बालक के संवेगात्मक विकास का अर्थ
बालक के संवेगात्मक विकास और व्यवहार के आधार है, उसके संवेग प्रेम, हर्ष और उत्सुकता के समान अभिनन्दनीय संवेग उसके शारीरिक, मानसिक और सामाजिक विकास में योग देते हैं, जबकि भय, क्रोध और ईर्ष्या जैसे निन्दनीय संवेग उसके विकास को विकृत और कुण्ठित कर सकते हैं। इस प्रकार, जैसा कि गेट्स व अन्य ने लिखा है- "बालक का संवेगात्मक व्यवहार उसके विकास के अन्य पहलुओं के अनुरूप होता है और उनसे उसका अन्तःसम्बन्ध होता है।"
संवेग, व्यक्ति को किसी कार्य को सीखने उसके सामाजिक, नैतिक, चारित्रिक विकास को प्रभावित करता है। सवेग, वास्तव में उपद्रव की अवस्था है। इसमें व्यक्ति सामान्य नहीं रहता।
संवेग की परिभाषायें
संवेग की परिभाषायें इस प्रकार है-
रॉस के अनुसारं-"संवेग चेतना की वह अवस्था है जिसमें रागात्मक तत्व की प्रधानता रहती है।"
वैलेन्टीन के अनुसार- "जब रागात्मक प्रकृति का वेग बढ़ जाता है तभी संवेग की उत्पत्ति होती है।"
वुडवर्थ के अनुसार- "संवेग, व्यक्ति की उत्तेजित दशा है।"
जरशील्ड के अनुसार - "किसी भी प्रकार के आदेश आने, भड़क उठने तथा उत्तेजित हो जाने की अवस्था को संवेग कहते हैं।"
पी० टी० यंग के अनुसार-"संवेग मनोवैज्ञानिक कारकों से उत्पन्न सम्पूर्ण व्यक्ति के तीव्र उपद्रव की अवस्था है, जिसमें व्यवहार, चेतना, अनुभव और अभारावयव के कार्य सन्निहित रहते हैं।"
बालक का संवेगात्मक विकास की विशेषताएं
इन परिभाषाओं से संवेगों की ये विशेषताओं की अभिव्यक्ति होती है जो इस प्रकार है-
(i) संवेग की अवस्था में व्यक्ति सामान्य नहीं रहता, उत्तेजित होता है।
(i) संवेग में अनुभूति चेतन होती है और शारीरिक परिवर्तन होते हैं।
(iii) संवेग मनोवैज्ञानिक परिस्थिति या उत्तेजक के कारण उत्पन्न होते है।
अतः स्पष्ट है, संवेग एक विशेष मानसिक दशा है जिसमें व्यक्ति की शारीरिक मानसिक दशा तथा व्यवहार में परिवर्तन होता है।
उक्त कथन के आधार पर हम कह सकते हैं कि विभिन्न अवस्थाओं में बालक का संवेगात्मक विकासऔर व्यवहार, शिक्षक के लिए विशेष अध्ययन का विषय है।
शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास
स्पिट्ज़ (Spitz) ने लिखा है- "संवेग जन्म से ही विद्यमान नहीं रहते हैं। मानव-व्यक्तित्व के किसी भी अंग के समान उनका विकास होता है।"
ब्रिजेज (Bridges) के अनुसार, "शिशु में जन्म के समय केवल उत्तेजना होती है और 2 वर्ष की आयु तक उसमें लगभग सभी संवेगों का विकास हो जाता है।"
शिशु के संवेगात्मक विकास अर्थात् संवेगात्मक व्यवहार के विकास के सम्बन्ध में निम्नलिखित बातें उल्लेखनीय है-
1. शिशु अपने जन्म के समय से ही संवेगात्मक व्यवहार की अभिव्यक्ति करता है उसका रोना, चिल्लाना और हाथ-पैर पटकना इस बात का प्रमाण है।
2. शिशु के संवेगात्मक व्यवहार में अत्यधिक अस्थिरता होती है। उसका संवेग कुछ ही समय के लिए रहता है और फिर सहसा समाप्त हो जाता है, उदाहरणार्थ, रोता हुआ शिशु खिलौना पाकर तुरन्त रोना बन्द करके हँसना आरम्भ कर देता है। जैसे-जैसे उसकी आयु बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे उसके संवेगात्मक व्यवहार में स्थिरता आती जाती है।
3. शिशु के संवेगों में आरम्भ में अत्यधिक तीव्रता होती है। धीरे-धीरे इस तीव्रता में कमी होती चली जाती है, उदाहरणार्थ, 2 या 3 माह का शिशु भूख लगने पर तब तक रोता है; जब तक उसको दूध नहीं मिल जाता है। 4 या 5 वर्ष का शिशु इस प्रकार का व्यवहार नहीं करता है।
4. शिशु के संवेगात्मक विकास में क्रमशः परिवर्तन होता चला जाता है; उदाहरणार्थ, शिशु आरम्भ में प्रसन्न होने पर मुस्कराता है। कुछ समय के बाद वह अपनी प्रसन्नता को हँसकर, विभिन्न प्रकार की ध्वनियाँ उत्पन्न करके या बोलकर व्यक्त करता है।
5. शिशु के संवेगों में पहले अस्पष्टता होती है, पर धीरे-धीरे उसमें स्पष्टता आती जाती है; उदाहरणार्थ, जन्म के बाद प्रथम 3 सप्ताहों में उसकी चिल्लाहट से उसका संवेग स्पष्ट नहीं होता है।
गेसेल (Gesell) ने अपने परीक्षणों के आधार पर बताया है कि 5 सप्ताह के शिशु की भूख, क्रोध और कष्ट की चिल्लाहटों में अन्तर हो जाता है और उसकी माँ उनका अर्थ समझने लगती है।
जस्टिन (Justin) के अनुसार, 3 वर्ष की आयु से शिशु में अपने साथियों के प्रति प्रेम हो जाता है और वह उनके साथ खेलता एवं हँसता है।
जोन्स (Jones) के अनुसार- 2 वर्ष का शिशु, साँप से नहीं डरता है, पर धीरे-धीरे उसमें भय का विकास होता चला जाता है। 3 वर्ष की आयु में वह अधेरे में, पशुओं से और अकेले रहने से डरता है। 5 वर्ष की आयु तक वह अपने भय पर नियंत्रण नहीं कर पाता है।
एलिस क्रो (Alice Crow) के अनुसार- शिशु अपने साथियों और बड़े लोगों के संवेगात्मक व्यवहार का अनुकरण करता है। उसे उन्हीं बातों से भय लगता है, जिनसे उनको लगता है। वह क्रोध का क्रोध से और प्रेम का प्रेम से उत्तर देता है। वह अपनी माता और अपने किसी प्रिय साथी के अतिरिक्त और किसी के प्रति सहानुभूति प्रकट नहीं करता है।
स्किनर एवं हरिमन (Skinner and Harriman) के अनुसार- "शिशु का संवेगात्मक व्यवहार धीरे-धीरे अधिक निश्चित और स्पष्ट होता जाता है। उनके व्यवहार के विकास की सामान्य दिशा अनिश्चित और अस्पष्ट से विशिष्ट की ओर की होती है। "
बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास
क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) का कथन है-"सम्पूर्ण बाल्यावस्था में संवेगों की अभिव्यक्ति में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं।" ये परिवर्तन किस प्रकार होते हैं और इनका बालक के संवेगात्मक विकास पर क्या प्रभाव पड़ता है. इसका वर्णन यहाँ किया जा रहा है।
1. बालक के संवेग अधिक निश्चित और कम शक्तिशाली हो जाते हैं। वे बालक को शैशवावस्था के समान उत्तेजित नहीं कर पाते है, उदाहरणार्थ, 6 वर्ष की आयु में बालक का अपने भय और क्रोध पर नियंत्रण हो जाता है।
2. बालक के संवेगों में शिष्टता आ जाती है और उसमें उनका दमन करने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है। अतः वह अपने माता-पिता, शिक्षक और बड़ों के सामने उन संवेगों को प्रकट नही होने देता है, जिनको वे पसन्द नहीं करते हैं।
3. बालक के संवेगात्मक विकास पर विद्यालय के वातावरण का व्यापक प्रभाव पड़ता है, उदाहरणार्थ- आदर्श, स्वतन्त्र और स्वस्थ वातावरण उसके संवेगों का परिष्कार करता है, जबकि भय, आतंक और कठोरता के वातावरण में ऐसा होना असम्भव है।
4. बालक के संवेगात्मक विकास में शिक्षक का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है अप्रिय व्यवहार, शारीरिक दण्ड और कठोर अनुशासन में विश्वास करने वाला शिक्षक, बालक में मानसिक ग्रन्थियों का निर्माण कर देता है जो उसके संवेगात्मक विकास को विकृत कर देती है।
5. बाल्यावस्था में बालक विभिन्न समूहों का सदस्य होता है। इन समूहों मे साधारणतः पारस्परिक घृणा, द्वेष और ईर्ष्या पाई जाती है। बालक इन अवांछनीय संवेगों से प्रभावित हुए बिना नहीं बचता है। अतः वह दूसरे बालकों के प्रति अपने व्यवहार में इन संवेगों को व्यक्त करने लगता है।
6. एलिस क्रो (Alice Crow) के अनुसार- बालक अपने दोषों के परिणामों को सोचकर चिन्तित हो जाता है और अपने से अधिक भाग्यशाली बालकों से ईर्ष्या करता है। वह अपने प्रति परिवार के सदस्यों के व्यवहार को कठोर मानता है, क्योंकि उसके विचार से वे उसके कार्यों को समझ नहीं पाते है।
7. एलिस क्रो (Alice Crow) के अनुसार- "बालक सामान्य रूप से प्रसन्न रहता है और दूसरों के प्रति उसका विद्वेष अस्थायी होता है।"
किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास
कोल एवं ब्रूस (Cole & Bruce) का विचार है- "किशोरावस्था के आगमन का मुख्य चिन्ह संवेगात्मक विकास में तीव्र परिवर्तन है।" परिवर्तन के साथ-साथ विकास के अन्य रूप भी हैं. यथा-
1. किशोर में प्रेम, दया, क्रोध, सहानुभूति आदि संवेग स्थायी रूप धारण कर लेते हैं नियंत्रण नहीं रख पाता है। अतः वह साधारणतया अन्यायी व्यक्ति के प्रति क्रोध और दुःखी व्यक्ति के प्रति दया की अभिव्यक्ति करता है।
2. किशोर की शारीरिक शक्ति की उसके संवेगों पर स्पष्ट छाप होती है, उदाहरणार्थ, सबल और स्वस्थ किशोर में संवेगात्मक स्थिरता एवं निर्बल और अस्वस्थ किशोर में सवेगात्मक अस्थिरता पाई जाती है।
3. एलिस क्रो (Alice Crow) के अनुसार- किशोर अनेक बातों के बारे में चिन्तित रहता उदाहरणार्थ उसे अपनी आकृति स्वास्थ्य, सम्मान, धन प्राप्ति शैक्षिक प्रगति सामाजिक सफलता और अपनी कमियों की सदैव चिन्ता रहती है।
4. क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) के अनुसार- किशोर के ज्ञान, रुचियों और इच्छाओं की वृद्धि के साथ संवेगों को उत्पन्न करने वाली घटनाओं या परिस्थितियों में परिवर्तन हो जाता है. उदाहरणार्थ, बाल्यावस्था में बाल-विवाह जैसी सामाजिक कुरीति उसके लिए मनोरंजन का कारण हो सकती है, पर किशोरावस्था में यही कुरीति उसके क्रोध को प्रज्ज्वलित कर सकती है।
5. किशोर न तो बालक समझा जाता है और न प्रौढ अतः उसे अपने संवेगात्मक जीवन में वातावरण से अनुकूलन करने में बहुत कठिनाई होती है। यदि वह अपने प्रयास में असफल हो जाता है, तो वह घोर निराशा का शिकार बन जाता है। ऐसी दशा में वह या तो घर से भाग जाता है या आत्महत्या करने की बात सोचता है।
6. बी. एन. झा (B. N. Jha) के अनुसार- "किशोरावस्था में बालक और बालिका, दोनों में काम प्रवृत्ति बहुत तीव्र हो जाती है और उनके संवेगात्मक व्यवहार पर असाधारण प्रभाव डालती है।"
7. बी. एन. झा (B.N. Jha) के शब्दों में- “किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास इतना विचित्र होता है कि किशोर एक ही परिस्थिति में विभिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रकार का व्यवहार करता है। जो परिस्थिति एक अवसर पर उसे उल्लास से भर देती है, वहीं परिस्थिति दूसरे अवसर पर उसे खिन्न कर देती है।"
संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक
हरलॉक के शब्दों में- "प्रत्येक बालक में संवेगशीलता की दशा उसके स्वास्थ्य, दिन के समय और वातावरण सम्बन्धी प्रभावों ऐसे कारकों पर निर्भर रहने के कारण समय-समय पर परिवर्तित होती रहती है।"
उपरिलिखित कारकों पर नियन्त्रण स्थापित करके ही बालक की संवेगशीलता को वश में रखा जा सकता है और इस प्रकार उसके संवेगात्मक विकास को निर्देशित किया जाता है। ये कारक कौन-से हैं, इनका संक्षिप्त विवरण अग्रांकित पंक्तियों में पढ़िए-
थकान (Fatigue)
अत्यधिक थकान बालक के संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करती है। क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) का मत है-"जब बालक थका हुआ होता है, तब उसमें क्रोध या चिड़चिड़ेपन के समान अवांछनीय संवेगात्मक व्यवहार की प्रवृत्ति होती है।"
स्वास्थ्य (Health)
क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) के शब्दों में- "बालक के स्वास्थ्य की दशा का उसकी संवेगात्मक प्रतिक्रियाओं से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है।" अच्छे स्वास्थ्य वाले बालकों की अपेक्षा बहुत बीमार रहने वाले बालकों के संवेगात्मक व्यवहार में अधिक अस्थिरता होती है।
मानसिक योग्यता (Mental Abilities)
अधिक मानसिक योग्यता वाले बालकों का संवेगात्मक क्षेत्र अधिक विस्तृत होता है। वे भविष्य के सुखो और दुःखों भयों और आपत्तियों को अनुभव कर सकते हैं।
हरलॉक (Hurlock) का कथन है- "साधारणतया निम्नतर मानसिक स्तरों के बालकों में उसी आयु के प्रतिभाशाली बालकों की अपेक्षा संवेगात्मक नियंत्रण कम होता है।"
अभिलाषा (Will)
माता-पिता को अपने बालक से बड़ी-बड़ी आशायें होती है। स्वयं बालक में कोई-न-कोई अभिलाषा होती है। यदि उसकी अभिलाषा पूर्ण नहीं होती है, तो वह निराशा के सागर में डुबकियों लगाने लगता है। साथ ही उसे अपने भग्नाशा माता-पिता की कटु आलोचना सुननी पड़ती है। ऐसी स्थिति में उसमे संवेगात्मक तनाव उत्पन्न हो जाता है।
कारमाइकेल (Carmichael) का कथन है- कोई भी बात जो बालक के आत्म विश्वास को कम करती है, या उसके आत्म-सम्मान को ठेस पहुँचाती है या उसके कार्य में बाधा उपस्थित करती है या उसके द्वारा महत्त्वपूर्ण समझे जाने वाले लक्ष्यों की प्राप्ति में अवरोध उत्पन्न करती है, उसकी चिन्तित और भयभीत रहने की प्रवृत्ति में वृद्धि कर सकती है।
परिवार (Family)
हरलॉक (Hurlock) के विचार से बालक का परिवार उसके संवेगात्मक विकास को तीन प्रकार से प्रभावित करता है पहला यदि परिवार के सदस्य अत्यधिक संवेगात्मक होते हैं तो बालक भी उसी प्रकार का हो जाता है। दूसरा, यदि परिवार में शान्ति और सुरक्षा आनन्द के कारण उत्तेजना उत्पन्न नहीं होती है, तो बालक के संवेगात्मक विकास का रूप सन्तुलित होता है। तीसरा, यदि परिवार में लडाई-झगडे होना, मिलने-जुलने वालों का बहुत आना और मनोरंजन का कार्यक्रम बनते रहना साधारण घटनायें है तो बालक के संवेगों में उत्तेजना उत्पन्न हो जाती है।
माता-पिता का दृष्टिकोण (Parents's Outlook)
बालक के प्रति माता-पिता का दृष्टिकोण उसके संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करता है। इस सम्बन्ध में क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) ने लिखा है- "बच्चों की उपेक्षा करना, बहुत समय तक घर से बाहर रहना, बच्चों के बारे में आवश्यकता से अधिक चिन्तित रहना, बच्चों के सामने उनके रोगों के बारे में बातचीत करना, बच्चों की आवश्यकता से अधिक रक्षा करना, बच्चों को अपनी इच्छा के अनुसार कोई भी कार्य करने की आज्ञा न देना, बच्चों को प्रौढ़ों के समान नए अनुभव न करने देना और बच्चों को सब घर के प्रेम का पात्र बनाना माता-पिता की ये सब बातें बच्चों के अवांछनीय संवेगात्मक व्यवहार के विकास में योग देती है।"
सामाजिक स्थिति (Social Status)
बालकों की सामाजिक स्थिति उनके संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करती है। इस सम्बन्ध में क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) के ये विचार उल्लेखनीय है- "सामाजिक स्थिति और संवेगात्मक स्थिरता में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। निम्न सामाजिक स्थिति के बालकों में उच्च सामाजिक स्थिति के बालकों की अपेक्षा अधिक असन्तुलन और अधिक संवेगात्मक अस्थिरता होती है।"
सामाजिक स्वीकृति (Social Acceptance)
बालक के कार्यों की सामाजिक स्वीकृति का उसके संवेगात्मक विकास से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। इसका स्पष्टीकरण करते हुए क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) ने लिखा है-"यदि बालक को अपने कार्यों की सामाजिक स्वीकृति नहीं मिलती है, तो उसके संवेगात्मक व्यवहार में उग्रता या शिथिलता आ जाती है।"
निर्धनता (Poverty)
निर्धनता, बालक के अनेक अशोभनीय संवेगों को स्थायी और शक्तिशाली रूप प्रदान कर देती है। वह विद्यालय में धनी बालकों की वेश-भूषा देखता है, उनके आनन्दपूर्ण जीवन की कहानियाँ सुनता है, उनके सुख और ऐश्वर्य की वस्तुओं का अवलोकन करता है। फलस्वरूप उसमे द्वेष और ईर्ष्या के संवेग सशक्त रूप धारण करके, उस पर अपना सतत् अधिकार स्थापित कर लेते हैं।
विद्यालय (School)
विद्यालय का बालक के संवेगात्मक विकास पर गम्भीर प्रभाव पड़ता है। बालक की विभिन्न क्रियायें उसके विभिन्न संवेगों की अभिव्यक्ति करती है। यदि विद्यालय के कार्यक्रम उसके संवेगों के अनुकूल होते हैं, तो उसे उनमें आनन्द का अनुभव होता है। फलस्वरूप उसके संवेगों का स्वस्थ विकास होता है। इसके विपरीत यदि उसे विद्यालय के कार्यक्रमों में असफल होने या अपने दोषों के प्रकटीकरण का भय होता है. तो उसमें घृणा, क्रोध और चिड़चिड़ेपन का स्थायी निवास हो जाता है। जरशील्ड (Gersild) ने ठीक ही लिखा है-"परिवार के बाद विद्यालय ही सम्भवतः वह दूसरा स्थान है, जो व्यक्ति की उन भावनाओं पर आधारभूत प्रभाव डालता है, जिनका निर्माण वह अपने और दूसरों के प्रति करता है।"
शिक्षक (Teacher)
शिक्षक का बालक के संवेगात्मक विकास पर स्पष्ट प्रभाव पड़ता है। वह बालक के समक्ष अच्छे और बुरे उदाहरण प्रस्तुत करके उसको साहसी या कायर, क्रोधी या सहनशील, झगड़ालू या शान्तिप्रिय बना सकता है। वह उसमें अच्छी आदतों का निर्माण करके और अच्छे आदशों का अनुसरण करने की इच्छा उत्पन्न करके, अपने संवेगों पर नियंत्रण रखने की क्षमता का विकास कर सकता है।
अन्य कारक (Other Factors)
बालक के संवेगात्मक विकास पर अवांछनीय प्रभाव डालने वाले कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण कारक है- अत्यधिक कार्य, कार्य में अनावश्यक बाधा और अपमानजनक व्यवहार।
संवेगात्मक विकास का निष्कर्ष
संवेगों का बालक के जीवन में अति महत्वपूर्ण स्थान है। श्रेष्ठ संवेगों पर आधारित व्यवहार, बालक के स्वास्थ्य को समुन्नत, मानसिक दृष्टिकोण को उदार कार्य करने की इच्छा को बलवती और सामाजिक सम्बन्धों को मधुर बनाते हैं। इसके विपरीत, क्षुद्र संवेगों पर आश्रित व्यवहार, बालक के शारीरिक, मानसिक और सामाजिक विकास पर क्षतिप्रद प्रभाव डालकर उसको विकृत कर देते है।
अतः शिक्षकों और अभिभावको को बालकों और बालिकाओं के संवेगात्मक व्यवहारों के कारणों का अध्ययन करके उनका उचित पथ प्रदर्शन करना चाहिए, ताकि उनका विकास शुभ दिशा की ओर अग्रसर होकर उनमें संवेगात्मक परिपक्वता उत्पन्न करे और इस प्रकार उनके जीवन को सुखी, सफल और समृद्ध बनाए। थाम्पसन का यह परामर्श वास्तव में अभिनन्दनीय है-"जो वयस्क स्वयं कुछ सीमा तक विवेकपूर्ण रह सकते हैं, उन्हें बालकों और बालिकाओं के व्यवहार के प्रतिमानों और मनोवैज्ञानिक विकास को प्रभावित करने के लिए अधिक उत्तम अवसर सुलभ रहते हैं।"