संचय का अर्थ :
लाभ का वह भाग जिसे अंशधारियों में वितरित नहीं किया गया है तथा संस्था की आर्थिक स्थिति को मजबूत करने तथा कार्यशील पूँजी को बढ़ाने के उद्देश्य से संस्था में रोक कर रखा गया है, संचय है। इसका आयोजन किसी अधिनियम के तहत अनिवार्य नहीं है वरन् यह पूर्णतया ऐच्छिक है।
संचय की परिभाषा :
संचय की परिभाषा कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 123 के अन्तर्गत निम्न प्रकार दी गयी है- "संचय के अन्तर्गत वह राशि सम्मिलित नहीं होती है जो काटी गयी हो या सम्पत्तियों के ह्रास, नवीनीकरण या मूल्य में कमी के लिये रोकी गयी हो या किसी ज्ञात दायित्व के लिए आयोजन की गयी हो।"
The Institutes of Chartered Accountants of England and Wales के अनुसार, "संचय शब्द का प्रयोग उस धनराशि को व्यक्त करने के लिए किया जाना चाहिए जिसे लाभ या अन्य अतिरेकों में से अलग कर लिया गया हो तथा जो आर्थिक चिट्ठे की तिथि पर किसी विद्यमान दायित्व, सम्भाव्यता, वायदा या सम्पत्ति के मूल्य में कमी को पूरा करने के लिए न रखा गया हो। "
संचय की विशेषताएँ
(i) यह सामान्य उद्देश्य के लिए बनाया जाता है।
(ii) यह व्यय अथवा हानि के रूप में नहीं होता है।
(iii) इसका सृजन भूत या वर्तमान लाभों में से ही किया जाता है।
(iv) यह लाभों का नियोजन (Appropriation) होता है।
(v) इसका प्रयोग संकटकालीन परिस्थिति में लाभांश के वितरण में भी किया जा सकता है।
(vi) इससे व्यवसाय को आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती है, साथ ही कार्यशील पूंजी भी बढ़ती है।
(vii) इसका निर्माण वैधानिकतः अनिवार्य नहीं है।
(viii) संचय विभिन्न प्रकार के होते हैं।
आयोजन एवं संचय में अन्तर
आयोजन एवं संचय में निम्नलिखित अन्तर है-
आयोजन एवं संचय में अन्तर
क्र.सं. |
अंतर का आधार |
आयोजन |
संचय |
1. |
उद्देश्य |
इसका उद्देश्य ज्ञात हानि व ह्रास की व्यवस्था करना
है। |
इसका उद्देश्य कार्यशील पूंजी में वृद्धि करना एवं
अज्ञात हानि के लिए प्रावधान करना है। |
2. |
अनिवार्यता |
इसका निर्माण प्रतिवर्ष किया जाता है, चाहे लाभ
हो या हानि। |
यह केवल लाभार्जन की स्थिति में ही बनाया जाता है। |
3. |
प्रदर्शन |
इस चिट्ठे में सम्बंधित संपत्ति से घटाकर प्रदर्शित
किया जाता है। |
इसे चिट्ठे के दायित्व पक्ष में दिखाया जाता है। |
4. |
लाभांश |
इसका प्रयोग लाभांश वितरण में नही किया जा सकता। |
इसका प्रयोग लाभांश वितरण में भी किया जा सकता है। |
5. |
प्रयोग |
इसका प्रयोग सिर्फ उसी हानि के लिए किया जा सकता है
जिसके लिए बनाया गया है। |
इसका प्रयोग किसी भी हानि की पूर्ति करने में किया
जा सकता है किन्तु पूंजी संचय एवं विशेष संचय को छोड़कर। |
6. |
प्रकृति |
यह लाभों में से घटाया जाता है। |
यह लाभों का विनियोग है। |
7. |
निश्चितता |
दायित्व निश्चित होने के कारण इसकी राशि निश्चित
होती है। |
इसकी राशि अनिश्चित होती है, यह संस्था
की नीति पर निर्भर करता है। |
8. |
हस्तक्षेप |
इसकी राशि के सम्बन्ध में अंकेक्षक का हस्तक्षेप
होता है। |
इसकी राशि के सम्बन्ध में अंकेक्षक हस्तक्षेप नही
कर सकता। |
संचय के प्रकार :
I. साधारण संचय / सामान्य संचय (General Reserve),
II. विशेष संचय (Special Reserve),
III. पूँजी संचय (Capital Reserve),
IV. संचय कोष (Reserve Fund),
V. शोधन कोष (Sinking Fund),
VI. गुप्त संचय (Secret Reserve)।
(I) सामान्य संचय :
ऐसा संचय जिसका निर्माण किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति हेतु नहीं किया जाता है, सामान्य संचय कहा जाता है।
उद्देश्य :
(i) इसका उद्देश्य संस्था को वित्तीय स्थिति को मजबूत करना होता है।
(ii) इसका उद्देश्य संस्था की ख्याति को बढ़ाना होता है
(iii) संस्था की कार्यशील पूंजी की व्यवस्था करना।
(iv) आकस्मिक हानि की पूर्ति करना तथा विपरीत परिस्थितियों का सामना करना ।
(v) लाभांश की दर को स्थायित्व प्रदान करना, खासकर जब संस्था में लाभ की मात्रा घट गयी हो।
(vi) संस्था में अत्यधिक लाभ होने पर लाभ को छिपाने के उद्देश्य से संचय किया जाना ।
सामान्य संचय और अंकेक्षक - सामान्य संचय का निर्माण संस्था का निजी मामला होता है तथा यह व्यवसाय के प्रबन्धकों की नीति पर निर्भर करता है। इसके सम्बन्ध में अंकेक्षक न तो सिफारिश कर सकता है और न प्रतिबन्ध ही लगा सकता है किन्तु यदि सामान्य संचय संस्था के द्वारा बनाया गया है तो उसे यह अवश्य देखना चाहिए कि यह लाभ में से बनाया गया है या नहीं तथा इसे जिले में किस प्रकार दिखाया गया है। इसके सम्बन्ध में अंकेक्षक को निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए-
(i) कम्पनी के अन्तर्नियमों का अध्ययन कर यह देखना कि सामान्य संचय के सम्बन्ध में क्या निगम बनाये गये हैं
(ii) यदि संचय को कोई दर निर्धारित कर दी गयी हो तो अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि संस्था द्वारा इसका पालन किया जा रहा है या नहीं।
(iii) अंकेक्षक को सम्पत्तियों के मूल्यांकन, हास तथा अप्राप्य ऋणों के लिए किये गये प्रावधान के ऊपर भी ध्यान रखना चाहिए। सामान्य संचय शुद्ध सम्पत्ति का प्रतिनिधित्व करता है
अर्थात् Assets- Liabilities = Net Assets.
(iv) असन्तुष्ट होने पर असन्तुष्ट होने के कारणों का अपना प्रतिवेदन में जिक्र करना।
(II) विशेष संचय :
विशेष संचय का आशय उस संचय से है जो विशेष उद्देश्य से बनाया गया हो; जैसे-
(i) अदत्त व्ययों के भुगतान के लिए संचय,
(ii) सम्पत्तियों के हास, मरम्मत तथा नवीनीकरण के लिए संचय,
(iii) अप्राप्य एवं संदिग्ध ऋणों तथा कटौती के लिए संचय । सरल शब्दों में, विशेष संचय अनिवार्य रूप से बनाया जाता है, चाहे संस्था में लाभ हुआ हो या नहीं।
अंकेक्षक और विशेष संचय- इसके सम्बन्ध में अंकेक्षक को विशेष ध्यान देना चाहिए। अंकेक्षक को देखना चाहिए कि जिस उद्देश्य से संचय बनाया गया है, उसके लिए यह पर्याप्त है या नहीं। विशेष संचय की राशि क्या होगी ? यह संस्था की नीति तथा स्वभाव पर निर्भर करता है।
साधारण संचय तथा विशेष संचय में अन्तर
क्र.सं. |
अंतर का आधार |
सामान्य संचय |
विशेष संचय |
1. |
उद्देश्य |
यह सामान्य उद्देश्य से बनाया जाता है। |
यह विशेष उद्देश्य से बनाया जाता है। |
2. |
लाभ पर निर्भरता |
यह लाभ होने की स्थिति में बनाया जाता है हानि में
नहीं। |
यह अनिवार्य रूप से बनाया जाता है चाहे हानि हो या
लाभ। |
3. |
चिट्ठे में प्रदर्शन |
यह चिट्ठे के दायीतव पक्ष में अलग से दिखाया जाता
है। |
यह चिट्ठे के संपत्ति पक्ष में सम्बंधित मद से
समायोजित कर दिखाया जाता है। |
4. |
निर्माण |
इसका निर्माण कार्यशील पूंजी को बढ़ाने के ख्याल से
किया जाता है। |
यह किसी विशेष संभाब्य हानि की पूर्ति के ख्याल से
बनाया जाता है। |
5. |
बंटवारा |
यह पुराने लाभ की तरह बांटा जा सकता है। |
यह पुराने लाभ की तरह कभी भी नहीं बांटा जाता है। |
|
|
(III) पूँजी संचय :
पूंजी संचय का आशय उस संचय से है जो केवल पूँजीगत लाभों से ही बनाये जा सकते हैं, जैसे-
(i) अंशों पर प्रीमियम,
(ii) कम्पनी क्रय करने पर अर्जित लाभ,
(iii) ऋणपत्रों के परिवर्तन या शोधन पर लाभ,
(iv) अंशों के हरण पर लाभ,
(v) कम्पनी बनाने के पूर्व अर्जित लाभ ।
उपरोक्त मदों के आधार पर पूँजी संचय बनाया जा सकता है।
पूँजी संचय और अंकेक्षक- अंकेक्षक को निम्नलिखित बातों ध्यान देना चाहिए
(i) अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि पूंजी संचय का निर्माण पूँजीगत लाभ से ही किया गया है।
(ii) पूँजी संचय का प्रयोग केवल पूँजीगत हानियों के अपलेखन में किया गया है या नहीं।
(iii) पूँजी संचय का सही-सही लेखा किया गया है या नहीं। संचय कोष।
(IV) संचय कोष :
ऐसा कोष जिसके विनियोग से प्राप्त राशि का प्रयोग किसी भी उचित उद्देश्य के लिए किया जा सकता है। संचय कोष कहलाता है। ऐसे विनियोग किसी पूर्व निर्धारित उद्देश्य से नहीं किये जाते, अतः ये शीघ्र भुनाये जाने वाले होने चाहिए, ताकि इसे आकस्मिक स्थिति में शीघ्र भुनाकर प्राप्त रकम का प्रयोग किया जा सके। इसे विनियोग करने पर संचय कोष विनियोग खाता खोला जाता है जिसके लिए विनियोग खाता को नाम तथा रोकड़ खाता को जमा किया जाता है।
संचय कोष एवं अंकेक्षक :
अंकेक्षक को इसके सम्बन्ध में यह देखना चाहिए कि इस कोष का प्रदर्शन आर्थिक चिट्ठा में सही मूल्य पर किया गया है या नहीं। इसके अलावा उसे कम्पनी के अन्तर्नियमों का भी अध्ययन करना चाहिए तथा देखना चाहिए कि इसकी गणना पूर्व निर्धारित दर से की गयी है या नहीं, यदि दर निर्धारित हो ।
(v) शोधन कोष :
ऐसा कोष जो किसी विशेष उद्देश्य से बनाया जाता है, शोधन कोष कहलाता है। उदाहरणतः, किसी निश्चित समय के बाद किसी दायित्व को पूरा करने या किसी सम्पत्ति को प्रतिस्थापित करने के उद्देश्य से बनाये गये कोष। शोधन कोष पर मिलने वाला ब्याज जब उसी खाते में इकट्ठा होता जाता है तो इसे संचयी शोधन कोष (Cumulative Sinking Fund) कहते हैं। दूसरी ओर, इस कोष पर ब्याज यदि विनियोगकर्ता को भुगतान कर दिया जाता है तो इसे असंचयी शोधन कोष कहते हैं।
उद्देश्य :
(i) किसी ऋण या ऋणपत्र का भुगतान करना,
(ii) किसी क्षयी सम्पत्ति (खान) का प्रतिस्थापन करना,
(iii) किसी स्थायी सम्पत्ति (प्लाण्ट) का प्रतिस्थापन करना.
(iv) पट्टे का नवीनीकरण करना। शोधन कोष को किसी प्रतिभूति वगैरह में विनियोग किया जाता है। जब पैसे (रुपये) की आवश्यकता होती है तो विनियोग को बेच दिया जाता है तथा उद्देश्य को पूर्ति की जाती है। यदि उद्देश्य की पूर्ति (दायित्वों का भुगतान) के बाद भी कोष में रकम बची रहती है तो इसे सामान्य संचय खाते में हस्तान्तरित कर दिया जाता है। विनियोग को बेचने पर हानि होने पर शोधन कोष को नाम तथा विनियोग खाता को जमा किया जाता है। इसके विपरीत, लाभ होने पर विनियोग खाता को नाम तथा कोष खाता को जमा किया जाता है।
शोधन कोष एवं अंकेक्षक :
(i) अंकेक्षक को देखना चाहिए कि शोधन कोष की राशि उद्देश्य की पूर्ति हेतु पर्याप्त है या नहीं।
(ii) शोधन कोष खाता तैयार करने में लेखांकन सिद्धान्तों को ध्यान में रखा गया है या नहीं।
(iii) इस कोष के निर्माण में नियमों का पालन किया गया है या नहीं। (iv) इस कोष को चिट्ठे के दायित्व पक्ष में अलग से दिखाया गया है या नहीं।
(VI) गुप्त संचय
गुप्त संचय का आशय ऐसे संचय से है जो संस्था में विद्यमान होते हुए भी प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक चिट्ठा से स्पष्ट नहीं होता। ऐसे संचय की जानकारी केवल उन्हीं को होती है जो इसका निर्माण करते हैं। वास्तव में, गुप्त संचय की स्थिति में व्यवसाय की सम्पत्तियों को वास्तविक मूल्य से कम मूल्य पर तथा दायित्वों को वास्तविक मूल्य से अधिक मूल्य पर दिखाया जाता है।
गुप्त संचय की परिभाषा विभिन्न विद्वानों ने निम्नलिखित दी है-
1. आर. जी. विलियम्स के शब्दों में, "गुप्त संचयों को 'छिपा हुआ कोष' अथवा आन्तरिक कोष भी कहते है।
2. डी पौला के अनुसार, "गुप्त संचय वह है जिसे चिट्ठे में नहीं दर्शाया जाता है जिसके फलस्वरूप चिट्ठे में जो आर्थिक स्थिति दर्शायी जाती है, वह वास्तविक स्थिति की अपेक्षा कहीं अधिक होती है।
3. स्पाइसा एण्ड पैगवर के अनुसार, "गुप्त संचय से आशय ऐसे संचय से है जो कि अपनी विद्यमानता का प्रकट तो करता है लेकिन आर्थिक चिट्ठा में उसका अस्तित्व दर्शाया हुआ नहीं होता है।"
गुप्त संचय के उद्देश्य :
गुप्त संचय के निम्न उद्देश्य है-
(i) प्रतिद्वन्द्रियों को वास्तविक लाभ की जानकारी नहीं देना।
(ii) लाभ तथा लाभांश में एकरूपता बनाये रखने के उद्देश्य से।
(iii) कार्यशील पूंजी में वृद्धि करने के उद्देश्य से।
(iv) प्रबन्धकों व संचालकों की कमजोरियों को छिपाने के उद्देश्य से।
(v) संस्था की आन्तरिक स्थिति को सुदृढ़ बनाने के उद्देश्य से ।
(vi) विशेष हानियों को पुस्तकों में दिखलाये बिना ही पूरा करने के लिए।
गुप्त संचय निर्माण करने की विधियाँ :
गुप्त संचय निर्माण करने की मुख्य विधियों निम्नांकित है-
1. पूँजीगत खर्ची को आयगत मानना- पूँजीगत खर्चों को आयगत व्यय मानकर गुप्त संचय का सृजन किया जा सकता है। उदाहरणत:, 5,000 रु. का उपस्कर (Furniture) क्रय किया गया और जिसे उपस्कर खाते के डेबिट में न लिखकर कार्यालय व्ययों के खाते के डेबिट में लिखकर लाभ-हानि विवरण से अपलिखित कर दिया। इससे लाभ एवं सम्पत्ति दोनों पाँच-पाँच हजार से कम हो गये तथा उक्त राशि के बराबर गुप्त संचय का सृजन हो गया।
2. अर्जित आयों का समायोजन न करना - अर्जित आयो का समायोजन नहीं कर भी गुप्त संचय का सृजन किया जा सकता है। उदाहरणतः मान लिया 500 रु. के अर्जित ब्याज का लेखा न तो लाभ-हानि विवरण के जमा पक्ष में किया गया और न चिट्ठा के सम्पत्ति पक्ष में। चूंकि अर्जित आय से लाभ बढ़ जाता, जबकि उसे लाभ-हानि विवरण के जमा पक्ष में दिखाया ही नहीं गया। परिणामत: 500 रु. से लाभ घट गया और घटा हुआ लाभ चिट्ठा के दायित्व पक्ष में दिखाया गया। साथ ही, सम्पत्ति पक्ष में अर्जित आय नहीं दिखाये जाने के कारण उस पक्ष का योग भी उक्त राशि से घट गया और गुप्त संचय का सृजन हो गया।
3. पूर्वदत व्ययों का समायोजन न करना- पूर्वदत्त व्ययों का समायोजन नहीं कर भी गुप्त संचय का सृजन किया जा सकता है। जैसे- 5,000 रु. वेतन का भुगतान किया गया जिसमें से 500 रु. अगले वर्ष से सम्बन्धित हैं। यह 500 रु. पूर्वदत्त वेतन है। यदि लाभ-हानि खाते के डेबिट में वेतन 5,000 रु. दिखाया जाता है तो 500 रु. से लाभ घट जायेगा, साथ ही इसे सम्पत्ति पक्ष में नहीं दिखाने से चिट्ठा के दोनों पक्ष के योग पाँच-पाँच सौ रुपये से कम होंगे और गुप्त संचय का सृजन होगा।
4. दायित्वों का अधिमूल्यन करना - दायित्वों का अधिमूल्यन कर अथवा संदिग्ध दायित्वों को वास्तविक दायित्व के रूप में दिखाकर भी गुप्त संचय का सृजन किया जा सकता है। उदाहरणतः संदिग्ध दायित्व को वास्तविक दायित्व मान लेने से दायित्व में वृद्धि होगी और लाभ में कमी होगी क्योंकि संदिग्ध दायित्व को वास्तविक दायित्व मानने से उत्पन्न हानि को लाभ-दानि विवरण के नाम पक्ष में हस्तान्तरित करना होगा। परिणामतः चिट्ठा का योग अप्रभावित रहेगा और गुप्त संचय का सृजन होगा। इसी प्रकार, साधारण संचय को लेनदारों में जोड़कर दिखाने से संचय की राशि के बराबर गुप्त संचय होगा और संचय लुप्त हो जायेगा।
5. सम्पत्तियों का अवमूल्यन करना- सम्पत्तियों का अवमूल्यन कर भी गुप्त संचय का सृजन किया जाता है। उदाहरण के लिए, संस्था में स्थायी सम्पत्ति 20,000 रु. है तथा उस पर सामान्य ह्रास को दर 10% है, किन्तु गुप्त संचय के उद्देश्य से उस पर 20% की दर से हास चार्ज किया जाता है।
अर्थात् 20,000 रु. का 10% अतिरिक्त हास किया जाता है जिसे लाभ-हानि विवरण के डेबिट में दिखाया जाता है जिससे लाभ में 2,000 रु. की कमी होती है, साथ ही चिट्ठा में सम्पत्ति में से 2,000 रु. की जगह पर 4,000 रु. घटाया जाता है। इस प्रकार 2,000 रु. का गुप्त संचय सृजित हो जाता है। इस विधि से गुप्त संचय निर्माण करने . के और भी तरीके हैं, जैसे-
(i) ख्याति को कम दिखाया जाना या समाप्त करना ।
(ii) अन्तिम स्टॉक का कम मूल्य दिखाना।
(iii) कुछ माल को स्टॉक की सूची में शामिल न करना।
विविध :
(i) सम्पत्तियों पर होने वाली स्थायी वृद्धि का लेखा न करना,
(ii) अदत्त व्यय के लिए आवश्यकता से अधिक आयोजन करना,
(iii) अप्राप्य तथा संदिग्ध ऋणों के लिए अधिक आयोजन करना,
(iv) चालू वर्ष की बिक्री किसी अन्य वर्ष में दिखाना,
(v) अग्रिम वर्ष के क्रय को चालू वर्ष का क्रय मान लेना आदि।
गुप्त संचय के लाभ :
गुप्त संचय के निम्न लाभ हैं-
1. कार्यशील पूंजी में वृद्धि- चूंकि गुप्त संचय का विनियोग कार्यशील पूंजी में किया जाता है, परिणामतः कार्यशील पूंजी में वृद्धि होती है।
2. सदर आर्थिक स्थिति - गुप्त संचय के माध्यम से लाभों को छिपाया जाता है जिससे संस्था की आन्तरिक आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती है।
3. प्रतियोगिता का कम भय- प्रतियोगियों को संस्था के वास्तविक लाभ की जानकारी नहीं हो पाती है जिससे उन्हें अतिरिक्त लाभ का आकर्षण संस्था में दिखाई नहीं पड़ता है। फलतः वे प्रतियोगी के रूप में आना लाभप्रद सौदा नहीं समझते हैं।
4. हानियों को छिपाना सम्भव- यदि प्रबन्धहीनता के कारण संस्था में हानि होती है तो इसे गुप्त संचय के द्वारा समाप्त किया जा सकता है जिससे संस्था की ख्याति धूमिल होने से बच जाती है।
5. जनता में विश्वास - गुप्त संचय के माध्यम से लाभांश की दर को स्थिर बनाये रखा जा सकता है जिससे संस्था में जनता का विश्वास बढ़ता है।
6. आर्थिक संकटों का मुकाबला - व्यवसाय में आर्थिक संकट आते ही रहते हैं। गुप्त संचय को सहायता से इस संकट को आसानी से झेला जा सकता है।
गुप्त संचय के दोष :
गुप्त संचय के निम्न दोष है-
1. लाभ-हानि विवरण के सही प्रदर्शन का अभाव- गुप्त संचय का निर्माण करने हेतु पूँजीगत व्ययों को आयगत व्यय मान लिया जाता है जिसमें लाभ-हानि विवरण सही चित्र प्रस्तुत नहीं कर पाता है।
2. सम्पत्तियों का गबन- गुप्त संचय बनाने के ख्याल से कभी-कभी कुछ सम्पत्तियों को चिट्ठे में नहीं दिखाया जाता है। ऐसी सम्पत्तियों का गबन आसानी से किया जा सकता है। व्यावहारिकतः ऐसा होता भी है।
3 चिट्ठा के सही प्रदर्शन का अभाव- गुप्त संचय बनाने के उद्देश्य से या तो कुछ सम्पत्तियों को चिट्ठे में दिखावा नहीं जाता है या कम मूल्य पर दिखाया जाना है । इसी प्रकार दायित्वों को अधिक मूल्य पर दिखाया जाता है। अतः चिट्ठा व्यवसाय की सही स्थिति को प्रदर्शित नहीं करता है
4. गुप्त संचय के निजी प्रयोग की सम्भावना- यदि संचालक ईमानदार नहीं हो तो गुप्त संचय का प्रयोग निजी प्रयोग में लाने की सम्भावना बढ़ जाती है।
5. अयोग्य प्रबन्ध का छिपाया जाना- यदि प्रबन्धकों को अयोग्यता या कमी के कारण व्यवसाय में हानि होती है तो गुप्त संचय के माध्यम से उस हानि को छिपाया जा सकता है। ऐसी स्थिति में संस्था की हानि नहीं छिपती है बल्कि प्रबन्धकों की अकुशलता छिपायी जाती है जो कि संस्था के हित में कदापि नहीं हो सकता।
6. अंशों के बाजार मूल्य में कमी- गुप्त संचय से लाभ की मात्रा घट जाती है, फलतः लाभांश दर भी गिरती है। इससे जहाँ संस्था की ख्याति धूमिल होती है, वहाँ अंशों का बाजार मूल्य गिरने लगता है। यदि प्रबन्धकों का इरादा गलत हो तो वे अंशों को स्वयं क्रय करना प्रारम्भ कर देते हैं क्योंकि अंशों का बाजार मूल्य गिरने से इन्हें आम जनता नहीं खरीदना चाहती है। अन्ततः इस नीति से अंशधारियों के हित को धक्का पहुँचता है।
7. बीमा कम्पनियों से दावा प्राप्त करने में हानि- गुप्त संचय की नीति के कारण चिट्ठे में सम्पत्तियों कम मूल्य पर दिखायी जाती हैं जिससे अग्नि बीमा व अन्य बीमा की राशि भी कम प्राप्त होती है जो कि संस्था के लिए हानि होती है।
8. व्यवसाय की साख गिरना- सही लाभ को नहीं दर्शाने से लाभांश की दर गिरती है जिससे व्यवसाय की साख भी गिरती है। इसका प्रभाव यह होता है कि जनता में विनियोग के प्रति उदासीनता छाने लगती है।
भारतीय कम्पनी अधिनियम, 2013 एवं गुप्त संचय
भारतीय कम्पनी अधिनियम, 2013 के पूर्व व्यवसाय (कम्पनी) के संचालकगण अपनी कम्पनी में काफी मात्रा में गुप्त संचय का निर्माण करते थे तथा इसका मनमाने ढंग से दुरुपयोग भी करते थे, परिणामतः कम्पनी के आर्थिक चिट्ठे व लाभ-हानि खाते संस्था की सही स्थिति प्रदर्शित नहीं करते थे। वर्तमान में कम्पनी अधिनियम, 2013 के अन्तर्गत गुप्त संचय का निर्माण अवैध घोषित कर दिया गया है तथा इसे नियन्त्रित करने हेतु विधान में निम्नांकित व्यवस्थाएं की गयी हैं-
(i) इस अधिनियम के अन्तर्गत अब सभी प्रकार के आयोजनों एवं संचयों को अन्तिम खातों में दिखाना अनिवार्य कर दिया गया है।
(ii) लाभ-हानि खाता में चिट्ठा के सही प्रदर्शन हेतु सम्पत्तियों व दायित्वों का मूल्यांकन अनिवार्य कर दिया गया है अर्थात् गुप्त संचय का निर्माण अवैधानिक कर दिया गया है।
गुप्त संचय का औचित्य
विशेष कम्पनियों के लिए
गुप्त संचय के सम्बन्ध में उपरोक्त नियम। बैंक, बीमा एवं बिजली कम्पनियों पर लागू नहीं होता है क्योंकि इनका विधान अलग है। इनमें हानियों को गुप्त संचय के द्वारा ही समायोजित (Adjusted) किया जाता है। ऐसी कम्पनियाँ जनता के विश्वास पर चलती हैं, अतः गुप्त संचय द्वारा हानियों को छिपाना आवश्यक होता है। हाँ, यदि केन्द्रीय सरकार चाहे तो किसी भी कम्पनी को गुप्त संचय के निर्माण की अनुमति दे सकती है।
सभी कम्पनियों के लिए
ख्याति के अपलिखित (Written off) करने के उद्देश्य से कम्पनी गुप्त संचय का निर्माण कर सकती है। ऐसी स्थिति में यह अवैधानिक नहीं माना जायेगा। इसके अलावा यदि सम्पत्तियों का बाजार मूल्य पुस्तकीय मूल्य से अधिक हो जाता है तो बढ़े हुए मूल्य से स्वतः ही गुप्त संचय का निर्माण होता है जिसे वैध माना गया है।
गुप्त संचय और अंकेक्षक
विशिष्ट कम्पनियों के लिए
विशिष्ट कम्पनियों के अन्तर्गत बैंक, बीमा तथा बिजली कम्पनियाँ आती हैं। इन कम्पनियों के सन्दर्भ में गुप्त संचय का निर्माण वैधानिकतः उचित माना गया है। अतः इनके सम्बन्ध में अंकेक्षक को निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए-
(i) गुप्त संचय को जाँच- अंकेक्षक को देखना चाहिए कि इनके सम्बन्ध में गुप्त संचय की पर्याप्तता एवं उपयुक्तता की क्या स्थिति है।
(ii) अन्तर्नियमों की जाँच- अंकेक्षक को अन्तर्नियम का अध्ययन करके यह पता लगाना चाहिए कि क्या गुप्त संचय के निर्माण हेतु कोई नियम बनाया गया है। यदि हो, तो किस सीमा तक उसका पालन किया गया है तथा गुप्त संचय के सम्बन्ध में संचालकों के अधिकारों की जांच करनी चाहिए।
(iii) गुप्त संचय के प्रयोग की जाँच- अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि गुप्त संचय का संचालकों द्वारा दुरुपयोग तो नहीं किया गया है। गुप्त संचय का प्रयोग कम्पनी के हित में हो होना चाहिए।
(iv) अंशधारियों को सूचना देना- यदि अंकेक्षक गुप्त संचय के सम्बन्ध में असन्तुष्ट है तो उसे चाहिए कि इसकी सूचना अंशधारियों को दे दे तथा अपने प्रतिवेदन में भी स्पष्ट कर दें।
अन्य कम्पनियों के सम्बन्ध में
बैंक, बीमा कम्पनी तथा बिजली कम्पनी के अतिरिक्त कम्पनियों द्वारा यदि गुप्त संचय बनाया गया है तो अंकेक्षक को इसका समायोजन सम्बन्धी लेखा करवाकर नहीं करवाना चाहिए क्योंकि इन्हें गुप्त संचय के निर्माण का अधिकार प्राप्त नहीं है। यदि गुप्त संचय के सम्बन्ध में सुधार नहीं किया जाता है तो उसे अपने प्रतिवेदन में इसका उल्लेख कर देना चाहिए।
अंकेक्षक को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यदि कम्पनी ने अपनी ख्याति को अपलिखित कर गुप्त संचय बनाया है तो कम्पनी अधिनियम के अनुसार यह वैध है। इसी प्रकार यदि किसी स्थायी सम्पत्ति के बाजार मूल्य में वृद्धि के कारण गुप्त संचय का निर्माण होता है तो यह भी अवैधानिक नहीं है अर्थात् ऐसे संचय संस्था में हो सकते हैं।
न्यायालय के महत्वपूर्ण निर्णय
महत्वपूर्ण निर्णय निम्नलिखित है-
I. Newton Vs. Birmingham Small Arms Co. Ltd. (1906) प्रस्तुत मुकदमा में कम्पनी के अन्तर्नियनों में परिवर्तन कर गुप्त संचय के निर्माण का अधिकार दिया गया था। दूसरी ओर, अंकेक्षक को भी गुप्त संचय के सत्यापन का अधिकार दिया गया था किन्तु अंशर्धारियों को सूचित करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था।
न्यायाधीश ने यह निर्णय दिया कि अंकेक्षक अंशधारियों को गुप्त संचय के सम्बन्ध में सूचना दे सकता है। इसे प्रतिबन्धित नहीं किया जा सकता।
II. Shamdasmi Vs. Pochanwala (1927) इस मुकदमे में कम्पनी के संचालकों ने गुप्त संचय का प्रयोग अप्राप्य तथा संदिग्ध ऋणों के भुगतान के लिए किया किन्तु इसे चिट्ठा में नहीं दिखाया था।
न्यायाधीश ने निर्णय दिया कि गुप्त संचय का उपयोग अप्राप्य तथा संदिग्ध ऋणों के लिए किया जाता है। तो इसका उल्लेख चिट्ठा में अवश्य किया जाना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो चिट्टा संस्था की सही स्थिति को प्रदर्शित नहीं करेगा।
III. Royal Mail Steam Packet Co. Ltd. (1932) प्रस्तुत मुकदमे में कम्पनी कई वर्षों तक लगातार हानि उठाते हुए भी अपने गुप्त संचय में से लाभांश वितरित। करती रही थी। लाभ-हानि खाते में से 5 लाख पौंड की राशि गुप्त संचय के रूप में 'कर संचय समायोजन' के नाम से हस्तान्तरित की गयी थी। अंकेक्षक ने कम्पनी को आर्थिक स्थिति खराब होने की सूचना कभी नहीं दो। कम्पनी के अधिकारियों तथा अंकेक्षक पर लापरवाही का मुकदमा चलाया गया।
न्यायाधीश ने निर्णय दिया कि अंकेक्षक को कभी भी गुप्त संचय में से लाभांश बाँटने की अनुमति नहीं देनी चाहिए। यदि कम्पनी द्वारा ऐसा किया गया है तो अंकेक्षक को अपनी रिपोर्ट में इसका उल्लेख करना चाहिए। ऐसा नहीं करने पर अंकेक्षक को कर्तव्य-भंग के लिए दोषी ठहराया जायेगा।