मौलिक अधिकार - [FUNDAMENTAL RIGHTS]

    "एक स्वतन्त्र प्रजातन्त्रात्मक देश में मूल अधिकार सामाजिक, धार्मिक और नागरिक जीवन के प्रभावदायक उपभोग के एकमात्र साधन है। इन अधिकारों के बिना प्रजातन्त्रात्मक सिद्धान्त लागू नहीं हो सकते और सदैव ही बहुमत के अत्याचार का भय बना रहता है।" - जी. एन. जोशी 

    व्यक्ति के जीवन की एक सर्वोपरि अभिलाषा है, श्रेष्ठ और आदर्श पूर्ण जीवन का व्यतीत होना। इस अभिलाषा की पूर्ति के लिए उसे समाज से स्वतंत्रता और विभिन्न सुविधाओं की प्राप्ति की अपेक्षा रहती है। और  इनके अभाव में मानव आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक आदि किसी भी क्षेत्र में विकास नहीं कर सकता । इन आधारभूत स्वतन्त्रताओं और सुविधाओं को ही 'मौलिक अधिकार' कहा जाता है। 

    प्रो. लॉस्की का मत है : कि "अधिकार सामाजिक जीवन की वे परिस्थितियां है जिनके बिना व्यक्ति प्रायः अपना विकास नहीं कर सकता।" अतः व्यक्ति के सर्वागीण विकास के लिए जो अधिकार अपरिहार्य होते हैं उनको मौलिक अधिकार कहा जाता है। ये वे अधिकार हैं जिन्हें संविधान द्वारा संरक्षण प्रदान किया गया है, ताकि सत्ताधारी दल बहुमत के जोश में उनको साधारण प्रक्रिया से न छीन सकें। इसी बात को दृष्टि में रखकर फ्रांस, अमेरिका आदि देशों की भांति भारत के संविधान में भी मौलिक अधिकारों को स्थान दिया गया है।

    भारतीय संविधान के अनुसार: मौलिक अधिकार वे अधिकार हैं जिन्हें मानना हमारी संघीय सरकार और राज्य सरकारों के लिए अनिवार्य है। यदि ये सरकारें इन अधिकारों का हनन करती हैं तो इनके विरुद्ध न्यायालय में अपील की जा सकती है। दूसरे शब्दों में, मौलिक अधिकार वे अधिकार हैं, जो व्यक्ति के जीवन के लिए मौलिक तथा अपरिहार्य होने के कारण संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किये जाते हैं और व्यक्ति के इन अधिकारों में राज्य द्वारा भी हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता। मौलिक अधिकारों की व्यवस्था का उद्देश्य नागरिकों की स्वतन्त्रता में कार्यपालिका के अनुचित हस्तक्षेप तथा विधान मण्डलों के बहुमत दल की मनमानी से रक्षा करना है। अर्थात् मौलिक अधिकार राज्य की कार्यपालिका और व्यवस्थापिका की निरंकुशता पर अंकुश लगाते हैं और न्यायपालिका नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करती है।

    व्यक्ति के इन अधिकारों को निम्न कारणों से मौलिक कहा जा सकता है। 

    • मौलिक अधिकार व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए अनिवार्य होते हैं, इनके अभाव में व्यक्ति अपना पूर्ण विकास नहीं कर पाता ।
    • मौलिक अधिकारों को देश के सर्वोच्च कानून अर्थात् संविधान में महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। ये राज्य द्वारा पारित कानूनों से ऊपर होते हैं।
    • मौलिक अधिकार में परिवर्तन संविधान में संशोधन करने की विशेष प्रक्रिया द्वारा ही सम्भव होता है।
    • मौलिक अधिकार को वैधानिक शक्ति प्राप्त है अर्थात व्यवस्थापिका या कार्यपालिका द्वारा इनका उल्लंघन नहीं किया जा सकता। यदि सरकार के इन अंगों द्वारा मौलिक अधिकारों के विरुद्ध कोई भी कार्य किया जाय तो न्यायपालिका द्वारा उन्हें अवैध घोषित किया जा सकता है।

    अतः इस प्रकार मौलिक अधिकारों को भारतीय संविधान का हृदय और आत्मा भी कहा जा सकता है।

    इसे भी पढ़ें- मौलिक अधिकार क्या है

    यह भी पढ़ें- भारतीय संवैधानिक विकास के चरण | Bharateey Sanvaidhanik Vikaas Ke Charan

    भारतीय संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों की विशेषताएँ 

    यद्यपि मूल अधिकारों के सम्बन्ध में भारतीय संविधान द्वारा अमेरिका और आधुनिक संविधानों से प्रेरणा ली गई है लेकिन फ्रांस, अमेरिका, रूस और स्विट्जरलैण्ड आदि देशों के संविधानों की भांति भारतीय गणतन्त्र के संविधान में मौलिक अधिकारों और उनसे सम्बन्धित व्यवस्था के सम्बन्ध में वैसा नहीं है जैसे- कि अन्य देशों के संविधानों के अधिकार पत्र हैं। भारतीय संविधान के अधिकार पत्र की निम्नलिखित विशेषताएं हैं- 

    सर्वाधिक विस्तृत एवं व्यापक अधिकार पत्र

    भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों का वर्णन दूसरे देशों के संविधानों की अपेक्षा कहीं अधिक विस्तृत है। भारतीय संविधान के तृतीय भाग में मौलिक अधिकारों का वर्णन अनुच्छेद 12 से 30 और 32 से 35 तक है। इनमें भी कई अनुच्छेद बहुत लम्बे हैं। अकेले अनुच्छेद 19 में ही 450 शब्द हैं। भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों के सम्बन्ध में पूर्ण और स्पष्ट व्यवस्था करने के प्रयास में ही अधिकार पत्र इतना विस्तृत एवं व्यापक हो गया है। 

    मौलिक अधिकार सीमित है निरपेक्ष नहीं 

    अमेरिका में नागरिकों के अधिकार निरपेक्ष हैं परन्तु भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को दिये गये अधिकार सीमित हैं। इनमें व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को सामाजिक हित में सीमित करने की व्यवस्था की गयी है। संविधान में ही नागरिकों के अधिकारों के साथ-साथ प्रतिबन्धों की व्यवस्था भी कर दी गयी है जिससे राष्ट्रीय सुरक्षा के आदर्शों में सन्तुलन बना रहे।

    व्यावहारिकता पर आधारित 

    भारतीय संविधान में वर्णित मौलिक अधिकार केवल सिद्धान्त नहीं है वरन् वास्तविकता पर आधारित है और सम्पूर्ण समाज के लिए उपयोगी हैं। इनमें सभी नागरिकों के लिए समानता के अधिकार की व्यवस्था के साथ ही साथ अल्पसंख्यकों, आदिम जातियों, आदिम जनजातियों एवं पिछड़े वर्गों की उन्नति व विकास के लिए विशेष व्यवस्थाएँ की गयी हैं। अल्पसंख्यकों के शिक्षा एवं भाषा सम्बन्धी हितों की रक्षा की व्यवस्था और धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार की व्यवस्थाएं की गयी है जिससे समाज में शिक्षा का विकास हो और धार्मिक सहिष्णुता को प्रोत्साहन मिले ।

    यह भी पढ़ें-

    न्यायालय द्वारा संरक्षण

    मौलिक अधिकार पूर्ण रूप में वैधानिक अधिकार है। भारतीय संविधान की व्यवस्था के अनुसार न्यायपालिका को मौलिक अधिकारों की रक्षा करने के लिए अधिकृत किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 32 के अनुसार भारत का प्रत्येक नागरिक अपने इन अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायपालिका की शरण ले सकता है। व्यवस्थापिकाओं द्वारा बनाये गये ऐसे कानूनों को जो मौलिक अधिकारों को अनुचित रूप में प्रतिबन्धित करते हों, न्यायालय अवैध घोषित कर देता है। चूंकि भारतीय न्यायपालिका कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका के नियन्त्रण से मुक्त है इसलिए मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए संविधान द्वारा दिये गये संवैधानिक उपचारों के अधिकार के अन्तर्गत आवश्यक आदेश निर्गत कर सकती है। 

    प्राकृतिक अधिकारों के लिए स्थान नहीं 

    भारतीय संविधान में नागरिकों के लिए जो मौलिक अधिकार उल्लेखित हैं उनके अतिरिक्त नागरिकों को कोई प्राकृतिक अधिकार प्राप्त नहीं हैं। भारत के विपरीत अमेरिका में नागरिकों को लिखित अधिकारों के अलावा अन्य अधिकार भी प्राप्त हैं।

    राज्य के सामान्य कानूनों से ऊपर

    मौलिक अधिकार संसद अथवा राज्यों के विधानमण्डलों द्वारा बनाये गये कानूनों से ऊपर हैं। संघीय सरकार या राज्य सरकारें इनका हनन नहीं कर सकती। गोलकनाथ विवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने संसद की इस शक्ति पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। इस सम्बन्ध में न्यायाधीश श्री पातंजलि शास्त्री ने गोपालन बनाम मद्रास राज्य विवाद में कहा था, मौलिक अधिकारों की सर्वश्रेष्ठ विशेषता यह है कि वे राज्य द्वारा पारित कानूनों से ऊपर हैं।'

    सरकार की निरंकुशता पर अंकुश 

    मौलिक अधिकारों की एक महत्तवपूर्ण विशेषता यह है कि ये मौलिक अधिकार सरकार की निरंकुशता पर अंकुश रखते हैं क्योंकि ये अधिकार प्रत्येक नागरिक की स्वतन्त्रता के परिचायक हैं और संविधान द्वारा इनके उपयोग का पूर्ण आश्वासन दिया गया है। अतः सरकार मनमानी करते हुए उन पर अनुचित रूप से प्रतिबन्ध नहीं लगा सकती। सरकार द्वारा लगाये गये अनुचित प्रतिबन्ध न्यायालय द्वारा अवैध घोषित हो सकते हैं। इस प्रकार मौलिक अधिकार निरंकुश शासन पर अंकुश के समान हैं।

    मौलिक अधिकारों का निलम्बन 

    भारतीय नागरिकों के मूल अधिकारों की एक विशेषता यह है कि इन अधिकारों को राज्य की सुरक्षा और सार्वजनिक सुरक्षा की दृष्टि से निलम्बित किया जा सकता है। संकटकाल की स्थिति में राष्ट्रपति को अधिकार दिया गया है कि वह मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत नागरिकों के संवैधानिक उपचारों के अधिकार को निलम्बित कर सकता है। 

    भारतीय नागरिकों तथा विदेशियों में अन्तर

    भारतीय नागरिकों तथा भारत में रहने वाले विदेशी नागरिकों के लिए संविधान द्वारा दिये गये मौलिक अधिकारों में अन्तर है। कुछ ऐसे अधिकार हैं जो भारतीयों के साथ-साथ विदेशियों को भी प्राप्त हैं; जैसे- जीवन तथा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अधिकार, धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार परन्तु शेष अधिकार केवल भारतीय नागरिकों को प्राप्त है। इस प्रकार भारतीय नागरिकों को प्राप्त समस्त मौलिक अधिकारों का उपयोग विदेशी नागरिक नहीं कर सकते।

    इसे भी पढ़ें-

    भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकार

    भारतीय संविधान के भाग 3 द्वारा नागरिकों को 7 मौलिक अधिकार प्रदान किये गये थे परन्तु सन् 1979 के 44वें संवैधानिक संशोधन द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में समाप्त कर दिया गया है। सम्पत्ति का अधिकार अब केवल एक साधारण कानूनी अधिकार के रूप में ही रह गया है। इस प्रकार अब भारतीय नागरिकों को निम्नलिखित 6 मौलिक अधिकार प्राप्त हैं- 

    समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18) 

    भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 से लेकर 18 तक निम्न पाँच प्रकार की समानता का उल्लेख है- 

    (1) विधि के समक्ष समानता : अनुच्छेद 14 के अनुसार, भारत राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समानता से अथवा कानून के समान संरक्षण से राज्य द्वारा वंचित नहीं किया जायेगा। इसका तात्पर्य यह है कि कानून की दृष्टि से सब नागरिक समान हैं। कानून की दृष्टि में न कोई छोटा है न कोई बड़ा, न कोई धनवान है और न कोई निर्धन अर्थात् कानून के क्षेत्र में किसी के साथ भी भेदभाव नहीं किया जायेगा, सबको समान रूप से विधि का संरक्षण प्राप्त है।

    (2) सामाजिक समानता : अनुच्छेद 15 में सामाजिक समानता का उल्लेख किया गया है जिसके अन्तर्गत कहा गया है कि राज्य के विरुद्ध केवल धर्म, वंश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान अथवा इनमें से किसी एक के आधार पर कोई भेदभाव नहीं रहेगा।

    (3) सरकारी नौकरियों के लिए अवसर की समानता : अनुच्छेद 16 के अनुसार, सब भारतीय नागरिकों को सरकारी पदों पर नियुक्ति के समान अवसर प्राप्त होंगे और इस सम्बन्ध में केवल धर्म, जाति, लिंग या जन्म स्थान अथवा किसी एक के आधार पर सरकारी नौकरियों में कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा। परन्तु इस अधिकार के अन्तर्गत राज्यों को यह अधिकार रहेगा कि वह राजकीय सेवाओं के लिए आवश्यक योग्यता निर्धारित कर दें।

    (4) अस्पृश्यता का उन्मूलन : संविधान के अनुच्छेद 17 में कहा गया है,अस्पृश्यता का अन्त किया जाता है और उसका किसी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है। अस्पृश्यता से उपजी किसी अयोग्यता को लागू करना अपराध होगा। हिन्दू समाज में अस्पृश्यता के विष को समाप्त करने के लिए संसद द्वारा 1955 में अस्पृश्यता अपराध अधिनियम पारित किया गया जिसके अनुसार अस्पृश्यता एक दण्डनीय अपराध घोषित किया गया। `अस्पृश्यता अपराध अधिनियम' को 1976 में संशोधित कर इसका नाम 'नागरिक अधिकार 'संरक्षण अधिनियम', 1955 का दिया गया। 1989 में इस कानून को अधिक कठोर बताते हुए इसे 'अनुसूचित जाति व जनजाति निरोधक कानून 89' का नाम दे दिया गया।

    (5) उपाधियों का अन्त : अनुच्छेद 18 के अनुसार, सेना अथवा शिक्षा सम्बन्धी किसी उपाधि के अतिरिक्त राज्य अन्य कोई उपाधि प्रदान नहीं कर सकता। इसके साथ ही भारतवर्ष का कोई नागरिक बिना राष्ट्रपति की आज्ञा के विदेशी राज्य के उपहार अथवा किसी प्रकार का पारिश्रमिक अथवा पदवी स्वीकार नहीं कर सकता लेकिन इसके कुछ अपवाद भी है।

    स्वतन्त्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22) 

    लोकतान्त्रिक उद्देश्यों के अनुरूप भारतीय संविधान में सभी नागरिकों को स्वतन्त्रता का अधिकार दिया गया। इस अधिकार का वर्णन भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 से 22 तक किया गया है। अनुच्छेद 19 में निम्न स्वतन्त्रताओं का उल्लेख है-  

    (1) विचार तथा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता : अनुच्छेद 19(1क) के अनुसार, भारत के प्रत्येक नागरिक को भाषण, लेखन एवं अन्य व्यक्तियों के विचारों का प्रचार करने की स्वतन्त्रता प्रदान की गई है। इसमें प्रेस की स्वतन्त्रता भी निहित है अर्थात् समाचार-पत्रों के माध्यम से विचारों का प्रकाशन इस अधिकार में सम्मिलित है। 

    (2) निःशस्त्र व शान्तिपूर्ण सभा करने की स्वतन्त्रता : संविधान के अनुच्छेद 19(1ख) के अनुसार, सब नागरिकों को बिना हथियारों के शान्तिपूर्ण ढंग से सभा या सम्मेलन आयोजित करने का अधिकार प्राप्त है।

    (3) समुदाय या संघ बनाने की स्वतन्त्रता : संविधान के अनुच्छेद 19 (1ग) के अनुसार, सब नागरिकों को समुदाय और संघ बनाने को स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है। पर इस स्वतन्त्रता पर भारत की प्रभुसत्ता व अखण्डता अथवा सार्वजनिक व्यवस्था या नैतिकता के हित में राज्य की ओर से उचित प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं।

    (4) देश के किसी भी भाग में भ्रमण तथा निवास की स्वतन्त्रता : भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1घ) और व के द्वारा भारत के सभी नागरिकों को बिना किसी प्रतिबन्ध के भ्रमण करने तथा आवास की सुविधा प्रदान की गई पर इस अधिकार पर राज्य सामान्य जनता के हित तथा अनुसूचित जातियों के हित में उचित प्रतिबन्ध लगा सकता है।

    (5) व्यवसाय की स्वतन्त्रता : संविधान के अनुच्छेद 19(1ज) के अनुसार, सभी भारतीय नागरिकों को वृत्ति उपजीविका, व्यापार या व्यवसाय करने की स्वतन्त्रता प्रदान की गई है, जिसमें सार्वजनिक हित का उद्देश्य निहित है। 

    (6) अपराध सिद्धि के विषय में सुरक्षा : अनुच्छेद 20 के अनुसार, किसी व्यक्ति को तब तक अपराधी नहीं ठहराया जा सकता जब तक उसने अपराध के समय में लागू किसी कानून का उल्लंघन न किया हो और न उसे किसी एक अपराध के लिए एक बार से अधिक दण्ड दिया जा सकता है और न ही किसी व्यक्ति को स्वयं अपने विरुद्ध साक्षी होने के लिए बाध्य किया जा सकता है।

    (7) जीवन और शरीर रक्षण की स्वतन्त्रता : संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार, किसी व्यक्ति को अपने प्राण अथवा शारीरिक स्वतन्त्रता के अधिकार को मान्यता प्रदान की गई है जिसमें कहा गया है कि विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया को छोड़कर अन्य किसी प्रकार से किसी व्यक्ति को उसके जीवन या उसको वैयक्तिक स्वतन्त्रता से वंचित नहीं किया जायेगा।

    (8) अनिवार्य शिक्षा (प्रा.) का अधिकार :  86वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2002 के द्वारा 21क जोड़कर शिक्षा को मौलिक अधिकार घोषित कर दिया गया है जिसके अन्तर्गत राज्य 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगा।

    (9) गिरफ्तारी व बन्दीकरण के विरुद्ध सुरक्षा : संविधान के अनुच्छेद 22 द्वारा बन्दी बनाये जाने वाले व्यक्ति को कुछ संवैधानिक अधिकार प्रदान किये गये है। इसके अनुसार, किसी व्यक्ति को बन्दी बनाये जाने के पश्चात् यह आवश्यक होगा कि उसे बन्दी बनाये जाने का कारण बताया जाये तथा गिरफ्तारी के 24 घण्टे के भीतर ही  निकटतम न्यायाधीश के सम्मुख उपस्थित किया जाये। न्यायाधीश की अनुमति के बिना किसी भी व्यक्ति को 24 घण्टे से अधिक हिरासत में नहीं रखा जा सकता। इस अवधि में उस व्यक्ति को किसी वकील से परामर्श करके अपनी प्रतिरक्षा करने की व्यवस्था करने का भी अधिकार है।

    लेकिन स्वतन्त्रता के अधिकार असीमित नहीं है। राष्ट्रीय हित और सार्वजनिक हित की दृष्टि से संसद कोई भी नियम बनाकर स्वतन्त्रता के अधिकार को सीमित कर सकती है। सिक्खों को उनके धर्म के अनुसार कटार धारण करके सभा या सम्मेलन आयोजित करने का अधिकार दिया गया है, आदि। 

    अनुच्छेद 22 (क) के खण्ड 4 में निवारक निरोध की चर्चा की गयी है, जिसका तात्पर्य है, "किसी प्रकार का अपराध किये जाने से पूर्व और बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया के ही नजरबंदी।" निवारक निरोध का उद्देश्य व्यक्ति को अपराध के लिए दण्ड देना नहीं वरन् उसे अपराध करने से रोकता है। 

    यह सामान्य काल और संकटकाल दोनों में ही लागू होता है। सर्वप्रथम सन् 1950 में भारतीय संसद निवारक निरोध अधिनियम बनाया गया था जो 31 दिसम्बर, 1969 तक चलता रहा। सन् 1969 में निवारक निरोध अधिनियम की अवधि नहीं बढ़ायी जा सकी। सन् 1971 में जब पाकिस्तान से शरणार्थियों का संकट उपस्थित हुआ तो राष्ट्रपति द्वारा 7 मई, 1971 को आन्तरिक सुरक्षित व्यवस्था अध्यादेश जारी किया गया और जून, 1971 में इस अध्यादेश ने कानून का रूप धारण कर लिया। इस कानून को बोलचाल की भाषा में मीसा (MISA) कहा जाता है। इसकी व्यवस्था निवारक निरोध अधिनियम से भी कठोर थी।

    सन् 1971 में जारी किया गया आन्तरिक सुरक्षा अधिनियम (मीसा) 44वें संवैधानिक संशोधन के प्रतिकूल था। इस कारण यह अधिनियम सन् 1979 में स्वतः ही रद्द हो गया। 

    जनवरी, 1980 में भारत में सत्ता परिवर्तन के बाद स्थापित इन्दिरा काँग्रेस सरकार द्वारा फरवरी, 1981 में राष्ट्रीय सुरक्षा अध्यादेश को कानून का रूप प्रदान किया गया। संसद में गृहमन्त्री ने आश्वासन दिया कि इस कानून का प्रयोग जमाखोरों, काला बाजारियों, समाज-विरोधी और देश की सुरक्षा के लिए खतरनाक तत्वों के विरुद्ध ही किया जायेगा। भारत में केन्द्र और राज्य दोनों को ही यह कानून बनाने और लागू करने का अधिकार प्राप्त है।

    निवारक निरोध व्यवस्था के अन्तर्गत जिन कानूनों का निर्माण किया गया, उनमें सम्भवतया सबसे अधिक कठोर कानून था- आतंकवादी और विध्वंसात्मक गतिविधि निरोध अधिनियम या टाडा । यह कानून मई, 1985 से 23 मई, 1995 तक लागू रहा। इस कानून से आतंकवाद को नियन्त्रित करने में सफलता मिली लेकिन इसके साथ ही कुछ राज्यों में टाडा का प्रयोग राजनीतिक उद्देश्यों से भी किया गया। ऐसी स्थिति में टाडा की आलोचना की गई 23 मई, 1995 को यह समाप्त कर दिया गया परन्तु वर्तमान में ऐसे ही अन्य किसी कानून की आवश्यकता पर जोर दिया जा रहा है। 

    शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23 व 24) 

    भारत का संविधान भारत में एक जन-कल्याणकारी राज्य की स्थापना करता है। इसके लिए समाज में व्याप्त विभिन्न प्रकार के शोषण के अन्त तक की व्यवस्था करता है, क्योंकि भारत में सदियों से किसी न किसी रूप में दासता की प्रथा विद्यमान रही है जिसके अन्तर्गत हरिजनों, खेतिहर श्रमिकों तथा स्त्रियों पर अत्याचार किये जाते रहे हैं। संविधान के अनुच्छेद 23 व 24 के अनुसार, कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति का शोषण नहीं कर सकेगा। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित व्यवस्थाएं हैं-

    (1) मनुष्यों का क्रय-विक्रय निषेध : संविधान के अनुच्छेद 23 (1) के अनुसार मनुष्यों, स्त्रियों और बच्चों के क्रय-विक्रय को घोर अपराध और दण्डनीय माना गया है। 

    (2) बेगार का निषेध :  संविधान के अनुच्छेद 23 (3) के अनुसार, किसी व्यक्ति से बेगार या बलपूर्वक काम लेना अपराध और दण्डनीय माना जाता है।

    (3) बाल श्रम का निषेध : संविधान के अनुच्छेद 24 के अनुसार, 14 वर्ष से कम आयु वाले बालकों को कारखानों अथवा खानों या किसी जोखिम भरे काम के लिए नौकर नहीं रखा जा सकेगा।

    वास्तव में, शोषण के विरुद्ध अधिकार का उद्देश्य एक वास्तविक सामाजिक लोकतन्त्र की स्थापना करना है। शोषण के विरुद्ध अधिकार को वास्तविकता का रूप देने के लिए जुलाई, 1975 में घोषित किया गया कि बंधक मजदूरी प्रथा कहीं भी हो, गैर-कानूनी घोषित की जाती है। 1996-97 में न्यायालयों ने बाल श्रम के निषेध पर जोर दिया।

    निःसन्देह संविधान शोषण के विरुद्ध जो अधिकार नागरिकों को प्रदान करता है, वे सराहनीय है परन्तु हमें ध्यान रखना होगा कि केवल संविधान में लिख देने मात्र से शोषण का अन्त नहीं हो जायेगा। उसके लिए सामाजिक जागृति भी आवश्यक है। साथ ही शोषण के विरुद्ध जो अधिकार नागरिकों को दिये गये हैं, वे बहुत अपर्याप्त हैं। इस समाज में आज भी अनेक तरह से साधनहीन व्यक्तियों का साधन सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा शोषण किया जाता है। श्रम को सस्ता खरीदना भी शोषण करना है परन्तु इस शोषण के विरुद्ध नागरिकों को कोई अधिकार प्रदान नहीं किये गये हैं। यह अधिकार निषेधात्मक और नकारात्मक हैं। संविधान कुछ ऐसी व्यवस्थाएँ कर सकता था जिससे शोषण की अवस्था ही उत्पन्न न हो।

    धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)

    भारत का संविधान भारत को एक धर्म-निरपेक्ष राज्य घोषित करता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 द्वारा सभी व्यक्तियों को चाहे में विदेशी हो या भारतीय, धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार प्रदान किया है। इस अधिकार के अन्तर्गत निम्नलिखित स्वतंत्रता प्रदान की गयी है: 

    (1) धार्मिक आचरण एवं प्रचार की स्वतंत्रता :  संविधान के अनुच्छेद 25 के अनुसार, प्रत्येक को अपने अन्तकरण कीं मान्यता के अनुसार किसी भी धर्म को अबाध रूप में मानने, उपसना करने और उसके प्रचार करने की पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है।

    (2) धार्मिक कार्यों के प्रबन्ध की स्वतन्त्रता : संविधान के अनुच्छेद 26 के द्वारा सभी धर्मों के अनुयायियों को धार्मिक और दान देने वाली संस्थाओं की स्थापना और उनके संचालन, धार्मिक मामलों का प्रबन्ध, धार्मिक संस्थाओं द्वारा चल एवं अचल सम्पत्ति अर्जित करके राज्य के कानून के अनुसार प्रबन्ध करने की स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है।

    (3) धर्म विशेष की उन्नति हेतु कर देने अथवा न देने की स्वतन्त्रता :  संविधान के अनुच्छेद 27 के अनुसार, प्रत्येक नागरिक किसी धर्म विशेष की उन्नति के लिए कर या चन्दा देने के लिए स्वतन्त्र है परन्तु किसी नागरिक को कर देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

    (4) व्यक्तिगत शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा देने की स्वतन्त्रता : भारत राज्य का स्वरूप धर्म-निरपेक्ष राज्य का है जिसे धर्म के क्षेत्र में निष्पक्ष रहना है। अतः अनुच्छेद 28 की व्यवस्था के अनुसार, किसी राजकीय शिक्षण संस्था में किसी धर्म की शिक्षा नहीं दी जा सकती परन्तु सरकार द्वारा मान्यता एवं सहायता प्राप्त व्यक्तिगत शिक्षण-संस्थाएँ जो गैर-सरकारी धन से स्थापित हुई हैं, में धार्मिक शिक्षा दी जा सकेगी, परन्तु ऐसी संस्थाओं में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को उस धार्मिक शिक्षा या उपासना- प्रार्थना में भाग लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

    किन्तु धार्मिक कट्टरता एवं धार्मिक संकुचन की भावना को रोकने के लिए राष्ट्रीय एकता के उद्देश्य से सार्वजनिक हित में सरकार द्वारा इस अधिकार पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है तथा आर्थिक, राजनीतिक या अन्य किसी प्रकार के सार्वजनिक हित की दृष्टि से राज्य धार्मिक क्षेत्र में हस्तक्षेप कर सकता है।

    संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार (अनुच्छेद 29 व 30) 

    संविधान के अनुच्छेद 29 व 30 के द्वारा भारत के सभी नागरिकों को संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी दो अधिकार प्रदान किये गये हैं-

    (1) अल्पसंख्यकों के हितों का संरक्षण : संविधान के अनुच्छेद 29 के अनुसार, नागरिकों को अपनी भाषा, लिपि या संस्कृति को सुरक्षित रखने का पूर्ण अधिकार है। इसी अनुच्छेद में यह भी कहा गया है कि किसी भी नागरिक को धर्म, वंश, जाति और भाषा या इनमें से किसी एक के आधार पर किसी राजकीय अथवा सहायता प्राप्त शिक्षण संस्था में प्रवेश के सम्बन्ध में भेदभाव नहीं किया जायेगा।

    (2) अल्पसंख्यकों को अपनी शिक्षण संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन का अधिकार : संविधान के अनुच्छेद 30 के अनुसार, धर्म या भाषा पर आधारित सब अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षण संस्थाओं की स्थापना और उनके प्रशासन का अधिकार है। राज्य किसी शिक्षण संस्था को इस आधार पर आर्थिक सहायता देने से इन्कार नहीं कर सकेगा कि वह किसी धर्म या भाषा पर आधारित किसी अल्पसंख्यक वर्ग के प्रबन्ध के अधीन है।

    पायली के अनुसार, अन्य भौतिक अधिकारों पर अनेक प्रतिबन्ध हैं परन्तु इस अधिकार पर कोई प्रतिवन्ध न होना इस बात का द्योतक है कि संविधान निर्माता इस अधिकार को निर्वाध रखना चाहते थे। 44वें संवैधानिक संशोधन द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को जो मूल अधिकार से अलग कर दिया गया है उसमें यह स्पष्ट कर दिया गया है, कि इससे अल्पसंख्यकों को अपनी पसन्द को शिक्षण संस्थाओं की स्थापना तथा इन सब शिक्षण संस्थाओं के प्रशासन के अधिकार पर कोई आधात नहीं पहुंचेगा।

    संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32) 

    संविधान द्वारा जो मूल अधिकार प्रदत्त किये गये हैं इनका उल्लंघन शासन द्वारा न हो इस हेतु संविधान द्वारा व्यक्ति को संवैधानिक उपचारों का भी अधिकार एक मूल अधिकार के रूप में प्रदान किया है। अनुच्छेद 32 से 35 के अन्तर्गत प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार प्रदान किया गया है कि वह अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए उच्चतम न्यायालय की शरण ले सकता है। संवैधानिक उपचारों के अधिकार की व्यवस्था के महत्व को दृष्टि में रखते हुए डॉ. अम्बेडकर ने कहा था- "यह संविधान का हृदय तथा आत्मा है।" भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश ने इसे 'भारतीय संविधान का सर्वप्रमुख लक्षण और संविधान द्वारा स्थापित 'प्रजातान्त्रिक भवन की आधारशिला' कहा है।

    नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायालयों द्वारा अनुच्छेद-32 के अन्तर्गत निम्नलिखित पाँच प्रकार के लेख जारी किये जा सकते हैं।

    (1) बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख : व्यक्तिगत स्वतन्त्रता हेतु यह लेख सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इस लेख का अर्थ है, शरीर उपस्थिति। इस लेख द्वारा न्यायालय बन्दी बनाये गये व्यक्ति की प्रार्थना पर अपने समक्ष उपस्थित करने तथा उसे बन्दी बनाने का कारण बताये जाने का आदेश दे सकता है। यदि न्यायालय के विचार में सम्बन्धित व्यक्ति को बन्दी बनाये जाने के पर्याप्त कारण नहीं हैं या उसे कानून के विरुद्ध बन्दी बनाया गया है तो न्यायालय उस व्यक्ति को तुरन्त रिहा करने का आदेश दे सकता है।

    (2) परामदेश लेख : इस लेख का अर्थ है, हम आज्ञा देते हैं। जब कोई सरकारी विभाग या अधिकारी अपने सार्वजनिक कर्तव्यों का पालन नहीं कर रहा है, जिसके परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकार का हनन होता है तो न्यायालय इस लेख द्वारा उस विभाग या अधिकारी को कर्तव्य पालन हेतु आदेश दे सकता है।

    (3) प्रतिषेध लेख : इस लेख का अर्थ है- रोकना। यह लेख सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय द्वारा अपने अधीनस्थ न्यायालय को जारी करते हुए आदेश दिया जाता है कि वह उन मुकद्दमों की सुनवाई न करे जो उसके अधिकार क्षेत्र के बाहर हैं।

    (4) उत्प्रेक्षण लेख : इस लेख का अर्थ है- पूर्ण तथा सूचित करना। इस आज्ञापत्र द्वारा उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय को और उच्च न्यायालय अपने अधीनस्थ न्यायालय को किसी मुकदमे को सभी सूचनाओं के साथ उच्च न्यायालय में भेजने की सूचना देते हैं। प्रायः इसका प्रयोग उस समय किया जाता है जब कि कोई मुकदमा उस न्यायालय के क्षेत्राधिकार से बाहर होता है और न्याय के आकृतिक सिद्धान्तों का दुरुपयोग होने की सम्भावना होती है। इसके अतिरिक्त उच्च न्यायालय अपने अधीनस्थ न्यायालयों से किसी मुकदमे के विषय में सूचनाएँ भी इस लेख के आधार पर मांग सकते हैं।

    (5) अधिकार पृच्छा लेख : इस लेख का अर्थ है- किस अधिकार से। जब कोई व्यक्ति किसी सार्वजनिक पद को अवैधानिक तरीके से या जबरदस्ती प्राप्त कर लेता है तो न्यायालय इस लेख द्वारा उसके विरुद्ध पद को खाली कर देने का आदेश निर्गत कर सकता है। इस आदेश द्वारा न्यायालय सम्बन्धित व्यक्ति से यह पूछता है कि वह किस अधिकार से इस पद पर कार्य कर रहा है ? जब तक इस प्रश्न का सन्तोषजनक उत्तर सम्बन्धित व्यक्ति द्वारा नहीं दिया जाता, तब तक वह उस पद पर कार्य नहीं कर सकता।

    व्यक्तियों द्वारा साधारण परिस्थितियों में ही न्यायालयों की शरण लेकर अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा की जाती है लेकिन युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह जैसी परिस्थितियों में, जबकि राष्ट्रपति द्वारा संकटकाल की घोषणा कर दी गयी हो, मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए कोई व्यक्ति किसी न्यायालय से प्रार्थना नहीं कर सकेगा। इस प्रकार संविधान द्वारा संकटकाल में नागरिकों के मौलिक अधिकारों को स्थगित करने की व्यवस्था की गयी है।

    सम्पत्ति के मौलिक अधिकार का अन्त

    संविधान निर्माताओं ने भारत के सभी नागरिकों को सात मौलिक अधिकार प्रदान किये थे जिनमें सम्पत्ति का मौलिक अधिकार भी एक था। परन्तु सन् 1978 में जनता सरकार द्वारा संविधान में 44वें संशोधन द्वारा सम्पत्ति के मौलिक अधिकार को समाप्त कर दिया गया। वास्तव में सम्पत्ति का अधिकार प्रारम्भ से ही एक विवाद का विषय रहा है। संविधान सभा में पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने सम्पत्ति के अधिकार का बहुत विरोध किया था लेकिन अधिकांश सदस्य इसके पक्ष में होने के कारण इसे मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकार कर लिया गया तत्पश्चात् इस सम्पति के अधिकार को लेकर अनेक विवाद उत्पन्न हुए जिसके कारण संविधान में सन् 1951, 1955 और 1971 में संशोधन कर उसकी पुष्टि की गयी, लेकिन स्थायी हल न निकलने के कारण सन् 1978 में जनता सरकार ने इसे मौलिक अधिकारों में से समाप्त कर एक कानूनी अधिकार का रूप प्रदान कर दिया।

     मौलिक अधिकारों का मूल्यांकन

    मौलिक अधिकारों की व्यवस्था कर हमारा संविधान व्यक्ति की गरिमा, उसकी श्रेष्ठता और हितों का संरक्षक बन जाता है। मौलिक अधिकार हमारी संवैधानिक व्यवस्था की आत्मा और प्राण है। परन्तु प्रारम्भ से ही मौलिक अधिकारों का अध्याय आलोचना का विषय रहा है उसके पक्ष और विपक्ष में बहुत कुछ कहा गया है जो इस प्रकार है- 

    मौलिक अधिकारों के विपक्ष में तर्क (आलोचना) 

    मौलिक अधिकारों की निम्नलिखित आधारों पर कटु आलोचना की गई

    (1) महत्वपूर्ण अधिकारों की उपेक्षा :  मौलिक अधिकारों की सर्वप्रथम आलोचना इस आधार पर की जाती है कि इसमें काम का अधिकार, अवकाश का अधिकार, शिक्षा का अधिकार और भौतिक सुरक्षा जैसे- महत्त्वपूर्ण अधिकारों का उल्लेख नहीं किया गया है। आलोचकों का मत है कि आर्थिक अधिकारों के अभाव में राजनीतिक और नागरिक अधिकार महत्वहीन है।

    (2) समता का अधिकार एक ढोंग : भारतीय संविधान में जो समता के अधिकार की व्यवस्था की गयी है उससे वास्तविक समानता स्थापित नहीं हो सकती है। भारत में जहाँ एक ओर करोड़पति और अरबपति हैं वहीं दूसरी ओर अधिक संख्या में वे लोग हैं जो एक-एक पैसे के लिए मोहताज हैं। इस असमानता को दूर करने के लिए मौलिक अधिकारों में कोई व्यवस्था नहीं की गयी है। इसके साथ ही मौलिक अधिकारों की व्यवस्था में अस्पृश्यता का अन्त दिखावा मात्र है। वास्तव में आज भी जातीय आधार पर कुछ वर्गों को विशेष सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं जिसके कारण भारत में जातीय तथा वर्ग-भेद में वृद्धि हुई और हीनता की भावना उत्पन्न हुई है। इस प्रकार असमानताएँ भारतीय लोकतन्त्र और राष्ट्रीय एकता के लिए आज भी खतरा बनी हुई हैं।

    (3) प्रतिबन्ध की प्रचुरता : आलोचकों का कथन है कि हमारे संविधान में मौलिक अधिकारों का उल्लेख तो व्यापक रूप से किया गया है परन्तु उन पर व्यापक प्रतिबन्ध लगाकर उनकी वास्तविक उपयोगिता को समाप्त कर दिया गया है। इसके अतिरिक्त उनकी अपवादस्वरूप जो व्यवस्था की गयी है उससे मौलिक अधिकारों को देना और न देना बराबर हो गया है। इस सम्बन्ध में प्रो. के. टी. शाह द्वारा कहा गया था कि ये स्वतन्त्रताएँ वस्तुतः इतनी सन्देहपूर्ण हो गयी कि उन्हें ढूंढ़ने के लिए सूक्ष्मदर्शक यन्त्र की आवश्यकता होगी।

    (4) आपातकाल में मौलिक अधिकारों का स्थगन : आपातकाल में राष्ट्रपति द्वारा अपराध-सिद्धि विषयक जीवन, शरीर-रक्षण के मौलिक अधिकारों को छोड़कर अन्य सभी मौलिक अधिकार स्थगित किये जा सकते हैं। और कोई व्यक्ति इसके स्थगन के विरुद्ध न्यायालय की शरण नहीं ले सकता। इसीलिए इस व्यवस्था की आलोचना करते हुए श्री. एच. वी. कामथ ने संविधान सभा में कहा था कि, "इस व्यवस्था द्वारा हम तानाशाही व पुलिस राज्य की स्थापना कर रहे हैं।"

    (5) शान्तिकाल में निवारक निरोध की व्यवस्था अनुचित :  भारत में निवारक निरोध, मीसा, नासा और टाडा जैसे, कानूनों का निर्माण शान्तिकाल में किया जाता रहा है। ऐसे कानूनों से व्यक्तिगत स्वतन्त्रता खतरे में पढ़ जाती है, जबकि अन्य देशों में युद्ध अथवा संकटकाल में ही ऐसे कानून का प्रयोग किया जाता है। अतः भारत में यह व्यवस्था एक स्वतन्त्र समाज के विरुद्ध है।

    (6) कार्यपालिका द्वारा शक्ति के दुरुपयोग की सम्भावना : आपातकाल में राष्ट्रपति द्वारा स्वतन्त्रताओं तथा संवैधानिक उपचारों के निलम्बन या स्थगन के अधिकार की आलोचना का मुख्य बिन्दु माना जाता है। क्योंकि राष्ट्रपति के इस अधिकार से कार्यपालिका की शक्ति में बहुत अधिक वृद्धि हो जाती है और वह कुछ समय के लिए संसद और न्यायपालिका की अवहलेना भी कर सकती है। 

    (7) मौलिक अधिकारों की भाषा स्पष्ट न होना : सर आइवर जैनिग्स के अनुसार, भारतीय अधिकार पत्र की भाषा ठीक नहीं है। उसमें अनेक बातें अस्पष्ट है और यह अमेरिका के अधिकार पत्र जैसे- स्पष्ट और संक्षिप्त नहीं है। 

    (8) बहुत अधिक विस्तृत :  मौलिक अधिकारों के सम्बन्ध में आलोचकों द्वारा यह भी कहा गया है कि भारतीय संविधान निर्माता मौलिक अधिकारों के सम्बन्ध में बहुत अधिक विस्तार में चले गये जो उचित नहीं था। 

    मौलिक अधिकारों के व्यवस्था के पक्ष में तर्क (महत्व)

    मौलिक अधिकारों की व्यवस्था के सम्बन्ध में जो आलोचना की गई है उससे अनेक विद्वान सहमत नहीं है। उन्होंने मौलिक अधिकारों की व्यवस्था को औचित्यपूर्ण ठहराते हुए आलोचकों के विभिन्न तर्कों का खण्डन किया और कहा कि यह व्यवस्था हमारे संविधान का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग है। इन अधिकारों के अभाव में स्वतन्त्रता का कोई मूल्य नहीं है। अतः विद्वानों द्वारा विभिन्न तर्कों के आधार पर मौलिक अधिकारों के महत्व को स्पष्ट किया गया है- 

    (1) व्यावहारिकता पर आधारित : मौलिक अधिकारों की व्यवस्था व्यावहारिक और वास्तविकता पर आधारित है। भारत आर्थिक संसाधनों की दृष्टि से इतना सम्पन्न नहीं है कि काम पाने, शारीरिक अयोग्यता की स्थिति में राजकीय सहायता प्राप्त करने, निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करने तथा न्यूनतम वेतन प्राप्त करने जैसे- अधिकारों की मौलिक अधिकारों के रूप में व्यवस्था कर सके।

    (2) अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों का कल्याण : मौलिक अधिकारों द्वारा अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के हितों के संरक्षण को विशेष महत्व प्रदान किया गया है। जाति, धर्म, वंश, लिंग और ऊँच-नीच आदि के भेदभाव को समाप्त करके सभी नागरिकों को समान अधिकार प्रदान किये गये हैं। सभी को अपने विकास हेतु समान अवसरों की व्यवस्था की गयी है।

    (3) अपवादों और प्रतिबन्धों का औचित्य : किसी अधिकार पर अपवाद और प्रतिबन्ध लगाना उचित ही था क्योंकि नागरिकों को असीमित अधिकार नहीं दिये जा सकते अन्यथा प्रत्येक व्यक्ति मनमाने तरीके से उसका उपयोग करने लगेगा। इसके अतिरिक्त, राष्ट्रीय सुरक्षा, वैदेशिक सम्बन्ध, सार्वजनिक हित, शिष्टाचार या नैतिकता आदि की दृष्टि से भी मौलिक अधिकारों के अपवादों और प्रतिबन्धों का आधार उचित है। इन अपवादों और प्रतिबन्धों के औचित्य की जाँच न्यायपालिका द्वारा की जा सकती है।

    (4) लोकतन्त्र की सफलता का आधार : मौलिक अधिकारों के अभाव में लोकतन्त्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती। लोकतन्त्रीय व्यवस्था जनता द्वारा निर्वाचित होती है जिसके लिए सभी नागरिकों को समान अधिकार एवं स्वतन्त्रताएँ होनी चाहिए क्योंकि स्वतन्त्रता और समानता लोकतन्त्रीय व्यवस्था के दो आधारभूत सिद्धान्त होते हैं इसलिए हमारे मौलिक अधिकारों में इन दोनों सिद्धान्तों को स्थान दिया गया है। 

    (5) शासन को निश्कुशता पर अंकुश : लोकतन्त्रीय शासन व्यवस्था में संसद या प्रान्तीय व्यवस्थापिकाएँ कानून बनाने का कार्य करती है जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सीमित करने का प्रयास भी कर सकती. है, परन्तु संविधान के विरुद्ध बनाये गये ऐसे कानून को, जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सीमित करते हैं, उच्चतम न्यायालय अवैध घोषित कर सकता है। इस प्रकार की व्यवस्था का उद्देश्य शासन की निरंकुशता पर अंकुश लगाना ही है।

    (6) राष्ट्र-रक्षा की दृष्टि से निवारक निरोध की व्यवस्था भी ठीक है : जहाँ राज्य की सुरक्षा तथा नागरिकों के अधिकारों के बीच टक्कर होगी वहाँ राज्य की सुरक्षा को महत्व दिया जाना समीचीन प्रतीत होता है। प्रो. ऐलेक्जेण्डरोविच के अनुसार, "निवारक निरोध भारत में प्रशासनिक आवश्यकता है अन्यथा हिसक तथा देशद्रोही तत्वों के कारण राष्ट्र की स्वाधीनता खतरे में पड़ जायेगी।" वास्तव में, यह व्यवस्था एक भरी हुई बन्दूक के समान है जिसका प्रयोग हत्या और रक्षा दोनों के लिए किया जा सकता है।

    (7) मौलिक अधिकारों की भाषा परिस्थितियों के अनुकूल : मौलिक अधिकारों के पक्ष में तर्क देते हुए कुछ विद्वानों ने सर आइवर जैनिंग्स के इस मत का कि मौलिक अधिकारों की भाषा ठीक नहीं है तथा ये बहुत विस्तृत हैं, खण्डन किया तथा कहा कि यदि संविधान निर्माण की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में देखें तब न्यायोचित लगता है।

    (8) सामाजिक बुराइयों का अन्त : मौलिक अधिकारों के द्वारा सामाजिक बुराइयों का अन्त कर दिया गया है। भारतीय समाज में भयंकर बीमारी के रूप में व्याप्त छुआछूत, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, धर्मवाद और भाषाबाद आदि सामाजिक बुराइयों से उत्पन्न भेदभाव को समाप्त करके सामाजिक समानता स्थापित की गयी है।

    इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मौलिक अधिकारों की व्यवस्था में बुराई और अच्छाई दोनों ही  विद्यमान हैं परन्तु व्यक्ति के सर्वांगीण विकास हेतु मौलिक अधिकारों की व्यवस्था आवश्यक ही नहीं वरन अनिवार्य है। अधिकारों के अभाव में लोकतन्त्रात्मक व्यवस्था निराधार है। प्रो. लॉस्की के शब्दों में, "प्रत्येक राज्य की पहचान उसके अधिकारों की व्यवस्था से की जाती है। अधिकार राज्य की आधारशिला हैं।"

    पिछले लगभग एक दशक से यह अनुभव किया गया कि नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए विशेष व्यवस्था की जानी चाहिए। इस प्रसंग में पहले तो सितम्बर, 1993 में राष्ट्रपति द्वारा अध्यादेश जारी किया गया तथा उसके बाद में दिसम्बर, 1993 में मानवाधिकार आयोग व न्यायालय गठन सम्बन्धी विधेयक पारित किया गया। मानव अधिकार आयोग का प्रमुख उद्देश्य नागरिकों के अधिकारों की उपलब्धि करना है। 

    यह एक आठ सदस्यीय आयोग होगा। आयोग की अध्यक्षता सर्वोच्च न्यायालय के वर्तमान या सेवानिवृत्त न्यायाधीश द्वारा की जायेगी। आयोग को मानवीय अधिकारों के हनन, दुरुत्साहन और मानवीय अधिकारों की  हनन की रोकथाम में सरकारी कर्मचारियों की उपेक्षा की सभी शिकायतों पर विचार करने का अधिकार होगा। सन् 1994 में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया है। भविष्य में सरकार की किसी एजेन्सी के कारण जब नागरिकों मौलिक अधिकारों या अन्य अधिकार का हनन होगा तब नागरिक के सामने विकल्प होगा कि वह सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय में जाये अथवा मानव अधिकार आयोग में जाये।


    Post a Comment

    Previous Post Next Post