SIMULATED TEACHING || यथार्थवत् शिक्षण क्या है ?

यथार्थवत् शिक्षण का अर्थ एवं परिभाषा

शिक्षक प्रशिक्षण को उपयोगी एवं प्रभावशाली बनाने के लिए अनेक विधियाँ विकसित की गयी है। इनमें ही एक Simulated Teaching या  यथार्थवत् शिक्षण है। इसे अनुरूपण अथवा अनुरूपित प्रशिक्षण पद्धति भी कहा जाता है। सर्वप्रथम कर्श (Kersh) ने ग्रामों में शिक्षण प्रशिक्षण के क्षेत्र में इसका प्रयोग किया।

       
    सन् 1966 में क्रकशैंक (Cruck Shank) ने अमेरिका में इसका प्रयोग शिक्षण अभ्यास को प्रभावशाली बनाने के लिए किया है। अनुकरण (Simulation) का वास्तविक अर्थ भूमिका निर्वाह (Role Play) करना है। वास्तव में इसका शाब्दिक अर्थ है- नकल करना। किसी दी हुई कृत्रिम परिस्थिति में बिल्कुल यथार्थ जैसा शिक्षण करना है यथार्थवत् शिक्षण (Simulation) कहलाता है। 

    शिक्षण में अनुरूपण का अर्थ अभिनयात्मक भी लिया जाता है। अभिनयात्मक विधि में छात्रों को केवल परिस्थिति का ज्ञान कराया जाता है, जिसके बाद वार्तालाप तथा चर्चा के माध्यम से विषय-वस्तु आगे बढाई जाती है। 

    अनुरूपण या अनुरूपित शिक्षण विधि का प्रयोग द्वितीय विश्व युद्ध से माना जाता है। युद्ध के लिये प्रशिक्षण देने के लिये वास्तविक युद्ध का प्रयोग सम्भव नहीं है। अतः युद्ध की विभिन्न व्यूह रचनाओं एवं तकनीकियों का प्रशिक्षण देने के लिये युद्ध जैसी कृत्रिम परिस्थितियों की रचना की जाती है और प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। इस प्रक्रिया में किसी क्रिया को ज्यों-का-त्यों कृत्रिम परिस्थितियों में प्रस्तुत किया जाता है। 

    आजकल इस शिक्षण विधि का प्रयोग व्यवसाय प्रबन्ध, प्रशासन, चिकित्सा, व्यवसाय तथा शिक्षण एवं प्रशिक्षण के क्षेत्र में काफी होने लगा है।

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    यथार्थवत् शिक्षण (Simulated Teaching)

    यथार्थवत् शिक्षण सीखने तथा प्रशिक्षण की वह प्रविधि है जो अभिनय के माध्यम से छात्राध्यापक के समस्या समाधान व्यवहार के लिए योग्यता का विकास करती है तथा उसे भलीभाँति पढ़ाने का प्रशिक्षण प्रदान करती है।

    यथार्थवत् शिक्षण में अभिनय (भूमिका निर्वाह) के द्वारा एक पूर्ण तथा विशिष्ट सम्प्रेषण कौशल के विकास के लिए कृत्रिम परिस्थितियों में शिक्षण किया जाता है। इसमें सीखने वाले के व्यवहार में कृत्रिम परिस्थितियों में क्रमबद्ध तथा संगठित अधिगम अनुभवों के द्वारा स्वाभाविकता बनाये रखते हुए वांछनीय परिवर्तन लाया जाता है।

    विंग (Wing) के अनुसार- "कृत्रिम या अनुरूपित स्थितियों का निर्माण उस समय किया जाता है जब छात्राध्यापकों को विशिष्ट अनुरूपित सामग्रियों का सामना कर उन्हें वांछित अनुक्रियायें करनी पड़ती है।" विंग महोदय, यथार्थवत् शिक्षण या अनुरूपण को वास्तविक परिस्थितियों का प्रतिनिधित्व करने वाला मानते हैं।

    क्रकशैंक (Cruick Shank) के शब्दों में- "अनुरूपण या यथार्थवत् शिक्षण ऐसी वास्तविक परिस्थितियों का कृत्रिम रूप से निर्माण करना है, जिनमें भाग लेने वालों को अपने वर्तमान अथवा भविष्य के कार्यों से सम्बन्धित समस्याओं के समाधान के अनुभव प्राप्त हो सकें।"

    ट्रैन्सी तथा अनविन के मतानुसार- "अनुरूपण किसी एक परिस्थिति या वातावरण का किसी अनुरूपण द्वारा प्रतिनिधित्व करता है। प्राय: यह प्रतिनिधित्व वास्तविक परिस्थितियों की तुलना में अपेक्षाकृत कम जटिल तथा कम समय लेने वाला होता है।" 

    अनुरूपित शिक्षण का तात्पर्य अनुरूपण के प्रशिक्षण में प्रयोग से है। "अनुरूपित शिक्षण एक शिक्षक प्रशिक्षण प्रविधि है, जिसका प्रयोग छात्राध्यापकों में शिक्षण कौशलों को विकसित करने के लिये किया जाता है। इस प्रविधि द्वारा छात्राध्यापकों को बनावटी परिस्थितियों में शिक्षण कौशलों का अभ्यास कराया जाता है।" 

    कुलश्रेष्ठ 1975- यथार्थवत् शिक्षण या अनुरूपण वास्तव में वह शिक्षण है जिसमें कुछ छात्राध्यापक किसी कक्षा विशेष के छात्रों की तरह अपनी भूमिका निर्वाह करते हैं. एक छात्राध्यापक, शिक्षक की भूमिका निभाता है, एक या दो छात्राध्यापक निरीक्षक (Supervisor) की भूमिका में रहते हैं और फिर वे एक कौशल विशेष में दक्षता प्राप्त करने के लिये इन कृत्रिम परिस्थितियों में शिक्षण का कार्य करते हैं।

    इस प्रकार से वे वास्तविक परिस्थिति में प्रभावशाली शिक्षण के लिये तैयार हो जाते हैं।

    यथार्थवत् शिक्षण के तत्त्व

    क्रकशैंक (Cruick Shank) के अनुसार- अनुरूपित शिक्षण के तीन प्रमुख तत्त्व होते है-

    यथार्थवत् शिक्षण के तत्त्व

    निदानात्मक तत्त्व

    जैसे एक डॉक्टर अपने रोगी की बीमारी के लक्षणों का निदान करता है, वैसे ही एक शिक्षक भी अपने छात्रों की कमजोरियों तथा अच्छाइयों का निदान कर उनकी सहायता करता है। शिक्षक इनका निदान कर कमजोरियों को दूर करने का प्रयास करता है तथा अच्छाइयों को भविष्य में भी बनाये रखने के लिये अपना पूरा जोर लगा देता है।

    उपचारात्मक तत्त्व

    छात्रों की कमजोरियों, कठिनाइयों तथा अच्छाइयों का निदान कर, अपनी योग्यता एवं कौशल के आधार पर छात्रों का उपचार करने का प्रयास करता है और छात्रों के व्यवहार परिवर्तन लाने के लिये प्रयत्नशील हो जाता है।

    मूल्यांकन तत्त्व

    उपचारात्मक कार्यों की उपलब्धि के मूल्यांकन करने के लिये शिक्षक जो क्रियाकलाप करता है, वे सभी मूल्यांकन की प्रक्रिया के अन्तर्गत आते हैं। मूल्यांकन यह बताता है कि शिक्षण के पूर्व निर्धारित उद्देश्य कितने कौन-कौन से तथा किस सीमा तक प्राप्त हुये है। तदानुसार सन्तुष्ट न होने पर पुनः निदान, उपचार तथा मूल्यांकन की प्रक्रिया की पुनरावृत्ति करता है।

    यथार्थवत् शिक्षण की विधि

    यथार्थवत् शिक्षण में प्रशिक्षण के समय तीन प्रमुख प्रकार की भूमिकायें निभानी पड़ती है। वे है- 

    (1) शिक्षक (2) छात्र तथा (3) निरीक्षक । 

    ये तीनों प्रकार की भूमिकायें बारी-बारी से छात्राध्यापक निभाते हैं। इस प्रक्रिया में सर्वप्रथम छात्राध्यापक शिक्षक की भूमिका निभाते हैं। इसके साथी छात्राध्यापक छात्रों की भूमिका निभाते हैं। छात्राध्यापक जो शिक्षक की भूमिका में होता है वह पाठ को पढ़ाता है। इसमें शिक्षण सत्र 6 से 15 मिनट का होता है। छात्रों की संख्या भी 5 से 15 तक होती है। इसमें एक या दो छात्राध्यापक साथी निरीक्षक या पर्यवेक्षक की तरह मूल्यांकन करते हैं। पाठ समाप्त होने पर शिक्षक के गुण-दोषों पर निरीक्षक/पर्यवेक्षक चर्चा करते हैं और छात्राध्यापक (शिक्षक) को शिक्षण में सुधार के लिए प्रेरित करते हैं।

    यथार्थवत् शिक्षण के सोपान

    सैद्धान्तिक ज्ञान प्रदान करना 

    सर्वप्रथम छात्राध्यापकों को यथार्थवत शिक्षण सम्बन्धी समस्त जानकारी प्रदान की जाती है। उन्हें यथार्थवत् शिक्षण का अर्थ तथा इसका सम्प्रत्यय स्पष्ट किया जाता है, इसके महत्त्व तथा उपयोग समझाये जाते हैं तथा कार्यविधि की व्याख्या की जाती है।

    छात्रों को शिक्षक, छात्र तथा प्रेक्षक (Supervisor) की भूमिका समझाई जाती है और ये भूमिका निर्वाह हेतु उचित प्रशिक्षण भी प्रदान किया जाता है।

    अतः इस सोपान के अन्तर्गत 3 प्रमुख कार्य है- 

    (1) छात्रों को यथार्थवत् शिक्षण सम्बन्धी जानकारी देना। 

    (2) भूमिका चयन इसमें किस भूमिका के अन्तर्गत क्या करना है, यह निर्णय लिया जाता है। साथ ही कितनी भूमिकायें होंगी, उन भूमिकाओं को कैसे निभाना है इस पर भी चर्चा की जाती है। 

    (3) भूमिका निर्वाह के लिए छात्राध्यापकों का चयन इसमें कौन छात्राध्यापक किसकी भूमिका निभायेगा. इस पर चर्चा की जाती है और शिक्षक, छात्र तथा निरीक्षक / पर्यवेक्षक का छात्राध्यापकों में से चयन किया जाता है।

    अभ्यास के लिये कौशलों का चयन करना

    इस सोपान के अन्तर्गत यह निश्चित किया जाता है कि कौन-कौन से शिक्षण कौशलों में प्रशिक्षण दिया जायेगा। शिक्षण कौशलों के चयन के समय उनके महत्व तथा उपादेयता पर ध्यान दिया जाता है। ऐसे कौशलों को चुनते हैं, जिनका प्रयोग स्कूल में पढ़ाये जाने वाले सभी विषयों के शिक्षण में सम्भव हो सके। चुने गये कौशलों की व्याख्या की जाती है, उन पर परिचर्चा तथा विचार-विमर्श किया जाता है। उनकी प्रकृति एवं प्रमुख तत्त्वों से परिचित कराया जाता है, फिर छात्राध्यापक चयनित शिक्षण कौशल पर आधारित पाठ योजना का निर्माण करता है।

    क्रम का निर्धारण 

    यथार्थवत् शिक्षण द्वारा किये जाने वाले चयनित कौशलों पर आधारित पाठ योजना निर्माण के पश्चात उनके अभ्यास का कार्यक्रम बनाया जाता है। कौन-से कौशल पहले लिये जायेंगे किन कौशलों को कब लिया जायेगा इसका एक क्रम (Sequence) निर्धारित किया जाता है। इस प्रकार इस सोपान में निर्धारित किया जाता है कि छात्राध्यापक किस क्रम में विभिन्न शिक्षण कौशलों का अभ्यास करेंगे और किस क्रम में वे कौन-सी भूमिका का निर्वाह करेंगे।

    निरीक्षण / प्रेक्षण विधि का निर्धारण 

    इसमें यह निर्धारित किया जाता है कि शिक्षण कौशलों के अभ्यास के लिये किस प्रकार की प्रेक्षण व्यवस्था रखी जायेगी। जैसे प्रेक्षण में श्रव्य सामग्री (Audio Cassett) का प्रयोग किया जायेगा अथवा श्रव्य-दृश्य सामग्री (Video) प्रयोग की जायेगी या शिक्षक निरीक्षण उपकरण का उपयोग करेगा।

    इस प्रकार से शिक्षण कौशल अभ्यास-प्रेक्षण हेतु कौन-से उपकरण तथा किन विधियों का प्रयोग किया जायेगा, इस बात का निर्णय किया जाता है। यहाँ पर यह भी निश्चित किया जाता है कि प्रेक्षण में किन-किन बातों का प्रेक्षण किया जायेगा तथा पृष्ठ पोषण देने के लिये कौन-सी प्रविधि अपनाई जायेगी।

    प्रथम अभ्यास सत्र

    समस्त व्यवस्था हो जाने पर प्रथम अभ्यास सत्र का आयोजन किया जाता है। अभ्यास सत्र के तुरन्त बाद पर्यवेक्षकों द्वारा पृष्ठ-पोषण दिया जाता है तथा आवश्यक सुधार हेतु सुझाव दिये जाते हैं। यह सत्र तब तक चलता रहता है जब तक सभी छात्राध्यापकों की बारी अभ्यास के लिये नहीं आ पाती।

    शिक्षण कौशलों में निपुणता प्रदान करना 

    प्रत्येक छात्राध्यापक तब तक शिक्षण कौशल का अभ्यास करता रहता है जब तक वह उस कौशल में पूर्ण निपुणता न प्राप्त कर ले। एक कौशल में निपुणता प्राप्त करने पर उसे दूसरे शिक्षण कौशल का अभ्यास कराया जाता है और इसमें भी निपुणता (Mastery) प्राप्त करने पर उसे तीसरा शिक्षण कौशल अभ्यास हेतु दिया जाता है। इस प्रकार यह क्रम चलता रहता है। यथार्थवत् शिक्षण या अनुरूपण के लिये प्रमुख सोपानों का विवरण ऊपर दिया गया है। इसमें आवश्यकता एवं सुविधाओं के अनुसार परिवर्तन किया जा सकता है।

    यथार्थवत् शिक्षण की विशेषतायें

    (1) इसमें छात्र कृत्रिम परिस्थिति में स्वाभाविक रूप से कार्य करते हैं। 

    (2) इसमें छात्रों को विभिन्न कौशलों पर निपुणता (Mastery) प्राप्त करने का अवसर प्राप्त होता है।

    (3) छात्रों को पूर्व अभ्यास के लिए अनेक अवसर प्राप्त होते हैं।

    (4) छात्र जो छात्राध्यापक की भूमिका करते हैं, उन्हें पाठ के तुरन्त बाद अनुशीलन (पृष्ठ पोषण) की प्राप्ति होती है।

    (5) यह विधि सरल, सुगम तथा अत्यन्त उपयोगी हैं। 

    (6) इस विधि के प्रयोग से छात्राध्यापकों में आत्मविश्वास जाग्रत होता है

    (7) छात्राध्यापकों को बिना स्कूल में शिक्षण के स्कूल की भाँति ही (यथार्थवत्) शिक्षण के अवसर प्राप्त होते हैं, जिससे उनके अनुभवों में वृद्धि होती है तथा शिक्षण में रुचि बढ़ती है। 

    (8) स्कूल न मिलने की समस्या का भी समाधान होता है क्योंकि, इस विधि में शिक्षण अभ्यास कृत्रिम वातावरण में यथार्थवत् शिक्षण विधि द्वारा किया जाता है। 

    (9) यथार्थवत् शिक्षण में शिक्षण अभ्यास क्योंकि स्कूल में नहीं किया जाता। अतः स्कूल के छात्रों की पढ़ाई का किसी प्रकार का भी नुकसान नहीं होता।

    (10) वास्तविक शिक्षण में (स्कूलों में) छात्राध्यापकों को बहुत-सी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। यथार्थवत् शिक्षण में वास्तविक परिस्थितियों की तुलना में बहुत कम दिक्कतें सामने आती है। 

    (11) यथार्थवत् शिक्षण में छात्राध्यापकों को विभिन्न शिक्षण कौशलों पर पूर्ण अधिकार (निपुणता ) प्राप्त हो जाता है, फलस्वरूप उनके लिये शिक्षण में पूर्ण कुशलता प्राप्त करना अपेक्षाकृत सरल एवं सहज हो जाता है।

    (12) पाठ्य-वस्तु को क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत करने की योग्यता विकसित होती है। 

    (13) इस विधि में रुचि, प्रेरणा तथा उत्साह आदि का आधिक्य होता है।

    (14) यथार्थवत् शिक्षण से छात्राध्यापक कक्षा में व्यवहार के सही तरीके सीख जाता है।

    यथार्थवत् शिक्षण की सीमायें

    (1) यथार्थवत् प्रशिक्षण के प्रारम्भ में तथा समापन के समय छात्राध्यापकों को कुछ कठिनाइयों आती है.,फलस्वरूप कभी-कभी वे निरुत्साहित हो सकते हैं। 

    (2) कई बार निरीक्षक / पर्यवेक्षक की भूमिका निभाने वाले छात्राध्यापक अनुभव के अभाव में सही प्रकार से भूमिका निर्वाह नहीं कर पाते।

    (3) कभी-कभी छात्राध्यापक मूल्यांकन का गलत अंकन कर बैठता है, जिससे परस्पर गलत- फहमियों बढ़ सकती है। 

    (4) छात्रों की भूमिका निभाने वाले छात्राध्यापक कई बार भलीभांति बालकों की भूमिका निभाने में कठिनाई अनुभव करते है, जिससे कक्षा, वास्तविक कक्षा के रूप में कार्य नहीं कर पाती। 

    (5) कई बार छात्राध्यापक पूरी तरह से निर्देशों का पालन नहीं कर पाते अथवा यथार्थवत् शिक्षण के मुख्य तत्त्वों को नहीं समझ पाते तब आदर्श परिस्थिति पैदा करना मुश्किल हो जाता है।

    स्टोन (Stone) ने यथार्थवत् शिक्षण के महत्त्व का विवेचन निम्न प्रकार से किया है- 

    यथार्थवत् शिक्षण प्रविधि - कृत्रिम अवस्था में अक्सर छात्राध्यापकों को एक ही कमरे में सीखने, स्वयं शिक्षण का अभ्यास करने और उन्हें कक्षा शिक्षण के कौशलों में निपुणता देने के लिए इकट्ठा करती है। अनुकरणीय शिक्षण बनावटी परिस्थितियों में अध्यापक द्वारा शिक्षण के लिए प्रशिक्षण है. शिक्षकों के पहले सोपानों को आसान बनाकर उन्हें वास्तविक परिस्थिति पर बल दिये बिना जटिल कौशल के सीखने के योग्य बनाता है। विद्यार्थी को केवल यह बताना उचित समझा जाता है कि कक्षा का शिक्षण तथा नियन्त्रण कैसे किया जाये, ठीक उसी तरह जैसे एक विमान चालक को नकली (Dummy) नियन्त्रण का अभ्यास कराया जाता है न कि जब वह हवा में उड़ रहा होता है तब उसे बताया जाये कि उसे कैसे क्या करना चाहिए।


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