चरित्र निर्माण में परिवार, विद्यालय तथा समाज का योगदान

चरित्र निर्माण में परिवार, विद्यालय तथा समाज का योगदान

'चरित्र आदतों का पुंडा है।' सैमुअल स्माइल का यह कथन चरित्र के कार्यात्मक पक्ष पर बल देता है। कुछ मनोवैज्ञानिक चरित्र को व्यक्तित्व, नैतिकता तथा स्वभाव का योग मानते हैं। जबकि मनोवैज्ञानिको ने चरित्र की अवधारणा उनके व्यवहार आचार के रूप में व्यक्त किया है। डमविल (Dumville) के शब्दों में- "चरित्र उन सब प्रवृत्तियों का योग है जो एक व्यक्ति में होती हैं।"

कारमाइकेल (Carmichael) ने कहा है-"चरित्र एक गतिशील धारणा है। यह व्यक्ति के दृष्टिकोणों और व्यवहार की विधियों का पूर्ण योग है।" चरित्र के लक्षण बाउले (Bowley) ने इस प्रकार बताये हैं-

 (i) आत्मनियन्त्रण 

(ii) विश्वसनीयता 

(iii) कार्य में दृढता 

(iv) कर्मनिष्ठा

(v) अन्तःकरण की शुद्धता 

(vi) उत्तरदायित्व की भावना ये सभी व्यक्ति को स्थायित्व प्रदान करते हैं। बाउले (Bowley) ने इस सम्बन्ध में कहा है-"चरित्र के ये गुण और लक्षण, विद्यालय कार्य और सामाजिक जीवन दोनों में प्रत्यक्ष रूप से बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। जिन छात्रों में ये गुण होते हैं। वे अपनी मानसिक शक्तियों का जो भी उनमें होती हैं, अधिकतम प्रयोग करते हैं।"

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चरित्र निर्माण परिवार

परिवार बालक की प्रथम पाठशाला है, यहाँ वह अनेक गुणों का विकास करता है। इन गुणों के कारण बालक का चरित्र विकसित होता है। परिवार में बालक में निम्नलिखित गुणों का विकास होता है- 

1. मूल प्रवृत्तियों का शोधन।

2. संवेगों का स्थायी होना ।

3. अर्जित प्रवृत्तियों से मूल प्रवृत्तियों में शोधन होता है।

4. अच्छी आदतों का निर्माण।

5. स्थायीभावो का निर्माण होता है।

6. आत्म सम्मान की भावना विकसित होती है।

7. आनन्द अनुभव होता है। 

8. इच्छा शक्ति प्रबल होती है।

9. वंशक्रम में परिवर्तन होते हैं। उनका स्वरूप निश्चित करते हैं। 

10. मानसिक शक्ति का विकास होता है।

11. परिवार में बालक का स्वाभाविक विकास होता है। परिवार में बालक के चरित्र का विकास माता-पिता तथा अन्य सदस्यों के आपसी व्यवहार के कारण होता है। यह व्यवहार, बालकों के मन पर अमिट छाप छोड़ता है।

विद्यालय तथा चरित्र निर्माण 

स्किनर एवं हैरीमन ने कहा है- "इस बात से कोई प्रयोजन नहीं है कि शिक्षा कहाँ तक दी जाती है, यह किस प्रकार दी जाती है। बालक को दी जाने वाली सब शिक्षा को उसके चरित्र निर्माण में अनिवार्य रूप से योग देना चाहिये।"

.विद्यालय बालक के चरित्र के विकास में इस प्रकार योग देता है-

1. बालकों में अच्छे विचार तथा इच्छाओं को जागृत करना चाहिये। 

2. नैतिक गुणों के विकास में योग देना चाहिये।

3. बालकों में प्रेम, दया और सहानुभूति आदि गुणों को विकसित करना चाहिये। 

4. यह ध्यान रहे कि भय, घृणा, क्रोध आदि नकारात्मक भावना उत्पन्न न हो. यह ध्यान रखना चाहिये।

5. मूल प्रवृत्तियों में शोधन होना चाहिये।

6. व्यक्तित्व के सभी अंगों का विकास किया जाना चाहिये। 

7. सामाजिक क्रियाओं का आयोजन किया जाना चाहिये।

8. विद्यालय में उच्च आदशों तथा लक्ष्यों की प्रेरणा देना, महान व्यक्तियों के विचारों से परिचय महान पुरुषों का जीवन परिचय कार्य तथा सिद्धान्त का समन्वय किया जाना चाहिये। विद्यालयों के समक्ष यह चुनौती है, इस चुनौती का सामना किया जाना चाहिये।

समुदाय : चरित्र निर्माण

समुदाय बालक की कर्मभूमि है, इस कर्मभूमि में समुदाय के अन्य सदस्यों के सम्पर्क में व्यक्ति आता है. क्रिया-प्रतिक्रिया करता है। इससे उसका व्यवहार अनेक स्वरूप धारण करता है। यह उसके चरित्र का निर्माण होता है।समुदाय बालक के चरित्र का निर्माण इस प्रकार करता है- 

1. घर पर प्रारम्भिक जीवन व्यतीत करने वाले बालक पर अपने साथियों का प्रभाव कम पड़ता है।जैसे ही वह बड़ा होता है, उसके संगी साथी बनते हैं. वहाँ उसके चरित्र का विकास होने लगता है। 

2 समुदाय में बालक को धार्मिक तथा आध्यात्मिक शिक्षा मिलती है। ईमानदारी, दया, सहयोग आदि के गुण विकसित होते हैं।

3. रेडियो, दूरदर्शन, समाचार पत्र मनोरंजन के साधन कहानियाँ, स्काउटिंग, गाइडिंग तथा सांस्कृतिक कार्यक्रम बालक के आन्तरिक गुणों का उद्घाटन कर चरित्र निर्माण में योग देते हैं।

4. राष्ट्रहित मे भी चरित्र का विकास आवश्यक है।

प्रोफेसर सुरेश भटनागर के शब्दों में- “अध्यापक, माता-पिता, अभिभावक, समुदाय के लोग, विद्यालय का वातावरण, पाठ्यक्रम आदि अनेक ऐसे प्रतिकारक हैं जो बालकों के चरित्र निर्माण के लिये उत्तरदायी हैं।"

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