सूक्ष्म-शिक्षण, अध्यापन प्रशिक्षण के क्षेत्र में एक नवीन आशा और उत्साह का प्रतीक बनकर शिक्षकों को छात्राध्यापकों को और शिक्षक प्रशिक्षकों को आज चुनौती भरे स्वरों में पुकार रहा है। सूक्ष्म-शिक्षण, प्रशिक्षण महाविद्यालयों के लिए एक वरदान बनकर आया है, जिसके फलस्वरूप आज प्रशिक्षण हेतु आये छात्राध्यापकों में कक्षा अध्यापन के कौशल (Skill) के विकास की बात प्रारम्भ हो गयी है। सूक्ष्म शिक्षण एक प्रकार की प्रयोगशाला विधि है जिसमें छात्राध्यापक शिक्षण कौशलों का अभ्यास बिना किसी को हानि पहुँचाये करते हैं। यह विधि प्रयोगशाला की सभी शर्तों की पूर्ति करने में सक्षम है।
सूक्ष्म-शिक्षण का इतिहास
सूक्ष्म शिक्षण प्रशिक्षण के क्षेत्र में एक नवीन नियन्त्रित अभ्यास की प्रक्रिया है। इसका विकास स्टेनफोर्ड यूनीवर्सिटी में किया गया। सन् 1961 में एचीसन, वुश तथा एलन ने सर्वप्रथम नियन्त्रित रूप में संकुचित अध्ययन-अभ्यास क्रम प्रारम्भ किये, जिनके अन्तर्गत प्रत्येक छात्राध्यापक 5 से 10 छात्रों को एक छोटा-सा पाठ पढाता था और अन्य छात्राध्यापक विभिन्न प्रकार की भूमिका निर्वाह (Rule Play) करते थे। बाद में इन लोगों ने वीडियो टेप रिकॉर्डर (Video Tap Recorder) का प्रयोग भी छात्राध्यापकों के शिक्षण व्यवहार में वांछित परिवर्तन लाने के लिए करना शुरू कर दिया है। हैरी गैरीसन ने शिक्षक-सामर्थ्य (Teaching Competence) के क्षेत्र में कार्य करते हुए 'स्टेनफोर्ड' शिक्षक सामर्थ्य अर्हण दीपिका का निर्माण किया। सन् 1967 में क्लेनवेश ने सूक्ष्म-शिक्षण के क्षेत्र में कई प्रयोग किये। इस प्रकार एलन (1964), एचीसन (1964), ओर्म (1966), टकमैन, एलन (1969). रेसनिक व किस (1970), मैक्लीज तथा अनवन (1971) आदि अनेक शोधार्थियों ने इस क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इन शोध-प्रपत्रों और विवरणों ने सारे विश्व को आकर्षित करना प्रारम्भ किया। भारतवर्ष में सर्वप्रथम डी० डी० तिवारी (1967) ने सूक्ष्म-शिक्षण शब्द का प्रयोग शिक्षण-प्रशिक्षण के क्षेत्र में किया। यद्यपि उनका सूक्ष्म-शिक्षण का अर्थ आज के सूक्ष्म शिक्षण से पृथक था। इसके बाद शाह (1970). बुदारमा (1971) सिंह, मर्कर तथा पन्गौत्रा (1973), दोशाज ने सन् 1974 में इस क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किये।
भारतवर्ष में सन् 1974 में सूक्ष्म-शिक्षण के क्षेत्र में सर्वप्रथम प्रकाशन पासी तथा शाह ने किया। इसमें प्रथम बार सूक्ष्म-शिक्षण के विषय में वैज्ञानिक जानकारी प्रदान की गयी। इसके पश्चात भट्टाचार्य (1974), पासी, ललिता व जोशी (1976), सिंह व ग्रेवाल (1977), गुप्ता (1978) आदि ने इस क्षेत्र में कार्य किया। सन् 1978 में इन्दौर विश्वविद्यालय में सर्वप्रथम सूक्ष्म-शिक्षण पर राष्ट्रीय प्रायोजना (National Proposal for the Project) का निर्माण किया गया। इसके अन्तर्गत विभिन्न महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों के शिक्षक प्रशिक्षकों ने मिलकर सूक्ष्म शिक्षण पर कार्य किया। यह शोध योजना 'नेशनल कौंसिल ऑफ एजूकेशनल रिसर्च एण्ड ट्रेनिंग' नयी दिल्ली के सहयोग से पूर्ण की गयी। भारत में सूक्ष्म-शिक्षण पर शोध प्रमुख रूप से दिल्ली इन्दौर बड़ौदा, सहारनपुर तथा देहरादून में किया जा रहा है। देहरादून में सन 1979 में कुलश्रेष्ठ, मिश्रा तथा गोस्वामी ने सक्ष्म शिक्षण के क्षेत्र में कार्य करते हुए उन्होंने अनेक सुधारों के रूप में परिसूक्ष्म शिक्षण (Mini-teaching) पर प्रथम भारतीय मोनोग्राफ 'मिनी' टीचिंग ए न्यू एक्सपेरीमेन्ट इन टीचर एजूकेशन'. एन० सी० ई० आर० टी० नई दिल्ली के सहयोग से प्रकाशित किया।
अब तो भारतवर्ष में सूक्ष्म-शिक्षण तथा परिसूक्ष्म शिक्षण (Mimi-teaching) पर काफी कार्य किया जा रहा है।
सूक्ष्म शिक्षण की परिभाषाएँ
सूक्ष्म-शिक्षण, शिक्षक-प्रशिक्षण की एक प्रयोगशालीय एवं वैश्लेषिक विधि है, जिसके माध्यम से छात्राध्यापकों में शिक्षण कौशल विकसित किये जाते है।
एलन (1968) ने इसकी परिभाषा निम्न प्रकार से की है, "सूक्ष्म शिक्षण प्रशिक्षण से सम्बन्धित एक सम्प्रत्यय है जिसका प्रयोग सेवारत एवं सेवापूर्व (Inservice and Preservice) स्थितियों में शिक्षकों के व्यावसायिक विकास के लिए किया जाता है। सूक्ष्म शिक्षण शिक्षकों को शिक्षण के अभ्यास के लिए एक ऐसी योजना प्रस्तुत करता है जो कक्षा की सामान्य जटिलताओं को कम कर देता है और जिसमें शिक्षक बहुत बड़ी मात्रा में अपने शिक्षण व्यवहार के लिए प्रतिपुष्टि (Feedback) प्राप्त करता है।"
वी० एम० शोर ने इसकी परिभाषा करते हुए कहा, "सूक्ष्म-शिक्षण कम समय कम छात्रों तथा कम शिक्षण क्रियाओं वाली प्रविधि है।"
मैक्लीज तथा अनविन (1970) के अनुसार, "सूक्ष्म शिक्षण का साधारणतः प्रयोग संवृत्त दूरदर्शन के द्वारा छात्राध्यापकों को सरलीकृत वातावरण में उसके निष्पादन सम्बन्धी प्रतिपुष्टि तुरन्त उपलब्ध करने की प्रक्रिया के लिए किया जाता है। सूक्ष्म अध्यापन को साधारणतया अभिरूपित अध्ययन का स्वरूप माना जाता है जिसमें सामान्यतया जटिलताओं का न्यूनीकरण कर प्रतिपुष्टि पाठन अभ्यास की अमूर्त परिकल्पना या वास्तविक कक्षा अध्यापन की प्रक्रिया के आधार पर उपलब्ध की जाती है।"
डी० डब्ल्यू० एलन (D. W. Allen) के अनुसार, ''सूक्ष्म शिक्षण सरलीकृत शिक्षण प्रक्रिया है जो छोटे आकार की कक्षा में कम समय में पूर्ण होती है।"
क्लिफ्ट एवं उनके सहयोगी (Clift & Others) के शब्दों में- "सूक्ष्म शिक्षण शिक्षक प्रशिक्षण की वह विधि है जो कि शिक्षण अभ्यास को किसी कौशल विशेष तक सीमित करके तथा कक्षा के आकार एवं शिक्षण अवधि को घटाकर शिक्षण को अधिक सरल एवं नियन्त्रित करती है।"
बुश (Bush) के अनुसार- "सूक्ष्म-शिक्षण, शिक्षक प्रशिक्षण की वह प्रविधि है जिसमें शिक्षक स्पष्ट रूप से परिभाषित शिक्षण कौशलों का प्रयोग करते हुये ध्यानपूर्वक पाठ तैयार करता है, नियोजित पाठों के आधार पर पाँच से दस मिनट तक वास्तविक छात्रों के छोटे समूह के साथ अन्त क्रिया करता है, जिसके परिणामस्वरूप वीडियो टेप पर प्रेक्षण प्राप्त करने का अवसर प्राप्त होता है।" (भारतवर्ष मे सूक्ष्म शिक्षण के भारतीय मॉडल में वीडियो टेप के स्थान पर मानवीय प्रेक्षकों की संस्तुति की गयी है।)
एलन तथा रियान ने सूक्ष्म शिक्षण को निम्नांकित पाँच मूलभूत सिद्धान्तों पर आधारित बताया है-
(1) सूक्ष्म शिक्षण, वास्तविक शिक्षण है।
(2) इस शिक्षण में कक्षा शिक्षण की सामान्य जटिलताओं को कम कर दिया जाता है।
(3) एक समय में एक ही कार्य विशेष तथा एक ही कौशल पर बल दिया जाता है।
(4) अभ्यास क्रम की प्रक्रिया पर अधिक नियन्त्रण सम्भव होता है।
(5) तुरन्त पृष्ठ-पोषण (Feedback) दिया जाता है।
प्रो० बी० के० पासी (B. K. Passi) के शब्दों में- "सूक्ष्म शिक्षण एक प्रशिक्षण विधि है जिसमे छात्राध्यापक किसी एक शिक्षण कौशल का प्रयोग करते हुये थोड़ी अवधि के लिये, छोटे छात्र समूह को कोई एक सम्प्रत्यय पढ़ाता है।"
एल० सी० सिंह (L. C. Singh) के शब्दों में- "सूक्ष्म शिक्षण, शिक्षण का सरलीकृत रूप है, जिसमें शिक्षक पाँच छात्रों के समूह को पाँच से बीस मिनट तक के समय में पाठ्य वस्तु की एक छोटी-सी इकाई का शिक्षण प्रदान करता है। "
एन० के० जंगीरा एवं अजीत सिंह (N. K. Jangira & Ajit Singh) सूक्ष्म शिक्षण की परिभाषा देते हुए कहते हैं, "सूक्ष्म शिक्षण छात्राध्यापक के लिये एक प्रशिक्षण स्थिति है, जिसमें सामान्य कक्षा शिक्षण की जटिलताओं को एक समय में एक ही शिक्षण कौशल का अभ्यास कराके पाठ्य-वस्तु को किसी एक सम्प्रत्यय तक सीमित करके छात्रों की संख्या को पाँच से दस तक सीमित करके तथा पाठ की अवधि पाँच से दस मिनट करके शिक्षण अभ्यास कराया जाता है।"
श्रीवास्तव, सिंह तथा राय (1978) के अनुसार- "सूक्ष्म शब्द का एक गूढार्थ भी हो सकता है क्योंकि सूक्ष्म-शिक्षण में कौशलों को छोटी-छोटी अर्थात् सूक्ष्म इकाइयों में विभाजित कर प्रत्येक में बारीकी से प्रशिक्षण दिया जाता है। अतः सूक्ष्म शब्द का प्रयोग इस संदर्भ में उचित ही है।"
ग्रीफिथ्स (1973) ने अनेक परिभाषाओं का विश्लेषण करने के बाद कहा, ''सूक्ष्म-शिक्षण को बहुत ही लचीली और अनुकूलनशील प्रक्रिया होने के कारण इसे किसी विशिष्ट एवं मर्यादित परिभाषा में बाँधना उचित नहीं होगा।"
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि-
डॉ० कुलश्रेष्ठ, 1979 के अनुसार -"सूक्ष्म-शिक्षण एक विकासशील प्रवृत्ति है, जिसके अन्तर्गत पाठ्य-वस्तु, पाठ्य-अवधि तथा पाठकों (छात्राध्यापक) को कम किया जाता है और छात्राध्यापक में क्रमशः शिक्षण-कौशल का विकास भली-भाँति किया जाता है।"
इसे भी पढ़ें-
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सूक्ष्म-शिक्षण की मूलभूत मान्यतायें
सूक्ष्म-शिक्षण की मूलभूत मान्यतायें निम्नांकित हैं-
(1) प्रभावशाली सूक्ष्म-शिक्षण के लिये शिक्षक व्यवहार के प्रारूप (Pattern) आवश्यक होते है।
(2) अपेक्षित व्यवहार में परिवर्तन लाने में पृष्ट-पोषण की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
(3) शिक्षण एक उपचारात्मक प्रक्रिया या योजना होती है।
(4) उत्तम प्रशिक्षण देने के लिये शिक्षण-क्रियाओं का वस्तुनिष्ठ (Objective) प्रेक्षण आवश्यक है।
(5) शिक्षक में सुधार लाने के लिये समुचित अवसर दिये जाने चाहिये।
(6) व्यक्तिगत क्षमताओं का विकास करके शिक्षण प्रक्रिया को उन्नत बनाया जा सकता है।
(7) सूक्ष्म शिक्षण, शिक्षण का एक अति लघु एवं सरलीकृत रूप होता है।
सूक्ष्म-शिक्षण के सिद्धान्त
एलन तथा रियॉन (1968) ने सूक्ष्म-शिक्षण के निम्नांकित पाँच मूलभूत सिद्धान्तों का वर्णन किया है-
(1) सूक्ष्म-शिक्षण वास्तविक शिक्षण है।
(2) किन्तु इस प्रकार के शिक्षण में साधारण कक्षा-शिक्षण की जटिलताओं को कम कर दिया जाता है।
(3) एक समय में किसी भी एक विशेष कार्य एवं कौशल के प्रशिक्षण पर ही जोर दिया जाता है।
(4) अभ्यास क्रम की प्रक्रिया पर अधिक नियन्त्रण रखा जाता है।
(5) परिणाम सम्बन्धी साधारण ज्ञान एवं प्रतिपुष्टि के प्रभाव की परिधि विकसित होती है।
सूक्ष्म-शिक्षण व्यवस्था की शैक्षिक प्रक्रिया
सूक्ष्म-शिक्षण के अन्तर्गत विषय-वस्तु कक्षा एवं अवधि तीनों को ही कम करके सूक्ष्म बनाया जाता है।
सूक्ष्म-शिक्षण प्रक्रिया में निम्नांकित पद निहित होते हैं-
(1) शिक्षक. छात्राध्यापको को सूक्ष्म शिक्षण के विषय में सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करता है। इसे 'प्रस्तावना पद' कहते हैं।
(2) शिक्षक छात्राध्यापकों को शिक्षण कौशल (Teaching Skill), जिसका विकास करना है, के विषय में विशद रूप से बताता है और उसके पीछे छिपे मनोवैज्ञानिक आधारों की विवेचना करता है।
(3) शिक्षक छात्राध्यापकों के समक्ष 'सूक्ष्म-शिक्षण' विधि पर आधारित 'आदर्श पाठ' प्रस्तुत करता है।
(4) शिक्षक और छात्राध्यापक मिलकर दिये गये आदर्श पाठ का विश्लेषण कर इसकी कमियों और विशेषताओं पर विचार-विमर्श करते हैं और शिक्षण कौशल व्यवहारों का निर्धारण करते हैं।
(5) शिक्षक कक्षाध्यापकों को 'सूक्ष्म-पाठ योजना' बनाने के लिए समय देता है और आवश्यकतानुसार व्यक्तिगत रूप से उनकी सहायता करता है।
(6) कक्षाध्यापक निर्देशानुसार 5 से 15 मिनट तक सूक्ष्म पाठ पढाता है। (इस पाठ की 'रिकॉर्डिंग (Recording) टेप रिकॉर्डर के माध्यम से की जाती है) इसे शिक्षण पद कहा जाता है।
(7) कक्षाध्यापक सूक्ष्म पाठ पढ़ाने के पश्चात् शिक्षक के साथ अपने पढ़ाये गये पाठ पर विस्तृत रूप से चर्चा करता है। इस समय छात्राध्यापक की अध्ययन कौशल की कमियो, अच्छाइयों, अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के बिन्दुओं पर वार्तालाप किया जाता है और छात्राध्यापक को पाठ पुन निर्माण के लिए सुझाव दिये जाते है। इसे 'आलोचना/ मूल्यांकन पद' कहा जाता है।
(8) आलोचना-पद (Critique Session) के पश्चात छात्राध्यापक अपनी पाठ-योजना में दिये गये सुझावों के अनुसार परिवर्तन करता है और पुन पढ़ाने के लिए इसमें आवश्यक संशोधन करता है। इसे 'पुनः पाठ योजना-निर्माण पद' कहा जाता है।
(9) इस प्रकार से पुन: निर्मित पाठ योजना को छात्राध्यापक उसी कक्षा के अन्य छात्रों को पढ़ाता है। यह शिक्षण भी टेप रिकॉर्डर द्वारा आलेखित किया जाता है शिक्षण के इस क्रम को पुनः शिक्षणक्रम कहा जाता है।
(10) पुनः शिक्षणक्रम के पश्चात फिर पुन: आलोचना पद आता है।
सूक्ष्म-शिक्षण चक्र
उपर्युक्त विवेचित प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक छात्राध्यापक शिक्षण कौशल विशेष में निपुणता (Mastery) न प्राप्त कर ले। शिक्षण, पृष्ठ-पोषण, पुनः पाठ नियोजन, पुनः शिक्षण तथा पुनः पृष्ठ-पोषण के पाँचों पदक्रमों को मिलाकर एक चक्र सा बन जाता है जो तब तक चलता रहता है जब तक उसे शिक्षण कौशल विशेष पर पूर्ण अधिकार (निपुणता) न प्राप्त हो जाये। यही चक्र सूक्ष्म शिक्षण-चक्र कहलाता है।
उपर्युक्त विवरण के आधार पर सूक्ष्म-शिक्षण चक्र के विभिन्न पद चित्र के द्वारा नीचे प्रदर्शित किये जा रहे हैं-
सूक्ष्म-शिक्षण प्रक्रिया का संक्षिप्त वर्णन
सूक्ष्म-शिक्षण प्रक्रिया में सर्वप्रथम छात्राध्यापकों के किसी शिक्षण कौशल के विषय में भलीभाँति बताया जाता है फिर प्रदर्शन द्वारा उसे स्पष्ट किया जाता है। छात्राध्यापक प्रतिमानों के माध्यम से उस कौशल का निरीक्षण करते हैं और वार्तालाप द्वारा विशिष्ट जानकारी प्राप्त करते हैं। इसके पश्चात पाठ तैयार करके कक्षा में पढाया जाता है. जिसकी Video या Audio Tap-recorder द्वारा Recording की जाती है। पाठ समाप्त होने पर निरीक्षक के साथ खुला वार्तालाप किया जाता है। इस प्रकार छात्राध्यापक का मूल्यांकन भी किया जाता है और पाठ को सुधारने के लिए सुझाव दिये जाते है। इसके पश्चात छात्राध्यापक अपने पाठ की पुनः तैयारी करता है और उसी कक्षा के दूसरे छात्रों को पुन: पढ़ाता है और फिर आलोचना / परिचर्चा चरण शुरू होता है। इस प्रकार से प्रशिक्षण महाविद्यालयों में छात्राध्यापकों को शिक्षण कौशल (Teaching Skill) प्रदान किया जाता है।
सूक्ष्म-शिक्षण में प्रयुक्त प्रविधियाँ
सूक्ष्म-शिक्षण का विकास स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में हुआ था। वहाँ पर निम्नांकित प्रविधि प्रयोग की गयी थी-
शिक्षण चरण |
5 मिनट |
मूल्यांकन चरण |
10 मिनट |
पुनः पाठ निर्माण चरण |
15 मिनट |
पुनः शिक्षण चरण |
5 मिनट |
पुनः मूल्यांकन चरण |
10 मिनट |
कुल समय |
45 मिनट |
शिक्षण चरण |
15 मिनट |
मूल्यांकन चरण |
7 मिनट |
पुनः पाठ निर्माण चरण |
8 मिनट |
पुनः शिक्षण चरण |
15 मिनट |
पुनः मूल्यांकन चरण |
15 मिनट |
कुल समय |
60 मिनट |
शिक्षण चरण |
6 मिनट |
प्रथम मूल्यांकन चरण |
6 मिनट |
द्वतीय मूल्यांकन (वास्तविक मूल्यांकन) |
4 मिनट |
पुनः पाठ निर्माण चरण |
7 मिनट |
पुनः शिक्षण चरण |
6 मिनट |
पुनः मूल्यांकन चरण |
6 मिनट |
कुल समय |
35 मिनट |
सूक्ष्म-शिक्षण का भारतीय प्रतिमान
भारतवर्ष में विशेष रूप से NCERT तथा CASE एवं इन्दौर विश्वविद्यालय में किये गये प्रयासों के फलस्वरूप सूक्ष्म-शिक्षण का भारतीय प्रतिमान विकसित किया गया। इसकी निम्नलिखित विशेषतायें है-
(1) इसमें महँगी सामग्री (जैसे वीडियो, क्लोज्ड सर्किट टी० वी० आदि) के स्थान पर कथन तथा विधि का प्रयोग किया गया है।
(2) विदेशी निरीक्षण तथा प्रतिपुष्टि की महँगी सामग्री के स्थान पर इसमें प्रशिक्षित निरीक्षकों द्वारा निरीक्षण तथा प्रतिपुष्टि को स्थान दिया गया है।
(3) इसमें सूक्ष्म शिक्षण सत्र अनुरूपित (Simulated) परिस्थितियों में सम्पन्न किया जाता है. जिसमें साथी बी० एड० प्रशिक्षणार्थियों की मुख्य भूमिका होती है।
(4) सूक्ष्म-शिक्षण के इस भारतीय प्रतिमान में स्तर निर्धारण तथा शिक्षण वृत्त निम्नांकित प्रकार से किया जाता है-
छात्रों की संख्या
|
5 से 10 तक |
छात्रों के प्रकार |
वास्तविक स्कूल छात्र या बी.एड.छात्र |
निरिक्षण व प्रतिपुष्टि |
प्राध्यापक या साथी बी.एड.छात्र |
पाठ की अवधि |
6 मिनट |
कौशलों की संख्या |
एक समय में एक कौशल |
विषय-वस्तु |
एक शिक्षण बिन्दु / परिकल्पना |
कुल अवधि |
36 मिनट |
शिक्षण |
6 मिनट |
प्रतिपुष्टि |
6 मिनट |
पुनः योजना |
12 मिनट |
पुनः शिक्षण |
6 मिनट |
पुनः प्रतिपुष्टि |
6 मिनट |
कुल समय |
36 मिनट |
(7) भारतीय प्रतिमान में कौशलों के समन्वय करने को भी समुचित स्थान दिया गया है।
सूक्ष्म-शिक्षण के लाभ
सूक्ष्म-शिक्षण के प्रशिक्षण विधि के रूप में अनेक लाभ है-
(1) सूक्ष्म-शिक्षण से शिक्षण प्रक्रिया सरल होती है।
(2) छात्राध्यापक क्रमशः अपनी योग्यतानुसार शिक्षण कौशलों पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए उन्हें विकसित करता है और सीखने का प्रयत्न करता है।
(3) प्रतिपुष्टि (Feedback) सम्पूर्ण तथा सभी दृष्टिकोणों को अंगीकार करती है।
(4) छात्राध्यापक का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन किया जाता है।
(5) मूल्यांकन में छात्राध्यापक को अपना पक्ष रखने का पूर्ण अधिकार होता है और मूल्यांकन चरण में उसे सक्रिय रखा जाता है।
(6) निरीक्षक, छात्राध्यापक के परामर्शदाता के रूप में कार्य करता है।
(7) यह कक्षा शिक्षण की जटिलताओं को कम करता है।
(8) यह विधि छात्राध्यापकों में आत्मविश्वास जागृत करती है।
(9) यह शिक्षण विधि छात्राध्यापक को कम समय में अधिक सिखाती है।
(10) इस विधि के माध्यम से छात्राध्यापक को विद्यालय में सीधा पढाने जाने की अपेक्षा छोटी कक्षा,कम छात्र तथा छोटी पाठ-योजना से अध्यापन कार्य सिखाया जाता है जो छात्राध्यापक के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता है।
सूक्ष्म-शिक्षण की सीमाएँ
सूक्ष्म-शिक्षण यद्यपि प्रशिक्षण विधि के रूप में अपने अन्दर अनेक अच्छे बिन्दुओं को समेटे हुए हैं। फिर भी इस विधि की अपनी कुछ सीमाएँ हैं, जैसे-
(1) यह सीमा से ज्यादा नियंत्रित तथा संकुचित शिक्षण की ओर ले जाती है।
(2) यह शिक्षण को कक्षा-कक्षगत शिक्षण से दूर ले जाती है।
(3) एक समय में एक ही शिक्षण कौशल का विकास करती है। फलस्वरूप बाद में उनमें एकीकरण करना कठिन होने लगता है।
(4) इसमें समय अधिक लगता है।
(5) इसमें प्रतिपुष्टि एकदम छात्राध्यापक को मिलना मुश्किल होता है।
(6) छात्राध्यापक को शिक्षण कौशल दक्षता प्राप्त करने के लिए उचित प्रेरणा का अभाव रहता है।
(7) यह शिक्षण Diagnostic तथा Remedial Work पर ध्यान नहीं देता। उपर्युक्त सीमाओं के कारण सूक्ष्म-शिक्षण विधि में अनेक परिवर्तन तथा सुधार किये जा रहे हैं। परिसूक्ष्म शिक्षण (Mini-teaching) इसका एक उदाहरण है।
सूक्ष्म-शिक्षण के सक्षम उपयोग
सूक्ष्म- शिक्षण विधि में शिक्षण प्रक्रिया से विभिन्न पक्षो का ध्यान रखकर उनका उपयोग किया जाता है। इस विधि में सिद्धान्त और व्यवहार में एकीकरण होता है। अंश से पूर्ण सिद्धान्त के आधार पर शिक्षण कला में दक्षता प्रदान करने के लिए यह विधि उपयोगी है। रामदेव कथूरिया (1979) ने सूक्ष्म-शिक्षण के निम्नांकित उपयोग बताये है-
(1) सूक्ष्म-शिक्षण से व्यावसायिक परिपक्वता विकसित होती है।
(2) सूक्ष्म-शिक्षण से छात्राध्यापकों को शिक्षण प्रक्रिया पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाती है और वे अपने शिक्षण कार्य को भलीभाँति समझ लेते हैं।
(3) सूक्ष्म-शिक्षण के द्वारा छात्राध्यापक शिक्षण कौशलों पर पूर्ण अधिकार (निपुणता) प्राप्त कर लेते है। फलस्वरूप वे कम समय में वांछित कौशल का कुशल उपयोग करने में सक्षम हो जाते हैं।
(4) सूक्ष्म शिक्षण में छात्राध्यापको को सुव्यवस्थित, वस्तुनिष्ठ, विशिष्ट एवं त्वरित ( Immediate) पृष्ठ पोषण प्राप्त होता है।
(5) सूक्ष्म-शिक्षण में शिक्षण कौशलों का अभ्यास वास्तविक जटिल परिस्थितियों की अपेक्षा अधिक सरल परिस्थितियों में कराया जाता है।
(6) सूक्ष्म-शिक्षण में छात्राध्यापको की व्यक्तिगत विभिन्नता पर पूर्ण ध्यान प्रदान किया जाता है।
(7) सूक्ष्म-शिक्षण छात्राध्यापकों के व्यवहार परिवर्तन में अधिक प्रभावी होता है।
(18) सूक्ष्म-शिक्षण यदि यथार्थवत् परिस्थितियों (Simulation) में कराया जाता है तब वास्तविक विद्यालय न मिलने पर भी समुचित प्रशिक्षण सम्भव होता है।
(9) सूक्ष्म-शिक्षण विधि द्वारा सिद्धान्त एवं अभ्यास (Theory & Practice) का एकीकरण (Integration) सम्भव होता है।
(10) सेवारत अध्यापकों (Inservice Teachers) के व्यवहार में आयी हुई कडाई (Rigidity) को कम करने और शिक्षण की बुरी आदतों में सुधार लाने के लिए यह विधि उपयोगी है।
(11) सूक्ष्म-शिक्षण में शिक्षण कौशल को ध्यान में रखते हुए शिक्षक अपने पाठ का स्वयं मूल्यांकन तथा स्वालोचना करने की क्षमता प्राप्त करता है।
(12) यह विधि निरीक्षण प्रणाली को एक नया स्वरूप प्रदान करती है।
(13) यह विधि शोध की कक्षा में उत्पन्न हुई, उसी में पली और शिक्षकों को भविष्य में शोधार्थ प्रेरित करती है जिससे शिक्षक स्वयं को अधिक योग्य बनाने का प्रयत्न करता है और निरन्तर अध्ययन में अपना समय व्यतीत करता है।
अन्त में यह कहा जा सकता है कि सूक्ष्म अध्ययन, शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालयों में छात्राध्यापको को प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए यह सबल साधन है जिसका प्रयोग अच्छे शिक्षक तैयार करने के लिए किया जाना चाहिए। प्रशिक्षण महाविद्यालयों में कार्यरत शिक्षकों को सूक्ष्म शिक्षण के विषय में सही ज्ञान तथा इसके वास्तविक प्रयोग हेतु उचित प्रशिक्षण की व्याख्या करनी होगी, तभी यह विधि अधिक उपादेय सिद्ध हो सकेगी।