सीखने के नियमों का महत्त्व
नियम, प्रकृति के अटल विधान है। पशु पक्षी, पौधे, पुरुष सभी प्रकृति के नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं। इसी प्रकार सीखने के भी कुछ नियम है। सीखने की प्रक्रिया इन्हीं नियमों के अनुसार चलती है। कुछ लेखकों ने इन नियमों को सिद्धान्तों' (Principles) की संज्ञा दी है। जब भी हम कुछ सीखते हैं, तब हम इनमें से कुछ नियमों का अनिवार्य रूप से अनुसरण करते हैं। इनके महत्त्व का उल्लेख करते हुए रायबर्न ने लिखा है-"यदि शिक्षण विधियों में इन नियमों या सिद्धान्तों का अनुसरण किया जाता है, तो सीखने का कार्य अधिक सन्तोषजनक होता है।"
थार्नडाइक के सीखने के नियम
पिछले पचास वर्षों से अमेरिका के मनोवैज्ञानिक, पशुओं पर परीक्षण करके सीखने के नियमों की खोज में लगे हुए हैं। उन्होंने सीखने के जो नियम प्रतिपादित किये हैं, उनमें सबसे अधिक मान्यता ई. एल. थार्नडाइक (E.L.. Thorndike) के नियमों को दी जाती है। उसने सीखने के तीन मुख्य नियम और पाँच नियम प्रतिपादित किये गये है जो इस प्रकार से हैं-
(अ) मुख्य नियम (Primary Laws)
(1) तत्परता का नियम. (ii) अभ्यास का नियम। इस नियम के दो अंग है, उपयोग और अनुपयोग के नियम. (iii) प्रभाव या परिणाम का नियम।
(ब) गौण नियम (Secondary Laws)
(i) बहुप्रतिक्रिया का नियम, (ii) अभिवृत्ति या मनोवृत्ति का नियम. (iii) आंशिक क्रिया का नियम, (iv) आत्मीकरण का नियम, (v) सम्बन्धित परिवर्तन का नियम।
हम इन नियमों का क्रमबद्ध विस्तार पूर्वक परिचय दे रहे हैं जो इस प्रकार से हैं-
1. तत्परता का नियम (Law of Readiness )- इस नियम का अभिप्राय यह है कि यदि हम किसी कार्य को सीखने के लिए तैयार या तत्पर होते हैं, तो हम उसे शीघ्र ही सीख लेते है। तत्परता में कार्य करने की इच्छा निहित रहती है। यदि बालक में गणित के प्रश्न करने की इच्छा है, तो वह उनको करता है, अन्यथा नहीं। इतना ही नहीं, तत्परता के कारण वह उनको अधिक शीघ्रता और कुशलता से करता है। तत्परता उसके ध्यान को कार्य पर केन्द्रित करने में सहायता देती है, जिसके फलस्वरूप वह उसे सम्पन करने में सफल होता है।
भाटिया (Bhatia) का कथन है-"तत्परता या किसी कार्य के लिए तैयार होना, युद्ध को आधा विजय कर लेना है।" तत्परता के नियम के अनुसार शिक्षक, सीखने की परिस्थितियाँ तैयार करता है। इन परिस्थितियों से बालक एकाकार हो जाता है तो वह सीखने के लिये तत्पर हो जाता है।
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2. अभ्यास का नियम (Law of Exercise)- अभ्यास का नियम किसी क्रिया को बार-बार दोहराने से दृढ़ होता है। रहीम दास जी ने बहुत ही अच्छी दोहा कही है-
करत करत अभ्यास ते जड़ मति होत सुजान,
रसरी आवत जात ते सिल पर पड़त निशान।
अर्थात् अभ्यास करते रहने से मूर्ख भी विद्वान हो जाता है, ठीक वैसे ही जैसे कुएँ की जगत पर बार-बार रस्सी के आने-जाने से निशान पड़ जाते हैं।
अभ्यास के नियम के दो रूप हैं- उपयोग का नियम (Law of use) तथा अनुपयोग का नियम (Law of disuse)।
(i) उपयोग का नियम (Law of Use )- इस नियम का तात्पर्य है-अभ्यास कुशल बनाता है (Practice makes perfect)। यदि हम किसी कार्य का अभ्यास करते रहते हैं, तो हम उसे सरलतापूर्वक करना सीख जाते हैं और उसमें कुशल हो जाते हैं। हम बिना अभ्यास किये साइकिल पर चढ़ने में या कोई खेल खेलने में कुशल नहीं हो सकते हैं।
कोलेसनिक (Kolesnik) के अनुसार- "अभ्यास का नियम किसी कार्य की पुनरावृत्ति, पुनर्विचार या अभ्यास के औचित्य को सिद्ध करता है।
(ii) अनुपयोग का नियम (Law of Disuse )- इस नियम का अर्थ यह है कि यदि हम सीखे हुए कार्य का अभ्यास नहीं करते हैं, तो हम उसको भूल जाते हैं। अभ्यास के माध्यम से ही हम उसे स्मरण रख सकते हैं।
डगलस एवं हालैण्ड (Douglas & Holland) का कथन है-"जो कार्य बहुत समय तक किया या दोहराया नहीं जाता है, वह भूल जाता है। इसी को अनभ्यास का नियम कहते हैं।"
3. प्रभाव या सन्तोष का नियम (Law of Effect )- इस नियम के अनुसार, हम उस कार्य को सीखना चाहते है, जिसका परिणाम हमारे लिए हितकर होता है, या जिससे हमें सुख और सन्तोष मिलता है। यदि हमको किसी कार्य को करने या सीखने में कष्ट होता है, तो हम उसको करते या सीखते नहीं है।
वाशबर्न (Washburne) के अनुसार- "जब सीखने का अर्थ किसी उद्देश्य या इच्छा को सन्तुष्ट करना होता है, तब सीखने में सन्तोष का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है।" प्रभाव के नियम को सन्तोष या असन्तोष का नियम भी कहा जाता है। विद्यालयों में पुरस्कार तथा दण्ड अपनाकर सीखने की क्रिया को प्रभावशाली बनाया जाता है। इन नियमों के अतिरिक्त कुछ नियम सहायक नियम कहलाते हैं, जो इस प्रकार है-
1. बहु-प्रतिक्रिया का नियम (Law of Multiple Response)- इस नियम का अभिप्राय यह है कि जब हम कोई नया कार्य करना सीखते हैं, तब हम उसके प्रति अनेक और विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाये करते हैं। दूसरे शब्दों में, हम विविध प्रकार के उपायों और विधियों का प्रयोग करके उस कार्य में सफलता प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। कुछ समय तक प्रयत्न करने के बाद हमें उस कार्य को करने की ठीक विधि या उपाय मालूम हो जाता है। प्रयत्न और भूल' द्वारा सीखने का सिद्धान्त इसी नियम पर आधारित है।
2. मनोवृत्ति का नियम (Law of Disposition)- इस नियम का तात्पर्य यह है कि जिस कार्य के प्रति हमारी जैसी अभिवृत्ति या मनोवृत्ति होती है, उसी अनुपात में हम उसको सीखते हैं। यदि हम मानसिक रूप से किसी कार्य को करने के लिए तैयार नहीं हैं, तो या तो हम उसे करने में असफल होते है, या अनेक त्रुटियाँ करते हैं या बहुत विलम्ब से करते हैं। यही कारण है कि शिक्षक, प्रेरणा देकर बालको को नवीन ज्ञान को ग्रहण करने के लिए मानसिक रूप से तैयार करते हैं।
3. आंशिक क्रिया का नियम (Law of Partial Activity)- इस नियम का अनुसरण करके, हम जिस कार्य को करना चाहते हैं, उसे छोटे-छोटे अंगों या भागों में विभाजित कर लेते है। इस प्रकार का विभाजन, कार्य को सरल और सुविधाजनक बना देता है। हम उन छोटे-छोटे अंगों को शीघ्रता और सुगमता से करके सम्पूर्ण कार्य को पूरा करते है। इस नियम पर अंश से पूर्ण की ओर का शिक्षण का सिद्धांन्त आधारित किया जाता है। शिक्षक अपनी सम्पूर्ण विषय सामग्री को छोटे-छोटे खण्डो में विभाजित करके छात्रों के समक्ष प्रस्तुत करता है।
4. आत्मीकरण का नियम (Law of Assimilation)- इस नियम का अभिप्राय यह है कि हम जो भी नया ज्ञान प्राप्त करते हैं, उसका आत्मीकरण कर लेते हैं या उसे आत्मसात् कर लेते हैं। दूसरे शब्दों में, हम नवीन ज्ञान को अपने पूर्व ज्ञान का स्थायी अंग बना लेते हैं। यही कारण है कि जब शिक्षक बालक को कोई नई बात सिखाता है, तब उसका पहले सीखी हुई बात से सम्बन्ध स्थापित कर देता है।
5. सम्बन्धित परिवर्तन का नियम (Law of Associative Shifting )- इस नियम का अभिप्राय है, पहले कभी की गई क्रिया को उसी के समान दूसरी परिस्थिति में उसी प्रकार करना। इसमें क्रिया को स्वरूप तो वही रहता है, पर परिस्थिति में परिवर्तन हो जाता है। यदि माँ का बच्चा मर जाता है, तो वह उसकी वस्तुओं को उसी प्रकार सीने से लगाती है, जिस प्रकार वह बच्चे को लगाती थी। प्रेमिका की अनुपस्थिति में प्रेमी उसके चित्र से उसी प्रकार बातें करता है, जिस प्रकार वह उससे करता था।
सीखने के अन्य महत्त्वपूर्ण नियम
1. उद्देश्य का नियम
इस नियम का अर्थ यह है कि यदि कोई कार्य हमारे उद्देश्य को पूरा करता है, तो हम उसे शीघ्र ही सीख लेते हैं। रायबर्न (Ryburn,) का मत है- "व्यक्ति का किसी कार्य को करने का उद्देश्य जितना अधिक प्रबल होता है, उतना ही अधिक उसमें उस कार्य को करने की तत्परता होती है।"
2. परिपक्वता का नियम
इस नियम का सार यह है कि हम किसी बात को तभी सीख सकते हैं. जब हममें उसे सीखने की शारीरिक और मानसिक परिपक्वता होती है। दस वर्ष के बालक को नक्षत्र-विज्ञान की शिक्षा देना व्यर्थ है। वह इस विषय को अपनी उसी अवस्था में समझ सकता है, जब उसकी शारीरिक और मानसिक शक्तियों का आवश्यक विकास हो जाय।
3. निकटता का नियम
इस नियम का तात्पर्य यह है कि जो कार्य जितने निकट भूत में या कम समय पहले सीखा गया है, वह उतनी ही अधिक सरलता से फिर किया जा सकता है।
4. अभ्यास वितरण का नियम
यह नियम हमे बताता है कि किसी कार्य को लगातार सीखने के बजाय कुछ-कुछ समय के बाद थोड़ी-थोड़ी देर में सीखना अधिक अच्छा है। डगलस एवं हालैण्ड (Douglas & Holland) के शब्दों में हम कह सकते हैं-"यदि एक व्यक्ति किसी कार्य का एक दिन में 60 या 80 मिनट तक लगातार अभ्यास न करके, 4 दिन तक रोज उसका 15 मिनट अभ्यास करे, तो वह उसे अधिक सीख सकता है।"
5. बहु-अधिगम का नियम
इस नियम का अर्थ स्पष्ट करते हुए रायबर्न (Ryburn)ने लिखा है- "हम एक समय में केवल एक बात कभी नहीं सीखते हैं। हम सदैव एक सी बातों को साथ-साथ सीखते हैं।" विद्यालय में बालक न केवल पाठ में आने वाली बातों को सीखता है, वरन् शिक्षक के चरित्र से छात्रों की संगति से और अपने वातावरण से भी बहुत-सी बातें सीखता है।
सीखने के सिद्धान्त
हिलगार्ड (Hilgard) ने अपनी पुस्तक थ्योरीज ऑफ लर्निंग (Theories of Learning) में दस से भी अधिक सीखने के सिद्धान्तों का वर्णन किया है। इनके सम्बन्ध में यह निश्चय करना कठिन है कि कौन-सा सिद्धान्त ठीक और कौन-सा गलत है फ्रेंडसन (Frandsen) ने ठीक ही लिखा है- सिद्धान्त न तो ठीक होते हैं और न गलत वे केवल कुछ विशेष कार्यों के लिए कम या अधिक लाभप्रद होते हैं।" इस कथन को ध्यान में रखकर हम सीखने के अधिक लाभप्रद पाँच सिद्धान्तों का वर्णन कर रहे है जो इस प्रकार है-
1. थार्नडाइक का सीखने का सिद्धान्त (Thorndike's Theory of Learning)
2. सम्बद्ध प्रतिक्रिया सिद्धान्त (Conditioned Response Theory)
3. प्रबलन का सिद्धान्त (Reinforcement Theory)
4. सूझ या अन्तर्दृष्टि का सिद्धांत (Insight Theory)
5. क्रिया-प्रसूत अधिगम सिद्धांत (Skinner's Operant Conditioning Theory)
थार्नडाइक का सीखने का सिद्धान्त
ई. एल. थार्नडाइक (E. L. Thorndike) ने 1913 में प्रकाशित होने वाली अपनी पुस्तक शिक्षा मनोविज्ञान (Educational Psychology) में सीखने का एक नवीन सिद्धान्त प्रतिपादित किया। इस सिद्धान्त को विभिन्न नामों से पुकारा जाता है यथा-
1. Thorndike's Connectionism (थार्नडाइक का सम्बन्धवाद)।
2. Connectionist Theory (सम्बन्धवाद का सिद्धान्त)।
3. Stimulus-Response (SR) Theory (उद्दीपन- प्रतिक्रिया सिद्धान्त)।
4. Bond Theory of Learning (सीखने का सम्बन्ध-सिद्धान्त)।
5. Trial & Error Learning (प्रयत्न एवं भूल का सिद्धान्त)।
(1) सिद्धान्त का अर्थ
जब व्यक्ति कोई कार्य सीखता है, तब उसके सामने एक विशेष स्थिति या उद्दीपक (Stimulus) होता है, जो उसे एक विशेष प्रकार की प्रतिक्रिया (Response) करने के लिए प्रेरित करता है। इस प्रकार, एक विशिष्ट उद्दीपक का एक विशिष्ट प्रतिक्रिया से सम्बन्ध स्थापित हो जाता है. जिसे उद्दीपक प्रतिक्रिया सम्बन्ध (S-R Bond) द्वारा व्यक्त किया जा सकता है। इस सम्बन्ध के फलस्वरूप, जब व्यक्ति भविष्य में उसी उदीपक का अनुभव करता है, तब वह उससे सम्बन्धित उसी प्रकार की प्रतिक्रिया या व्यवहार करता है।
(2) थार्नडाइक द्वारा सिद्धान्त की व्याख्या
थार्नडाइक ने अपने सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए लिखा है, सीखना, सम्बन्ध स्थापित करना है सम्बन्ध स्थापित करने का कार्य, मनुष्य का मस्तिष्क करता है।"
थार्नडाइक की धारणा है- सीखने की प्रक्रिया में शारीरिक और मानसिक क्रियाओं का विभिन्न मात्राओं में सम्बन्ध होना आवश्यक है। यह सम्बन्ध विशिष्ट उद्दीपको और विशिष्ट प्रतिक्रियाओं के कारण स्नायुमण्डल (Nervous System) में स्थापित होता है। इस सम्बन्ध की स्थापना, सीखने की आधारभूत शर्त है। यह सम्बन्ध अनेक प्रकार का हो सकता है। इस पर प्रकाश डालते हुए बिगी एवं हण्ट (Bigge & Hunt) ने लिखा है-"सीखने की प्रक्रिया में किसी मानसिक क्रिया का शारीरिक क्रिया से, शारीरिक क्रिया का मानसिक क्रिया से, मानसिक क्रिया का मानसिक क्रिया से या, शारीरिक क्रिया का शारीरिक क्रिया से सम्बन्ध होना आवश्यक है।"
(3) थार्नडाइक का प्रयोग
थार्नडाइक ने अपने सीखने के सिद्धान्त की परीक्षा करने के लिए अनेक पशुओं और बिल्लियों पर प्रयोग किए। उसने अपने एक प्रयोग में एक भूखी बिल्ली को पिंजड़े में बंद कर दिया। पिंजड़े का दरवाजा एक खटके के दबने से खुलता था। उसके बाहर भोजन रख दिया। बिल्ली के लिए भोजन उद्दीपक था। उद्दीपक के कारण उसमे प्रतिक्रिया आरम्भ हुई। उसने अनेक प्रकार से बहार निकलने का प्रयत्न किया। एक बार संयोग से उसका पंजा खटके पर पड़ गया। फलस्वरूप, वह दब गया और दरवाजा खुल गया। थार्नडाइक ने इस प्रयोग को अनेक बार दोहराया। अन्त में, एक समय ऐसा आ गया. जब बिल्ली किसी प्रकार की भूल न करके खटके को दबाकर पिंजड़े का दरवाजा खोलने लगी। इस प्रकार उद्दीपक और प्रतिक्रिया में सम्बन्ध (S-R Bond) स्थापित हो गया। थार्नडाइक (Thorndike) ने सम्बन्धवाद के सिद्धान्त ने सीखने के क्षेत्र में प्रयास तथा त्रुटि (Trial and Error) को विशेष महत्व दिया है। प्रयास एवं त्रुटि के सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि जब हम किसी काम को करने में त्रुटि या भूल करते हैं और बार-बार प्रयास करके त्रुटियों की संख्या कम या समाप्त की जाती है तो यह स्थिति प्रयास एवं त्रुटि द्वारा सीखना कहलाती है। वुडवर्थ (Woodworth) ने लिखा है-"प्रयास एवं त्रुटि में किसी कार्य को करने के लिये अनेक प्रयत्न करने पड़ते हैं, जिनमें अधिकांश गलत होते हैं।
(4) थार्नडाइक का प्रयोग
प्रयास तथा त्रुटि के सिद्धान्त के प्रवर्त्तक थार्नडाइक ने एक भूखी बिल्ली को पिंजड़े में बन्द करके यह प्रयोग किया। भूखी बिल्ली पिंजड़े के बाहर रखा मछली का टुकड़ा प्राप्त करने हेतु पिंजड़े से बाहर आने के अनेक त्रुटिपूर्ण प्रयास करती रही अंततः वह पिंजडा खोलना सीख गई।
बिल्ली के समान बालक भी चलना, जूते पहनना, चम्मच से खाना आदि क्रियायें सीखते हैं। वयस्क लोग भी ड्राइविंग, टैनिस, क्रिकेट आदि खेलना, टाई की गाँठ बाँधना इसी सिद्धान्त के अनुसार सीखते हैं।
(5) सिद्धान्त का शिक्षा में महत्व
शिक्षा में प्रयास तथा त्रुटि का सिद्धान्त अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस सिद्धान्त का महत्त्व इस प्रकार है-
(i) बड़े तथा मंद बुद्धि बालकों के लिए यह सिद्धान्त अत्यन्त उपयोगी है।
(ii) इस सिद्धान्त से बालकों में धैर्य तथा परिश्रम के गुणों का विकास होता है।
(iii) बालकों में परिश्रम के प्रति आशा का संचार करता है।
(iv) इस सिद्धान्त के कार्य की धारणायें (Concepts) स्पष्ट हो जाती है।
(v) अनुभवों का लाभ उठाने की क्षमता का विकास होता है।
(vi) क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) के अनुसार- "गणित, विज्ञान तथा समाजशास्त्र जैसे गम्भीर चिन्तन विषयों को सीखने में यह सिद्धान्त उपयोगी है।"
(vii) गैरिसन व अन्य (Garrison & Others) के अनुसार- इस सिद्धान्त का सीखने की प्रक्रिया में विशेष महत्त्व है। समस्या समाधान पर यह बल देता है।
(viii) कोलसनिक (Kolesnik) के शब्दों में-लिखना, पढना, गणित सिखाने में यह सिद्धान्त उपयोगी है। बीसवी सदी में अमरीकी शिक्षा पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है।
(6) सिद्धान्त के गुण व विशेषताएँ
'सम्बन्धवाद' या 'उदीपक प्रतिक्रिया' सिद्धान्त की विशेषताएँ निम्नांकित है-
(i) यह सिद्धान्त, उदीपक और प्रतिक्रिया के सम्बन्ध को सीखने का आधारभूत कारण मानता है।
(ii) यह सिद्धान्त, शिक्षण में प्रेरणा को विशेष महत्व देता है।
(iii) यह सिद्धान्त, इस बात पर बल देता है कि सीखना एक असम्बद्ध प्रक्रिया नहीं है, वरन् प्रत्यक्ष गत्यात्मक ज्ञानात्मक और भावात्मक अंगों का पुंज है।
(iv) इस सिद्धान्त के अनुसार, जो व्यक्ति उद्दीपकों और प्रतिक्रियाओं में जितने अधिक सम्बन्ध स्थापित कर लेता है, उतना ही अधिक बुद्धिमान वह हो जाता है।
(v) इस सिद्धान्त के आधार पर थार्नडाइक ने सीखने के तीन मुख्य नियम प्रतिपादित किये तत्परता का नियम, अभ्यास का नियम प्रभाव या परिणाम का नियम ।
(7) सिद्धान्त के दोष
थार्नडाइक के इस सिद्धान्त में निम्नलिखित स्पष्ट दोष है-
(i) यह सिद्धान्त व्यर्थ के प्रयत्नों पर बल देता है. जिनके कारण सीखने में बहुत समय नष्ट होता है।
(ii) यह सिद्धान्त किसी क्रिया को सीखने की विधि को बताता है, पर उसे सीखने का कारण नहीं बताता है।
(iii) यह सिद्धान्त, सीखने की क्रिया को यांत्रिक बना देता है और मानव के विवेक चिन्तन आदि गुणों की अवहेलना करता है।
(iv) जब एक कार्य को एक विशिष्ट विधि से एक ही बार में सीखा जा सकता है, तब उसका बार-बार प्रयास करके सीखना व्यर्थ है।
(8) निष्कर्ष
इस सिद्धान्त के सम्बन्ध में स्किनर (Skinner) ने लिखा है- "लगभग आधी शताब्दी तक सम्बन्धवाद का विद्यालय के अभ्यास में प्रमुख स्थान था पर अब इसे अन्य सिद्धान्तों की रोशनी में सुधारा जा रहा है।"
सम्बद्ध प्रतिक्रिया सिद्धान्त
सम्बद्ध प्रतिक्रिया सिद्धान्त का प्रतिपादन रूसी शरीर शास्त्री आई. पी. पावलव (I. P. Pavlov) ने किया था। इस मत के अनुसार- सीखना एक अनुकूलित अनुक्रिया है। बर्नार्ड के शब्दों में- अनुकूलित अनुक्रिया उत्तेजना की पुनरावृत्ति द्वारा व्यवहार का स्वचालन है जिसमें उत्तेजना पहले किसी विशेष अनुक्रिया के साथ लगी रहती है और अन्त में वह किसी व्यवहार का कारण बन जाती है जो पहले मात्र रूप से साथ लगी हुई थी।
(1) सिद्धान्त का अर्थ
भोजन देखकर कुत्ते के मुँह से लार टपकने लगती है। यहाँ भोजन एक स्वाभाविक उत्तेजक या उद्दीपक (Stimulus) है और कुत्ते के मुँह से लार टपकना एक स्वाभाविक क्रिया या सहज प्रक्रिया (Reflex Action) है। पर यदि किसी अस्वाभाविक उत्तेजक के कारण भी कुत्ते के मुँह से लार टपकने लगे तो, इसे 'सम्बद्ध सहज-क्रिया' या 'सम्बद्ध प्रतिक्रिया' (Conditioned Reflex or Response) कहते है। दूसरे शब्दों में, अस्वाभाविक उत्तेजक के प्रति स्वाभाविक उत्तेजक के समान होने वाली प्रतिक्रिया को सम्बद्ध सहज-क्रिया कहते हैं। इसके अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए हम लैंडल के शब्दों में कह सकते हैं-"सम्बद्ध सहज-क्रिया में कार्य के प्रति स्वाभाविक उत्तेजक के बजाय एक प्रभावहीन उत्तेजक होता है, जो स्वाभाविक उत्तेजक से सम्बन्धित किये जाने के कारण प्रभावपूर्ण हो जाता है।"
(2) पावलव का प्रयोग
सम्बद्ध सहज-क्रिया के सिद्धान्त का सम्बन्ध शरीर-विज्ञान से है। इसके मानने वाले विशेष रूप से व्यवहारवादी (Behaviourists) हैं। उनका कहना है कि सीखना एक प्रकार से उद्दीपक और प्रतिक्रिया का सम्बन्ध है। इस विचार को सत्य सिद्ध करने के लिए रूसी मनोवैज्ञानिक, पावलव (Pavlov) ने कुत्ते पर एक प्रयोग किया। उसने कुत्ते को भोजन देने से पहले कुछ दिनों तक घण्टी बजाई। उसके बाद उसने भोजन न देकर केवल घण्टी बजाई। तब भी कुत्ते के मुँह से लार टपकने लगी। इसका कारण यह था कि कुत्ते ने घण्टी बजने से यह सीख लिया था कि उसे भोजन मिलेगा। घण्टी के प्रति कुत्ते की इस प्रतिक्रिया को पावलव ने 'सम्बद्ध सहज-क्रिया' की संज्ञा दी।
कुत्ते के समान बालक और व्यक्ति भी सम्बद्ध सहज-क्रिया द्वारा सीखते हैं। पके हुए आमों या मिठाई को देखकर बालकों के मुँह में पानी आ जाता है। उल्टी करना अनेक व्यक्तियों में सहज-क्रिया है, पर अनेक में यह सम्बद्ध सहज-क्रिया भी है। पहाड़ पर बस में यात्रा करते समय कुछ व्यक्ति उल्टी करने लगते हैं। उनमें से कुछ ऐसे भी होते हैं, जिनको यात्रा प्रारम्भ होने से पहले ही उल्टी होने लगती है। कुछ लोग दूसरों को उल्टी करते हुए देखकर उल्टी करने लगते हैं।
(3) सिद्धान्त के गुण या विशेषताएँ
सम्बद्ध प्रतिक्रिया सिद्धान्त, बालकों की शिक्षा में बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है। इसकी पुष्टि में निम्नांकित तथ्य प्रस्तुत किये जा सकते हैं-
1. यह सिद्धान्त, सीखने की स्वाभाविक विधि बताता है। अतः यह बालकों को शिक्षा देने में सहायता देता है।
2. यह सिद्धान्त, बालकों की अनेक क्रियाओं और असामान्य व्यवहार की व्याख्या करता है।
3. यह सिद्धान्त, बालकों के समाजीकरण और वातावरण से उनका सामंजस्य स्थापित करने में सहायता देता है।
4. इस सिद्धान्त का प्रयोग करके बालकों के भय-सम्बन्धी रोगों का उपचार किया जा सकता है।
5. समाज-मनोविज्ञान के विद्वानों के अनुसार, इस सिद्धान्त का समूह के निर्माण में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है।
6. क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) के अनुसार- इस सिद्धान्त की सहायता से बालकों में अच्छे व्यवहार और उत्तम अनुशासन की भावना का विकास किया जा सकता है।
7. क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) के अनुसार- यह सिद्धान्त उन विषयों की शिक्षा के लिए बहुत उपयोगी है, जिसमें चिन्तन की आवश्यकता नहीं है, जैसे- सुलेख और अक्षर विन्यास ।
8. स्किनर (Skinner,) के शब्दों में- "सम्बद्ध सहज-क्रिया आधारभूत सिद्धान्त है, जिस पर सीखना निर्भर रहता है।"
प्रबलन- सिद्धान्त
"प्रबलन- सिद्धान्त" का प्रतिपादन सी. एल. हल (C. L. Hull) नामक अमरीकी मनोवैज्ञानिक ने 1915 में अपनी पुस्तक "Principles of Behaviour" में किया था। उसका यह सिद्धान्त थार्नडाइक (Thorndike) और पावलव (Pavlov) के सिद्धान्तों पर आधारित है।
(1) सिद्धान्त का अर्थ
हल (Hull) के सीखने के सिद्धान्त का अर्थ स्पष्ट करते हुए स्टोन्स (Stones) ने लिखा है- सीखने का आधार 'आवश्यकता की पूर्ति' की प्रक्रिया है। यदि कोई कार्य पशु या मानव की किसी आवश्यकता को पूर्ण करता है, तो वह उसको सीख लेता है आवश्यकता की पूर्ति (Need Satisfaction) के लिए हल (Hull) ने आवश्यकता की कमी (Need Reduction) का प्रयोग किया है।
'आवश्यकता की पूर्ति' किस प्रकार सीखने की प्रक्रिया का आधार है, इसको स्टोन्स (Stones) ने एक उदाहरण देकर स्पष्ट किया है। एक भूखा पशु पिंजड़े में बन्द है। पिंजड़े के बाहर भोजन रखा है। पिंजड़ा खटके को दबाने से खुलता है। अपनी भूख को सन्तुष्ट करने के लिए पशु क्रियाशील होता है। भोजन उसकी क्रियाशीलता को बलवती बनाता है अर्थात् प्रबलन (Reinforce) करता है। अतः वह पिंजड़े से बाहर निकलने के लिए सभी प्रकार के प्रयास करता है। अपने प्रयासों के फलस्वरूप वह खटके को दबाकर निकलना सीख जाता है। इस प्रकार, भोजन की आवश्यकता को सन्तुष्ट करने की प्रक्रिया द्वारा वह पिंजड़े को खोलना सीख जाता है। सीखने का आधार यही है हल (Hull) का कथन है- "सीखना, आवश्यकता की पूर्ति की प्रक्रिया के द्वारा होता है।"
(2) सिद्धान्त के गुण तथा विशेषतायें
हल (Hull) के सीखने के सिद्धान्त की मुख्य विशेषताएँ निम्नांकित है-
A. आदर्श व सर्वश्रेष्ठ सिद्धान्त (Ideal & Most Elegan Theory)- स्किनर (Skinner) ने इस सिद्धान्त को वैज्ञानिक होने के कारण आदर्श सिद्धान्त माना है और लिखा है-"अब तक सीखने के जितने भी सिद्धान्त प्रस्तुत किये गये हैं, उनमें यह सर्वश्रेष्ठ है।"
B. चालक - न्यूनता सिद्धान्त (Drive Reduction Theory)- स्किनर (Skinner) के अनुसार - "हल का सीखने का सिद्धान्त चालक न्यूनता का सिद्धान्त है।"
हल (Hull) का कहना है कि जब प्राणी की कोई आवश्यकता पूर्ण नहीं होती है, तब उसमें असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है; उदाहरणार्थ भोजन की आवश्यकता पूर्ण न होने पर प्राणी में तनाव उत्पन्न हो जाता है, उसके फलस्वरूप उसकी दशा असन्तुलित हो जाती है। साथ ही, भूख का चालक (Drive) उसे भोजन प्राप्त करने के लिए क्रियाशील बना देता है। कुछ समय के बाद वह ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है, जब उसकी भोजन की आवश्यकता सन्तुष्ट हो जाती है। इसके फलस्वरूप, भूख के चालक की शक्ति कम हो जाती है।
3. उद्दीपक प्रतिक्रिया सिद्धान्त (S. R. Theory) - स्किनर (Skinner) के अनुसार - "हल का सिद्धान्त, उद्दीपक-प्रतिक्रिया का सिद्धान्त है।" भूख या भोजन-उद्दीपक का कार्य करता है, जिसके कारण व्यक्ति विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियायें करता है।
4. प्राथमिक व द्वितीयक प्रबलन (Primary & Secondary Reinforcement )- हल (Hull) ने प्रबलन के दो रूप बताये हैं, जो विभिन्न अवस्थाओं में दृष्टिगोचर होते हैं। भोजन भूख के चालक को प्रबल बनाता है। यह अवस्था प्राथमिक प्रबलन (Primary Reinforcement) की है। पर भूख उस समय तक शान्त नहीं होती है, जब तक भोजन खा नहीं लिया जाता है। अतः भोजन खाने से पहले भूख का चालक फिर प्रबल हो जाता है। यह अवस्था द्वितीयक (Secondary Reinforcement) की है।
5. प्रेरणा पर बल (Stress on Motivation)- यह सिद्धान्त बालकों के शिक्षण में प्रेरणा पर अत्यधिक बल देता है, क्योंकि बालकों को प्रेरित करके ही उनके ज्ञान की आवश्यकता को पूर्ण किया जा सकता है।
6. बालकों की क्रियाओं व आवश्यकताओं का सम्बन्ध (Association of Children's Activities & Needs)- इस सिद्धान्त की सबसे महत्त्वपूर्ण देन यह है कि यह बालको की क्रियाओ और आवश्यकताओं में सम्बन्ध स्थापित किये जाने पर बल देता है। उनकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त, उनकी क्रियाओं का वास्तविक जीवन से सम्बन्ध होना चाहिए। आधुनिक शिक्षा इन दोनों तथ्यों को स्वीकार करती है।
(3) निष्कर्ष
आज तक प्रतिपादित किये जाने वाले सीखने के सिद्धान्तों में हल (Hull) के सिद्धान्त को सर्वोत्कृष्ट स्वीकार करते हुए स्किनर (Skinner) ने लिखा है- “हल का कहना है कि सीखने का कारण किसी आवश्यकता का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पूर्ण होना होता है। अतः कुछ दृष्टियों से आधुनिक शिक्षा को हल के सिद्धान्त में एक सैद्धान्तिक आधार मिल जाता है।"
सूझ या अन्तर्दृष्टि का सिद्धान्त
इस सिद्धान्त को समग्राकृति (Gestalt) सिद्धान्त भी कहते हैं। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन जर्मन मनोवैज्ञानिक वर्दीमर, कोफ्का तथा कोहलर ने किया था। गेस्टाल्ट मत के अनुयायियों का कहना है कि- "एक गेस्टाल्ट या आकृति एक समग्र है जिसकी विशेषतायें पता लगाई जाती है। इस सिद्धान्त को सूझ या अन्तर्दृष्टि का सिद्धान्त भी कहते हैं।
(1). सिद्धान्त का अर्थ
हम कुछ कार्यों को करके सीखते हैं और कुछ को दूसरों को करते हुए देखकर सीखते हैं। कुछ कार्य ऐसे भी होते हैं, जिन्हें हम बिना बताए अपने आप सीख लेते हैं। इस प्रकार के सीखने को 'सूझ द्वारा सीखना' कहते है। इसका अर्थ स्पष्ट करते हुए गुड (Good) ने लिखा है- "सूझ, वास्तविक स्थिति का आकस्मिक, निश्चित और तात्कालिक ज्ञान है। "
(2) कोहलर का प्रयोग
सूझ द्वारा सीखने के सिद्धान्त के प्रतिपादक जर्मनी के 'गेस्टाल्टवादी' हैं। इसीलिए इस सिद्धान्त को 'गेस्टाल्ट-सिद्धान्त' (Gestalt Theory) भी कहते हैं। गेस्टाल्टवादियों का कहना है कि व्यक्ति अपनी सम्पूर्ण परिस्थिति को अपनी मानसिक शक्ति से अच्छी तरह समझ लेता है और सहसा उसे ठीक-ठीक करना सीख जाता है। वह ऐसा अपनी सूझ के कारण करता है। इस सम्बन्ध में अनेक प्रयोग किए जा चुके हैं, जिनमें सबसे प्रसिद्ध प्रयोग, कोहलर (Kohler) का है।
कोहलर ने एक वनमानुष, जिसका नाम सुलतान था, को एक कमरे में बन्द कर दिया। कमरे की छत में एक केला लटका दिया गया और कुछ दूर पर एक बक्स रख दिया गया। वनमानुष ने उछल कर केले को लेने का प्रयास किया, पर सफल नहीं हुआ। वह थोड़ी देर कमरे में इधर-उधर घूमा, बक्स के पास खड़ा हुआ, उसे खींचकर केले के नीचे ले गया, उस पर चढ़ गया और उछल कर केला ले लिया। सुल्तान के इन सब कार्यों से सिद्ध हुआ कि उसमें सूझ थी. जिसने उसे अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफलता दी।
वनमानुष के समान बालक और व्यक्ति भी सूझ द्वारा सीखते हैं। सूझ का आधार कल्पना है। जिस व्यक्ति में कल्पना शक्ति जितनी अधिक होती है, उसमें सूझ भी उतनी ही अधिक होती है और इसलिए उसे सफलता भी अधिक होती है। बड़े-बड़े दार्शनिकों, इंजीनियरों और राजनीतिज्ञों की सफलता का रहस्य उनकी सूझ ही है।
(3) सिद्धान्त का शिक्षा में महत्व
शिक्षा में सूझ द्वारा सीखने के सिद्धान्त के महत्त्व को निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है-
1. यह सिद्धान्त रचनात्मक कार्यों के लिए उपयोगी है।
2. यह सिद्धान्त, बालकों की बुद्धि, कल्पना और तर्क-शक्ति का विकास करता है।
3. यह सिद्धान्त, गणित जैसे कठिन विषयों के शिक्षण के लिए बहुत लाभप्रद सिद्ध हुआ है।
4. क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) के अनुसार- यह सिद्धान्त-कला, संगीत और साहित्य की शिक्षा के लिए उपयोगी है।
5. स्किनर (Skinner) के अनुसार- यह सिद्धान्त, आदत और सीखने के यान्त्रिक स्वरूपों के महत्त्व को कम करता है।
6. गेट्स तथा अन्य (Gates & Others) के अनुसार- यह सिद्धान्त, बालक को स्वयं खोज करके ज्ञान का अर्जन करने के लिए प्रोत्साहित करता है।
7. ड्रेबर (Drever) के अनुसार- यह सिद्धान्त, बालक को किसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उचित व्यवहार की चेतना प्रदान करता है।
8. गैरिसन व अन्य के शब्दों में- "विद्यालय में बालक के समस्या समाधान पर आधारित अधिकांश सीखने की इस सिद्धान्त के द्वारा व्याख्या की जा सकती है।"
क्रिया-प्रसूत अधिगम सिद्धान्त
सीखने के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने में बी. एफ. स्किनर (B. F. Skinner) ने विशेष योगदान किया है। स्किनर ने दो प्रकार की क्रियाओं पर प्रकाश डाला-क्रिया-प्रसूत (Operant) तथा उद्दीपन प्रसूत (Stimulus) । जो क्रियाये उद्दीपन के द्वारा होती है वे उद्दीपन आधारित होती हैं। क्रिया-प्रसूत का सम्बन्ध उत्तेजना से होता है।
(1) बी. एफ. स्किनर के प्रयोग
बी. एफ. स्किनर के अधिगम या सीखने के क्षेत्र में अनेक प्रयोग करते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि अभिप्रेरणा (Motivation) से उत्पन्न क्रियाशीलता (Operant) ही सीखने के लिए उत्तरदायी है। स्किनर ने चूहों तथा कबूतरों आदि पर प्रयोग करके यह निष्कर्ष निकाला कि प्राणियों में दो प्रकार के व्यवहार पाए जाते हैं- अनुक्रिया (Respondent) तथा क्रिया-प्रसूत (Operant)। अनुक्रिया का सम्बन्ध उत्तेजना से होता है और क्रिया-प्रसूत का सम्बन्ध किसी ज्ञात उद्दीपन से नहीं होता। क्रिया-प्रसूत को केवल अनुक्रिया की दर से मापा जा सकता है।
स्किनर ने चूहों पर प्रयोग किए। उसने लीवर (Lever) वाला बक्सा बनवाया। लीवर पर चूहे का पैर पड़ते ही खट् की आवाज होती थी। इस ध्वनि को सुन चूहा आगे बढ़ता और उसे प्याले में भोजन मिलता। यह भोजन चूहे के लिए प्रबलन (Reinforcement) का कार्य करता। चूहा भूखा होने पर प्रणोदित (Drived) होता और लीवर को दबाता। उस प्रयोग से स्किनर ने यह निष्कर्ष निकाले-
1. लीवर दबाने की क्रिया चूहे के लिये सरल हो गई।
2. लीवर बार-बार दबाया जाता, अतः निरीक्षण सरल हो गया।
3. लीवर दबाने में अन्य क्रिया निहित नहीं थी
4. लीवर दबाने की क्रिया का आभास हो जाता था।
निष्कर्ष यह है कि- "यदि किसी क्रिया के बाद कोई बल प्रदान करने वाला उद्दीपन मिलता है तो उस क्रिया की शक्ति में वृद्धि हो जाती है।"
स्किनर ने कबूतरों पर भी क्रिया-प्रसूत अनुबंधन (Operant Conditioning) के प्रयोग किये। स्किनर द्वारा बनाये गये बक्से में कबूतरों को लीवर या कुंजी को दबाना सीखना था। पहले तो बक्से में हल्की प्रकाश व्यवस्था की गई। यह प्रयोग विभिन्न प्रकार की छः प्रकाश योजनाओं के अन्तर्गत किया गया। प्रयोगों का सामान्य सिद्धान्त यह निरूपित हुआ कि नवीन तथा पुराने, दोनों प्रकार के उद्दीपनों में क्रिया-प्रसूत की गई। प्रकाश व्यवस्था में परिवर्तन होने पर अनुक्रिया में आनुपातिक परिवर्तन हुआ।
(2) क्रिया-प्रसूत सिद्धान्त
एम. एल. बिगी (M. L. Bigge) ने स्किनर के क्रिया-प्रसूत सिद्धान्त के विषय में कहा है-"क्रिया-प्रसूत अनुबन्धन अधिगम की एक प्रक्रिया है जिसमें सतत् या सम्भावित अनुक्रिया होती है। ऐसे समय क्रिया-प्रसूतता की शक्ति बढ़ जाती है।"
प्रयोगों के परिणामों के आधार पर बी. एफ. स्किनर (B. F. Skinner) ने कहा है-व्यवहार प्राणी या उसके अंश की किसी सन्दर्भ में गति है, यह गति या तो प्राणी में स्वयं निहित होती है अथवा किसी बाहरी उद्देश्य या शक्ति के क्षेत्र से आती है।
(3) क्रिया-प्रसूत अनुबन्ध और शिक्षा
क्रिया-प्रसूत अधिगम का शिक्षा में इस प्रकार प्रयोग किया जाता है-
1. सीखने का स्वरूप प्रदान करना (Shaping the Behaviour)- शिक्षक, इस सिद्धान्त के द्वारा सीखे जाने वाले व्यवहार को स्वरूप प्रदान करता है। वह उदीपन पर नियंत्रण करके वांछित व्यवहार का सृजन करता है।
2. शब्द-भण्डार (Vocabulary )- इस सिद्धान्त का प्रयोग बालकों के शब्द भण्डार में वृद्धि के लिये किया जा सकता है।
3. अभिक्रमित अधिगम (Programmed Learning)- सीखने के क्षेत्र में अभिक्रमित अधिगम तक महत्त्वपूर्ण विधि विकसित हुई है। इस विधि को क्रिया-प्रसूत अनुबंधन द्वारा गति प्रदान की जा सकती है।
4. निदानात्मक शिक्षण (Remedial Training)- क्रिया-प्रसूत सिद्धान्त जटिल (Complex) व्यवहार वाले तथा मानसिक रोगियों को वांछित व्यवहार के सीखने में विशेष रूप में सहायक हुआ है।
5. परिणाम की जानकारी (Knowledge of Result)- स्किनर का विचार है कि यदि व्यक्ति को कार्य के परिणामों की जानकारी हो तो उसके सीखने में भावी व्यवहार पर प्रभाव पड़ता है। गृहकार्य के संशोधन का भी छात्र के सीखने की गति तथा गुण पर प्रभाव पड़ता है।
6. पुनर्बलन (Reinforcement )- क्रिया-प्रसूत अधिगम में पुनर्बलन का महत्त्व है। अधिकाधिक अभ्यास द्वारा क्रिया को बल मिलता है।
7. संतोष (Satisfaction)- स्किनर कहता है कि जब भी काम में सफलता मिलती है तो संतोष प्राप्त होता है और यह संतोष क्रिया को बल प्रदान करता है।
8. पद विभाजन (Small Steps)- क्रिया-प्रसूत अधिगम में सीखी जाने वाली क्रिया को अनेक छोटे-मोटे पदों में विभक्त किया जाता है। शिक्षा में इस विधि के प्रयोग से सीखने में गति तथा सफलता, दोनों मिलते हैं।
(4) निष्कर्ष
क्रिया-प्रसूत अधिगम का आधार अनुकूलन (Conditioning) है। स्किनर ने क्रिया-प्रसूत (Operant) के आधार पर अनुकूलन के सिद्धान्त को आगे बढ़ाया है। यह निरीक्षणात्मक अधिगम है। यह सिद्धान्त मनोरोगियों, पशु-पक्षियों तथा बालकों पर तो लागू होता है. विवेकशील प्राणियों पर नहीं।