15 अगस्त, 1947 का दिन भारतीय इतिहास में सदैव स्वर्ण अक्षरों में अंकित रहेगा, क्योंकि इस दिन भारत में ब्रिटिश शासन का अन्त एवं भारतीयों को भारत की सत्ता सौंपी गयी थी। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारतीयों के लिए संविधान निर्माण का प्रमुख कार्य सामने था, जिसे पूरा करने के लिए एक संविधान सभा का निर्माण किया गया। यह संविधान सभा देश के संविधान का ढांचा तैयार करने के लिए विशेष रूप से संगठित नागरिकों द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों का समूह था।
संविधान सभा की माँग
1885 में कांग्रेस के गठन के बाद भारतीयों में राजनीतिक चेतना जाग्रत हुई और धीरे-धीरे भारतीयों के मन में यह धारणा बनने लगी कि भारत के लोग स्वयं अपने राजनीतिक भविष्य का निर्णय करें। इस धारणा की सर्वप्रथम अभिव्यक्ति उस 'स्वराज्य विधेयक में मिली जिसे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के निर्देशन में तैयार किया गया था। इसके पश्चात् 1922 में महात्मा गांधी द्वारा यह उद्गार व्यक्त किया गया कि भारतीय संविधान भारतीयों की इच्छानुसार ही होगा।
महात्मा गाँधी के इस उदगार में यद्यपि यह आशय निहित नहीं था कि भारत के संविधान का निर्माण भारतीयों द्वारा ही किया जाय, बल्कि उनका केवल यह आशय था कि भारतीयों की इच्छा को ध्यान में रखते हुए ब्रिटिश संसद भारतीय संविधान को पारित करे।
महात्मा गांधी की इस माँग ने भारतीय नेताओं को भारतीय संविधान की माँग के लिए प्रेरित किया। 1924 में मोतीलाल नेहरू द्वारा ब्रिटिश सरकार से यह मांग की गयी कि भारतीय संविधान के निर्माण के लिए संविधान सभा का गठन किया जाय। इसके बाद संविधान सभा के विचार का औपचारिक रूप से प्रतिपादन साम्यवादी नेता एस. एन. राय द्वारा किया गया जिसे 1934 में जाकर जवाहर नेहरू ने मूर्तिरूप प्रदान किया। नेहरू जी ने कहा कि यदि यह स्वीकार किया जाता है कि भारत के भाग्य की एकमात्र निर्णयक भारतीय जनता है तो भारतीय जनता को ही अपना संविधान निर्माण करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए।
जवाहर लाल नेहरू द्वारा संविधान निर्माण की माँग के बाद भारतीय संविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान की माँग कॉग्रेस दल की अधिकृत नीति का एक अनिवार्य अंग बन गयी। भारत सरकार अधिनियम, 1935 के प्रवर्तन के बाद कई राज्यों में भारतीय सरकारों का गठन हुआ तथा राज्य विधान सभाओं में कांग्रेस दल के सदस्यों को बहुमत प्राप्त हुआ राज्य विधान सभाओं द्वारा प्रस्ताव पारित करके भारतीयों द्वारा निर्मित संविधान की मांग की गयी। 29 जुलाई, 1936 को चुनाव पूर्व घोषणा पत्र में भारतीय संविधान की मांग की गयी। इसके बाद दिसम्बर, 1936 में लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन में संविधान निर्माण के लिए संविधान सभा के अर्थ और महत्व की व्याख्या की गयी। इसके बाद कांग्रेस के गठन की मांग को दोहराया गया।
कांग्रेस के संविधान सभा के गठन की माँग की उपेक्षा ब्रिटिश सरकार द्वारा की जाती थी, किन्तु द्वितीय विश्व युद्ध की आवश्यकताओं तथा राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय दबावों के कारण ब्रिटिश सरकार इस बात पर सहमत हो गयी कि भारतीयों द्वारा संविधान सभा का निर्माण अपेक्षित है। 1940 में ब्रिटिश सरकार ने क्रिप्स योजना के माध्यम से यह स्वीकार किया कि भारत में निर्वाचित संविधान सभा का गठन किया जायेगा और इस प्रकार गठित संविधान सभा भारतीय संविधान का निर्माण करेगी। क्रिप्स योजना के अन्तर्गत अन्य व्यवस्थाएं भी की गयी थी, जिन्हें भारतीयों द्वारा अस्वीकृत कर दिया गया और क्रिप्स योजनाओं की व्यवस्थाएँ लागू न की जा सकी।
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कैबिनेट मिशन योजना और संविधान सभा का निर्माण
अगस्त, 1942 में कॉपेस ने भारत छोड़ो आन्दोलन प्रारम्भ किया। इस आन्दोलन ने भारत में ब्रिटिश शासन को हिला दिया। दूसरे विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन में आम चुनाव हुए। इन चुनावों में अपने घोषणा-पत्र में मजदूर दल ने भारत को आजादी देने की बात कहीं। मजदूर दल की सरकार बनने पर प्रधानमन्त्री एटली ने 14 मार्च, 1946 को कामन सभा में घोषणा की कि भारत स्वतन्त्र होने का अधिकारी है। इसको कार्यान्वित रूप देने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 16 मई, 1946 को एक 'कैबिनेट मिशन भारत भेजा जिसमें ब्रिटिश मन्त्रिमण्डल के तीन सदस्य थे- लॉर्ड पैथिक लारेंस, सर स्टेफर्ड क्रिप्स और एन. बी. एलेक्जेण्डर इस मिशन ने अपनी रिपोर्ट में दो प्रकार के प्रस्ताव किये-
भारतीय राज्य तथा शासन के सम्बन्ध में प्रस्ताव
कैबिनेट मिशन ने भारतीय राज्य तथा प्रशासन के सम्बन्ध में निम्नलिखित प्रस्ताव किया-
(i) ब्रिटिश भारत तथा भारतीय राज्यों को मिलाकर एक संघ का गठन किया जाना चाहिए जिसके पास राष्ट्रीय सुरक्षा, परिवहन और विदेशी मामलों सम्बन्धी प्रशासन का अधिकार दिया जाय।
(ii) संघ में निहित विषयों के अतिरिक्त अन्य विषयों पर प्रान्तों का अधिकार होना चाहिए।
(iii) भारत पर ब्रिटिश सरकार को प्रभुत्व सम्पन्नता को समाप्त कर देना चाहिए।
(iv) भारतीय रियासतों को इस बात की स्वतन्त्रता होनी चाहिए कि वे संघ में अपने को सम्मिलित करे या नहीं।
(v) भारत के शासन को संचालित करने के लिए एक मन्त्रीय सरकार का गठन किया जाना चाहिए। जिसमें सभी दलों के सदस्य हो ।
संविधान सभा के गठन के सम्बन्ध में प्रस्ताव
कैबिनेट मिशन ने भारतीय संविधान सभा के रावत के सम्बन्ध में निम्नलिखित प्रस्ताव किया-
(i) संविधान सभा में प्रत्येक प्रान्त द्वारा भेजे जाने वाले सदस्यों की संख्या का निर्धारण प्रान्त की जनसंख्या के आधार पर किया जायेगा और 10 लाख की जनसंख्या पर एक सदस्य निर्वाचित किया जायेगा।
(ii) प्रान्तों आवंदित स्थानों को उनमें निवास करने वाली जातियों में उनकी संख्या के आधार पर विभाजित कर दिया जायेगा। विभाजन साधारणतः मुसलमान तथा सिक्ख के लिए किया जायेगा।
(iii) देशी रियासत के सदस्य भी संविधान सभा में शामिल होंगे और 10 लाख की जनसंख्या पर एक प्रतिनिधि होगा। देशी रियासतों के सदस्यों का चुनाव समझौता समिति और देशी रियासतों की ओर से गठित समिति के बीच पारस्परिक विचार-विमर्श द्वारा किया जायेगा।
प्रान्तों के लिए अलग संविधान का निर्माण किया जायेगा। इसके लिए संविधान सभी की प्रारम्भिक बैठक के बाद सदस्य स्वयं को तीन भागों में विभाजित कर लेंगे। ये तीनों संवर्ग में-
(i) हिन्दू बहुमत वाले प्रान्तों के प्रतिनिधि,
(ii) मुस्लिम बहुमत वाले उत्तर-पश्चिमी प्रान्तों के प्रतिनिधि तथा
(iii) मुस्लिम बहुमत वाले उत्तर-पूर्वी प्रान्तों के प्रांतनिधि शामिल होंगे तथा ये तीनों अपने-अपने प्रान्तों के लिए संविधान का निर्माण करेंगे और बाद में संघीय संविधान का निर्माण किया जायेगा।
संविधान सभा के लिए चुनाव
कैबिनेट मिशन की उक्त योजना का क्रियान्वयन किया गया। भारत में जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में अन्तरिम सरकार का गठन किया गया तथा संविधान सभा के सदस्यों की कुल संख्या 389 निश्चित कर दी गयी, जिसमें 292 ब्रिटिश प्रान्तों के प्रतिनिधि 4 कमिशनर क्षेत्रों के 93 देशी रियासतों के प्रतिनिधि थे।
जुलाई, 1946 में संविधान सभा के प्रान्तों के लिए 296 सदस्यों के लिए ही ये चुनाव हुए। इस चुनाव को प्रान्तों की विधान सभाओं ने किया। इन चुनावों में विभिन्न दलों की स्थिति इस प्रकार रही-
कांग्रेस |
208 |
मुस्लिम लीग |
73 |
स्वतंत्र प्रत्याशी |
8 |
यूनियनिस्ट पार्टी |
01 |
कृषक प्रजा पार्टी |
1 |
यूनियनिस्ट अनुसूचित जाति |
1 |
अछूत जाति संघ |
1 |
यूनियनिस्ट मुस्लिम |
1 |
साम्यवादी |
1 |
सिक्ख |
1 |
Total- (296) |
संविधान निर्माण की प्रक्रिया
संविधान सभी की पहली बैठक इस कारण अनिश्चितता के वातावरण में 9 दिसम्बर, 1946 को प्रारम्भ हुई कि मुस्लिम लीग के सदस्यों ने संविधान सभा की बैठक के बहिष्कार करने की घोषणा की थी। 9 दिसम्बर, 1946 को ही संविधान सभा ने सच्चिदानन्द सिन्हा को अस्थायी अध्यक्ष निर्वाचित किया। दो दिन बाद संविधान सभा के सदस्यों द्वारा 11 दिसम्बर, 1946 को डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को संविधान सभा के स्थायी अध्यक्ष के रूप में निर्वाचित किया गया।
संविधान सभा की कार्यवाही 13 दिसम्बर, 1946 को जवाहर लाल नेहरू द्वारा पेश किये गये उद्देश्य प्रस्ताव के साथ प्रारम्भ हुई। उद्देश्य पत्र में निम्नलिखित बातों को शामिल किया गया-
(i) संविधान सभा यह घोषणा करती है कि इसका उद्देश्य और संकल्प भारत में लोकतान्त्रिक गणराज्य बनाना है, जिसके भावी शासन के लिए संविधान का निर्माण करना है।
(ii) ब्रिटिश भारत के सभी क्षेत्रों और देशी रियासतों तथा ब्रिटिश भारत एवं देशी रियासतों के बाहर के सभी क्षेत्रों जो स्वतन्त्र तथा प्रभुत्ता सम्पन्न भारत में मिलना चाहते हैं, को मिलाकर भारत संघ का गठन किया जायेगा।
(iii) उक्त सभी क्षेत्र अपनी वर्तमान सीमाओं सहित संविधान द्वारा निर्मित सभा द्वारा निर्धारित की गयी सीमा में या भविष्य में निर्धारित व परिवर्तित सीमा में एक स्वायत्त इकाई होंगे तथा इन इकाइयों को अवशिष्ट अधिकार प्राप्त होंगे। केन्द्र को सौंपे गये कार्यों के अतिरिक्त ये इकाइयों अन्य कार्यों का अनुपालन करेंगी।
(iv). भारतीय संघ, उसको इकाइयों तथा सरकार एवं सरकार के अंगों की स्वतन्त्रता तथा प्रभुता सम्पन्नता का समस्त स्रोत भारत की जनता है।
(v) भारत के सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय, प्रतिष्ठा, विधि के समक्ष समता, अवसरों की समानता, न्याय तथा सार्वजनिक सदाचार की सीमा में विचार तथा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, धर्म, उपासना, विश्वास और कार्य की स्वतन्त्रता होगी।
(vi) भारत के अल्पसंख्यक, पिछड़ी जातियों, अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों को संविधान में पर्याप्त संरक्षण प्रदान किया जायेगा।
(vii) भारतीय गणतन्त्र के राज्य क्षेत्रों की अखण्डता और उसके जल, स्थल एव वायु क्षेत्र को प्रभुत्व सम्पन्नता की रक्षा सभी राष्ट्रों की विधियों के अनुसार की जायेगी।
(vii) प्राचीन देश भारत ने विश्व में सदैव समुचित तथा सम्मानित स्थान प्राप्त किया है। हम सभी भारतवासी विश्व में शान्ति बनाये रखने तथा मानव जाति के कल्याण कार्यों में अपना पूर्ण सहयोग प्रदान करेंगे।
उद्देश्य प्रस्ताव के उक्त कथनों पर आठ दिन तक व्यापक विचार-विमर्श किया गया और 22 दिसम्बर, 1946 को पारित कर दिया गया। उद्देश्य प्रस्ताव को पारित किये जाने के बाद संविधान सभा ने संविधान निर्माण की कार्यवाही को प्रारम्भ किया। चूँकि संविधान निर्माण एक जटिल कार्य है और इसे अकेले संविधान सभा में बहस करके नहीं बनाया जा सकता। इसलिए इस कार्य को करने के लिए संविधान सभा ने कई समितियों की स्थापना की जिन्हें दो भागों में बाँटा गया था-
प्रक्रिया सम्बन्धी समितियाँ
इनमें प्रमुख थी प्रक्रिया नियम समिति वित्त तथा कार्मिक समिति, अधिकार समिति सभा समिति, गैलरी समिति, परिचालन समिति, कार्यवाही आदेश समिति हिन्दी अनुवाद समिति, उर्दू अनुवाद समिति, भारतीय स्वतन्त्रता अधिनियम प्रभाव समीक्षा समिति ।
विषय सम्बन्धी समिति
रियासत समझौता वार्ता समिति, मूल अधिकार समिति, अल्पसंख्यक समिति उत्तर-पूर्वी सीमा समिति, अल्पसंख्यक समिति, उत्तरी-पश्चिमी सीमा समिति, असम के बाहर के क्षेत्र को समिति संघ की शक्ति से सम्बन्धित समिति, संघीय संविधान से सम्बन्धित समिति, प्रान्तीय संविधान से सम्बन्धित समिति, संघीय विधान से सम्बन्धित समिति, प्रारूप समिति, वित्तीय प्रावधान विशेषज्ञ समिति, मुख्य आयुक्त के प्रान्तों से सम्बन्धित समिति, संविधान प्रारूप परीक्षण समिति, राष्ट्रीय ध्वज अस्थायी समिति उच्चतम न्यायालय अस्थायी समिति, भाषायी प्रान्तों से सम्बन्धित समिति, परामर्श समिति।
संविधान सभी की परामर्श समिति ने 17 मार्च, 1947 को प्राचीन विधानमण्डलों तथा केन्द्रीय विधान - मण्डल के सदस्यों को प्रस्तावित संविधान की मुख्य विशेषताओं के सम्बन्ध में उनके विचारों को जानने के लिए एक प्रश्नावली भेजी और संविधान सभा के सदस्यों को विश्व के विभिन्न संविधानों के पूर्व दृष्टान्तों को प्रदान किया गया। प्रान्तीय विधानमण्डलों तथा केन्द्रीय विधानमण्डल के सदस्यों द्वारा प्रश्नावली में शामिल प्रश्नों को भेजे गये उत्तर के आधार पर परामर्श समिति ने एक रिपोर्ट तैयार की जिसके आधार पर संविधान का निर्माण किया गया।
परामर्श समिति की रिपोर्ट पर विचार-विमर्श करने के लिए संविधान सभा द्वारा 29 अगस्त, 1947 को संकल्प पारित करके प्रारूप समिति का गठन किया गया जिसके अध्यक्ष डॉ. भीमराव अम्बेडकर को बनाया गया। प्रारूप समिति ने संविधान के प्रारूप पर विचार करने के बाद 21 फरवरी, 1948 को अपनी रिपोर्ट संविधान सभा को सौंप दी। संविधान सभी ने संविधान का प्रथम वाचन 4 नवम्बर, 1948 को प्रारम्भ हुआ जो 9 नवम्बर, 1948 तक चला। इसका वाचन 17 नवम्बर से 17 अक्टूबर, 1948 तक चला। इस दौरान संविधान के प्रत्येक खण्ड पर व्यापक विचार-विमर्श किया गया तथा 7635 संशोधन पेश किये गये एवं 2437 को ज्यों का त्यों स्वीकार किया गया। तीसरा वाचन 14 नवम्बर से 26 नवम्बर, 1949 तक चला। इस प्रकार संविधान सभा द्वारा संविधान को पारित कर दिया गया। संविधान निर्माण की प्रक्रिया में कुल दो वर्ष 11 माह तथा 18 दिन लगे। संविधान सभा के सदस्य 24 जनवरी 1950 को संविधान पर हस्ताक्षर किये और इसी दिन संविधान सभा को विघटित करके अन्तरिम संसद के रूप में परिवर्तित कर दिया।
भारतीय संविधान के स्रोत
भारतीय संविधान सभा ने हमारे जिन संविधान को निर्मित किया है वह मौलिक न होकर व्यावहारिक है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि भारतीय संविधान निर्माताओं ने मौलिक संविधान की रचना न करके संसार के विभिन्न संविधानों के अच्छे गुणों को ग्रहण करके एक व्यावहारिक संविधान की रचना की है। इस वजह से कुछ आलोचकों ने भारतीय संविधान को 'उधार का थैला', भानुमती के कुनबे की तरह गडबड' कैची और गोंद को खिलवाट आदि अनेक नामों को संज्ञा दी है। भारतीय संविधान के स्रोतों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-
(अ) जनसम्बन्धी स्रोत
भारतीय संविधान के जन्म सम्बन्धी स्रोत को आगे फिर दो भागों में बाँटा गया है-
(1) भारतीय संविधान के विदेशी स्रोत- ये निम्नलिखित है-
(i) ब्रिटेन के संविधान से संसदात्मक प्रणाली, विधि निर्माण प्रक्रिया तथा एकल नागरिकता को ग्रहण किया है।
(ii) अमेरिका के संविधान से मौलिक अधिकार, न्यायिक पुनरावलोकन, संविधान की सर्वोच्चता स्वतन्त्रता न्यायपालिदा, संघवाद, राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाने की प्रक्रिया इत्यादि गुणों ग्रहण किया गया है।
(iii) आयरलैण्ड के संविधान से राज्य के नीति निर्देशक तत्व राष्ट्रपति के चुनाव के लिए निर्वाच्य मण्डल तथा राज्यसभा एवं विधान परिषद में साहित्य कला, विज्ञान तथा समाज सेवा इत्यादि के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त व्यक्तियों का मनोनयन करने की परम्परा को महण किया गया है।
(iv) आस्ट्रेलिया के संविधान से प्रस्तावना की भाषा, समवर्ती सूची का प्रावधान, केन्द्र एवं राज्य के मध्य सम्बन्ध तथा शक्तियों के विभाजन को ग्रहण किया गया है।
(v) कनाडा के संविधान से संघीय शासन व्यवस्था के गुण को ग्रहण किया गया है तथा संघ शब्द के स्थान पर यूनियन शब्द का प्रयोग किया गया है।
(vi) रूसी संविधान से नागरिकों के मूल कर्तव्यों को महण किया है।
(vii) पश्चिमी जर्मनी के संविधान से आपातकाल के दौरान राष्ट्रपति की मौलिक अधिकार सम्बन्धी शक्तियों को ग्रहण किया गया है।
(viii) जापान के संविधान से विधि द्वारा राष्ट्रपति क्रियाविधि सिद्धान्तों का प्रावधान जिसके आधार पर भारतीय सर्वोच्च न्यायालय कार्य करता है, ग्रहण किया गया है।
(ix) दक्षिण अफ्रीका के संविधान से संविधान संशोधन की प्रक्रिया की निधि को ग्रहण किया गया।
(2) भारतीय संविधान के देशी अथवा भारतीय स्रोत- इसके अन्तर्गत निम्नलिखित लोगों को सम्मिलित किया गया है-
(i) नेहरू रिपोर्ट, 1928 : इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत का भावी संविधान अपने स्वरूप में संघीय होगा। इसमें देशी रियासतों अथवा भारतीय राज्यों को अलग से अस्तित्व नहीं मिलेगा तथा उन्हें संघ में शामिल होना होगा। नेहरू रिपोर्ट में संसदात्मक शासन प्रणाली अपनाये जाने का प्रावधान था। भारतीय संस्कृतियों में मौलिक अधिकारों की जो व्यवस्था की गई है, उस समस्त व्यवस्था पर नेहरू रिपोर्ट का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।
(ii) 1935 का भारत शासन अधिनियम : भारतीय संविधान पर 1935 के भारत शासन अधिनियम का प्रभाव सर्वाधिक परिलक्षित होता है। रॉबर्ट एल. हार्डमेव के अनुसार भारतीय संविधान के अनुच्छेदों में में लगभग 250 अनुच्छेद ऐसे हैं जो 1935 के अधिनियम से या तो अच्छरशः ले लिये गये हैं या फिर उसमें थोड़ा-बहुत संशोधन करके परिवर्तन किया गया है। डॉ. पजाबीराव देशमुख ने तो यहाँ तक कह दिया है कि नवीन संविधान 1935 का भारत शासन अधिनियम ही है। इसमें केवल वयस्क मताधिकार को जोड़ दिय गया है। वर्तमान संविधान के कुछ मुख्य उपबन्ध थे जो 1935 के अधिनियम के मुख्य सिद्धान्तों से समानता रखते हैं, जैसे- संविधान में सूचियों के आधार पर शक्ति विभाजन, द्विसदनात्मक विधानमण्डल की व्यवस्था राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने की व्यवस्था, राज्यपाल पद की व्यवस्था आदि। अनुच्छेद 251, 256, 352, 356 इत्यादि 1935 के भारत शासन अधिनियम के ही समान है।
(ब) विकास सम्बन्धी स्रोत
इसके अन्तर्गत निम्नलिखित स्रोतों को सम्मिलित किया गया है-
(i) सविधियां, नियम, विनिमय तथा अध्यादेश : इसके अन्तर्गत केन्द्रीय विधानमण्डल द्वारा पारित कानून, राष्ट्रपति द्वारा केन्द्रीय सरकार के कार्यों तथा शासन संचालन के नियम राष्ट्रपति द्वारा जारी अध्यादेश आते हैं। संसद द्वारा निर्मित कुछ प्रमुख कानून अथवा संविधियां जो संविधान के अभिन्न अंग बन गये हैं, इनमें प्रमुख है- भारतीय जन प्रतिनिधि अधिनियम 1950 एवं 1951 राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति निर्वाचन अधिनियम, 1952, भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955-56 तथा जन प्रतिनिधि अधिनियम, 1988 इत्यादि है।
(ii) रूढ़ियाँ अथवा परम्पराएं : भारत में कुछ परम्पराएं भी संविधान के विकास में सहयोगी रही है। इसमें कुछ महत्वपूर्ण परम्पराएँ हैं- संविधान के अनुसार कार्यपालिका शक्तियाँ राष्ट्रपति में निहित है, परन्तु परम्परा यह है कि यह मंत्रिमण्डल के परामर्श से ही कार्य करता है। इस परम्परा को 42वें संविधान संशोधन, 1976 के द्वारा संविधान का अंग बनाकर राष्ट्रपति को मन्त्रिमण्डल की सलाह मानने से बाध्य कर दिया गया दूसरा राष्ट्रपति लोक सभा को भंग कर सकता है, किन्तु ऐसा वह प्रधानमन्त्री की सलाह से ही करेगा, तीसरा, राष्ट्रपति द्वारा लोक सभा में बहुमत प्राप्त दल के नेता को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया जाता है इत्यादि।
(iii) संवैधानिक संशोधन : संविधान लागू होने से अब तक भारत में संविधान में 100 संशोधन हो चुके है। 42वें संवैधानिक संशोधन तो इतना विस्तृत था कि इसे लघु संविधान की संज्ञा दी गयी है।
(iv) न्यायिक पुनर्विलोकन : भारत में संविधान का एक प्रमुख स्रोत वे न्यायिक निर्णय है जो सर्वोच्च न्यायालय ने समय समय पर दिये हैं। न्यायाधीश संवैधानिक कानून की व्याख्या करते हैं और उनके निर्णय तब तक प्रभावी रहते है जब तक कि न्यायपालिका स्वयं परिवर्तन न करें। उदाहरणार्थ- गोपालन बनाम मद्रास राज्य के मुकदमें में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का क्षेत्र परिभाषित किया है। चिन्ताराव के मुकदमें में निवारण निरोध अधिनियम में नजरबन्द व्यक्ति को प्राप्त सुविधाओं की व्याख्या को गयी है। उसी तरह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये अपने निर्णय में केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य, 1973 और मिनर्वा मिल विवाद सम्बन्धी निर्णय, 1980 में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिपादित किया कि संसद संविधान के प्रत्येक भाग में संशोधन कर सकती है, जिसमें मूल अधिकार भी परिवर्तन करने का अधिकार है।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि भारतीय संविधान के विभिन्न स्रोत हैं तथा इसे संसार के अनेक देशों के संविधान से ग्रहण किया गया है, लेकिन भारतीय संविधान को पूर्णरूपेण अन्य संविधानों की नकल भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि हमारा संविधान दूसरे देशों के संविधानों का अन्धानुकरण नहीं है, बल्कि उनकी अच्छी अच्छी बातों को ग्रहण करके उन्हें भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल ढाला गया है।