भारतीय संविधान की प्रस्तावना
प्रत्येक संविधान एक प्रस्तावना से आरम्भ होता है। इस प्रस्तावना में संविधान के मूल उद्देश्य व लक्ष्य निहित होते हैं। यह प्रस्तावना संविधान की रचना करने के विचारों और भावनाओं का प्रतिरूप होती है। इसी के अनुसार संविधान का क्रियान्वयन किया जा सकता है। भारतीय संविधान में भी एक प्रस्तावना है। 'प्रस्तावना' का भाग भारतीय संविधान का सबसे महत्वपूर्ण अंग है। यदि यह कहा जाए कि भारतीय संविधान रूपी अंगूठी में प्रस्तावना एक जड़ाऊ नगीना है, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। इसे भारत के जनतन्त्रीय गणतन्त्रात्मक स्वरूप का एक संक्षिप्त घोषणा-पत्र भी कहा जा सकता है। भारतीय संविधान में निहित आदर्शों और मूल्यों का विवेचन संविधान की प्रस्तावना में निम्नानुसार किया गया है।
भारतीय संविधान की मूल प्रस्तावना
हम भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय विचार, अभिव्यक्ति विश्वास धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्रतिष्ठा और अवसर को प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज नारीख 20 नवम्बर, 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत् 2006 विक्रमी) को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।'
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42वें संविधान संशोधन द्वारा प्रस्तावना में हुए संशोधन
सन् 1976 में 42वां संविधान संशोधन विधेयक पारित किया गया। इस संविधान संशोधन द्वारा संविधान की प्रस्तावना में अनेक नए शब्दों और भावों का समावेश किया गया। इस संशोधन के पश्चात् संविधान की प्रस्तावना का निम्न स्वरूप हो गया-
"हम भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय विचार, अभिव्यक्ति विश्वास धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता, प्रतिष्ठा और अवसर को प्राप्त कराने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता तथा अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के लिए, दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी सम्वत् 2006 विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।"
प्रस्तावना में व्यक्त किये गये भाव सर्वप्रथम पंडित नेहरू द्वारा संविधान सभा के प्रथम अधिवेशन में ही 13 दिसम्बर, 1949 के 'उद्देश्य प्रस्ताव' (Objective Resolution) में अपनाये गये थे। पंडित नेहरू जो का "उद्देश्य प्रस्ताव राष्ट्रीय आन्दोलन के लक्ष्यों तथा गाँधीजी के विचारों और भावनाओं पर आधारित था।"
प्रस्तावना के कुछ प्रमुख तत्वों की विवेचना इस प्रकार है-
1. हम भारत के लोग,
2. सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, धर्म निरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणराज्य,
3. सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय,
4. स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व ।
(1) हम भारत के लोग
प्रस्तावना में कहा गया है कि 'हम भारत के लोग' संविधान को 'अंगीकृत' अधिनियमित तथा आत्मार्पित करते हैं। प्रस्तावना इस बात पर बल देती है कि अन्तिम सत्ता जनता में निहित है तथा भारतीय जनता ने ही संविधान को अधिनियमित और अंगीकृत किया है। संविधान सभा के गठन पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि वह भारतीयों की एक पूर्ण प्रतिनिधिक संस्था थी। उसमें सभी राजनीतिक दलों वर्गों और विचारों के लोगों को प्रतिनिधित्व प्राप्त था। देश के बड़े-बड़े नेता तथा विचारक उसमें सम्मिलित थे। उसने संविधान के निर्माण में प्रजातान्त्रिक क्रियाओं को अपनाया।
प्रस्तावना में व्यक्त शब्द हम भारत के लोग न केलव भावनात्मक दृष्टि से वरन यथार्थता में भी सत्य है। इस सम्बन्ध में डॉ. अम्बेदकर ने संविधान सभा में कहा था "मैं समझता हूँ, यह प्रस्तावना इस सदन के प्रत्येक सदस्य के इच्छानुसार यह स्पष्ट कर देती है कि इस संविधान का आधार जनता है एवं इसमें निहित प्राधिकार एवं प्रभुसत्ता सब जनता से प्राप्त हुई है। अतः यह कहना सत्य है कि भारतीय जनता ने संविधान कों निर्मित तथा स्वीकृत किया था।"
'हम भारत के लोग' शब्द का एक अन्तर्निहित अभिप्राय यह है कि चूंकि भारतीय जनता ने संविधान को निर्मित तथा स्वीकृत किया है, इसलिए भारत संघ का कोई एक राज्य अथवा अवयवी एककों का समूह न तो संविधान को समाप्त कर सकता है और न संविधान द्वारा निर्मित संघ से सम्बन्ध विच्छेद कर सकता है।
(2) सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य
संविधान को प्रस्तावना में भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणराज्य कहा गया है। 26 जनवरी, 1950 ई. को भारत को अधिराज्य की स्थिति समाप्त हो गयी और वह अमेरिका तथा स्विट्जरलैण्ड की भाँति एक सम्पूर्ण प्रभुसत्ता सम्पन्न गणराज्य बन गया। सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न का अर्थ है कि भारत अपने आन्तरिक और विदेशी सम्बन्धों के निर्वहन में पूर्ण रूप से स्वतन्त्र है। यह सब प्रकार की मर्यादाओं से उन्मुक्त है।
इस सम्बन्ध में यह आलोचना की जाती है कि सार्वभौम राज्य होने के बावजूद वह राष्ट्रमण्डल का सदस्य है तथा ब्रिटेन राज्य या रानी के प्रति विशेष निष्ठा रखता है लेकिन राष्ट्रमण्डल की सदस्यता भारत की सार्वभौमिकता के मार्ग में विरोध पैदा नहीं करती। राष्ट्रमण्डल राज्यों का एक ऐच्छिक समझौता है। उसमें सम्मिलित रहना था उससे पृथक् हो जाना भारत की इच्छा पर निर्भर करता है। राष्ट्रमण्डलीय समझौते का कोई संवैधानिक महत्व नहीं है। इसका संविधान में कोई उल्लेख नहीं है। ब्रिटिश सम्राट का प्रधान पद भी केवल औपचारिक है। वह केवल एक प्रतीक मात्र है। भारत राज्य या भारतीय जनता पर इस निष्ठा के परिणामस्वरूप कोई बन्धन नहीं। अतः राष्ट्रमण्डल की सदस्यता सार्वभौमिक स्थिति में किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचाती है। पर इसे एक संवैधानिक विरोधाभास कहना गलत नहीं होगा।
समाजवादी राज्य- संविधान सभा में सम्मिलित सभी सदस्यों ने यह मत व्यक्त किया कि भारत को एक “समाजवादी राज्य” घोषित किया जाना चाहिए लेकिन इन सभी सदस्यों का मत था कि संविधान को किसी विशेष राजनीतिक दर्शन के साथ सम्बद्ध नहीं किया जाना चाहिए और उसे विवादों से मुक्त रखा जाना चाहिए। परिणामस्वरूप इस दूसरे विचार को ही संविधान सभा की स्वीकृति प्राप्त हुई किन्तु सन् 1976 में देश को तत्कालीन सरकार द्वारा भारतीय शासन व्यवस्था को एक नई दिशा देने के विषय में विचार किया गया और संविधान में संशोधन करते हुए 'भारत राज्य' के लिए "समाजवाद" शब्द का उल्लेख किया गया। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि राजनीति विज्ञान में समाजवाद के अनेक रूप प्रचलित हैं किन्तु भारतीय राज्य व्यवस्था के लिए अपनाया गया समाजवाद का रूप बिल्कुल अलग है। संविधान विशेषज्ञों का मत है कि भारत में देश की परिस्थितियों के अनुरूप ही समाजवाद को अपनाया जाएगा।
धर्मनिरपेक्ष राज्य- 42वें संविधान संशोधन द्वारा भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है। सन् 1976 के पूर्व तक संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द को स्थान नहीं दिया गया था किन्तु अब इसे प्रस्तावना में स्थान प्राप्त हो गया है। धर्मनिरपेक्षता शब्द को संविधान को प्रस्तावना में स्थान मिल जाने से अब यह शब्द और अधिक प्रभावी होकर सामने आया है।
लोकतन्त्रात्मक- लोकतन्त्रात्मक शासन व्यवस्था का राजनीतिक दृष्टिकोण से अर्थ राज्य कार्य के संचालन के लिए निर्वाचित एवं उत्तरदायी सरकार की स्थापना से है। भारत में विधानपालिका एवं कार्यपालिका जनता के प्रतिनिधि निकाय हैं तथा कार्यपालिका विधायिका के प्रति उत्तरदायी है। भारतीय लोकतन्त्र अमरीकी एवं ब्रिटिश लोकतन्त्र के समान और सोवियत रूस तथा साम्यवादी चीन के लोकतन्त्र के समान है क्योंकि यहां बहुदलीय व्यवस्था है। वस्तुतः व्यापक दृष्टिकोण से भारत में लोकतन्त्र को अपनाया गया है जिसमें सामाजिक एवं आर्थिक लोकतन्त्र भी शामिल हैं।
गणराज्य - प्रस्तावना में भारत संघ को 'गणराज्य' भी कहा गया है। गणराज्य का प्रमुख निर्वाचित होता है, जबकि लोकतन्त्र में राज्य का प्रधान निर्वाचित भी हो सकता है और वंशानुगत भी । भारत, अमेरिका तथा स्विट्जरलैण्ड में राज्य के प्रधान एक निश्चित अवधि के लिए जनता द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से चुने गये हैं। इसके विपरीत इंग्लैण्ड में, जहाँ राजतन्त्र है राज्य का प्रमुख एक वंशानुगत सम्राट होता है।
इस प्रकार, “भारतीय संविधान की प्रस्तावना ने भारत में ऐसा शासन स्थापित किया गया है, जो स्वरूप में और यथार्थ में सर्वसाधारण का शासन है, सर्वसाधारण के लाभ के लिए शासन है और सर्वसाधारण के द्वारा शासन है।"
(3) सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय
प्रस्तावना द्वारा संविधान के उद्देश्यों को स्पष्ट किया गया है। ये उद्देश्य पाँच है-
- न्याय ,
- स्वतन्त्रता,
- समानता,
- बन्धुत्व एवं
- राष्ट्रीय एकता ।
'न्याय' का अर्थ सामान्य सामाजिक हित तथा व्यक्ति-विशेष के हित का समन्वय है। व्यक्तिगत हितों से भिन्न सामान्य हित की प्राप्ति न्याय का सार है। सामाजिक तथा आर्थिक न्याय की प्राप्ति के लिए संविधान में अनेक उपबन्ध हैं, जैसे- राज्य के नीति-निर्देशक तत्व तथा अस्पृश्यता निवारण, बेगार, श्रम, पिछड़े वर्गों शैक्षणिक एवं आर्थिक विकास आदि से सम्बन्धित उपबन्ध राजनीतिक न्याय की प्राप्ति के लिए भी संविधान में अनेक उपबन्धों का संकलन है, जैसे- वयस्क मताधिकार, निर्वाचन सम्बन्धी साम्प्रदायिक उपबन्धों की समाप्ति सरकारी पदों की प्राप्ति के लिए सभी नागरिकों को समान अवसर आदि। इस प्रकार प्रस्तावना नागरिकों को समस्त राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक कार्य क्षेत्रों में न्याय प्रदान करती है।
(4) स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व
भारतीय संविधान के अन्तर्गत न केवल न्याय वरन इसके साथ-साथ स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व को भारतीय संविधान का लक्ष्य घोषित किया गया है। 'स्वतन्त्रता' का उद्देश्य व्यक्ति को पूर्ण विकास के लिए उसे आवश्यक अधिकारों को प्रदान करना है। भारतीय संविधान में स्वतन्त्रता का प्रयोग निषेधात्मक तथा स्वीकारात्मक दोनों अर्थों में किया गया है। व्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगे प्रतिबन्धों को हटाने के साथ ऐसी परिस्थितियों के निर्माण का भी प्रयास किया गया है जिससे नागरिकों के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास हो सके। मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत ऐसी व्यवस्था की गयी है।
"समानता" का अर्थ सभी नागरिकों को समान स्थिति एवं अवसर प्रदान करना है। अवसर की समानता का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सामर्थ्य एवं कार्यक्षमता का यथाशक्ति विकास करने का अवसर मिलता है। भारतीय संविधान में नागरिकों के लिए ऐसी समानता की व्यवस्था की गयी है। संविधान के अनुसार कानून की दृष्टि में सभी नागरिक समान हैं तथा उन्हें समान रूप से कानून की सुरक्षा प्राप्त है।
अन्त में, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करने वाली 'बन्धुता और अखण्डता' को बढ़ाने के लिए प्रस्तावना में संकल्प किया गया है। फ्रांसीसी अधिकारों की घोषणा में प्रथम बार बन्धुत्व पर बल दिया गया। संयुक्त राष्ट्र संघ के मानव अधिकारों में भी कहा गया है कि सभी मनुष्यों को एक-दूसरे के साथ भ्रातभाव से व्यवहार करना चाहिए। भारत जैसे देश में, जहाँ अनेक धर्म, जातियाँ, भाषाएँ तथा अन्य पृथक्कारी प्रवृत्तियों वर्तमान हैं, संविधान में बन्धुत्व की भावना के विकास पर बल देना उचित था। इसी हेतु साम्प्रदायिक, स्थानीय एवं प्रान्तीय भावनाओं को दूर करने का व्यवधान आवश्यक था।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में वर्णित प्रमुख सिद्धान्तों के सन्दर्भ में धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीय एकता की व्याख्या-
धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना- वेंकटरमन के शब्दों में, "भारतीय राज्य न वो धार्मिक है न अधार्मिक और न ही धर्म-विरोधी किन्तु यह धार्मिक संकीर्णताओं और वृत्तियों से बिल्कुल दूर है और धार्मिक मामलों में तटस्य है। अतः धर्मनिरपेक्ष राज्य का यह अर्थ नहीं कि राज्य धर्म-विरोधी गतिविधियों को प्रोत्साहित करेगा जैसा कि सोवियत संघ में होता है। इसका यह भी अर्थ नहीं कि राज्य नास्तिक है। इसका केवल यह अर्थ है कि भारत में कोई राजधर्म नहीं होगा। चूंकि भारत में अनेक सम्प्रदाय और मतमतान्तर हैं, इसलिए भारत में राज्य द्वारा किसी विशेष धर्म को मान्यता देना अच्छा समझा गया। इस सम्बन्ध में प्रोफेसर लॉस्की का विचार अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रतीत होता है कि यदि राज्य किसी विशेष धर्म को मान्यता देता है, उसके अनुयायियों को किसी न किसी रूप में कोई विशेष अधिकार अवश्य हो प्राप्त हो जाता है। अतः भारत में धार्मिक मामलों में राज्य तटस्य रहेगा और किसी भी धर्म का पक्षपात नहीं करेगा और न ही धार्मिक आधार पर सरकारी नौकरियां तथा किसी अन्य क्षेत्र में कोई भेदभाव दिखाएगा।
भारतीय संविधान में 42वें संशोधन के अनुसार अब प्रस्तावना में संशोधन करके 'धर्मनिरपेक्ष राज्यों शब्द का समावेश कर दिया गया है।
भारत में धर्मनिरपेक्षता के बारे में ईरान के राष्ट्रपति के विचार- ईरान के तत्कालीन राष्ट्रपति श्री रफसनजारी ने 17 अप्रैल, 1995 को खलीफा अली की स्मृति में तीन दिन की अन्तर्राष्ट्रीय कान्फ्रेंस का उद्घाटन करते हुए भारतीय निरपेक्षवाद को स्तुति की। उन्होंने कहा कि भारत सह-अस्तित्व के सिद्धान्त द्वारा काफी ऊपर उठ गया है। लखनऊ इमामबाड़ा की यात्रा पूरी करने के पश्चात् भी उन्होंने इन शब्दों को दोहराया कि "भारतीय निरपेक्षवाद, विभिन्न मतों और सम्प्रदायों को इकट्ठा रखने का सबसे अच्छा तरीका है।"
राष्ट्रीय एकता को दृढ़ करने वाला संविधान- हमारे संविधान में एकता को दृढ़ करने के लिए बहुत से उपाय अपनाये गये हैं। उदाहरणस्वरूप, राष्ट्रपति को संकटकालीन घोषणा करने का अधिकार दिया गया है। इस अवस्था में केन्द्रीय सरकार का राज्यों पर इतना नियन्त्रण स्थापित हो जाएगा कि भारत में एक प्रकार से संधात्मक सरकार की बजाए एकात्मक सरकार स्थापित हो जाएगी। एकता को सुदृढ़ करने के लिए भारत में दोहरी नागरिकता की बजाए एकहरी नागरिकता स्थापित की गई है। भारत की एकता को सुदृढ़ करने के लिए केन्द्रीय सरकार को बलवान बनाना बहुत आवश्यक था। प्राचीन और मध्यकाल में जिस समय केन्द्र निर्बल हो जाता था, तो उस समय प्रान्त अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर देते थे, ऐसी दुर्घटना से भारत को बचाने के लिए संविधान में कई उपायों का प्रयोग किया गया। प्रान्तों को भारतीय संघ से अलग होने की आज्ञा नहीं दी गई और केन्द्र को उनकी अपेक्षा अधिक कानूनी शासन सम्बन्धी और आर्थिक शक्तियाँ दी गई। एकता को सुदृढ़ करने के लिए हिन्दी सारे भारतवर्ष की राजभाषा घोषित की गई और एक सुप्रीम कोर्ट तथा अखिल भारतीय प्रशासकीय सेवा की स्थापना की गई।
निष्कर्ष- निष्कर्ष में एक भारतीय विद्वान के शब्दों को उद्धत करना उपयुक्त होगा- "भारतीय संविधान की प्रस्तावना आज तक अंकित इस प्रकार के प्रलेखों में सबसे उत्तम है। संसार के अन्य संविधानों की प्रस्तावना पर दृष्टिपात करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि विचार, आदर्श एवं अभिव्यक्ति हमारे संविधान की प्रस्तावना भारतीयों के दृढ़ निश्चय का प्रतीक है कि वे एकता प्राप्त कर ऐसे स्वतन्त्र राष्ट्र का निर्माण करेंगे जिसमें न्याय स्वतन्त्रता, समानता एवं बन्धुत्व विजय हो" संविधान सभा के एक सदस्य ने प्रस्तावना की सराहना करते हुए कहा कि यह संविधान का अमूल्य अंग है। यह संविधान की कुंजी है।"