किशोरावस्था के विकास के सिद्धान्त, कठिन काल, प्रवृत्तियाँ, एवं शिक्षा का स्वरूप

किशोरावस्था के विकास के सिद्धान्त

किशोरावस्था में बालकों और बालिकाओं में क्रान्तिकारी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और संवेगात्मक परिवर्तन होते हैं। इन परिवर्तनों के सम्बन्ध में दो सिद्धान्त प्रचलित है, यथा-

    आकस्मिक विकास का सिद्धान्त

    इस सिद्धान्त का समर्थक स्टेनले हॉल (Stanley Hall) है। उसने 1904 में अपनी 'एडोलेसेन्स' (Adolescence) नामक पुस्तक प्रकाशित की। उसमें उसने लिखा कि किशोर में जो भी परिवर्तन दिखाई देते हैं, वे एकदम होते हैं और उनका पूर्व अवस्थाओं से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। 

    स्टेनले हॉल का मत है-"किशोर में जो शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक परिवर्तन होते हैं, वे अकस्मात होते हैं।" 

    क्रमिक विकास का सिद्धान्त 

    इस सिद्धान्त के समर्थकों में किंग, थार्नडाइक (King. Thorndike) और हालिंगवर्थ (Hollingworth) है। इन विद्वानों का मत है कि किशोरावस्था में शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक परिवर्तन निरन्तर और क्रमशः होते हैं। 

    इस सम्बन्ध में किंग ने लिखा है-"जिस प्रकार एक ऋतु का आगमन दूसरी ऋतु के अन्त में होता है, पर जिस प्रकार पहली ऋतु में ही दूसरी ऋतु के आगमन के चिन्ह दिखाई देने लगते हैं, उसी प्रकार बाल्यावस्था और किशोरावस्था एक-दूसरे से सम्बन्धित रहती हैं।"

    इसे भी पढ़ें-

    किशोरावस्था : जीवन का सबसे कठिन काल 

    किशोरावस्था वह समय है जिसमें किशोर अपने को वयस्क समझता है और वयस्क उसे बालक समझते हैं। वयसंधि की इस अवस्था में किशोर अनेक बुराइयों में पड़ जाता है।

    ई. ए. किर्कपैट्रिक (E. A. Kirkpatric) का कथन है-"इस बात पर कोई मतभेद नहीं हो सकता है कि किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन काल है।" इस कथन की पुष्टि में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते है- 

    1. इस अवस्था में अपराधी प्रवृत्ति अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाती है और नशीली वस्तुओं का प्रयोग आरम्भ हो जाता है।

    2. इस अवस्था में समायोजन न कर सकने के कारण मृत्यु-दर और मानसिक रोगों की संख्या अन्य अवस्थाओं की तुलना में बहुत अधिक होती है।

    3. इस अवस्था में किशोर के आवेगों और संवेगो में इतनी परिवर्तनशीलता होती है कि वह प्रायः विरोधी व्यवहार करता है जिससे उसे समझना कठिन हो जाता है।

    4. इस अवस्था में किशोर अपने मूल्यों, आदर्शों और सवेगों में संघर्ष का अनुभव करता है, जिसके फलस्वरूप वह अपने को कभी-कभी द्विविधापूर्ण स्थिति में पाता है।

    5. इस अवस्था में किशोर, बाल्यावस्था और प्रौढ़ावस्था- दोनों अवस्थाओं में रहता है। अतः उसे न तो बालक समझा जाता है और न प्रौढ़।  

    6. इस अवस्था में किशोर का शारीरिक विकास इतनी तीव्र गति से होता है कि उसमें क्रोध, घृणा, चिड़चिड़ापन, उदासीनता आदि दुर्गुण उत्पन्न हो जाते हैं। 

    7. इस अवस्था में किशोर का पारिवारिक जीवन कष्टमय होता है, क्योंकि स्वतन्त्रता का इच्छुक होने पर भी उसे स्वतन्त्रता नहीं मिलती है और उससे बड़ों की आज्ञा मानने की आशा की जाती है।

    8. इस अवस्था में किशोर के संवेगों, रुचियों, भावनाओं, दृष्टिकोणों आदि में इतनी अधिक परिवर्तनशीलता और अस्थिरता होती है, जितनी उसमें पहले कभी नहीं थी। 

    9. इस अवस्था में किशोर में अनेक अप्रिय बातें होती है. जैसे-उद्दण्डता. कठोरता. भुक्खडपन, पशुओं के प्रति निष्ठुरता, आत्म-प्रदर्शन की प्रवृत्ति, गन्दगी और अव्यवस्था की आदतें एव कल्पना और दिवास्वप्नों में विचरण।

    10. इस अवस्था में किशोर को अनेक जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जैसे- अपनी आयु के बालकों और बालिकाओं से नये सम्बन्ध स्थापित करना, माता-पिता के नियन्त्रण से मुक्त होकर स्वतन्त्र जीवन व्यतीत करने की इच्छा करना, योग्य नागरिक बनने के लिए उचित कुशलताओं को प्राप्त करना, जीवन के प्रति निश्चित दृष्टिकोण का निर्माण करना एवं विवाह, पारिवारिक जीवन और भावी व्यवसाय के लिए तैयारी करना।

    किशोर की व्यवहार प्रवृत्तियाँ

    ब्लेयर जोन्स एवं सिम्पसन (Blair, Jones and Simmpson)का कथन है-"कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जोन्स (Harold E. Jones) और उनके साथियों ने किशोरों की विशिष्ट समस्याओं का विस्तृत अध्ययन किया है।" 

    इसी अध्ययन के आधार पर स्किनर (Skinner) ने अधिकांश किशोरों की प्रमुख व्यवहार समस्याओं अथवा प्रवृत्तियों का वर्णन किया है. जो संक्षेप में अग्रलिखित है-

    1. किशोर का बहुधा आदर्शवादी होना।

    2. किशोर में समायोजन की समस्या का प्रायः कठिन होना। 

    3. किशोर में आर्थिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने की इच्छा होना।

    4 किशोर में लिंग सम्बन्धी सन्तोषप्रद कार्य करने की आकांक्षा होना। 

    5. किशोर के लिए व्यक्तिगत व्यवसाय सम्बन्धी निर्णय लेना आवश्यक होना। 

    6. किशोर का अपनी शारीरिक शक्ति और व्यक्तिगत पर्याप्तता का मूल्यांकन करना।

    7. किशोर में अपने व्यक्तिगत अस्तित्व को स्थापित करने की अभिलाषा होना। 

    8. किशोर का वयस्क व्यवहार की अनेक विधियों को सीखने का प्रयत्न करना।

    9. किशोर का कभी-कभी व्यक्तिगत भय, चिन्ता या अरक्षा की भावना से परेशान रहना। 

    10. किशोर का कभी-कभी दूरवर्ती उद्देश्यो (Remote Goals) को प्राप्त करने के लिए उतावला होना।

    11. किशोर का तर्कशीलता, अमूर्त विचारों और निर्णय की विधि को प्राप्त करने में संलग्न रहना।

    12. किशोर के व्यवहार से परिवार और विद्यालय में प्राप्त होने वाली स्वतन्त्रता के अनुपात में आत्मानुशासन का प्रमाण मिलना। 

    13. किशोर का कभी-कभी भद्दा दिखाई देना और अपने समकक्ष समूह (Peer Group) से किसी प्रकार की भिन्नता के प्रति विशेष रूप से सचेत रहना।

    14. स्किनर (Skinner) के शब्दों में- "किशोर के व्यवहार का अन्तिम और महत्वपूर्ण स्वरूप, व्यक्तित्व प्रौढ़ता की दिशा में बढ़ने में लक्षित होना है।"

    अतः हम कह सकते है कि किशोरों में व्यवहार सम्बन्धी अनेक समस्यायें तथा व्यवहार प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं। इसका अभिप्राय यह भी नहीं है कि उनका ज्ञान प्राप्त करना असम्भव है। शिक्षक एवं अभिभावक किशोरों की समस्याओं का सतर्कता से अध्ययन करके उसके व्यवहार को उचित दिशा प्रदान कर उसे आत्म-सन्तोष प्रदान कर सकते हैं। 

    हम अपने इस निष्कर्ष की पुष्टि में ब्लेयर, जोन्ससिम्पसन के अग्रलिखित वाक्यों को उद्धृत कर रहे है-“किशोर की कुछ विशिष्ट समस्याऐं होती हैं। यदि शिक्षक एवं अभिभावक, किशोरों को वयस्कावस्था में सरलतापूर्वक प्रवेश करने में सहायता देना चाहते हैं, तो उनको समान रूप से किशोरों की अनोखी समस्याओं के स्वरूप से अवगत होना चाहिए। इस कार्य के लिए आधारभूत व्यवहार-सिद्धान्त, किशोरावस्था एवं प्रत्येक किशोर से सम्बन्धित विशिष्ट ज्ञान का होना पहली शर्तें हैं।"

    किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप

    किशोरावस्था में शिक्षा के सम्बन्ध में हैडो रिपोर्ट में लिखा गया है- "ग्यारह या बारह वर्ष की आयु में बालक की नसों में ज्वार उठना शुरू हो जाता है। इसको किशोरावस्था के नाम से पुकारा जाता है। यदि इस ज्वार का बाढ़ के समय ही उपयोग कर लिया जाय एवं इसकी शक्ति और धारा के साथ-साथ नई यात्रा आरम्भ कर दी जाय तो सफलता प्राप्त की जा सकती है।" 

    उपरिलिखित शब्दों से स्पष्ट हो जाता है कि किशोरावस्था आरम्भ होने के समय से ही शिक्षा को एक निश्चित स्वरूप प्रदान किया जाना अनिवार्य है। इस शिक्षा का स्वरूप क्या होना चाहिए इस पर हम प्रकाश डाल रहे हैं, यथा-

    शारीरिक विकास के लिए शिक्षा 

    किशोरावस्था में शरीर में अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तन होते हैं, जिनको उचित शिक्षा प्रदान करके शरीर को सबल और सुडौल बनाने का उत्तरदायित्व विद्यालय पर है। अतः उसे निम्नलिखित का आयोजन करना चाहिए- 

    (1) शारीरिक और स्वास्थ्य शिक्षा, 

    (2) विभिन्न प्रकार के शारीरिक व्यायाम 

    (3) सभी प्रकार के खेलकूद आदि ।

    मानसिक विकास के लिए शिक्षा 

    किशोर की मानसिक शक्तियों का सर्वोत्तम और अधिकतम विकास करने के लिए शिक्षा का स्वरूप उसकी रुचियों, रुझानों, दृष्टिकोणों और योग्यताओं के अनुरूप होना चाहिए। अतः उसकी शिक्षा में अग्रलिखित को स्थान दिया जाना चाहिए-

    (1) कला, विज्ञान, साहित्य, भूगोल, इतिहास आदि सामान्य विद्यालय-विषय, 

    (2) किशोर की जिज्ञासा को सन्तुष्ट करने और उसकी निरीक्षण शक्ति को प्रशिक्षित करने के लिए प्राकृतिक, ऐतिहासिक आदि स्थानों का भ्रमण, 

    (3) उसकी रुचियों, कल्पनाओं और दिवास्वप्नों को साकार बनाने के लिए पर्यटन, वाद-विवाद, कविता लेखन, साहित्यिक गोष्ठी आदि पाठ्यक्रम सहगामी क्रियायें।

    संवेगात्मक विकास के लिए शिक्षा 

    किशोर अनेक प्रकार के संवेगों से संघर्ष करता है। इन संवेगों में से कुछ उत्तम और कुछ निकृष्ट होते हैं। अतः शिक्षा में इस प्रकार के विषयों और पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं को स्थान दिया जाना चाहिए, जो निकृष्ट संवेगों का दमन या मार्गान्तरीकरण और उत्तम संवेगों का विकास करें। इस उद्देश्य से कला, विज्ञान, साहित्य, संगीत, सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि की सुन्दर व्यवस्था की जानी चाहिए।

    सामाजिक सम्बन्धों की शिक्षा

    किशोर अपने समूह को अत्यधिक महत्व देता है और उसमें आचार-व्यवहार की अनेक बातें सीखता है। अतः विद्यालय में ऐसे समूहों का संगठन किया जाना चाहिए, जिनकी सदस्यता ग्रहण करके किशोर उत्तम सामाजिक व्यवहार और सम्बन्धों के पाठ सीख सके। इस दिशा में सामूहिक क्रियाएँ, सामूहिक खेल और स्काउटिंग अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।

    व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार शिक्षा

    किशोर मे व्यक्तिगत विभिन्नताओं और आवश्यकताओं को सभी शिक्षाविद स्वीकार करते हैं। अतः विद्यालयों में विभिन्न पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जानी चाहिए जिससे किशोरों की व्यक्तिगत माँगों को पूर्ण किया जा सके। 

    इस बात पर बल देते हुए माध्यमिक शिक्षा आयोग (Secondary Education Commission) ने लिखा है- "हमारे माध्यमिक विद्यालयों को छात्रों की विभिन्न प्रवृत्तियों, रुचियों और योग्यताओं को पूर्ण करने के लिए विभिन्न शैक्षिक कार्यक्रमों की व्यवस्था करनी चाहिए।"

    पूर्व-व्यावसायिक शिक्षा

    किशोर अपने भावी जीवन में किसी-न-किसी व्यवसाय में प्रवेश करने की योजना बनाता है। पर वह यह नहीं जानता है कि कौन-सा व्यवसाय उसके लिए सबसे अधिक उपयुक्त होगा। उसे इस बात का ज्ञान प्रदान करने के लिए विद्यालय में कुछ व्यवसायों की प्रारम्भिक शिक्षा दी जानी चाहिए। इसी बात को ध्यान में रखकर हमारे देश के बहुद्देशीय विद्यालयों में व्यावसायिक विषयों की शिक्षा की व्यवस्था की गई है।

    जीवन-दर्शन की शिक्षा

    किशोर अपने जीवन-दर्शन का निर्माण करना चाहता है. पर उचित पथ-प्रदर्शन के अभाव में वह ऐसा करने में असमर्थ रहता है। इस कार्य का उत्तरदायित्व विद्यालय पर है। इसका समर्थन करते हुए ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन (Blair, Jones, Simpson) ने लिखा है-“किशोर को हमारे जनतंत्रीय दर्शन के अनुरूप जीवन के प्रति दृष्टिकोणों का विकास करने में सहायता देने का महान् उत्तरदायित्व विद्यालय पर है।"

    धार्मिक व नैतिक शिक्षा

    किशोर के मस्तिष्क में विरोधी विचारों में निरन्तर द्वन्द्व होता रहता है। फलस्वरूप, वह उचित व्यवहार के सम्बन्ध में किसी निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाता है। अतः उसे उदार, धार्मिक और नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए ताकि वह उचित और अनुचित में अन्तर करके अपने व्यवहार को समाज के नैतिक मूल्यों के अनुकूल बना सके । इसीलिए कोठारी कमीशन (Kothari Commission) ने हमारे माध्यमिक विद्यालयों में नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों (Moral & Spiritual Values) की शिक्षा की सिफारिश की है।

    यौन-शिक्षा

    किशोर बालकों और बालिकाओं की अधिकांश समस्याओं का सम्बन्ध उनकी काम प्रवृत्ति से होता है। अतः विद्यालय में यौन-शिक्षा की व्यवस्था होना अति आवश्यक है। 

    इस शिक्षा की आवश्यकता और विधि पर अपना मत प्रकट करते हुए रॉस (Ross) ने लिखा - "यौन शिक्षा की परम आवश्यकता को कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता है। इस बात की आवश्यकता है कि किशोर को एक ऐसे वयस्क द्वारा गोपनीय शिक्षा दी जाय, जिस पर उसे पूर्ण विश्वास हो।"

    बालकों व बालिकाओं के पाठ्यक्रम में विभिन्नता 

    बालको और बालिकाओं के पाठ्यक्रमों में विभिन्नता होनी अति आवश्यक है। इसका कारण बताते हुए बी. एन. झा (B. N. Jha) ने लिखा है-"लिंग-भेद के कारण और इस विचार से कि बालकों और बालिकाओं को भावी जीवन में समाज में विभिन्न कार्य करने हैं, दोनों के पाठ्यक्रमों में विभिन्नता होनी चाहिए।

    उपयुक्त शिक्षण विधियों का प्रयोग

    किशोर में स्वयं परीक्षण, निरीक्षण, विचार और तर्क करने की प्रवृत्ति होती है। अतः उसे शिक्षा देने के लिए परम्परागत विधियों का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। उसके लिए किस प्रकार की शिक्षण विधियाँ उपयुक्त हो सकती हैं, इस सम्बन्ध में रॉस (Ross) का मत है- "विषयों का शिक्षण व्यावहारिक ढंग से किया जाना चाहिए और उनका दैनिक जीवन की बातों से प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित किया जाना चाहिए।"

    किशोर के प्रति वयस्क का-सा व्यवहार

    किशोर को न तो बालक समझना चाहिए और न उसके प्रति बालक का सा व्यवहार किया जाना चाहिए। इसके विपरीत, उसके प्रति वयस्क का सा व्यवहार किया जाना चाहिए। इसका कारण बताते हुए ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन (Blair, Jones & Simpson) ने लिखा है- "जिन किशोरों के प्रति वयस्क का-सा जितना ही अधिक व्यवहार किया जाता है, उतना ही अधिक वे वयस्कों का सा व्यवहार करते हैं।" 

    किशोर के महत्व को मान्यता

    किशोर में उचित महत्त्व और उचित स्थिति प्राप्त करने की प्रबल इच्छा होती है। उसकी इस इच्छा को पूर्ण करने के लिए, उसे उत्तरदायित्व के कार्य दिये जाने चाहिए। इस उद्देश्य से सामाजिक क्रियाओं, छात्र स्वशासन और युवक गोष्ठियों का संगठन किया जाना चाहिए।

    अपराध प्रवृत्ति पर अंकुश

    किशोर ने अपराध करने की प्रवृत्ति का मुख्य कारण है- निराशा। इस कारण को दूर करके उसकी अपराध प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा सकता है। विद्यालय, उसको अपनी उपयोगिता का अनुभव कराके उसकी निराशा को कम कर सकता है और इस प्रकार उसकी अपराध प्रवृत्ति को कम कर सकता है। 

    किशोर-निर्देशन 

    स्किनर (Skinner) के शब्दों मे-  किशोर को निर्णय करने का कोई अनुभव नहीं होता है।" अतः वह स्वयं किसी बात का निर्णय नहीं कर पाता है और चाहता है कि कोई उसे इस कार्य में निर्देशन (Guidance) और परामर्श दें। यह उत्तरदायित्व उसके अध्यापकों और अभिभावकों को लेना चाहिए।"

    उपसंहार

    किशोरावस्था, जीवन का सबसे कठिन और नाजुक काल है। इस अवस्था में बालक का झुकाव जिस ओर हो जाता है, उसी दिशा में वह जीवन में आगे बढ़ता है। वह धार्मिक या अधार्मिक, देश-प्रेमी या देश-द्रोही, अव्यवसायी या अकर्मण्य कुछ भी बन सकता है। इसी अवस्था में संसार के सब महान पुरुषों ने अपने भावी जीवन का संकल्प किया है। 

    महात्मा गाँधी ने अपने जीवन में सत्य का अनुसरण करने की प्रतिज्ञा इसी अवस्था से की थी। अतः बालको के भावी भाग्य और उत्कृष्ट जीवन के निर्माण में इस अवस्था की गरिमा से अपने ध्यान को एक क्षण के लिए भी विचलित न करके अध्यापकों और अभिभावकों को उनकी शिक्षा का सुनियोजन और संचालन करना अपना परम पुनीत कर्तव्य समझना चाहिए। 

    उन्हें वैलेन्टाइन के इस वाक्य को अपना आदर्श सूत्र मानना चाहिए- "मनोवैज्ञानिकों द्वारा बहुत समय तक उपदेश दिये जाने के बाद अन्त में यह बात व्यापक रूप से स्वीकार की जाने लगी है कि शैक्षिक दृष्टिकोण से किशोरावस्था का अत्यधिक महत्व है।"

    Post a Comment

    Previous Post Next Post