्तिगत आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर, उनको आवश्यक परामर्श दें और उनका पथ-प्रदर्शन भी करे। उल्लिखित अध्ययन का मुख्य उद्देश्य बताते हुए ली ने लिखा है-"विधिवत् नियन्त्रित अध्ययन का मुख्य उद्देश्य है-छात्रों की अध्ययन एवं कार्य की आदतों में सतर्कता से उन्नति करना।" 

    2. स्वतन्त्र अध्ययन

    यह अध्ययन, शिक्षक के निर्देशन में प्रत्येक छात्र के द्वारा विद्यालय के विभिन्न स्थानों में किया जाता है। ट्रम्प रिपोर्ट (Trump Report) में स्वतन्त्र अध्ययन के स्वरूप पर अग्रलिखित शब्दों में प्रकाश डाला गया है-"स्वतन्त्र अध्ययन में अनेक प्रकार के कार्य सम्मिलित होते हैं; जैसे- पढ़ना, देखना, सुनना, लिखना और विभिन्न विधियों से विभिन्न प्रकार के कार्य करना।

    बरटन ने स्वतन्त्र अध्ययन और विधिवत् नियन्त्रित अध्ययन की उपयोगिता को इस प्रकार व्यक्त किया है- "योग्य छात्रों को स्वतन्त्र अध्ययन से अधिक लाभ होता है, मन्द बुद्धि छात्रों को विधिवत् नियन्त्रित अध्ययन से अधिक लाभ होता है और साधारण छात्र के लिए दोनों प्रकार के अध्ययन समान रूप से लाभप्रद होते हैं।"

    3. घर पर किया जाने वाला अध्ययन

    यह अध्ययन, छात्रों द्वारा साधारणतया अपने घरों पर किया जाता है। स्ट्रंग (Strang) ने इस अध्ययन के चार मुख्य प्रयोजन एवं उद्देश्य (प्रथम चार ) बताएं है।' ली  ने पाँचवें उद्देश्य का स्वयं प्रस्ताव किया है। ये उद्देश्य एवं प्रयोजन निम्नांकित है-

    1. छात्र के वांछित प्रयास, पहलकदमी, स्वतन्त्रता, उत्तरदायित्व एवं स्व-निर्देशन को प्रोत्साहित करना।

    2. छात्र को विद्यालय की उचित क्रियाओं को स्थायी रुचियों में परिवर्तित करने के लिए उत्साहित करना।

    3. छात्र के विद्यालय के अनुभवों को गृह कार्यों से सम्बन्धित करके, उन अनुभवों की वृद्धि करना। 

    4. छात्र द्वारा विद्यालय में सीखी जाने वाली बातों को पुनः बल प्रदान करना।

    5. छात्र द्वारा विद्यालय में सीखी जाने वाली बातों को वास्तविक जीवन से सम्बन्धित करना। 

    घर पर किया जाने वाला कार्य दो प्रकार का होता है- लिखित और अलिखित (जैसे-पढ़ना, भ्रमण करना आदि)। दुर्भाग्यवश, विद्यालयों के शिक्षकों द्वारा अलिखित कार्य की अपेक्षा लिखित कार्य को अधिक महत्त्व दिया जाता है। इस कार्य को विधिवत् पूर्ण करने में छात्र अपने सम्पूर्ण समय एवं शक्ति को नष्ट कर देते हैं। 

    इस सर्वविदित तथ्य से क्षुब्ध होकर ब्रेसलिच (Breslich) ने 1914 में बलपूर्वक कहा- "अनेक छात्र ऐसी अनुचित परिस्थितियों में गृह-कार्य करते हैं, जिससे उनमें न केवल अवांछनीय मानसिक एवं नैतिक आदतों का निर्माण होता है, वरन् वे अपने बहुमूल्य समय को भी नष्ट कर देते हैं।" 

    ब्रेसलिच (Breslich) का यह कथन अक्षरशः सत्य था और है। यही कारण था कि कुछ शिक्षाविदों ने अनिवार्य गृह कार्य की समाप्ति पर समर्थन किया। उनके विपरीत कुछ शिक्षाशास्त्रियों का मत था कि घर घर किए जाने वाले अध्ययन को समाप्त करने की अपेक्षा उसके स्वरूप में संशोधन करना, शिक्षा की दृष्टि से अधिक विवेकपूर्ण कार्य है। 

    अतः इस सम्बन्ध में ली का यह सुझाव असंगत प्रतीत नहीं होता है-"गृह पर किए जाने वाले अध्ययन में इतना अधिक समय नहीं लगना चाहिए कि तरुणावस्था के बालकों एवं बालिकाओं को व्यायाम, खेल, मनोरंजन एवं विद्यालय से असम्बन्धित अपने व्यक्तिगत पहलुओं का विकास करने का अवसर प्राप्त न हो। "

    अध्ययन के उद्देश्य 

    क्रो एवं क्रो (Crow& Crow) के अनुसार : "अध्ययन, अधिगम के लिए आवश्यक और विद्यालय-जीवन के लिए अनिवार्य है।" इस विचार के आधार पर क्रो एवं क्रो ने अध्ययन के तीन मुख्य उद्देश्य या प्रयोजन बताए है-

    1. छात्र के विचारों का विकास करना। 

    2. छात्र की कुशलताओं में उन्नति करना।

    3. छात्र को ऐसे ज्ञान को प्राप्त करने और ऐसी आदतों का निर्माण करने में सहायता देना, जो उसे नवीन परिस्थितियों को सामना करने, नवीन विचारों का निर्माण एवं उनकी व्याख्या करने, आवश्यक निर्णयों को करने और अपने जीवन को सामान्य रूप से सफल एवं सम्पन्न बनाने की क्षमता प्रदान करें।

    अन्त में क्रो एवं क्रो ने लिखा है-"अध्ययन के लिए किसी प्रयोजन की आवश्यकता होती है। और व्यक्ति अपने अध्ययन के परिणामस्वरूप जो कुछ सीखता है, वह अधिकांश रूप से इस बात पर निर्भर होता है कि व्यक्ति को उस उद्देश्य या प्रयोजन को कितनी मात्रा में प्राप्त करने में सफलता मिलती है।"

    अध्ययन को प्रभावित करने वाले कारक

    शिक्षा-सम्बन्धी पुस्तकों के कुछ लेखकों द्वारा उन कारकों का वर्णन किया गया है, जो छात्रों के अध्ययन पर उपयुक्त अथवा अनुपयुक्त प्रभाव डालकर, उसको कम या अधिक मात्रा में प्रभावशाली या प्रभावहीन बनाने में प्रत्यक्ष योग देते हैं। हम रिस्क, बौसिंग, क्रो एवं क्रो (Risk, Bossing. Crow & Crow) आदि के द्वारा इंगित किए जाने वाले कारकों को आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहे है-

    1. ध्यान की एकाग्रता

    सरल एवं कठिन, दोनों प्रकार के विषयों के सफल अध्ययन के लिए ध्यान की एकाग्रता आवश्यक है। किन्तु यह तभी सम्भव है, जब छात्र अपने अध्ययन के उद्देश्य से पूर्णतया परिचित हो। हेडले ने बलपूर्वक कहा है- "उद्देश्य की जानकारी के बिना ध्यान की एकाग्रता सम्भव नहीं है। उद्देश्य की जानकारी ध्यान की सम्पूर्ण एकाग्रता को सम्भव बनाती है।"

    2. अध्ययन का उद्देश्य

    छात्र के अध्ययन को सफल एवं प्रभावशाली बनाने के लिए एक निश्चित उद्देश्य की परम आवश्यकता है। यदि छात्र को अध्ययन के उद्देश्य का ज्ञान नहीं है, तो वह उसकी प्राप्ति के लिए निरन्तर अध्ययन नहीं कर सकता है। वह अविराम गति से तभी अध्ययन कर सकता है, जब उसे उद्देश्य की पूरी जानकारी हो। इस दृष्टि से क्रो व क्रो का कथन अक्षरशः सत्य है- "किसी भी आयु का छात्र, अध्ययन के लिये मानसिक प्रवृत्ति को तभी प्राप्त कर सकता है, जब वह अध्ययन के उद्देश्य को समझ लेता है।"

    3. अध्ययन में थकान

    अध्ययन करते समय, छात्र बहुधा थकान का अनुभव करता है। इसके लिए वे दशाएँ उत्तरदायी हैं, जिनमें अध्ययन किया जाता है; जैसे- अपर्याप्त प्रकाश, बहुत अधिक गर्मी या सर्दी, मानसिक उत्तेजना, अनुचित भौतिक दशाएँ, आदि। किन्तु यदि छात्र को अध्ययन के विषय में रुचि है और उसने उसमे सफलता प्राप्त करने का दृढ संकल्प कर लिया है, तो वह थकान का किंचित मात्र भी अनुभव नहीं करता है। पर इसका अभिप्राय यह कदापि नहीं है कि वह बिना विश्राम किए अति दीर्घ काल तक निरन्तर अध्ययन करता रहे। इस सम्बन्ध में क्रो व क्रो का परामर्श है- "यदि छात्र, थकान या वास्तविक थकान की भावनाओं से अपनी रक्षा करना चाहता है तो उसके लिए अपनी मानसिक या शारीरिक क्रियाओं में परिवर्तन करने की आवश्यकता है।"

    4. अध्ययन के प्रति दृष्टिकोण

    विभिन्न छात्रों में विभिन्न विषयों के प्रति विभिन्न दृष्टिकोण होते हैं, यदि छात्रों के लिए अध्ययन का विषय रोचक होता है, तो उसके प्रति उनका दृष्टिकोण साधारणतया सकारात्मक (Positive) होता है और वे उसका अध्ययन करने के लिए स्वयं लालायित हो जाते हैं। इसके विपरीत यदि अध्ययन का विषय अरोचक होता है, तो उसके प्रति उनका दृष्टिकोण नकारात्मक (Negative) होता है और उनमें उसके अध्ययन से बचने की प्रवृत्ति होती है। वे अपने नकारात्मक दृष्टिकोण का निम्नलिखित में से कोई कारण बताते है-

    1. अध्ययन का विषय बहुत लम्बा है।

    2. मैं इतने लम्बे विषय का अध्ययन करने में सफल नहीं हो सकता हूँ।

    3. यदि मैं इसका अध्ययन कर भी लूँ, तो मैं इसको स्मरण नहीं रख सकता हूँ।

    4. मेरे लिए इस विषय के अध्ययन की कोई उपयोगिता नहीं है। 

    5. मुझमें इस विषय को समझने की योग्यता नहीं है।

    इस प्रकार के नकारात्मक दृष्टिकोण प्रभावशाली अध्ययन में प्रत्यक्ष अवरोध उपस्थित करते हैं। ऐसी स्थिति में छात्रों के अध्ययन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास करना, शिक्षक का अनिवार्य कर्त्तव्य है। वह किस विधि का प्रयोग करके, ऐसा कर सकता है, उसको बताते हुए, क्रो व क्रो ने लिखा है-"कुशलतापूर्वक दी जाने वाली प्रेरणा, छात्रों में उन दृष्टिकोणों का विकास करने के लिए, जो उनको विशिष्ट विषयों का अध्ययन करने के लिए प्रभावित करेंगे, और बहुत-कुछ कर सकती है।"

    5. अध्ययन में बाधाएँ

    विघ्न या बाधाएँ, छात्र के अध्ययन को कम या अधिक मात्रा में अवश्य प्रभावित करती है। उसे अपने अध्ययन में जितनी रुचि होती है, उसी अनुपात में वह विघ्नों अथवा बाधाओं से प्रभावित होता है। क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) का विचार है- "छात्र जो कुछ कर रहा है, उसमें उसकी रुचि जितनी अधिक होती है, उतना ही कम वह विघ्नों के प्रति ध्यान देता है।" 

    उल्लिखित बाधाएँ दो प्रकार की होती है बाह्य एवं आन्तरिक बाह्य बाधाओं के अन्तर्गत छात्र के विद्यालय एवं गृह के आस-पास होने वाले शोरगुल, विभिन्न प्रकार के आवागमन के साधनों द्वारा उत्पन्न की जाने वाली आवाजों आदि को सम्मिलित किया जा सकता है। ये आवाजें और कोलाहल-छात्र को पाठ्य विषय पर अपने ध्यान को केन्द्रित करने में कठिनाई उत्पन्न करते हैं किन्तु जैसा कि ऑरकर्ड (N. E. Orchard) ने लिखा है- "यह सम्भव है कि छात्र इन बाधाओं का अभ्यस्त हो जाय और उसके पश्चात् उनकी उपस्थिति के बावजूद कुशलतापूर्वक कार्य कर सके। 

    अतः आन्तरिक बाधाएँ अग्रलिखित प्रकार की हो सकती हैं- 

    (1) अध्ययन के समय छात्र का मनोभाव, 

    (2) उसको व्यथित करने वाली परेशानियाँ 

    (3) अध्ययन के प्रति उसका दृष्टिकोण, 

    (4) उसके उस दिन के संवेगात्मक अनुभव; और 

    (5) उसमें भय, क्रोध, चिन्ता आदि की भावनाएँ । 

    इन आन्तरिक बाधाओं के निवारण का उपचार बताते हुए क्रो व क्रो ने लिखा है- "इन आन्तरिक विघ्नकारी कारकों के प्रभाव को कम करने के लिए छात्र को सफल उपलब्धि के प्रति सबल उत्साह से प्रेरित किया जाना चाहिए।"

    6. छात्र की योग्यता 

    छात्र की योग्यता उसके अध्ययन को निश्चित रूप से प्रभावित करती हैं। उसे अपनी योग्यता के अनुपात में ही अपने अध्ययन में सफलता प्राप्त होती है। रिस्क ने छात्र की योग्यता के अन्तर्गत अग्रलिखित को विशेष स्थान प्रदान किया है-

    1. समझ कर पढ़ने की योग्यता।

    2. शीघ्रता से पढ़ने की योग्यता ।

    3. विभिन्न प्रकार के शब्द-कोशों को प्रयोग करने की योग्यता । 

    4. निरर्थक विषय सामग्री को छोड़ देने की योग्यता ।

    5. पुस्तकालय में उपलब्ध पुस्तकों का प्रयोग करने की योग्यता । 

    6. चार्टों, नक्शों, ग्राफों आदि को प्रयोग करने की योग्यता।

    7. सक्षेप में लिखी हुई बातों को समझने की योग्यता। 

    8. पढे हुए विषय से सम्बन्धित पुस्तकों का प्रयोग करने की योग्यता।

    9. पढ़े हुए विषय को सुनियोजित रूप में संक्षेप में लिखने की योग्यता ।

    10. पढ़े हुए विषय के मुख्य विचारों को चयन करने की योग्यता ।

    छात्र की योग्यता ही वह आधार है, जिस पर उसके प्रभावशाली अध्ययन के भवन का निर्माण किया जा सकता है। किन्तु यहाँ यह लिख देना असंगत प्रतीत नहीं होता है कि यह योग्यता स्वाभाविक या जन्मजात होती है। इसीलिए बॉसिंग ने लिखा है- "जब छात्र की स्वाभाविक योग्यता कम होती है, तब उसके अध्ययन में अवरोध उत्पन्न हो जाता है। शिक्षक उस छात्र से उच्च प्रकार की सफलता की आशा नहीं कर सकता है, जिसमें उच्च कोटि की मानसिक योग्यता नहीं होती है। 

    इन कारकों को स्मरण रखने के साथ-साथ छात्र को यह भी स्मरण रखना चाहिए कि उसे अपनी आवश्यकताओं के अनुसार, अध्ययन के कार्य में संलग्न रहना चाहिए। यह सम्भव है कि अध्ययन के अतिरिक्त कुछ अन्य कार्यों के प्रति भी उनका ध्यान आकृष्ट हो। ऐसी दशा में, उसे अपने ध्यान को उनकी ओर से हटाकर, अध्ययन पर केन्द्रित करना चाहिए। 

    इस सन्दर्भ में क्रो व क्रो द्वारा व्यक्त किए गए इस विचार को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है-"ये अन्य कार्य चाहे जितने भी महत्त्वपूर्ण क्यों न हों, छात्र को उन्हें अपने मस्तिष्क से निकाल देना चाहिए और अपने ध्यान को अपने अध्ययन पर केन्द्रित करना चाहिए।"

    अध्ययन की उत्तम आदतों की आवश्यकता

    छात्रों में अध्ययन की आदत को विकसित किया जाना उनके व्यक्तित्व के लिये तो आवश्यक है ही, साथ ही भावी जीवन के निर्माण के लिये भी आवश्यक है। क्रो व क्रो का मत है- "छात्र, चाहे वे तीसरी कक्षा के बच्चे हों, हाईस्कूल के विद्यार्थी हों, या कॉलेज के छात्र हों, बहुधा अध्ययन की प्रभावहीन आदतों का प्रमाण देते हैं।"

    अध्ययन की प्रभावशाली आदतों का विकास न कर सकने के कारण ही वे अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में विफल होते हैं। बटरबैंक (Butterweck) ने उनकी विफलता का गहन अध्ययन करने के उपरान्त उसके चार मुख्य कारणों का उल्लेख किया है-

    1. छात्र कम अध्ययन करते हैं।

    2. छात्र अपने अध्ययन के उद्देश्य से अनभिज्ञ होते हैं।

    3. छात्र अध्ययन की जाने वाली विषय सामग्री को संक्षेप में नहीं लिखते हैं।

    4. छात्र, विषय- सामग्री से सम्बन्धित प्रश्नों के उत्तरों पर विचार नहीं करते हैं।

    जो छात्र अपने अध्ययन में सफलता प्राप्त करते हैं, ये साधारणतः अकेले अध्ययन करते हैं या अध्ययन की किसी निश्चित विधि का अनुसरण करते हैं। ये छात्र सफल होने के कारण अपने उद्देश्य को प्राप्त करते हैं। यदि इस उद्देश्य का सम्बन्ध उनकी किसी विशिष्ट इच्छा से होता है, तो वह अपनी सम्पूर्ण शक्ति को अध्ययन में लगा देते हैं।

    किन्तु यह बात कुछ ही छात्रों के विषय में कही जा सकती है। अधिकांश छात्र, अध्ययन में रूचि नहीं लेते हैं और उससे दूर रहने का प्रयास करते हैं। ऐसे छात्रों की शिक्षक द्वारा सहायता की जा सकती है और उसे करनी भी चाहिए। आधुनिक शिक्षाशास्त्रियों में इस सम्बन्ध में रंचमात्र भी मतभेद नहीं है कि छात्रों में अध्ययन की उत्तम एवं प्रभावशाली आदतों का विकास करना, शिक्षक का अनिवार्य एवं महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है। 

    हम अपने इस कथन की सार्थकता को सिद्ध करने के लिए दो लेखकों के विचारों को प्रस्तुत कर रहे है- 

    शर्मा व नन्दा के अनुसार- "शिक्षक के सबसे महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्यों में से एक है- छात्रों में अध्ययन की उत्तम आदतों का विकास करना।"

    क्रो व क्रो के अनुसार- "शिक्षक का कार्य छात्रों को उन विधियों की खोज करने में सहायता देना है जिनसे उनका अध्ययन उतना रोचक एवं सफल हो सके, जितना कि सम्भव है। "

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