प्राचीन भारतीय शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ

प्राचीन भारतीय शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ 

प्राचीन भारतीय शिक्षा के आदर्शों और उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए, तत्कालीन ब्राह्मणों, शिक्षकों ने जिस विशिष्ट शिक्षा प्रणाली का विकास किया, उसका गुणगान करते हुए डॉ० एफ० ई० केई (FE. Keay) ने लिखा है- "ब्राह्मण शिक्षकों ने जिस शिक्षा प्रणाली का विकास किया, वह न केवल साम्राज्यों के पतन और समाज के परिवर्तनों से अप्रभावित रही, वरन् उसने हजारों वर्षों तक उच्च शिक्षा की ज्योति को प्रज्ज्वलित रखा। 

हम इस शिक्षा प्रणाली की प्रमुख विशेषताओं की चर्चा कर रहे हैं, यथा-

विद्यारम्भ संस्कार

यह संस्कार उस समय होता था, जब बालक प्राथमिक शिक्षा आरम्भ करता था। कुछ विद्वानों ने इसके लिए 'अक्षरस्वीकरणम्' शब्द का प्रयोग किया है। इस शब्द से स्पष्ट हो जाता है कि इस संस्कार के समय बालक को अक्षर ज्ञान कराया जाता था। बालक पहले सरस्वती, विनायक और अपने परिवार के देवताओं की उपासना करता था। उसके बाद गुरु उससे वर्णमाला के अक्षरों को लिखवाता था। डॉ० ए० एस० अल्तेकर के अनुसार- विद्यारम्भ संस्कार, उपनयन संस्कार के अनेक वर्षों बाद उस समय आरम्भ हुआ, जब वैदिक संस्कृत, जनसाधारण की बोलचाल की भाषा नहीं रह गई थी। इस संस्कार के विषय में डॉ० वेद मित्र ने लिखा है- "यह संस्कार पाँच वर्ष की आयु में होता था और साधारणतः सब जातियों के बालकों के लिए था।"

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उपनयन संस्कार 

यह संस्कार उस समय होता था, जब बालक, गुरु के संरक्षण में वैदिक शिक्षा आरम्भ करता था। उपनयन का शाब्दिक अर्थ है-"पास ले जाना (Leading Near)।" दूसरे शब्दों में बालक को वैदिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए गुरु के पास ले जाया जाता था। गुरु बालक को पहले 'सावित्री मन्त्र' अर्थात् 'गायत्री मन्त्र' का उपदेश देता था और उसके बाद उसे शिक्षा देना आरम्भ करता था।

डॉ० ए० एस० अल्तेकर के अनुसार- 'उपनयन संस्कार' का आरम्भ पूर्व ऐतिहासिक युग से माना जाता है। यह संस्कार, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों वर्णों के लिए अनिवार्य था। जिस प्रकार कोई व्यक्ति बिना 'कलमा' के मुसलमान या बिना 'बपिस्मा' के ईसाई नहीं कहा जा सकता है, उसी प्रकार प्राचीन भारत में कोई बालक बिना उपनयन के वैदिक शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता था।

समावर्तन संस्कार

यह संस्कार उस समय होता था, जब छात्र अपनी वैदिक शिक्षा (या सैनिक शिक्षा, औषधि-शास्त्र की शिक्षा इत्यादि) समाप्त कर लेता था। "समावर्तन" का शाब्दिक अर्थ है- 'घर लौटना' (Returning Home) यह संस्कार लगभग 25 वर्ष की आयु में होता था, जब छात्र, गुरु-गृह से लौटकर अपने घर जाता था और ब्रह्मचर्य आश्रम का परित्याग करके गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था।

जिस दिन यह संस्कार होता था. उस दिन दोपहर के समय छात्र स्नान करके और नए वस्त्र धारण करके गुरु के समक्ष उपस्थित होता था। गुरु पहले उसे मधुपर्क देता था और फिर आधुनिक युग के दीक्षान्त भाषण (Convocation Address) के रूप में उसे 'समावर्तन उपदेश देता था। इस उपदेश का कुछ अंश इस प्रकार है- हे शिष्य ! सर्वदा सत्य बोलना। अपने कर्त्तव्य का पालन करना। स्वाध्याय में प्रमाद मत करना। जो अच्छे कार्य हमने किये हैं, तुम उनका अनुकरण करना । श्रद्धा से दान देना। तुम्हें हमारा यही आदेश है। यही उपदेश है। 

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विद्यालय भवन

प्राचीन काल में छात्रों के लिए किस प्रकार के भवन थे. इस विषय में किसी प्रकार की जानकारी उपलब्ध नहीं है। अतः डॉ० अल्तेकर का यह मत सामान्य रूप से स्वीकार किया जाता है- अच्छे मौसम में कक्षाएँ वृक्षों की छाया में होती होगी. किन्तु वर्षा ऋतु में किसी प्रकार के साधारण आच्छादन की व्यवस्था अवश्य होगी। जहाँ तक देवालयों में शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्रों का प्रश्न है, वहाँ उनके लिए भव्य और विशाल भवन थे।"

प्रकृति से सम्पर्क 

प्राचीन काल में शिक्षा के अनेक विख्यात केन्द्र, तपोवनों में थे, जहाँ ऋषियों और मुनियों के चरणों में बैठकर छात्र, ज्ञान का संचय करते थे। सुरम्य दृश्यों से आवृत्त इन शिक्षा केन्द्रों में छात्र अपने जीवन के अनेक वर्ष व्यतीत करते थे। अतः उनका प्रकृति से प्रत्यक्ष सम्पर्क रहता था, जिसका उनके शारीरिक और मानसिक विकास पर अत्यन्त स्वस्थ प्रभाव पडता था। इन्हीं छात्रों के माध्यम से तपोवनों में आविर्भूत और परिपल्लवित होने वाली भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का सम्पूर्ण देश में प्रसार हुआ। इसीलिए रवीन्द्रनाथ टैगोर (Rabindranath Tagore) ने यह विचार वाक्यबद्ध किया है- "भारत के वनों में सभ्यता की जो धारा प्रवाहित हुई, उसने सम्पूर्ण भारत को आप्लावित कर दिया।"

गुरुकुल प्रणाली 

प्राचीन भारतीय शिक्षा की एक मुख्य विशेषता- गुरुकुल प्रणाली थी। गुरुकुल किसी सुन्दर प्राकृतिक स्थान में, पर साधारणतः किसी ग्राम या नगर के निकट होते थे, ताकि छात्रों की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके और उन्हें भिक्षाटन की सुविधा रहे। छात्र अपने गुरु के पास उसके कुल के सदस्य के रूप में रहकर ज्ञान का अर्जन करते थे और उससे वास्तविक जीवन की शिक्षा प्राप्त करते थे। वे गुरु के उच्च विचारों और आदर्शों को अनुकरण करके अपने श्रेष्ठ जीवन का निर्माण करते थे। गुरुकुल प्रणाली की सराहना करते हुए, डॉ० एस० एन० मुकर्जी ने लिखा है-"वैदिक कालीन भारत, शिक्षा की पारिवारिक प्रणाली में विश्वास करता था, न कि शिक्षा-संस्थाओं में, यान्त्रिक विधियों द्वारा विशाल पैमाने पर छात्रों के उत्पादन में।"

वैदिक शिक्षा आरम्भ करने की आयु 

डॉ० ए० एस० अल्तेकर ने लिखा है- वैदिक शिक्षा, उपनयन संस्कार के बाद आरम्भ होती थी और अनेक बातों में आधुनिक माध्यमिक शिक्षा के समान थी। अतः उसे आरम्भ करने की आयु साधारणतः 8 या 12 वर्ष के बीच में मानी जाती थी। मनु के अनुसार, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य छात्रों का उपनयन संस्कार क्रमशः 8. 11 और 12 वर्ष की आयु तक हो जाना चाहिए। (शूद्रों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं था।) मनु ने उपनयन की उच्चतम आयु भी निर्धारित कर दी थी. जिसके पश्चात् यह संस्कार नहीं हो सकता था यह उच्चतम आयु ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य छात्रों के लिए क्रमश: 16, 22 और 24 थी।

यहाँ इस बात का उल्लेख कर देना असंगत न होगा कि जिस प्रकार वैदिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए उपनयन संस्कार अनिवार्य था, उसी प्रकार सैनिक शिक्षा, औषधि शास्त्र की शिक्षा आदि के लिए भी था।

अध्ययन की अवधि 

प्राचीन काल में अध्ययन की अवधि साधारणतः 12 वर्ष थी। इस अवधि में छात्र केवल एक वेद का अध्ययन कर सकते थे। यदि वे एक से अधिक वेदों का अध्ययन करना चाहते थे, तो उनको प्रत्येक वेद के लिए 12 वर्ष व्यतीत करने पड़ते थे। 12, 24, 36 और 48 वर्ष की आयु तक अध्ययन करने वाले छात्र क्रमशः स्नातक, बसु, रुद्र और आदित्य कहलाते थे। साहित्य और अर्थशास्त्र के छात्रों के अध्ययन की अवधि 10 वर्ष की थी। 

शिक्षा सत्र व छुट्टियाँ 

शिक्षा सत्र, श्रावण मास की पूर्णिमा को 'उपाकर्म' 'श्रावणी समारोह से आरम्भ होता था और पौष मास की पूर्णिमा को उत्सर्जन समारोह के साथ समाप्त होता था। इस प्रकार शिक्षा सत्र की अवधि पाँच माह की थी। आधुनिक समय के समान प्राचीन काल में भी शिक्षा-संस्थाओं में छुट्टियाँ होती थीं। प्रत्येक मास में एक-एक सप्ताह के अन्तर से चार छुट्टियाँ मिलती थीं। अधिक आयु के छात्रों की अपेक्षा कम आयु के छात्रों को अधिक छुट्टियाँ मिलती थीं। छुट्टियाँ लम्बी नहीं होती थीं, क्योंकि आवागमन की कठिनाइयों के कारण छात्र साधारणतः शिक्षा समाप्त करके ही घर लौटते थे।

शिक्षा का स्वरूप 

प्राचीन समय में सम्पूर्ण शिक्षा धर्म में अनु- प्राणित थी। शिक्षा के आदर्श उद्देश्य, व्यवस्था विषय सामग्री, यहाँ तक कि छात्रों का दैनिक जीवन भी धर्म पर अवलम्बित था। ज्ञान का अर्जन धर्म के द्वारा और धार्मिक कर्तव्य के रूप में किया जाता था। इस प्रकार शिक्षा का सम्पूर्ण कलेवर धर्म के अभेद्य आवरण से आवृत्त था। इस प्रसंग में गन्नार मिरडल के अग्रांकित वाक्यों का अवलोकन कीजिए- "शिक्षा पीढ़ी-दर-पीढ़ी होने वाले धार्मिक व्यक्तियों के निर्देशों का संकलन थी। मन्त्रों, देवगीतों, धर्म-ग्रन्थों का उस समय तक पाठ किया जाता था जिस समय तक ये कण्ठस्थ नहीं हो जाते थे।" 

निःशुल्क व सार्वभौमिक शिक्षा

प्राचीन भारत में शिक्षा निःशुल्क थी, पर शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् प्रत्येक छात्र अपने गुरु को दक्षिणा अवश्य देता था। वह दक्षिणा के रूप में धन, भूमि, पशु अन्न- कुछ भी दे सकता था। दक्षिणा इतनी कभी नहीं होती थी, जो शिक्षक का पर्याप्त पारिश्रमिक कहा जा सके।

निःशुल्क होने के कारण सार्वभौमिक और सबके लिए थी किन्तु कुछ लेखकों का विचार है कि शिक्षा अनिवार्य थी। डॉ० वेद मित्र के अनुसार उनका यह विचार मनु के इस कथन पर आधारित है- "मनु का कथन है कि राज्य और समाज को 5 या 8 वर्ष की आयु के पश्चात् बालको और बालिकाओं के लिए शिक्षा अनिवार्य बना देना चाहिए और जो व्यक्ति अपने बच्चे को इन आयु के पश्चात् घर पर रखे उसको दण्ड दिया जाना चाहिए।"

शिक्षा की पद्धति 

प्राचीन भारत में शिक्षा की पद्धति को वैयक्तिक बताते हुए गन्नार मिरडल ने लिखा है- "हिन्दू धर्म की सीमा के अन्तर्गत शिक्षा की पद्धति वैयक्तिक थी वय के प्रत्येक गुरु के अपने स्वयं के शिष्य होते थे।"

शिक्षण का समय

शिक्षण के समय के विषय में स्मृतियों में कोई लेख नहीं है। प्राचीन समय में मुद्रित पुस्तकें नहीं थीं। अतः पठन-पाठन सब कार्य गुरु की उपस्थिति में होता था। इसमें हम शिक्षण के समय के विषय में कुछ अनुमान लगा सकते हैं। शिक्षण का कार्य प्रातः काल से दोपहर तक और फिर भोजन तथा विश्राम के उपरान्त सायंकाल तक होता होगा। प्राचीन ढंग की कुछ संस्कृत पाठशालाओं में अब भी शिक्षण का यही कार्यक्रम है।

शिक्षण की विधि

प्राचीन काल में शिक्षण की विधि-प्रवचन और व्याख्यान के रूप में प्रायः मौखिक थी और उसके मुख्य अंग थे-श्रवण, मनन, चिन्तन, स्वाध्याय और पुनरावृत्ति। छात्र, गुरु के मुख से वेदादि ग्रन्थों को सुनते थे और उसके उच्चारण को सुनकर तदनुसार उच्चारण करते थे। उसके पश्चात् ये एकान्त में पाठ्यविषय का मनन, चिन्तन, स्वाध्याय और पुनरावृत्ति करते थे। छात्रों की पाठ्यविषय सम्बन्धी शंकाओं का समाधान करने के लिए प्रश्नोत्तर विधि, वाद-विवाद और शास्त्रार्थ का प्रयोग होता था।

प्राचीन काल में कक्षाओं में कम छात्र होते थे। अतः आचार्य के लिए प्रत्येक छात्र की प्रगति पर पृथक् पृथक् ध्यान देना सम्भव था। इस सम्बन्ध में डॉ० अल्तेकर का मत है-"प्राचीन भारत में कक्षाएँ छोटी होती थी और उनमें 15 या 20 छात्रों से अधिक नहीं थे। अतः शिक्षक द्वारा प्रत्येक छात्र के प्रति व्यक्तिगत ध्यान दिया जाना सम्भव था।"

कक्षा नायकीय पद्धति 

प्राचीन भारतीय शिक्षा की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विशेषता-कक्षा-नायकीय पद्धति थी। इस पद्धति में उच्च कक्षाओं के बुद्धिमान छात्र जिनको नायक (Monitors) कहा जाता था, निम्न कक्षाओं के छात्रों को पढ़ाते थे और इस प्रकार गुरु के शिक्षण कार्य में सहायता देते थे। इस पद्धति के दो मुख्य लाभ थे। पहला, शिक्षक की अनुपस्थिति में शिक्षण का कार्य अधिकांश कक्षाओं में चलता रहता था। दूसरा, कक्षा-नायक कुछ समय के बाद शिक्षण कार्य में प्रशिक्षित हो जाते थे।

अंग्रेज शिक्षाविदों, बेल और लेकास्टर ने भारत की कक्षा नायकीय पद्धति से प्रभावित होकर, उसका अपने देश में सूत्रपात किया, पर वे इस पद्धति को आदर्श रूप न दे सके। डॉ० एफ० ई० केई के शब्दों में- "बेल और लेकास्टर की कक्षा नायकीय पद्धति भारतीय आदर्श का केवल विकृत रूप है। "

छात्र जीवन सम्बन्धी नियम

छात्रों के जीवन के सम्बन्ध में अनेक नियम थे, जिनका उनको अनिवार्य रूप से पालन करना पडता था, यथा-

(i) आदतें- धनी और निर्धन, उच्च और निम्न, सभी परिवारों के छात्रों को सादा और सरल जीवन व्यतीत करना पड़ता था। महाभारत और रामायण में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जिनसे यह पूर्णरूप से विदित हो जाता है कि राज-परिवारों के छात्रों को भी उन्हीं कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था, जिनका सामना उनके निर्धन सहपाठी करते थे।

(ii) दिनचर्या- छात्रों को ब्रह्म मुहूर्त में उठकर शौच, स्नान आदि से निवृत्त होकर सध्या, हवन आदि विभिन्न कार्य करने पड़ते थे। उसके पश्चात् वे अपने पुराने पाठों को दोहराते थे और नये पाठों की तैयारी करते थे। मध्यान्ह में भोजन के लिए उनको अवकाश मिलता था। उसके उपरान्त वे फिर विद्याध्ययन में संलग्न हो जाते थे। सूर्य अस्त होने के समय वे भजन-पूजा करने के पश्चात् भोजन ग्रहण करते थे।

(iii) खान-पान- मनु के अनुसार, छात्र दिन में केवल दो बार भोजन कर सकते थे मध्यान्ह और सांयकाल के समय उनको कम खाने का आदेश था, ताकि उनकी आध्यात्मिक उन्नति में बाधा न पड़े और वे रोग ग्रस्त न हो। वे किसी भी दशा में माँस मंदिरा, मधु, मादक वस्तुओं और पान का प्रयोग नही कर सकते थे।

(iv) वेशभूषा- मनु के अनुसार, विभिन्न जातियों के छात्रों की वेशभूषा विभिन्न थी। प्रत्येक छात्र को मेखला धारण करनी पड़ती थी। ब्राह्मण की मेखला मूँज की क्षत्रिय की तांत की और वैश्य की ऊन की होती थी। वे अपने शरीर के निम्न भाग को क्रमश सन, रेशम और ऊन के वस्त्र से एवं ऊपरी भाग को क्रमशः काले मृग, चित्तीदार मृग और बकरे की खाल से ढकते थे। प्रत्येक छात्र के लिए यज्ञोपवीत धारण करना अनिवार्य था। कोई भी छात्र-अंजन, सुगन्धि, छाते जूतों और फूल- मालाओं का प्रयोग नहीं कर सकता था। 

(v) आचार-व्यवहार- प्राचीन काल में इस बात पर विशेष बल दिया जाता था कि छात्रों का आचार और व्यवहार उत्कृष्ट हो। अतः उन्हें मर्यादा, शिष्टाचार और आत्म-संयम के नियमों का अनुकरण करने का आदेश दिया जाता था। वे काम, क्रोध, मद, लोभ और दूषित विचारों से मुक्त रहकर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते थे। वे अपने जीवन को पवित्र रखने के लिए नियमित रूप से हवन और संध्या करते थे। वे गाली-गलौज और चुगलखोरी की बुरी आदतों से दूर रहते थे। वे जुआ, नृत्य, संगीत और स्त्री के पास नहीं जा सकते थे। वे गुरु और वृद्धजनों का सम्मान करते थे।

गुरु-शिष्य सम्बन्ध

प्राचीन भारतीय शिक्षा की सम्भवतः सर्वश्रेष्ठ विशेषता गुरु-शिष्य सम्बन्ध की थी। उनका सम्बन्ध किसी संस्था के माध्यम से नहीं, वरन् सीधा उन्हीं के मध्य था। इस सम्बन्ध का मुख्य आधार उनके पारस्परिक कर्त्तव्य थे, यथा- 

(i) शिक्षक के प्रति छात्र के कर्तव्य- छात्र अपने शिक्षक का हृदय से सम्मान करते थे और उनकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करते थे। वे अपने गुरु के स्थान को राजा, माता-पिता और देवता से किसी प्रकार भी निम्नतर नहीं मानते थे। वे अपने आचार्य की सेवा करना अपना प्रथम कर्त्तव्य समझते थे। वे उसके परिवार के सभी कार्यों को करने में आनन्द का अनुभव करते थे। 

(ii) छात्र के प्रति शिक्षक के कर्तव्य- वैदिक ऋषियों द्वारा गुरु को छात्र का बौद्धिक एवं आध्यात्मिक पिता माना जाता था। अतः वह अपने छात्रों के प्रति अपने पुत्र का सा व्यवहार करता था। वह उनका शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास करने को सदैव प्रयत्न करता था। वह उन्हें ज्ञान प्रदान करता था, उनके चरित्र का उत्थान करता था. उनमें अच्छी आदतों का निर्माण करता था और उनके भोजन तथा वस्त्र का प्रबन्ध करता था। यदि कोई छात्र बीमार हो जाता था. तो वह उसकी सेवा करता था और औषधि की व्यवस्था करता था।

उपर्युक्त विवरण से विदित हो जाता है कि गुरु और शिष्य पारस्परिक स्नेह, सम्मान, विश्वास और कर्तव्य की भावनाओं से संयुक्त थे। दोनों के जीवन का लक्ष्य एक ही था, ज्ञान का संरक्षण एवं संवर्धन करना और जीवन एवं आचरण में उसके महत्त्व को सिद्ध करना। निष्कर्ष रूप में हम डॉ० ए० एस० अल्तेकर (A. S. Altekar) के शब्दों में कह सकते हैं- "शिक्षक एवं छात्र के सम्बन्ध स्नेहपूर्ण तथा घनिष्ठ थे और उनके भावी जीवन में भी बने रहते थे।"

दंड 

प्राचीन भारत में छात्रों को दण्ड देने की प्रथा थी। दण्ड के रूप- समझाना, बुझाना, उपदेश, उपवास आदि थे। शारीरिक दण्ड के विषय में शास्त्रकारों में मतभेद था। उदाहरणार्थ, आपस्तम्ब का मत था कि गुरु, छात्र से उपवास करवा सकता है और उसे अपने पास से दूर भेज सकता है। इसके विपरीत, मनु का मत था कि गुरु रज्जु या पतली छड़ी से छात्र को शारीरिक दण्ड दे सकता है। सामान्य रूप से छात्रों को शारीरिक दण्ड दिया जाता था. पर वह कठोर नहीं होता था।

बाह्य नियन्त्रण से मुक्ति

प्राचीन भारत में शिक्षा पर किसी प्रकार का बाह्य नियन्त्रण नहीं था। राज्य सरकार या कोई राजनीतिक दल उसमें किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। डा० पी० एन० प्रभु के अनुसार- "प्राचीन भारत में शिक्षा, राज्य या सरकार या किसी दलबन्दी के किसी भी प्रकार के बाह्य नियन्त्रण से मुक्त थी।"

हमने प्राचीन भारतीय शिक्षा की जिन विशेषताओं का विवरण उपस्थित किया है, उनके आधार पर हम निःसंकोच रूप से कह सकते हैं कि सुदूर अतीत में भी हमारे देश में शिक्षा की व्यवस्था गौरवमय थी। इस व्यवस्था का गुणगान करते हुए डॉ० पी० एन० प्रभु ने लिखा है- "इसने शक्तिशाली व्यक्तियों का निर्माण किया, जिनकी मानसिक शक्तियाँ सुविकसित थीं और जिनकी ज्ञान-भावना पवित्र एवं क्रियाशील थी।" 

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