राजकोषीय नीति का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएँ एवं उद्देश्य

    राजकोषीय नीति

    राजकोषीय वित्त नीति से आशय "राजकीय वित्त नीति" से माना जाता था। सन् 1930 के पूर्व राजकोषीय नीति से आशय शासन की कर व्यवस्था से लगाया जाता था, जिसमें शासन व्ययों की पूर्ति के लिए जनता पर कर लगाती थी। सन् 1930 के बाद प्रोफेसर कीन्स के विचारों के अनुसार राजकोषीय नीति को शासन की आय कम तथा ऋण सम्बन्धी नीतियों से सम्बन्धित माना जाने लगा। सरकारी व्ययों में वृद्धि करके मन्दी को नियन्त्रित किया जा सकता है।

    राजकोषीय नीति का अर्थ

    राजस्व के क्षेत्र में राजकोषीय नीति के स्वरूप में बहुत तीव्र गति से विकास हुआ है। इसमें इतने व्यापक परिवर्तन हुए हैं कि वर्तमान राजकोषीय नीति का स्वरूप पूर्व की राजकोषीय नीति से सर्वथा भिन्न हो गया है। राजकोषीय नीति को नया मोड़ देने का सबसे अधिक श्रेय लार्ड कौन्स को है। वस्तुतः सन् 1936 में उनकी पुस्तक 'रोजगार, ब्याज व मुद्रा का सामान्य सिद्धान्त' के प्रकाशन के बाद राजकोषीय नीति का स्वरूप तीव्र गति से बदला है।

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    राजकोषीय नीति की परिभाषाएँ

    राजकोषीय नीति के अन्तर्गत हम करारोपण, सार्वजनिक व्यय तथा सार्वजनिक ऋण की उन क्रियाओं का विवेचन करते हैं जिनके द्वारा सरकार पूर्व निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति करती है। राजकोषीय नीति को कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्न प्रकार हैं-

    हार्वे एवं जॉनसन के मतानुसार, "अर्थव्यवस्था की क्रियाओं के स्तर एवं स्वरूप में परिवर्तन लाने के उद्देश्य से शासकीय व्यय एवं कराधान में जो परिवर्तन लाये जाते हैं, उन्हें राजकोषीय नीति में शामिल किया जाता है।"

    आर्थर स्मिथीज के शब्दों में, "राजकोषीय नीति वह नीति है जिससे सरकार अपने व्यय तथा आगम के कार्यक्रम को राष्ट्रीय आय, उत्पादन तथा रोजगार पर इच्छित प्रभाव डालने तथा अवांछित प्रभावों को रोकने के लिए प्रयुक्त करती है। " 

    श्रीमती उर्सला हिक्स के अनुसार, "राजकोषीय नीति में विभिन्न अनुभव अपने-अपने उद्देश्यों को तो अलग-अलग पूरा करते हैं किन्तु सामूहिक रूप से वे आर्थिक नीति के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अग्रसर होते हैं। "

    जे. के. शॉ के अनुसार, "हम राजकोषीय नीति को परिभाषित करने की दृष्टि से उसमें कीमत- परिवर्तनों, सार्वजनिक व्यय के समय एवं संरचना में परिवर्तन कर भुगतान की बारम्बारता एवं संरचना में परिवर्तन को शामिल करते हैं।"

    उपर्युक्त सभी परिभाषाओं में राजकोषीय नीति के उपकरण के रूप में सार्वजनिक ऋण की उपेक्षा की गयी है। ब्राइट तथा निकलसन द्वारा दी गयी परिभाषा इस अर्थ में अत्यन्त व्यापक है। उनके अनुसार, “राजकोषीय नीति सरकारी व्यय तथा करों के प्रबन्ध और सार्वजनिक कर्जों को ऐसे ढंग से संचालन करने से सम्बन्ध रखती है, जिससे कि कुछ निश्चित उदेश्य पूरे हो जायें।"

    राजकोषीय नीति की विशेषताएँ

    राजकोषीय नीति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नांकित है- 

    (1) राजकोषीय नीति बजट नीति है जिसका संचालन वित्त मन्त्रालय द्वारा किया जाता है।

    (2) राजकोषीय नीति एक सम्पत्तिपरक नीति है, अतः उसके प्रभाव समस्त अर्थव्यवस्था पर पढ़ते हैं।

    (3) राजकोषीय नीति किसी देश की आर्थिक नीति की सहभागिनी है और आर्थिक नीति के लक्ष्यों को प्राप्त करने के उद्देश्य से चलायी जाती है।

    (4) उसके प्रमुख अंग सार्वजनिक आगम, सार्वजनिक व्यय, सार्वजनिक ऋण एवं घाटे की वित्त व्यवस्था है। 

    (5) व्यापक तौर पर किसी देश के रोजगार, आय कीमत अथवा उत्पादन के स्तर पर वांछनीय प्रभाव डालने के उद्देश्य से इसे संचालित किया जाता है।

    (6) राजकोषीय नीति के अन्तर्गत सरकार प्रत्यक्ष हस्तक्षेप करती है। संक्षेप में व्यय, करारोपण, ऋण व बजट निर्माण से सम्बन्धित सरकारी क्रियाओं को राजकोषीय क्रियाएँ कहा जाता है और जब इन क्रियाओं का उद्देश्य पूर्ण उपभोग, आर्थिक स्थायित्व, द्रुतगामी आर्थिक पूर्ण रोजगार की प्राप्ति के लिए किया जाता है तो इसे राजकोषीय नीति कहते हैं। अन्य शब्दों में, राजकोषीय नीति का सम्बन सरकार से जनता और जनता से सरकार की ओर होने वाले धन के प्रवाह से होता है।

    राजकोषीय नीति के उद्देश्य

    राजकोषीय नीति के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित होते हैं-

    विनियोग की दर बढ़ाना 

    राजकोषीय नीति का लक्ष्य अर्थव्यवस्था के निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों में विनियोग की दर को बढ़ावा देना है। इसे वास्तविक तथा सम्भाव्य उपभोग को रोककर वृद्धिशील बचत अनुपात बढ़ाकर प्राप्त किया जा सकता है। कुछ प्रकार के विनियोगों को प्रोत्साहित और दूसरों को हतोत्साहित करने के लिए भी राजकोषीय नीतियाँ प्रयोग होनी चाहिए। विनियोग की दर बढ़ाने के लिए शासन को सार्वजनिक क्षेत्र में योजनाबद्ध विनियोग की नीति आरम्भ करनी चाहिए।

    रोजगार के अवसर बढ़ाने हेतु

    राजकोषीय नीति का उद्देश्य बेरोजगारी मिटाने तथा रोजगार के अवसरों में वृद्धि करना होता है। शासन को ऐसे व्यय करने होते हैं, जिनसे रोजगार की मात्रा बढ़ती है। विकासशील देशों में सामुदायिक विकास तथा लोक कल्याणकारी कार्यों से रोजगार में वृद्धि होती है। शासन के प्रोत्साहन पर लोक उद्यमों की स्थापना हो सकती है, इसके लिए सस्ती ब्याज दर पर वित्तीय सहायता तथा अन्य छूटों में प्रोत्साहन मिल सकता है। निजी उद्यमों को सुविधाएँ देकर रोजगार बढ़ाये जा सकते हैं। इन प्रयासों के साथ-साथ विकासशील देशों में जनसंख्या वृद्धि को नियन्त्रित करना होगा अन्यथा रोजगार वृद्धि के प्रयास व्यर्थ रहेंगे।

    आर्थिक स्थिरता पाने हेतु  

    विकासशील देशों में तेजी-मंदी की दशाएँ आती हैं। इसे चक्रीय उच्चावचन कहते हैं। इस उच्चावचन को नियन्त्रित करके आर्थिक स्थिरता प्राप्त की जा सकती है। इसके लिए राजकोषीय नीति महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकती है। तेजी काल में आयात-निर्यात शुल्क बढ़ाकर तथा मन्दी काल में घटाकर मूल्यों के उच्चावचन को नियन्त्रित किया जा सकता है। विलासिता सम्बन्धी वस्तुओं पर आयात प्रतिबन्ध आवश्यक होता है। राजकोषीय नीति इसी बात पर सफल हो सकती है कि विलासिता की वस्तु पर आयात प्रतिबन्ध, आयात-निर्यात शुल्क, घरेलू बचतें और पूँजी निर्माण को इस सीमा तक प्रभावित किया है। राजकोषीय नीति का लक्ष्य चक्रीय गति से नियन्त्रित करना होना चाहिए। इस हेतु मन्दी काल में घाटे का बजट तथा तेजी काल में अतिरेक बजट देकर आर्थिक स्थायित्व तथा सन्तुलित विकास को दिशा में अर्थव्यवस्था को बढ़ाया जा सकता है।

    स्फीति नियन्त्रण हेतु 

    विकासशील अर्थव्यवस्था हमेशा विकास के दौर में स्फीतिक प्रभावों से ग्रस्त रहती है अर्थात् मुद्रा प्रसार की स्थिति विकासशील देशों में पायी जाती है। ऐसे देशों में साधनों की माँग एवं पूर्ति के मध्य असन्तुलन पाया जाता है। माँग में वृद्धि तथा पूर्ति में कमी के कारण मूल्यों में वृद्धि होने लगती है। उत्पादन के साधनों की लागत बढ़ने से मूल्य अधिक तेजी से बढ़ते हैं। राजकोषीय नीति इस दिशा में एक प्रभावशाली अस्त्र है जिससे निजी क्षेत्रों को प्रोत्साहन देकर उत्पादन वृद्धि के लिए प्रभावित किया जा सकता है। राजकोषीय नीति यदि मूल्यों में स्थिरता बनाये रखती है तो भी एक महत्वपूर्ण उद्देश्य की पूर्ति करती है।

    कीमत नियन्त्रण हेतु उपभोक्ता वस्तु के उद्योगों को संरक्षण एवं अनुदान तथा योजनाबद्ध ढंग से विकास के माध्यम से मुद्रा-स्फीति के प्रभावों को नियन्त्रित किया जा सकता है।

    राष्ट्रीय आय में वृद्धि तथा पुनर्वितरण हेतु 

    राजकोषीय नीति का उद्देश्य राष्ट्रीय आय में वृद्धि कर ऐसे ढंग से पुनर्वितरण करना होता है कि आय और धन की असमानता दूर हो, जिससे समाज में प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हो तथा सन्तुलित रूप से जीवन-स्तर में सुधार हो सके। राजकोषीय नीति का उद्देश्य होता है कि जनसाधारण की आय में वृद्धि करें और उच्च वर्ग के आय स्तर को कम करें। इस प्रकार प्राप्त आय का पुनर्वितरण जनसाधारण की आर्थिक स्थिति में सुधार लाता है। आय की विषमता गिरने से अनेक सामाजिक बुराइयाँ दूर होती हैं।

    सार्वजनिक दृष्टि से विनियोग को प्रोत्साहन

    राजकोषीय नीति का उद्देश्य सामाजिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है। क्षेत्रों में विनियोग के प्रवाह को प्रोत्साहित करना होता है। राज्य की यह जिम्मेदारी होती है कि सामाजिक-आर्थिक वृद्धि से विकास हेतु परिवहन, संचार, स्वास्थ्य, तकनीकी प्रशिक्षण, शिक्षा आदि का विकास हो। इन क्षेत्रों में शासन को विनियोग करना पड़ता है।


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