प्राचीन भारतीय शिक्षा | Ancient Indian Education

भारतीय शिक्षा का बीजारोपण सुदूर अतीत में आज से लगभग 4,000 वर्ष पूर्व हुआ था। किन्तु उसके सुसम्बद्ध स्वरूप के दर्शन, वैदिक काल के आरम्भ में होते हैं। इस काल में शिक्षा पर ब्राह्मणों का आधिपत्य था। अतः कुछ लेखकों ने वैदिक कालीन शिक्षा को "ब्राह्मणीय शिक्षा" और कुछ ने "हिन्दू-शिक्षा" की संज्ञा दी है।

    प्राचीन भारत के मनीषी इस तथ्य से भलीभाँति अवगत थे कि शिक्षा, व्यक्ति के सर्वांगीण विकास, समाज की चतुर्मुखी उन्नति और सभ्यता की बहुमुखी प्रगति की आधारशिला है। अतः उन्होंने शिक्षा की ऐसी प्रशंसनीय प्रणाली का प्रतिपादन किया, जिसने न केवल विशाल वैदिक साहित्य को सुरक्षित रखा, वरन् ज्ञान के विविध क्षेत्रों में मौलिक विचारकों को भी जन्म दिया, जिनसे भारत का भाल आज भी गर्व और गौरव से उन्नत है। इस दृष्टि से भारत की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते हुए एफ० डब्ल्यू० टॉमस (F. W. Thomas) ने लिखा है-"भारत में शिक्षा विदेशी पौधा नहीं है। संसार का कोई भी ऐसा देश नहीं है, जहाँ ज्ञान के प्रति प्रेम का इतने प्राचीन समय में आविर्भाव हुआ हो, या जिसने इतना चिरस्थायी और शक्तिशाली प्रभाव डाला हो। "

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    प्राचीन भारतीय शिक्षा का अर्थ

    वैदिक साहित्य में 'शिक्षा' शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया गया है; यथा-'विद्या', 'ज्ञान'. 'बोध' और 'विनय' । आधुनिक शिक्षाशास्त्रियों के समान प्राचीन भारतीयों ने भी 'शिक्षा' शब्द का प्रयोग व्यापक और सीमित दोनों अर्थों में किया है। डा० ए० एस० अल्तेकर के अनुसार- व्यापक अर्थ में शिक्षा का तात्पर्य है व्यक्ति को सभ्य और उन्नत बनाना। इस दृष्टि से शिक्षा, आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है। सीमित अर्थ में शिक्षा का अभिप्राय उस औपचारिक शिक्षा से है जो व्यक्ति को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने से पूर्व छात्र के रूप में गुरु से प्राप्त होती थी।

    प्राचीन युग में 'शिक्षा' को न तो पुस्तकीय ज्ञान का पर्यायवाची माना गया और न जीविको- पार्जन का साधन इसके विपरीत, शिक्षा को वह प्रकाश माना गया, जो व्यक्ति को अपना बहुअंगी विकास करने, उत्तम जीवन व्यतीत करने और मोक्ष प्राप्त करने में सहायता देती थी। दूसरे शब्दों में शिक्षा को जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में व्यक्ति को पथ-प्रदर्शित करने वाला प्रकाश माना गया था। इस कथन की पुष्टि में डॉ० ए० एस० अल्तेकर के निम्नांकित शब्द उल्लेखनीय है- "वैदिक युग से आज तक शिक्षा के सम्बन्ध में भारतीयों की मुख्य धारणा यह रही है कि शिक्षा, प्रकाश का वह स्रोत है जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हमारा सच्चा पथ-प्रदर्शन करता है।"

    प्राचीन भारतीय शिक्षा का महत्त्व

    प्राचीन भारत में शिक्षा को अत्यधिक महत्त्व दिया जाता था। इसका एक प्रमाण यह है कि शिक्षा को प्रकाश का स्रोत, अन्तर्दृष्टि, अन्तर्ज्योति, ज्ञान चक्षु और मनुष्य का तीसरा नेत्र माना जाता था। उस युग के भारतीयों का विचार था कि शिक्षा का प्रकाश व्यक्ति के सब संशयों का उन्मूलन और उनकी सब बाधाओं का निवारण करता है। शिक्षा से प्राप्त अन्तर्दृष्टि, व्यक्ति की बुद्धि, विवेक और कुशलता में वृद्धि करती है। शिक्षा, व्यक्ति को वास्तविक शक्ति से सम्पन्न करती है, उसके सुख, सुयश एवं समृद्धि में योग देती है, उसे जीवन के यथार्थ महत्त्व को समझने की क्षमता प्रदान करती है और उसे भवसागर को पार करके, मोक्ष प्राप्ति में सहायता देती है।

    शिक्षा के महत्त्व के सम्बन्ध में उपरिअंकित और अनेक अन्य धारणाएँ व्यक्त करके भारतीयों ने यह विश्वास व्यक्त किया कि शिक्षा, कामधेनु का कल्पतरु के समान व्यक्ति की सब मनोकामनाओं को पूर्ण करती है और उसका सर्वांगीण विकास करती है। उनके इसी विश्वास के आधार पर डॉ० ए० एस० अल्तेकर ने अपना यह मत अक्षरबद्ध किया है- "शिक्षा को प्रकाश और शक्ति का ऐसा स्रोत माना जाता था, जो हमारी शारीरिक, मानसिक, भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों तथा क्षमताओं का निरन्तर एवं सामंजस्यपूर्ण विकास करके, हमारे स्वभाव को परिवर्तित करती है और उसे उत्कृष्ट बनाती है।" 

    प्राचीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्य व आदर्श 

    प्राचीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों और आदर्शों पर प्रकाश डालते हुए डॉ० ए० एस० अल्तेकर (A. S. Altekar) ने लिखा है-"प्राचीन भारतीय शिक्षा के मुख्य उद्देश्यों एवं आदशों का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है- ईश्वर भक्ति एवं धार्मिकता का समावेश, चरित्र का निर्माण, व्यक्तित्व का विकास, नागरिक एवं सामाजिक कर्त्तव्य पालन की भावना का समावेश, सामाजिक कुशलता की उन्नति और राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण एवं प्रसार।"  हम उपर्युक्त उद्देश्यों और आदर्शों एवं दो अन्य का संक्षिप्त विवरण उपस्थित कर रहे हैं-

    ज्ञान व अनुभूति पर बल

    प्राचीन भारत में शिक्षा का पहला उद्देश्य-ज्ञान और अनुभूति पर बल देना था। उस समय छात्रों की मानसिक योग्यता का मापदण्ड उनके द्वारा प्राप्त किये जाने वाले अंक, प्रमाणपत्र या उपाधि-पत्र नहीं थे। इनके स्थान पर उनकी योग्यता का मापदण्ड था उनके द्वारा अर्जित किया गया ज्ञान, जिसका प्रमाण वे विद्वत्परिषदों में शास्त्रार्थ करके देते थे।

    "छान्दोग्य उपनिषद" में हमें श्वेतकेतु और कमलायन के उदाहरण मिलते हैं जिनको बारह वर्ष के अध्ययन के उपरान्त भी उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अधिकारी नहीं समझा गया था। इन उदाहरणों से सिद्ध होता है कि प्राचीन काल में शिक्षा का उद्देश्य या आदर्श केवल पढ़ना नहीं था, वरन् मनन, स्मरण और स्वाध्याय द्वारा ज्ञान को आत्मसात् करना भी था। डॉ० आर० के० मुकर्जी के शब्दों में- "शिक्षा का उद्देश्य पढ़ना नहीं था अपितु ज्ञान और अनुभव को आत्मसात करना था।"

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    चित्त वृत्तियों का निरोध

    प्राचीन काल में शिक्षा का दूसरा उद्देश्य छात्रों की चित्त वृत्तियों का निरोध करना था। उस समय शरीर की अपेक्षा आत्मा को बहुत अधिक महत्त्व दिया जाता था, क्योंकि शरीर नश्वर है. जबकि आत्मा अनश्वर है। अतः आत्मा के उत्थान के लिए जप, तप और योग पर विशेष बल दिया। जाता था। ये कार्य-चित्त की वृत्तियों का निरोध करके अर्थात् मन पर नियन्त्रण करके ही सम्भव थे इसलिए छात्रों को विभिन्न प्रकार के अभ्यासों द्वारा अपनी चित्त वृत्तियों का निरोध करने का प्रशिक्षण दिया जाता था, ताकि उनका मन इधर-उधर भटक कर उनकी मोक्ष प्राप्ति में, जिसे जीवन का चरम लक्ष्य समझा जाता था, बाधा उपस्थित न करे। इस प्रकार हम डॉ० आर० के० मुकर्जी (R. K. Mookerji) के शब्दों में कह सकते है-"शिक्षा का उद्देश्य-चित्त-वृत्ति निरोध, अर्थात् मन से उन कार्यों का निषेध था, जिनके कारण वह भौतिक संसार में उलझ जाता था। "

    ईश्वर भक्ति व धार्मिकता का समावेश 

    प्राचीन भारत में शिक्षा का तीसरा उद्देश्य छात्रों में ईश्वर भक्ति और धार्मिकता की भावना का समावेश करना था। उस समय उसी शिक्षा को सार्थक माना जाता था, जो इस संसार से व्यक्ति की मुक्ति को सम्भव बनाए-सा विद्या या विमुक्तये । व्यक्ति को मुक्ति तभी प्राप्त हो सकती थी, जब वह ईश्वर भक्ति और धार्मिकता की भावना से सराबोर हो। छात्रों में इस भावना को व्रत, यज्ञ, उपासना, धार्मिक उत्सवों आदि के द्वारा विकसित किया जाता था। डॉ० ए० एस० अल्तेकर ने लिखा है- "सब प्रकार की शिक्षा का प्रत्यक्ष उद्देश्य छात्र को समाज का धार्मिक सदस्य बनाना था।"

    चरित्र का निर्माण 

    प्राचीन भारत में शिक्षा का चौथा उद्देश्य छात्रों के चरित्र का निर्माण करना था। उस समय व्यक्ति के चरित्र को उसके पांडित्य से अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता था। "मनुस्मृति" में लिखा है- "केवल गायत्री मन्त्र का ज्ञान रखने वाला चरित्रवान् ब्राह्मण, सम्पूर्ण वेदों के ज्ञाता. पर चरित्रहीन विद्वान से कहीं अधिक श्रेष्ठ है। गुरुकुलों के उत्तम वातावरण, सदाचार के उपदेशों, महापुरुषों के उदाहरणों, महान विभूतियों के आदर्शों आदि के द्वारा छात्रों के चरित्र का निर्माण किया जाता था। डॉ० वेद मित्र का कथन है- "छात्रों का चरित्र निर्माण करना, शिक्षा का एक अनिवार्य उद्देश्य माना जाता था।"

    व्यक्तित्व का विकास 

    प्राचीन भारत में शिक्षा का पाँचवाँ उद्देश्य छात्रों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना था। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उनमें आत्म-संयम, आत्म-सम्मान, आत्म-विश्वास आदि सद्गुणों को उत्पन्न किया जाता था। साथ ही, गोष्ठियों और वाद-विवाद सभाओं का आयोजन करके उनमें विवेक, न्याय और निष्पक्षता की शक्तियों को जन्म देकर उनको बलवती बनाया जाता था।

    नागरिक व सामाजिक कर्त्तव्य पालन की भावना का समावेश 

    प्राचीन भारत में शिक्षा का छठवाँ उद्देश्य छात्रों में नागरिक और सामाजिक कर्त्तव्यों का पालन करने की भावना का समावेश करना था। उस समय प्रत्येक व्यक्ति से यह आशा की जाती थी कि वह गृहस्थ जीवन व्यतीत करते समय अपने नागरिक और सामाजिक कर्त्तव्यों का पालन करे। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए छात्रों को गुरु द्वारा विभिन्न प्रकार के उपदेश दिए जाते थे; यथा-अतिथियों का सत्कार करना, दीन-दुखियों की सहायता करना, वैदिक साहित्य की निःशुल्क शिक्षा देना, दूसरों के प्रति निःस्वार्थता का व्यवहार करना और पुत्र पिता एवं पति के रूप में अपने कर्त्तव्यों का पालन करना।

    सामाजिक कुशलता की उन्नति 

    प्राचीन भारत में शिक्षा का सातवाँ उद्देश्य छात्रों की सामाजिक कुशलता में उन्नति करना था। उस समय शिक्षा केवल व्यक्ति का मानसिक विकास ही नहीं करती थी वरन् सामाजिक कुशलता में उसकी उन्नति भी करती थी, ताकि वह सरलता से अपनी जीविका का उपार्जन करके, अपने सुख में अभिवृद्धि कर सके। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए छात्रों को उनकी रुचि और वर्ण के अनुसार किसी उद्योग या व्यवसाय की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाती थी। डॉ० आर० के० मुकर्जी के शब्दों में- "शिक्षा पूर्णतया सैद्धान्तिक और साहित्यिक नहीं थी, वरन् किसी-न-किसी शिल्प से सम्बद्ध थी।

    राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण व प्रसार

    प्राचीन भारत में शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण और प्रसार करना था। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रत्येक पिता अपने पुत्र को अपने व्यवसाय में दक्ष बनाता था, प्रत्येक ब्राह्मण वेदों का अध्ययन करता था और प्रत्येक आर्य, वैदिक साहित्य के किसी-न-किसी भाग का अध्ययन करता था। इन कार्यों से किसी को कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं होता था. पर इनको करके वे न केवल पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी राष्ट्रीय संस्कृति को सुरक्षित रखते थे, वरन् उनका प्रसार भी करते थे।

    हमने प्राचीन भारतीय शिक्षा के जिन उद्देश्यों और आदर्शों को अंकित किया है, उनसे विदित हो जाता है कि उनका निर्माण, व्यक्ति के लौकिक और पारलौकिक जीवन की सभी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया गया था।

    प्राचीन भारतीय शिक्षा की व्यवस्था

    डॉ० एस० के० अल्तेकर के अनुसार- "प्राचीन भारत में सम्भवतः 400 ई० पू० से पहले प्राथमिक शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। उस समय तक बालक का परिवार ही उसकी शिक्षा का केन्द्र था। उसके पश्चात्. कुछ ब्राह्मणों ने व्यक्तिगत रूप में शिक्षा देने का कार्य आरम्भ किया।" इसके फलस्वरूप, जिस शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ, उसमें प्राथमिक और उच्च शिक्षा की समुचित व्यवस्था थी। प्राचीन भारत में शिक्षा के यही दो स्तर थे। हम इनका संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं।

    प्राथमिक शिक्षा 

    1. सामान्य परिचय- प्राथमिक शिक्षा के विषय में सर्वप्रथम उल्लेखनीय बात यह है कि इस पर ब्राह्मणों का आधिपत्य नहीं था। यही कारण है कि उन्होंने धर्मग्रन्थों में इसका विवरण न देकर इसकी उपेक्षा की है। संतोष कुमार दास ने ठीक लिखा है- "ब्राह्मणों के पास उस शिक्षा की उपेक्षा करने के कारण थे, जो उनके हाथ में नहीं थे।"  

    ब्राह्मणों की उपेक्षा के बावजूद ऋग्वेद में यत्र-तत्र ऐसे संकेत मिलते हैं जिनसे पाठशाला की भाँति किसी शिक्षा संस्था की कल्पना की जा सकती है। 

    2. प्रवेश व विधि- डॉ० वेद मित्र के अनुसार, प्राथमिक शिक्षा का आरम्भ 5 वर्ष की आयु में "विद्यारम्भ संस्कार से होता था और सभी जातियों के बालकों के लिए अनिवार्य था। इसका अभिप्राय यह है कि सभी जातियों के बालक प्राथमिक शिक्षा ग्रहण कर सकते थे। इस शिक्षा की अवधि का ज्ञान प्राप्त करने के लिए कोई स्रोत उपलब्ध नहीं है, पर डॉ० ए० एस० अल्तेकर का मत है कि इसकी अवधि 6 वर्ष की थी।

    3. पाठ्यक्रम - प्राथमिक शिक्षा के अन्तर्गत बालकों को पहले कुछ वादक यन्त्रों का उच्चारण करना और बोलना सिखाया जाता था। जब वे उन यन्त्रों को कंठस्थ कर लेते थे तब उनको पढ़ने और लिखने की शिक्षा दी जाती थी। भाषा का वांछित ज्ञान हो जाने के पश्चात् उनको साहित्य और व्याकरण से परिचित कराया जाता था। इस प्रकार शिक्षा का पाठ्यक्रम था. वैदिक मन्त्रों का स्मरण पढना और लिखना, भाषा, साहित्य एवं व्याकरण ।

    उच्च शिक्षा 

    1. सामान्य परिचय- प्राचीन काल में सर्वप्रथम केवल प्राथमिक शिक्षा की ही व्यवस्था थी। किन्तु सामाजिक प्रगति के साथ-साथ शिक्षा के विषयों की संख्या में वृद्धि होती चली गई और उनके लिए पृथक शिक्षा संस्थाओं की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विशिष्ट विद्यालयों की स्थापना की गई। लेखकों का अनुमान है कि इनकी स्थापना ईसा पूर्व 5वीं शताब्दी तक हो गई थी। यहीं से उच्च शिक्षा के इतिहास का सूत्रपात होता है।

    2. प्रवेश व अवधि- उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार केवल ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों को था। इन जातियों के बालक सामान्य रूप से क्रमश: 8, 11 और 12 वर्ष की आयु में शिक्षा संस्था में प्रवेश करते थे। साहित्य एवं धर्मशास्त्र के अध्ययन की अवधि 10 वर्ष और एक वेद के अध्ययन की अवधि 12 वर्ष की थी।

    3. पाठ्यक्रम- पाठ्यक्रम में परा (आध्यात्मिक) विद्या और अपरा (लौकिक) विद्या, दोनों को स्थान दिया गया था। परा विद्या के अन्तर्गत वेद, वेदांग, पुराण, दर्शन, उपनिषद् आदि आध्यात्मिक विषय थे। अपरा विद्या के अन्तर्गत इतिहास, तर्कशास्त्र, भूगर्भशास्त्र, भौतिकशास्त्र आदि लौकिक विषय थे।

    4. शिक्षण विधि- मुद्रित पुस्तकों का अभाव होने के कारण शिक्षण-विधि प्रायः मौखिक थी 1 छात्र, गुरु से वेदादि ग्रन्थों को सुनते थे, उसके उच्चारण का अनुकरण करते थे और पाठ्य-विषय दोहराते थे। तदुपरान्त, वे एकान्त में पाठ्य विषय का मनन, चिन्तन, स्वाध्याय और पुनरावृत्ति करते थे शिक्षण विधि में प्रवचन, व्याख्यान शास्त्रार्थ प्रश्नोत्तर वाद-विवाद आदि का भी प्रयोग किया जाता था।

    5. परीक्षाएँ व उपाधियाँ- शिक्षा समाप्त होने पर छात्रों की मौखिक परीक्षा होती थी। इसके लिए उन्हें विद्वानों की सभा में उपस्थित होना पड़ता था, जहाँ उन्हें विद्वानों द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्नों के उत्तर देने पड़ते थे। परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने वाले छात्रों को उपाधियाँ नहीं दी जाती थीं।

    6. शिक्षा संस्थाएँ- प्राचीन काल में अनेक प्रकार की शिक्षा संस्थाएँ थीं यथा- 

    (i) टोल : टोल में संस्कृत की शिक्षा दी जाती थी। एक टोल में एक शिक्षक होता था।

    (ii) चरण : चरण में वेद के एक अंग की शिक्षा दी जाती थी। एक चरण में एक शिक्षक होता था। 

    (iii) घटिका : घटिका में धर्म और दर्शन की उच्च शिक्षा दी जाती थी। एक घटिका में अनेक शिक्षक होते थे। 

    (iv) परिषद : परिषद् में विभिन्न विषयों की शिक्षा दी जाती थी। एक परिषद् में साधारणतः दस शिक्षक होते थे।

    (v) गुरुकुल : गुरुकुल में वेदों, साहित्य, धर्मशास्त्र आदि की शिक्षा दी जाती थी। एक गुरुकुल में एक शिक्षक होता था।

    (vi) विद्यापीठ : विद्यापीठ में व्याकरण और तर्कशास्त्र की शिक्षा दी जाती थी। एक विद्यापीठ में अनेक शिक्षक होते थे।

    (vii) विशिष्ट विद्यालय : विशिष्ट विद्यालय में एक विशिष्ट विषय की शिक्षा दी जाती थी: जैसे- वैदिक विद्यालय में वेदों की और सूत्र विद्यालय में यज्ञ, हवन आदि की एक विशिष्ट विद्यालय में एक शिक्षक होता था।

    (vii) मन्दिर-महाविद्यालय : किसी मन्दिर से सम्बद्ध मन्दिर महाविद्यालय में धर्म, दर्शन, वेदों, व्याकरणादि की शिक्षा दी जाती थी। एक मन्दिर-महाविद्यालय में अनेक शिक्षक होते थे। 

    (ix) ब्राह्मणीय महाविद्यालय : इस महाविद्यालय को चतुष्पथी कहा जाता था, क्योंकि इसमें चारों शास्त्रों अर्थात् निम्नांकित चार विषयों की शिक्षा दी जाती थी- दर्शन, पुराण, कानून और व्याकरण एक ब्राह्मणीय महाविद्यालय में एक शिक्षक होता था।

    (x) विश्वविद्यालय : उच्च शिक्षा की कुछ संस्थाओं ने कालान्तर में विश्वविद्यालयों का रूप ग्रहण किया। इनमें धार्मिक शिक्षा के अतिरिक्त वाणिज्य, चित्रकला, चिकित्साशास्त्र आदि की भी शिक्षा विभिन्न शिक्षकों द्वारा दी जाती थी। बनारस, नालन्दा और तक्षशिला के विश्वविद्यालय सबसे अधिक प्रसिद्ध थे।

    प्राचीन भारतीय शिक्षा के अन्य क्षेत्र

    स्त्री-शिक्षा 

    वैदिक काल में पुरुषों के समान स्त्रियों को भी शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार प्राप्त था। स्त्रियों को वेदों का अध्ययन करने की पूर्ण स्वतन्त्रता थी और वे पुरुषों के साथ यज्ञ में भाग लेती थीं। प्राचीन काल में अनेक विदुषी स्त्रियों थी, यथा-घोषा, गार्गी, मैत्रेयी, अपाला, विश्ववरा, शकुन्तला और अनुसुइया । 

    बालिकाओं को धर्म और साहित्य के अतिरिक्त नृत्य, संगीत, काव्य-रचना वाद-विवाद आदि की भी शिक्षा दी जाती थी। उनको शिक्षा अधिकतर अपने परिवारों में अपनी माता, भाई बहिन या कुल पुरोहित के द्वारा दी जाती थी। यद्यपि बालिकाओं के लिए पृथक विद्यालयों की व्यवस्था नहीं थी. तथापि सह-शिक्षा का कुछ सीमा तक प्रचलन था। उदाहरणार्थ, आत्रेयी ने लव और कुश के साथ वाल्मीकि के आश्रम में शिक्षा प्राप्त की थी। 

    बालिकाओं और स्त्रियों को 200 ई० पू० तक शिक्षा की भी सभी सुविधाएँ प्राप्त थी, पर उसके बाद उनकी शिक्षा पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया, जिससे उनकी शिक्षा अवरुद्ध हो गई। इस सम्बन्ध ने डॉ० ए० एस० अल्तेकर के निम्नांकित शब्द उल्लेखनीय है- "धर्मशास्त्र युग (200 ई० पू०-500 ई०) में बालिकाओं के लिए विवाह की आयु को कम करके 12 वर्ष तक कर दिया गया और स्त्रियों के लिए वेदाध्ययन को निषेध कर दिया गया। इनसे उनकी शिक्षा को प्रबल आघात पहुँचा।"

    व्यावसायिक शिक्षा 

    प्राचीन भारत में धर्म का मानव जीवन में विशेष स्थान था। अतः शिक्षा मुख्यत धार्मिक और आध्यात्मिक थी। किन्तु व्यावसायिक शिक्षा को आवश्यक मानकर उसकी भी समुचित व्यवस्था की गई थी। इस संदर्भ में डॉ० आर० के० मुकर्जी ने लिखा है- "व्यावसायिक शिक्षा के आधार पर ही प्राचीन भारत अपने आर्थिक जीवन और वैभव का निर्माण करने में सफल हुआ।"

    हम प्राचीन भारत में व्यावसायिक शिक्षा के महत्त्वपूर्ण अंगों पर प्रकाश डाल रहे हैं। यथा- 

    1. सैनिक शिक्षा (Military Education)- प्राचीन भारत में सैनिक शिक्षा व्यावसायिक आचार्यों द्वारा दी जाती थी। इन आचार्यों में द्रोणाचार्य का नाम आज भी प्रसिद्ध है। उत्तर भारत में तक्षशिला, सैनिक शिक्षा का विख्यात केन्द्र था। यह शिक्षा विशेष रूप से क्षत्रियों और राजकुमारों के लिए थी। सैनिक शिक्षा आरम्भ करने से पूर्व शिक्षार्थी के लिए उपनयन संस्कार आवश्यक था। उसके पश्चात्, उसे युद्धकला का ज्ञान प्रदान किया जाता था और उस समय के प्रमुख अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग का प्रशिक्षण दिया जाता था।

    2. चिकित्साशास्त्र की शिक्षा (Medical Education)- प्राचीन काल में चिकित्साशास्त्र की शिक्षा व्यक्तिगत शिक्षकों द्वारा दी जाती थी, जो अपने विषय के विशेषज्ञ होते थे। इन शिक्षको में अश्विनी कुमारों के नाम अपनी विलक्षण प्रतिभा के लिए आज भी प्रसिद्ध है। चिकित्साशास्त्र की शिक्षा आरम्भ करने से पूर्व उपनयन संस्कार होता था। इस संस्कार के लिए उसी छात्र को योग्य समझा जाता था, जो पूर्णतया स्वस्थ होता था। चिकित्साशास्त्र के अध्ययन की अवधि साधारणत: 8 वर्ष की थी।

    3. वाणिज्य शिक्षा (Commercial Education)- यह शिक्षा वैश्यों के लिए थी। मनुस्मृति और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में इस शिक्षा का पूर्ण वर्णन मिलता है। इसमें अनेक विषय सम्मिलित थे यथा क्रय-विक्रय के नियम, आर्थिक एवं व्यापारिक भूगोल, विभिन्न क्षेत्रों की उपज एवं आवश्यकताएँ, उपज क्षेत्रों और मंडियों को जाने के मार्ग इत्यादि । वैश्य बालकों को वाणिज्य की व्यावहारिक शिक्षा अपने पिता से और अपने घर की दुकान पर अनुभव तथा अभ्यास से प्राप्त होती थी। यह शिक्षा कुछ शिक्षकों द्वारा भी दी जाती थी।

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