परिवार का अर्थ
"Family" शब्द का उद्गम लैटिन भाषा के शब्द 'Farnuhis से हुआ है, जो एक ऐसे समूह के लिए प्रयुक्त हुआ है जिसमें माता- पिता, बच्चे, नौकर और दास हो। साधारण अर्थों में विवाहित जोड़े को परिवार की संज्ञा दी जाती है, किन्तु समाजशास्त्रीय दृष्टि से यह परिवार शब्द का सही उपयोग नहीं है।
परिवार की परिभाषा
मैकाइवर एवं पेज के अनुसार, "परिवार पर्याप्त निश्चित यौन सम्बन्ध द्वारा परिभाषित एक ऐसा समूह है जो बच्चों के जनन एवं लालन-पालन की व्यवस्था करता है।''
डॉ० दुबे के अनुसार, "परिवार में स्त्री और पुरुष दोनों की सदस्यता प्राप्त रहती है, उनमें से कम से कम दो विपरीत यौन सन्बन्धों की सामाजिक स्वीकृति रहती है और उनके संसर्ग से उत्पन्न सन्तान परिवार का निर्माण करते है।"
मरडॉक के अनुसार, "परिवार एक ऐसा सामाजिक समूह है जिसके लक्षण सामान्य निवास, आर्थिक सहयोग और जनन है। इसमें दो लिंगों के बालिग शामिल हैं जिनमें कम-से-कम दो व्यक्तियों द्वारा स्वीकृत यौन सम्बन्ध होता है और जिन बालिग व्यक्तियों में यौन सम्बन्ध है, उनके अपने या गोद लिए हुए एक या अधिक बच्चे होते हैं।"
लूसी मेयर के अनुसार, "परिवार एक गार्हस्थ समूह है जिसमें माता-पिता और सन्तान साथ-साथ रहते हैं। इनके मूल रूप से दम्पति और उसकी सन्तान रहती हैं।"
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि विद्वानों ने परिवार को विभिन्न दृष्टिकोणों से परिभाषित किया है। परिवार एक समूह, एक संघ और एक संस्था के रूप में समाज में विद्यमान है। प्रत्येक समाज में परिवार के दो पक्ष स्पष्ट होते हैं एक संरचना (Structural) एवं दूसरा प्रकार्यात्मक (Functional)। अपने मूल रूप में परिवार की संरचना पति-पत्नी और बच्चों से मिलकर बनी होती है। इस दृष्टि से प्रत्येक परिवार में कम-से-कम तीन प्रकार के सम्बन्ध विद्यमान होते हैं-
(i) पति-पत्नी के सम्बन्ध (Husband-wife relations)।
(ii) माता-पिता एवं बच्चों के सम्बन्ध (Parents-children relations)।
(iii) भाई-बहनों के सम्बन्ध (Siblings relations)।
प्रथम प्रकार का सम्बन्ध वैवाहिक सम्बन्ध (affinal relation) होता है, जबकि दूसरे एवं तीसरे प्रकार के सम्बन्ध रक्त सम्बन्ध (blood relations) होते हैं। इसी आधार पर परिवार के सदस्य परस्पर नातेदार भी है। स्पष्ट है कि एक परिवार में वैवाहिक एवं रक्त सम्बन्धी का पाया जाना आवश्यक है। इन सम्बन्धों के अभाव में परिवार का निर्माण सम्भव नहीं है।
प्रकार्यात्मक दृष्टि से परिवार का निर्माण कुछ मूल उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है। परिवार का उद्देश्य यौन सम्बन्धों का नियमन करना, सन्तानोत्पत्ति करना, उनका लालन-पालन, शिक्षण व समाजीकरण करना एवं उन्हें आर्थिक, सामाजिक और मानसिक संरक्षण प्रदान करना है। इन कार्यों की पूर्ति के लिए परिवार के सदस्य परस्पर अधिकारों एवं कर्तव्यों से बंधे होते हैं। परिवार की सांस्कृतिक विशेषता यह है कि परिवार समाज की संस्कृति की रचना, सुरक्षा, हस्तान्तरण एवं संवर्धन में योग देता है।
संक्षेप में हम परिवार को जैविकीय सम्बन्धों पर आधारित एक सामाजिक समूह के रूप में परिभाषित कर सकते हैं जिसमें माता- पिता और बच्चे होते हैं तथा जिसका उद्देश्य अपने सदस्यों के लिए सामान्य निवास, आर्थिक सहयोग, यौन सन्तुष्टि और प्रजनन, समाजीकरण और शिक्षण आदि की सुविधाएँ जुटाना है।
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परिवार की विशेषताएँ
मैकाइवर एवं पेज ने परिवार की कुछ ऐसी विशेषताओं का उल्लेख किया है जो सभी समाजों में सार्वभौमिक रूप से पायी जाती है-
विवाह सम्बन्ध
प्रत्येक परिवार विवाह के बाद ही अस्तित्व में आता है।
विवाह का एक स्वरूप
प्रत्येक समाज में विवाह का एक स्वरूप प्रचलित होता है जो एक विवाह, बहुपत्नी विवाह या बहुपति विवाह आदि हो सकता है।
वंशनाम
परिवार में बच्चों के नामकरण की भी व्यवस्था होती है। बच्चे या तो पिता के नाम से जाने जाते हैं या माता के नाम से।
अर्थव्यवस्था
प्रत्येक परिवार में अपने सदस्यों के भरण-पोषण के लिए कोई-न-कोई आर्थिक क्रिया अवश्य सम्पन्न की जाती है।
सामान्य निवास
प्रत्येक परिवार के सदस्य एक स्थान पर निवास करते हैं, जिसे वे 'घर' कहते हैं।
मैकाइवर एवं पेज ने परिवार को कुछ विशिष्ट विशेषताओं का उल्लेख भी किया है, जो इस प्रकार हैं-
(i) सार्वभौमिक परिवार रूपी संस्था सभी कालों एवं सभी स्थानों पर पायी जाती है।
(ii) भावात्मक सुधार परिवार के सदस्यों में परस्पर भावात्मक सम्बन्ध होते हैं, उनमें प्रेम, सहयोग, बलिदान एवं सहिष्णुता पाये जाते हैं।
(iii) रचनात्मक प्रभाव बच्चा परिवार में ही अच्छी और बुरी बातें सीखता है उसके व्यक्तित्व का निर्माण करने में परिवार का प्रभाव सर्वोपरि है।
(iv) केन्द्रीय स्थिति सामाजिक संरचना में परिवार की केन्द्रीय स्थिति है। कई परिवारों से मिलकर ही वंश, गोत्र, उपजाति, जाति, समुदाय एवं समाज बनता है।
(v) सदस्यों का उत्तरदायित्व अन्य संघों एवं संस्थाओं की अपेक्षा परिवार का अपने सदस्यों के प्रति अधिक एवं महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व है।
(vi) सीमित आकार परिवार की सदस्यता जैविक होने के कारण परिवार के सदस्यों की संख्या सीमित होती है, अन्य संगठनों की तरह हजारों में नहीं होती।
(vii) सामाजिक नियमन प्रथाओं एवं परम्पराओं द्वारा प्रत्येक परिवार अपने सदस्यों पर नियन्त्रण रखता है और समाज व्यवस्था को बनाये रखने में सहयोग देता है।
(viii) परिवार की स्थायी और अस्थायी प्रकृति संस्था के रूप में परिवार स्थायी है, आदिकाल से चला आ रहा है, किन्तु संघ या समिति के रूप में व्यक्तिगत परिवार सदस्यों की मृत्यु होने पर समाप्त भी होते रहते हैं।
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परिवार के प्रकार्य एवं महत्त्व
परिवार सामाजिक जीवन की आधारभूत इकाई है इसीलिए मैकाइवर और पेज ने इसे समाज का छोटा रूप माना है। परिवार एक सार्वभौमिक संस्था भी है तथा विश्व के प्रत्येक समाज एवं युग में इसका अस्तित्व देखने को मिलता है। हाँ, इतना सत्य है कि परिवार का स्वरूप विभिन्न समाजों एवं युगों में अलग-अलग अवश्य रहा है। कहने का आशय यह है कि परिवार के संरचनात्मक पक्ष (Structural aspect) में अन्तर देखने को मिलता है, किन्तु इसका प्रकार्यात्मक पक्ष बहुत कुछ समान ही है। यह बात दूसरी है कि आज औद्योगिकीकरण, नगरीकरण, सामाजिक गतिशीलता में वृद्धि, यातायात एवं सन्देशवाहन के नवीन साधनों एवं नवीन शिक्षा प्रणाली के कारण अब परिवार के प्रकार्यों में भी परिवर्तन आने लगा है, किन्तु परिवार के प्रकार्यों में परिवर्तन एवं उसके लिए उत्तरदायी कारकों की व्याख्या करने के पूर्व परिवार के प्रकार्यों एवं महत्त्व को स्पष्ट करना आवश्यक है। परिवार के प्रकार्यों को हम निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत स्पष्ट कर सकते हैं-
1. परिवार के प्राणिशास्त्रीय प्रकार्य
परिवार के प्राणिशास्त्रीय कार्यों को हम निम्न प्रकार से स्पष्ट कर सकते हैं-
(क) यौन इच्छाओं की पूर्ति- पेट की भूख के पश्चात् मानव की शारीरिक भूख अर्थात् यौन इच्छाओं की संतुष्टि दूसरी महत्त्वपूर्ण आवश्यकता मानी जाती है और यदि इस इच्छा की पूर्ति सुचारु, संयमित एवं वैध ढंग से नहीं होती तो मानव के मस्तिष्क में कुण्ठा पैदा होकर उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व को भंग ही नहीं करती बल्कि सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था को भंग होने का भय पैदा होने लगता है क्योंकि फिर व्यक्ति मनमाने ढंग से यौन संतुष्टि की चेष्टा करेगा तथा समाज में कलह, द्वेष एवं संघर्ष की भी नौबत आ सकती है। कोई भी समाज चाहे आदिम हो या सभ्य अपने सदस्यों को मनमाने ढंग से यौन सम्बन्ध स्थापित करने की छूट नहीं दे सकता। परिवार की यह महत्वपूर्ण संस्था है जिसके माध्यम से कोई समाज व्यक्ति की यौन इच्छाओं की नियमित एवं वैध ढंग से पूर्ति की व्यवस्था करता है।
(ख) बच्चों की उत्पत्ति- परिवार केवल व्यक्ति की यौन इच्छाओं की तुष्टि की ही समुचित व्यवस्था नहीं करता बल्कि बच्चों के जन्म को सम्भव बनाता है, जिससे समाज की निरन्तरता को बनाये रखा जा सके। चूंकि मानव एक मरणशील प्राणी है, उसकी मृत्यु के पश्चात् समाज में हुए रिक्त स्थान को भरने के लिए नये सदस्यों की आवश्यकता होती है और इस आवश्यकता की पूर्ति परिवार की प्रक्रिया द्वारा सम्भव बनाता है। भारतीय दर्शन में भी विवाह का उद्देश्य केवल परिवार का निर्माण करना नहीं बल्कि रति (काम) के साथ ही प्रजा (सन्तान) की व्यवस्था करना भी है। यदि परिवार वैध सन्तानों के जन्म की व्यवस्था न करे तो अवैध सन्तान होगी और किसी भी समाज में इन्हें न तो स्वीकार किया जाता है, न उनका कोई सामाजिक पद होता है और न ही उन्हें उत्तराधिकार का अधिकार प्राप्त होता है। यह परिवार ही है जो सन्तानोत्पत्ति को वैधता प्रदान करता है।
(ग) प्रजाति की निरन्तरता- परिवार का एक महत्त्वपूर्ण कार्य मानव प्रजाति की निरन्तरता को सम्भव बनाना भी है। परिवार ही युगों से मानव को जन्म देकर उसकी निरन्तरता को बनाये हुए है। यदि परिवार मानव की प्राणिशास्त्रीय आवश्यकताओं की उचित पूर्ति सी व्यवस्था न करता तो कदाचित मानव समाज कब का समाप्त हो चुका होता।
2. परिवार के शारीरिक प्रकार्य
(क) शारीरिक रक्षा- जन्म के समय बालक का शरीर अत्यन्त दुर्बल होता है और यदि उसे माता-पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों का संरक्षण प्राप्त न हो तो उसका जीवन ही संकट में पड़ सकता है। इसके अतिरिक्त यह परिवार ही है जो अपने सदस्यों के बीमार पड़ने, अपाहिज हो जाने एवं वृद्धावस्था में उन्हें शारीरिक संरक्षण प्रदान कर उन्हें जीवन के सुख-दुःख एवं उत्थान-पतन का हँसते हुए सामना करने में सक्षम बनाता है।
(ख) सन्तान का पालन-पोषण- परिवार सन्तानों के जन्म की ही व्यवस्था नहीं करता बल्कि उनके उचित लालन-पालन की भी उचित व्यवस्था करता है जिससे नवजात शिशु अपने पूर्ण एवं संतुलित व्यक्तित्व को प्राप्त कर सके। माता-पिता स्वयं रात-रात भर जागकर एवं हर प्रकार के कष्ट सहकर भी अपनी संतानों को स्वस्थ एवं सुखी देखना चाहते हैं। परिवार के सदस्यों का लगाव बालक में परिवार के प्रति एक अनोखा भावात्मक लगाव पैदा करता है जो व्यवस्थित एवं शांतिमय सामाजिक जीवन के लिए आवश्यक है।
(ग) भोजन की व्यवस्था- परिवार के सदस्यों के जीवन अस्तित्व को बनाये रखने के लिए परिवार भोजन की भी व्यवस्था करता है। प्राचीन एवं आदिम समाज में परिवार के सभी सदस्य सामूहिक रूप से शिकार करते व भोजन की व्यवस्था करते थे। भौतिक मूल्य (रोटी, कपड़ा एवं मकान) के बिना तो किसी व्यक्ति अथवा समाज के अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। मार्क्स ने उचित ही कहा है कि व्यक्ति के द्वारा किया जाने वाला प्रथम ऐतिहासिक कार्य उत्पादन का ही कार्य रहा होगा।
(घ) मकान एवं वस्त्र की व्यवस्था- भोजन की व्यवस्था के पश्चात् मानव की सुरक्षा प्रदान करने के सन्दर्भ में मकान एवं वस्त्र की आवश्यकता की पूर्ति आती है। आदिम समाजों में परिवार के सदस्य ही गुफा कन्दरा या झोपड़ी बनाकर मनुष्य की जंगली पशुओं से सुरक्षा प्रदान करते हैं। आज भी परिवार ही व्यक्ति के लिए मकान की व्यवस्था करता है।
3. परिवार के आर्थिक प्रकार्य
परिवार विभिन्न प्रकार के आर्थिक कार्य सम्पन्न करता है। इनमें निम्न प्रमुख हैं-
(क) परिवार में उत्तराधिकार का निर्धारण- समाज की निरन्तरता बनाये रखने, श्रम के विभाजन एवं पारिवारिक अधिकार व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए परिवार के किसी-न-किसी सदस्य का मुखिया होना तथा उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके दायित्वों एवं सम्पत्ति आदि को किसी-न-किसी को सौंपना आवश्यक होता है। अब प्रश्न यह है कि यह दायित्व किसे सौंपा जाय। इस बात का निर्धारण परिवार एवं उसकी अपनी परम्पराओं के द्वारा किया जाता है। पितृसत्तात्मक परिवार में पिता के पश्चात् परिवार का उत्तराधिकारी उसका बड़ा बेटा होता है, जबकि मातृसत्तात्मक परिवार में माता के पश्चात् उत्तराधिकार का अधिकार उसकी बेटी अथवा भान्जे को मिलता है।
(ख) परिवार एक उत्पादक इकाई- परिवार एक उत्पादक इकाई के रूप में भी कार्य करता है। परिवार द्वारा किये गये उत्पादन के द्वारा ही परिवार के सभी सदस्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। प्राचीनकाल में शिकार करने, पशु पालने एवं कृषि परिवार के सभी सदस्य सामूहिक रूप से करते थे। भारत में परिवार के वृहत स्वरूप अर्थात् संयुक्त परिवारों का प्रचलन रहा है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी क्षमता के आधार पर उत्पादन का कार्य करता था तथा परिवार का मुखिया प्रत्येक व्यक्ति को उसकी आवश्यकता के अनुसार आर्थिक सहायता प्रदान करता था। आधुनिक युग में भी परिवार से पति-पत्नी एवं अन्य सदस्य उत्पादन का कार्य करते हैं।
(ग) कार्यों का बँटवारा- परिवार का एक महत्त्वपूर्ण प्रकार्य परिवार के सदस्यों में श्रम का विभाजन करना भी है। उनकी क्षमताओं को सही अर्थों से उसी समय उपयोगी ढंग से प्रयोग किया जा सकता है जब उन्हें उनकी क्षमता एवं पसन्द के अनुसार कार्य करने को मिले। ऐसा करने से उनकी कार्य करने में रुचि भी होगी एवं उत्पादकता भी अधिक मिल सकेगी। आदिम समाजों में स्त्री एवं पुरुषों में भ्रम या कार्य का कोई स्पष्ट बँटवारा नहीं था। सभी मिलकर कार्य करते थे फिर भी उस समय भी पुरुष वर्ग शिकार एवं कृषि कार्य करता था और महिलाएं परिवार में रहकर बच्चे पैदा करने, उनका पालन-पोषण करने एवं घर-गृहस्थी के अन्य कार्य करती थी। आधुनिक समय में भी स्त्री एवं पुरुषों के कार्यों का स्पष्ट विभाजन देखने को मिलता है। हाँ, अब कुछ परिवार में पति और पत्नी दोनों ही नौकरी करने लगे हैं, फिर भी अन्य कार्यों में स्पष्ट विभाजन देखने को मिलता है। मैकाइवर और पेज ने सत्य ही कहा है, "हम समान उद्देश्य के लिए असमान कार्य करते हैं।"
(घ) पारिवारिक सम्पत्ति का प्रबन्ध- परिवार चाहे आदिम हो, संयुक्त अथवा एकल सभी किसी-न-किसी रूप में पारिवारिक सम्पत्ति की व्यवस्था करता रहा है। यह परिवार की सम्पत्ति ही है जिसके आधार पर परिवार की समृद्धि एवं उसके सामाजिक स्तर, पद एवं प्रतिष्ठा का निर्माण होता है। परिवार की आय के आधार पर ही पारिवारिक कोष का गठन होता है जो परिवार के सदस्यों के शादी-विवाह, अन्य संस्कारों की पूर्ति एवं संकट के समय काम में आती है। कदाचित् इसी आधार पर विद्वानों ने संयुक्त परिवार को एक बीमा कम्पनी की संज्ञा दी है। पारिवारिक सम्पत्ति का स्वरूप बदलता रहता है। जैसे- प्राचीनकाल में कृषि योग्य भूमि एवं पशु पारिवारिक सम्पत्ति माने जाते थे, जबकि आज नकद राशि, बैंक बैलेंस एवं सोना-चाँदी को पारिवारिक सम्पत्ति माना जाता है।