supreme court in hindi - सर्वोच्च न्यायालय

supreme court in hindi - सर्वोच्च न्यायालय 

लार्ड ब्राइस - "किसी शान की श्रेष्ठता जाँचने के लिए उसकी न्याय व्यवस्था की निपुणता से बढ़कर कोई अन्य कसौटी नहीं है, क्योंकि किसी और से नागरिक सुरक्षा व हितों पर इतना प्रभाव नहीं पड़ता जितना उसके ज्ञान से कि वह एक निश्चित शीघ्र और निष्पक्ष न्याय प्रशासन पर निर्भर रह सकता है"

    supreme court: संविधान द्वारा भारत में संघीय शासन व्यवस्था की स्थापना की गयी है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत संघ और राज्यों के लिए न्यायपालिका का संगठन पृथक-पृथक न होकर सम्पूर्ण देश के लिए एकीकृत न्याय व्यवस्था है। भारत के संविधान निर्माताओं ने भारत का संविधान बनाते समय इस बात की आवश्यकता अनुभव की थी कि संघ तथा राज्यों में आपस में मतभेद उत्पन्न हो जाने पर तथा कार्यपालिका द्वारा नागरिकों को मौलिक अधिकारों का हनन किये जाने पर उनकी रक्षा हेतु एक स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका की स्थापना होनी चाहिए, जो स्वतन्त्र रूप से निर्णय दे सके। इसके अभाव में नागरिकों की स्वतन्त्रता एवं उनके अधिकारों का न तो कोई मूल्य होता है और न ही कोई अस्तित्व इस प्रकार सरकार के दोनों अंगों में न्यायपालिका सरकार का एक अपरिहार्य अंग है। 

    लाई ब्राइस ने ठीक ही लिखा है कि, "यदि न्याय का दीपक अन्धेरे में बुझ जाये तो यह अन्धेरा कितना होगा, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती।"

    इस प्रकार न्यायापालिका ही जनता के अधिकारों की रक्षा करती है, सरकार को निरंकुश होने से रोकती है, संविधान की रक्षा करती है और कानूनों का उल्लंघन करने वालों को दण्ड देती है। प्रोफेसर गार्नर का तो यहाँ तक कहना है कि "न्याय विभाग के अभाव में एक समय राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती। कोई भी समाज बिना विधानमण्डल के रहता है, यह बात समझ में आ सकती है परन्तु ऐसे किसी सभ्य राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती, जिसमें न्यायपालिका या न्यायाधिकरण की कोई व्यवस्था न हो।" 

    सर्वोच्च न्यायालय की आवश्यकता और महत्व 

    भारतीय राजव्यवस्था में सर्वोच्च न्यायालय की आवश्यकता और महत्व का अध्ययन निम्नांकित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है 

    संविधान का रक्षक 

    भारत में एक लिखित और कठोर संविधान को अपनाया गया है। संविधान की सर्वोच्चता बनाये रखने का कार्य सर्वोच्च न्यायालय को सौंपा गया। अपनी इस शक्ति के आधार पर वह संविधान की प्रभुता और सर्वोच्चता की रक्षा करता है।

    संघात्मक व्यवस्था का रक्षक

    संविधान द्वारा भारत में एक संघात्मक संशासन व्यवस्था की स्थापना की गयी है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत संविधान द्वारा संघीय और राज्य सरकार के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय इस शक्ति विभाजन की रक्षा करता है और संघीय या राज्य सरकारों को अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर कोई कार्य करने से रोक सकता है। वह दोनों सरकारों के मध्य उत्पन्न विवाद का निपटारा भी करता है।

    मौलिक अधिकारों की रक्षा 

    भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान किये गये हैं। इन अधिकारों की रक्षा भी सर्वोच्च न्यायालय करता है। यदि व्यवस्थापिका कार्यपालिका या अन्य कोई सत्ता नागरिकों के अधिकारों और स्वतन्त्रता में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप करती है तो सर्वोच्च न्यायालय बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा और उत्प्रेषण आदेश जारी कर नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है।

    अतः शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त को अपनाते हुए भारतीय संविधान द्वारा भारत के लिए एक स्वतन्त्र न्यायपालिका की व्यवस्था की गयी है। यह न्यायपालिका कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के नियन्त्रण से पूरी तरह मुक्त है। इसीलिए भारतीय न्यायपालिका ने निष्पक्ष निर्णय देने में विश्व में अपना कीर्तिमान स्थापित किया है। आज उसने विश्व की सर्वाधिक शक्तिशाली न्यायपालिका का रूप धारण कर लिया है। भारत की न्यायपालिका अनेक विशेषताओं से युक्त है; जैसे- 

    (1) एकीकृत एवं संगठित न्याय व्यवस्था 

    (2) निष्पक्ष न्याय व्यवस्था 

    (3) संविधान का व्याख्या एवं संरक्षण की व्यवस्था 

    (4) न्यायिक पुनरावलोकन की व्यवस्था, 

    (5) राष्ट्रपति को परामर्श देने की व्यवस्था तथा 

    (6) मौलिक अधिकारों की सुरक्षा आदि। 

    सर्वोच्च न्यायालय

    सर्वोच्च न्यायालय का संगठन

    भारतीय न्याय व्यवस्था के शीर्ष पर उच्चतम न्यायालय है। यह न्यायालय देश की राजधानी दिल्ली में स्थित है। सर्वोच्च न्यायालय भारतीय संविधान और नागरिकों के मौलिक अधिकारों का स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष प्रहरी होने के साथ ही देश का सर्वोच्च एवं अन्तिम न्यायालय है। इसके अधीन भारतीय संघ के विभिन्न राज्यों में उच्च  न्यायालय (High Court) स्थापित है। इन उच्च न्यायालयों के अधीनस्य अन्य न्यायालय है। इस प्रकार देश के समस्त न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय के अधीन है। उच्चतम न्यायालय के गठन को निम्नलिखित शीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है-

    न्यायाधीशों की संख्या 

    संविधान के अनुच्छेद 124 (1) की व्यवस्था के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या में संसद कानून पारित करके परिवर्तन कर सकती है। यद्यपि संविधान द्वारा न्यायाधीशों की संख्या निश्चित नहीं की गई है। संसद अब तक विभिन्न अधिनियमों द्वारा न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि कर चुकी है। सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या के सम्बन्ध में अधिनियम 1985 द्वारा यह व्यवस्था की गई कि सर्वोच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश और 25 अन्य न्यायाधीश होते थे लेकिन सन् 2008 में हुए संशोधन के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा 30 अन्य न्यायाधीशों का प्रावधान किया गया है।

    न्यायाधीशों की नियुक्ति 

    सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। इन न्यायाधीशों की नियुक्ति करने से पूर्व राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से अवश्य परामर्श लेता है। इस सम्बन्ध में वरिष्ठता क्रम को विशेष रूप से ध्यान रखा जाता है। विशिष्ट स्थितियों में सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश भारत के राष्ट्रपति से अनुमति प्राप्त कर 'तदर्थ न्यायाधीशों' (Adhoc Judges) को नियुक्ति भी कर सकता है किन्तु तदर्थ नियुक्ति करते समय भारत के मुख्य न्यायाधीश को उच्च न्यायालय के उन मुख्य न्यायाधीशों से परामर्श करना होता है। जिनमें से तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाना है।

    तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति की व्यवस्था कनाडा की न्यायपालिका में है। भारत में उसी के अनुरूप व्यवस्था की गई है। सर्वोच्च या संघीय न्यायालय के सेवा निवृत्त न्यायाधीश को भी सर्वोच्च न्यायालय का तदर्थ  न्यायाधीश बनाया जा सकता है किन्तु इसके लिए राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति आवश्यक है।

    न्यायाधीशों की योग्यताएँ

    संविधान के अनुच्छेद 124 (3) के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश में निम्नलिखित योग्यताओं का होना अनिवार्य है-

    (1) वह भारत का नागरिक हो।

    (2) वह किसी उच्च न्यायालय अथवा दो या दो से अधिक न्यायालयों में लगातार कम से कम 5 वर्ष तक न्यायाधीश के रूप में कार्य कर चुका हो। अथवा किसी उच्च न्यायालय अथवा दो या दो से अधिक न्यायालयों में लगातार 10 वर्ष तक अधिवक्ता रह चुका हो।

    (3) राष्ट्रपति की दृष्टि में कानून का उच्चकोटि का ज्ञाता हो। 

    न्यायाधीश का कार्यकाल तथा महाभियोग

    सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर कर कार्य कर सकते हैं परन्तु इससे पूर्व भी यदि कोई न्यायाधीश चाहे तो अपने पद से त्याग-पत्र दे सकता है। इसके अतिरिक्त यदि संसद के दोनों सदन अलग-अलग संसद के एक ही सत्र में अपने उपस्थित वथा मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पारित प्रस्ताव द्वारा किसी न्यायाधीश को दुराचारी अयोग्य घोषित कर दे,राष्ट्रपति से प्रार्थना करे कि उसे उसके पद से हटा दिया जाये, तो राष्ट्रपति उस न्यायाधीश को अपने पद से त्याग-पत्र देने का आदेश दे सकता है और उस न्यायाधीश को त्याग-पत्र देना पड़ता है।

    न्यायाधीशों का वेतन, भत्ता एवं पेन्शन आदि

    न्यायाधीशों के वेतन भत्ते संसद द्वारा निश्चित होते हैं। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवा शर्तों में सुधार के लिए एक संशोधन विधेयक सन् 1998 में पारित किया गया। इस विधेयक के अनुसार न्यायाधीशों के वेतन में भी आवश्यक संशोधन किया गया तथा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 33 हजार रुपये मासिक वेतन मिलन था, जबकि अन्य न्यायाधीशों का वेतन 30 हजार रुपये मासिक निर्धारित किया गया था लेकिन 28 नवम्बर 2008 को सम्पन्न केन्द्रीय मंत्रिमण्डल की बैठक में मुख्य न्यायाधीश का वेतन एक लाख तथा अन्य न्यायाधीश का वेतनमान 90 हजार रुपये कर दिया गया है।

    इन न्यायाधीशों को मासिक भत्ता, यात्रा भत्ता, निवास स्थान, स्टॉफ, कार, सीमित मात्रा में पेट्रोल तथा अन्य कुछ ऐसी ही सुविधाएँ भी उपलब्ध कराई जाती हैं। न्यायाधीशों को पेन्शन के साथ-साथ सेवा निवृति वेतन (Gratuity) की व्यवस्था भी की गई है। न्यायाधीशों को मिलने वाला वेतन व भत्ता भारत की संचित निधि से दिया जाता है।

    न्यायाधीशों की उन्मुक्तियाँ

    किसी भी व्यक्ति द्वारा न्यायाधीशों के कार्यों की सार्वजनिक आलोचना या चर्चा नहीं की जा सकती। न्यायालय की मानहानि (अवमानना) करने वाले किसी भी व्यक्ति को उच्चतम न्यायालय दण्डित कर सकता है। उच्चतम न्यायालय के विचाराधीन मामलों या उसके निर्णयों की संसद में कोई आलोचना नहीं की जा सकती। संसद केवल किसी न्यायाधीश को उसके पद से हटाने के लिए ही उसके आचरण के सम्बन्ध में विचार कर सकती है न्यायाधीशों द्वारा शपथ ग्रहण- प्रत्येक न्यायाधीश को अपना पद ग्रहण करने से पूर्व राष्ट्रपति के समक्ष अपने पद की निम्नलिखित शपथ लेनी होती है।

    "मैं अमुक भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश / न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने पर ईश्वर की शपथ लेता हूँ। सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा व निष्ठा रखूंगा में भारत की प्रभुसत्ता और अखण्डता की रक्षा करूंगा, मैं अपने कार्यों का सम्पादन औचित्य और श्रद्धा एवं पूरी योग्यता, पूरे ज्ञान और निर्णय के साथ भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना करूँगा तथा मैं संविधान और विधियों की मान्यता प्रदान करूंगा।"

    न्यायालय का मुख्य स्थान

    संविधान के अनुच्छेद 130 के अनुसार, भारत का उच्चतम न्यायालय दिल्ली में स्थित है। इसकी बैठकें सामान्यतः न्यायालय के भवन में ही होती हैं परन्तु आवश्यकतानुसार राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति लेकर मुख्य न्यायाधीश द्वारा इसकी बैठकें अन्य स्थानों पर भी आमन्त्रित की जा सकती हैं। अब तक हैदराबाद और श्रीनगर में इस प्रकार की बैठकें आयोजित की जा चुकी हैं।

    न्यायाधीशों पर प्रतिबन्ध 

    सेवा निवृत्त होने के पश्चात् उच्चतम न्यायालय का कोई भी न्यायाधीश भारत राज्य क्षेत्र के किसी भी न्यायालय अथवा अन्य पदाधिकारी के समक्ष वकालत नहीं कर सकता और न वह किसी अन्य रूप में किसी न्यायालय में कोई ऐसा कार्य ही कर सकता है, जिससे न्याय व्यवस्था प्रभावित होती हो।

    उच्चतम न्यायालय की शक्तियाँ एवं कर्तव्य

    भारत का सर्वोच्च न्यायालय संसार के सर्वाधिक शक्तिशाली सर्वोच्च न्यायालयों में से एक है। इसकी कार्य-क्षेत्र सम्पूर्ण भारत होने के कारण इसकी शक्तियाँ बहुत अधिक विस्तृत एवं व्यापक हैं। इसके निर्णय देश में समस्त न्यायालयों को मान्य होते हैं। इसकी शक्तियाँ एवं कर्तव्यों को अग्रलिखित शीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है जो इस प्रकार से है - 

    प्रारंभिक क्षेत्राधिकार

    सर्वोच्च न्यायालय को संघीय न्यायालय के रूप में प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार प्राप्त है, जिसे निम्नलिखित में विभाजित किया जा सकता है-

    (क) राज्यों से सम्बन्धित विवाद- सर्वोच्च न्यायालय के इस क्षेत्राधिकार में वे विवाद आते हैं, जिनका निर्णय उच्चतम न्यायालय के अतिरिक्त देश का कोई अन्य न्यायालय नहीं कर सकता। इसमें- 

    (1) संघीय सरकार तथा एक या एक से अधिक राज्यों के बीच के विवाद या

    (2) संघीय सरकार तथा एक या अनेक राज्यों का एक पक्ष हो तथा एक या एक से अधिक राज्यों का दूसरा पक्ष हो, या... 

    (3) दो या दो से अधिक राज्यों के बीच के विवाद ।

    सर्वोच्य न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में दो राज्यों के बीच नदियों के पानी व नदियों को घाटियों से सम्बन्धित विवाद नहीं आते हैं। इसके अतिरिक्त वित्त आयोग को निर्णय हेतु सौंपे गये विवाद भी इसके क्षेत्राधिकार में नहीं है। 

    (ख) मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित विवाद- संविधान के अनुच्छेद 32 (1) द्वारा नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने के लिए उच्चतम न्यायालय को समुचित कार्यवाही करने की शक्ति प्रदान की गयी है। मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पाँच प्रकार के लेख या आदेश (Writss) जारी किये जा सकते हैं; जैसे- बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख, परमादेश लेख प्रतिषेध लेख, उत्प्रेषण लेख और अधिकार पुछा लेख इस प्रकार यह न्यायालय नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है। 

    अपीलीय क्षेत्राधिकार

    सर्वोच्य न्यायालय भारत का सबसे बड़ा अन्तिम अपीलीय न्यायालय है। इसके क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय को उच्च न्यायालय के विरुद्ध निम्नलिखित प्रकार की अपीलें सुनने की शक्ति प्राप्त है- 

    (i) संवैधानिक अपीलें- संविधान के अनुच्छेद 132 की व्यवस्था के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय के किसी निर्णय के संवैधानिक मामलों में अपील उस समय सुनता है, जब उच्च न्यायालय इस बात का प्रमाण-पत्र दे दे कि इस विवाद में संविधान के किसी अनुच्छेद या धारा की व्याख्या से सम्बन्धित प्रश्न निहित है। सर्वोच्च न्यायालय स्वयं भी अपनी ओर से ऐसे मामलों को अपील सुनने की व्यक्ति को अनुमति दे सकता है बशर्ते कि न्यायालय यह अनुभव करे कि मामले में कोई संवैधानिक प्रश्न निहित है।

    (ii) दीवानी अपीलें- संविधान के अनुच्छेद 133 की व्यवस्था के अनुसार, ऐसे दीवानी विवाद की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा की जा सकती है जिसे उच्च न्यायालय द्वारा यह प्रमाणित किया गया हो कि विवादपस्त विषय का मूल्य 20,000 रुपये से अधिक है परन्तु सन् 1973 के 30 वें संवैधानिक संशोधन द्वारा यह सीमा समाप्त कर दी गई है। अब यह व्यवस्था कर दी गई है कि उच्चतम न्यायालय में ऐसे समस्त दीवानी विवादों की  अपील की जा सकती है, जिनके विषय में उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि इन विवादों में सामान्य महत्व के कानून की व्याख्या से सम्बन्धित सार्थक प्रश्न निहित है।

    (iii) फोजदारी अपीलें- संविधान के अनुच्छेद 134 की व्यवस्था के अनुसार, उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में निम्नांकित फौजदारी मामलों की अपील की जा सकती है- 

    (1) जब किसी अभियोग में उच्च न्यायालय के किसी अधीनस्थ न्यायालय ने अभियुक्त को निर्दोष रिहा कर दिया हो परन्तु उच्च न्यायालय द्वारा उसे मृत्युदण्ड दिया गया हो।

    (2) जब उच्च न्यायालय ने किसी मुकदमे (अभियोग) को अपने अधीनस्थ न्यायालय से अपने पास मंगवाकर  अभियुक्त को मृत्युण्ड दिया हो।

    (3) जब उच्च न्यायालय द्वारा यह प्रमाणित कर दिया गया हो कि विवाद सर्वोच्च न्यायालय में अपील किये जाने योग्य है। 

    इस प्रकार उपर्युक्त तीनों स्थितियों में सर्वोच्च न्यायालय फौजदारी मामलों की अपील सुन सकता है। 

    (iv) विशेष अपीलें- संविधान के अनुच्छेद 135 की व्यवस्था के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालय को यह अधिकार दिया गया है कि सैनिक न्यायालय को छोड़कर भारत में स्थित किसी भी न्यायालय द्वारा किसी भी विवाद में दिये गये निर्णय के विरुद्ध अपील करने की विशेष अनुमति प्रदान कर सकता है। उसकी इस प्रकार की अनुमति देने की शक्ति पर किसी प्रकार का संवैधानिक प्रतिबन्ध नहीं है। यह अनुमति केवल उन् अभियोगों के सम्बन्ध में दी जा सकती है, जिनके निर्णयों से सर्वोच्च न्यायालय को यह अनुभव हो कि एक पक्ष के साथ घोर अन्याय किया गया है और अभियोग पर पुनः विचार किया जाना चाहिए। 

    अतः इस प्रकार उपरिलिखित चार प्रकार की अपीलें सुनने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय को प्रदान किया गया है। 

    परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार 

    संविधान के अनुच्छेद 143 की व्यवस्था के अनुसार, यदि राष्ट्रपति किसी संवैधानिक या कानूनी प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श लेना चाहे तो वह राष्ट्रपति को परामर्श दे सकता है परन्तु राष्ट्रपति उसके परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं है। अभी तक राष्ट्रपति ने 9 बार सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श प्राप्त किया है परन्तु दसवां बार अयोध्या काण्ड के किसी बिन्दु पर राष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श मांगा तो सर्वोच्च न्यायालय ने परामर्श देने से इन्कार कर दिया। इस प्रकार अब यह बात स्पष्ट हो गई है कि सर्वोच्च न्यायालय किसी विषय विशेष पर राष्ट्रपति को परामर्श देने से इनकार भी कर सकता है।

    संविधान के संरक्षण या न्यायिक पुनरावलोकन सम्बन्धी क्षेत्राधिकार

    संविधान द्वारा सर्वोच्य न्यायालय को संविधान के संरक्षक का कार्य भी प्रदान किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि सर्वोच्च न्यायालय को कानूनों की वैधता की जाँच करने का अधिकार प्राप्त है। इसे ही 'न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार' कहते हैं। इस अधिकार के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय को संघीय सरकार या राज्य विधानमण्डल द्वारा निर्मित ऐसी विधियों की जांच करने का अधिकार प्राप्त है जो संविधान के विरुद्ध है अर्थात् संविधान के विरुद्ध निर्मित विधियों को सर्वोच्च न्यायालय अवैध घोषित कर सकता है। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति शासन को मार्यादित रखने का एक प्रमुख साधन है। अपनी इस शक्ति का प्रयोग कर सर्वोच्च न्यायालय संविधान की रक्षा करता है।

    पुनर्विचार सम्बन्धी क्षेत्राधिकार 

    संविधान के अनुच्छेद 138 की व्यवस्था के अनुसार, सर्वोच्य न्यायालय अपने द्वारा दिये गये आदेशों एवं निर्णय पर पुनर्विचार कर सकता है और आवश्यकतानुसार उनमें परिवर्तन या संशोधन भी कर सकता है। उच्चतम न्यायालय द्वारा ऐसा तब ही किया जाता है, जब उसे ऐसा प्रतीत हो कि उसके द्वारा दिये गये निर्णय में किसी पक्ष के प्रति अन्याय हुआ है अथवा उस विवाद के सम्बन्ध में अन्य कोई तथ्य प्रकाश में आये हों।

    अभिलेख न्यायालय

    संविधान के अनुच्छेद 129 के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय भी है। उसकी समस्त कार्यवाहियों एवं निर्णय लिखित रूप में होते हैं और प्रकाशित किये जाते हैं। इन्हें अभिलेख के रूप में रखा जाता है। इन अभिलेखों को आवश्यकतानुसार भविष्य में अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष उदाहरण या नजीर (Ruling) के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय साक्ष्य के रूप में अत्यधिक मूल्यवान होते हैं, जिन्हें समस्त अधीनस्थ न्यायालय कानून ही मान्यता प्रदान करते हैं।

    अन्य अधिकार 

    सर्वोच्च न्यायालय को उपर्युक्त लिखित अधिकारों के अतिरिक्त अन्य अधिकार भी प्राप्त है, जो इस प्रकार हैं- 

    (1) वह अपने अधीनस्थ न्यायालयों के कार्य की जाँच भी कर सकता है।

    (2) वह अपनी अधीनस्थ कर्मचारियों की नियुक्ति और सेवा शर्तें निर्धारित करने के अतिरिक्त उसे उनकी पदोन्नति एवं उनको पदच्युत करने की शक्ति भी प्राप्त है। 

    (3) न्यायालय की अवमानना करने वाले किसी भी व्यक्ति को दण्डित करने की शक्ति भी सर्वोच्च न्यायालय को प्राप्त है।

    सर्वोच्च न्यायालय और न्यायिक पुनर्निरीक्षण

    भारतीय संविधान के अनुच्छेद 131-132 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय को न्यायिक पुनर्निरीक्षण अधिकार प्राप्त है। अनुच्छेद 131 और अनुच्छेद 132 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय संघीय और राज्यों को विधि के सम्बन्ध यदि यह महसूस करता है कि कोई भी विधि संविधान के किस अनुच्छेद की अवहेलना कर रही है तो न्यायालय उसे अवैध घोषित कर सकता है इसे ही न्यायिक पुनर्निरीक्षण का अधिकार कहते हैं। 

    दूसरे शब्दों में "न्यायिक पुनर्निरीक्षण सर्वोच्च न्यायालय की वह शक्ति है जिसके द्वारा वह विधानमण्डल के कानूनों तथा कार्यपालिका के आदेशों की जांच कर सकते हैं और यदि ये कानून अथवा आदेश संविधान के विरुद्ध हो तो उनको अवैध घोषित कर सकते हैं।" संविधान देश का सर्वोपरि कानून है उसकी सुरक्षा करना सर्वोच्च न्यायालय का प्रमुख वैधानिक कर्तव्य है। यद्यपि भारतीय संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायलय को न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति प्रदान की गयी है परन्तु भारत में न्यायिक पुनर्निरीक्षण का क्षेत्र उतना व्यापक नहीं है। जितना संयुक्त राज्य अमेरिका में है। कुछ आलोचकों ने भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के इस न्यायिक पुनर्निरीक्षण के अधिकार की कई आधारों पर आलोचना की है वे आधार हैं कि यह लोकतन्त्र के सिद्धान्तों के विरुद्ध है इससे संसद अनुत्तरदायी संस्था बन जाती है। संवैधानिक सीमाओं का अतिक्रमण, व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के मध्य तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है आदि।

    इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय को संघीय व्यवस्था और मौलिक अधिकारों के रक्षक तथा भारतीय संघ के अन्तिम अपीलीय न्यायालय के रूप में बहुत अधिक व्यापक क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं। 

    सर्वोच्च न्यायालय या न्यायपालिका की स्वतन्त्रता

    भारतीय न्यायपालिका को कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के नियन्त्रण से मुक्त रखा गया है ताकि न्यायपालिका निष्पक्ष होकर नागरिकों को उचित न्याय प्रदान कर सके। न्यायपालिका को स्वतन्त्र और निष्पक्ष रखने के लिए भारतीय संविधान द्वारा निम्नलिखित व्यवस्था की गई हैं-

    न्यायाधीशों की नियुक्ति- संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार कार्यपालिका के प्रधान राष्ट्रपति को प्रदान किया गया है जो मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों से परामर्श प्राप्त करते हुए नये न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है।

    निश्चित एवं सुरक्षित कार्यकाल- सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष तथा राज्यों के उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश 62 वर्ष की आयु तक अपने पद पर कार्य कर सकते हैं। साधारणतया उन्हें उनके पदों से हटाया नहीं जा सकता, क्योंकि न्यायाधीशों को पदच्युत करने की संवैधानिक प्रक्रिया को व्यावहारिक रूप देना अत्यधिक कठिन होता है। इस प्रकार न्यायाधीशों का कार्यकाल निश्चित और सुरक्षित होने के कारण न्यायपालिका स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष रहती है।

    संसदीय नियन्त्रण से मुक्त और पर्याप्त वेतन-भत्ते- न्यायाधीशों को उनके पद तथा स्थिति को बनाये रखने के लिए पर्याप्त मात्रा में वेतन-भत्ते एवं अन्य सुविधाएँ दी जाती हैं। सेवा-निवृत्त होने पर उन्हें पर्याप्त पेन्शन और ग्रेच्युटी प्राप्त होती है। उनके वेतन भत्तों को भारत को संचित निधि से दिये जाने की व्यवस्था है। वित्तीय संकटकाल को छोड़कर अन्य किसी भी परिस्थिति में उनके सेवाकाल में संसद द्वारा उनके वेतन एवं भत्तों में कोई कटौती नहीं की जा सकती न्यायाधीशों को पर्याप्त वेतन एवं भत्ते देने से वे निष्पक्ष होकर बिना घूसखोरी के नागरिकों को उचित न्याय प्रदान कर सकेंगे, ऐसा विश्वास किया जाता है।

    अधीनस्थ कर्मचारियों पर नियन्त्रण- सर्वोच्च न्यायालय को अपने अधीनस्थ कर्मचारियों पर पूर्ण नियन्त्रण रखने की शक्ति प्राप्त है। सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश अपने अधीनस्थ कर्मचारियों की नियुक्ति हेतु सेवा शर्ते, पदोन्नति तथा पदच्युति करता है।

    कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण 

    भारतीय न्यायपालिका को कार्यपालिका के दबाव वा नियन्त्रण से मुक्त रखने के लिए संविधान द्वारा व्यवस्था की गई है। संविधान के अनुच्छेद 50 द्वारा राज्यों को निर्देशित किया गया है कि वे लोक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक रखने का प्रयास करें। इसलिए कुछ राज्यों में प्रशासनिक अधिकारियों से न्यायिक शक्तियाँ हटाकर उच्च न्यायालय के अधीन सेवारत न्यायिक अधिकारियों के अधीन कर दी गयी है। प्रशासनिक अधिकारियों के अधीन केवल प्रशासनिक शक्तियाँ ही रह गयी हैं। परिणामस्वरूप न्यायपालिका कार्यपालिका के प्रभाव से मुक्त रहकर कार्य कर सकती है।

    कार्यप्रणाली के नियमन हेतु नियम बनाने की शक्ति

    संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को अपनी कार्यप्रणाली निश्चित करने के लिए संसद द्वारा निर्मित विधि के अन्तर्गत नियम बनाने की शक्ति प्रदान की गई है। इन नियमों को राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित करना आवश्यक होता है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों एवं आदेशों का पालन भारत के समस्त राज्यों के न्यायालयों द्वारा किया जाता है। 

    उन्मुक्तियों की व्यवस्था 

    किसी भी व्यक्ति या संसद द्वारा न्यायाधीशों के पदेन कार्यों एवं निर्णय की सार्वजनिक आलोचना या चर्चा नहीं की जा सकती, केवल शैक्षणिक दृष्टि से ही उनके कार्यों एवं कर्तव्यों का आलोचनात्मक विश्लेषण किया जा सकता है। न्यायपालिका की प्रतिष्ठा व गौरव को बनाये रखने के लिए न्यायालय को मान-हानि करने वाले किसी भी व्यक्ति पर अभियोग चलाने की शक्ति न्यायपालिका को प्राप्त है।

    सेवा-निवृत्त न्यायाधीशों के वकालत करने पर प्रतिबन्ध 

    सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के गौरव और प्रतिष्ठा की रक्षा करने के लिए संविधान द्वारा स्पष्ट व्यवस्था की गयी है। सर्वोच्च न्यायालय कोई भी न्यायाधीश सेवा निवृत्त होने पर भारत राज्य क्षेत्र के किसी भी न्यायालय में अथवा किसी अन्य पदाधिकारी के समक्ष वकालत नहीं कर सकता और न यह किसी अन्य रूप में किसी न्यायालय में कोई ऐसा कार्य कर सकता है, जिससे न्यायालय व्यवस्था प्रभावित होती हो। उच्च न्यायालय के न्यायाधीश केवल उस राज्य में वकालत नहीं कर सकते, जिस राज्य में वे न्यायाधीश रहे हों, किसी अन्य राज्य के न्यायालय में वकालत करने की उन्हें पूरी स्वतन्त्रता है।

    इस प्रकार भारतीय न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को बनाये रखने के लिए जो व्यवस्थाएं की गई है, उनके अनुसार कार्यपालिका न्यायाधीशों को उनके पदों से न तो हटा सकती है और न उनके वेतन एवं भत्तों में ही कोई कमी कर सकती है परन्तु न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि कर सकती है जो न्यायपालिका की चहारदीवार में एक सूराख है लेकिन यह तो स्पष्ट है कि न्यायपालिका को कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के दबाव से पूर्णतया मुक्त रखा गया है, जिससे वह स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष रह सके।

    मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में वरिष्ठता का उल्लंघन 

    अप्रैल, 1973 में तीन न्यायाधीशों श्री शैलेट श्री हेगड़े और श्री ग्रोवर की वरिष्ठता का उल्लंघन करते हुए न्यायमूर्ति श्री ए. एन. रे. को मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्त किया गया था। ऐसी स्थिति में उक्त तीनों न्यायाधीशों ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था। 3 जनवरी, 1977 को पुनः सन् 1973 के ही ढंग पर न्यायमूर्ति एच. आर. खन्ना की वरिष्ठता का उल्लंघन करते हुए न्यायमूर्ति हमीदुल्ला बेग को मुख्य न्यायाधीश पद पर नियुक्त कर दिया गया था। इस नियुक्ति की भी व्यापक आलोचना हुई थी और न्यायमूर्ति खन्ना ने त्यागपत्र दे दिया था।

    सन् 1973 और 1977 में जिस प्रकार से मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्ति की गयी, उससे न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को आघात पहुंचा। इसके अतिरिक्त सन् 1977 में सत्तारूढ़ शासक वर्ग न्यायपालिका की स्वतन्त्रता और प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिए वचनबद्ध था। अतः मुख्य न्यायाधीश पद पर नयुक्ति के सम्बन्ध में वरिष्ठता के सिद्धान्त को पुनः स्वीकार करते हुए फरवरी, 1978 में वाई. वी. चन्द्रचूड को मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्त किया गया। उस समय से लेकर वर्तमान तक मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्ति वरिष्ठता के आधार पर ही की जा रही है। शासन का यह कार्य न्यायपालिका की स्वतन्त्रता तथा उसके सम्मान को बनाये रखने की दृष्टि से उचित है। विधि आयोग की 80वाँ रिपोर्ट में कहा गया है कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के सम्बन्ध में कुछ नियम निश्चित किये जाने चाहिए जिससे कि न्यायिक क्षेत्र की इन सर्वोच्च नियुक्तियों के सम्बन्ध में शासन द्वारा मनमाना आचरण न किया जा सके, और न्यायाधीश पद तथा पदधारी व्यक्ति विवाद के विषय न बनें। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता की रक्षा तथा लोकतन्त्र के सुचारु संचालन के लिए यह अति आवश्यक है।

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