बाल्यावस्था का अर्थ एवं परिभाषा
बाल्यावस्था, वास्तव में मानव जीवन का वह स्वर्णिम समय है जिसमें उसका सर्वागीण विकास होता है। फ्रायड यद्यपि यह मानते है कि बालक का विकास पाँच वर्ष की आयु तक हो जाता है, लेकिन बाल्यावस्था विकास की यह सम्पूर्णता गति प्राप्त करती है और एक परिपक्व व्यक्ति के निर्माण की ओर अग्रसर होती है।
शैशवावस्था के बाद बाल्यावस्था का आरम्भ होता है। यह अवस्था, बालक के व्यक्तित्व के निर्माण की होती है। बालक में इस अवस्था में विभिन्न आदतों, व्यवहार, रुवि एवं इच्छाओं के प्रतिरूपों का निर्माण होता है।
कोल व ब्रूस ने बाल्यावस्था को 'जीवन का अनोखा काल' बताते हुए लिखा है- "वास्तव में माता-पिता के लिए बाल विकास की इस अवस्था को समझना कठिन है।"
इस अवस्था को समझना कठिन क्यों है? कुप्पूस्वामी (Kuppuswamy) के अनुसार, इस अवस्था में बालक में अनेक अनोखे परिवर्तन होते हैं. उदाहरणार्थ, 6 वर्ष की आयु में बालक का स्वभाव बहुत उग्र होता है और वह लगभग सब बातों का उत्तर 'न' या नहीं मे देता है। 7 वर्ष की आयु में वह उदासीन होता है और अकेला रहना पसन्द करता है। 8 वर्ष की आयु में उसमें अन्य बालकों में सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने की भावना बहुत प्रबल होती है। 9 से 12 वर्ष तक की आयु में विद्यालय में उसके लिए कोई आकर्षण नहीं रह जाता है। वह कोई नियमित कार्य न करके कोई महान और रोमांचकारी कार्य करना चाहता है।
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बाल्यावस्था की मुख्य विशेषताएँ
यद्यपि बाल्यावस्था को 6-12 वर्षायु तक माना जाता है। हरलॉक ने इसे 6 वर्ष से लेकर 12 वर्ष तक के बीच का समय माना है। इस अवस्था में ये विशेषतायें विकसित होती है।
शारीरिक व मानसिक स्थिरता
6 या 7 वर्ष की आयु बाद बालक के शारीरिक और मानसिक विकास में स्थिरता आ जाती है। वह स्थिरता उसकी शारीरिक व मानसिक शक्तियों को दृढ़ता प्रदान करती है। फलस्वरूप उसका मस्तिष्क परिपक्व सा और वह स्वयं वयस्क-सा जान पड़ता है। इसलिए रॉस (Ross) ने बाल्यावस्था को मिथ्या परिपक्वता (Pseudo-Maturity) का काल बताते हुए लिखा है- "शारीरिक और मानसिक स्थिरता बाल्यावस्था की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है।"
बाल्यावस्था के विकास का महत्त्व अत्यधिक है। इस अवस्था में विकास का अध्ययन अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों को प्रकट करता है।
कैरल के अनुसार- ''बालक के शारीरिक विकास और उसके सामान्य व्यवहार का सह-सम्बन्ध इतना महत्वपूर्ण होता है कि यदि हम समझना चाहे कि भिन्न-भिन्न बालकों में क्या समानताये है, क्या भिन्नताये है, आयु-वृद्धि के साथ व्यक्ति में क्या-क्या परिवर्तन होते हैं तो हमें बालक के शारीरिक विकास का अध्ययन करना होगा।"
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मानसिक योग्यताओं में वृद्धि
बाल्यावस्था में बालक की मानसिक योग्यताओं में निरन्तर वृद्धि होती है। उसकी संवेदना और प्रत्यक्षीकरण की शक्तियों में वृद्धि होती है। वह विभिन्न बातों के बारे में तर्क और विचार करने लगता है। वह साधारण बातों पर अधिक देर तक अपने ध्यान को केन्द्रित कर सकता है। उसमें अपने पूर्व अनुभवों को स्मरण रखने की योग्यता उत्पन्न हो जाती है।
जिज्ञासा की प्रबलता
बालक की जिज्ञासा विशेष रूप से प्रबल होती है। वह जिन वस्तुओं के सम्पर्क में आता है, उनके बारे में प्रश्न पूछ कर हर तरह की जानकारी प्राप्त करना चाहता है। उसके ये प्रश्न शैशवावस्था के साधारण प्रश्नों से भिन्न होते है। अब वह शिशु के समान यह नहीं पूछता है, यह क्या है ?' इसके विपरीत, यह पूछता है यह ऐसे क्यों है ? एवं यह ऐसे कैसे हुआ है ?
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वास्तविक जगत् के सम्बन्ध
इस अवस्था में बालक, शैशवावस्था के काल्पनिक जगत् का परित्याग करके वास्तविक जगत् में प्रवेश करता है। वह उसकी प्रत्येक वस्तु से आकर्षित होकर उसका ज्ञान प्राप्त करना चाहता है। स्ट्रेंग (Strang) के शब्दों में, बालक अपने को अति विशाल संसार में पाता है और उसके बारे में जल्दी से जल्दी जानकारी प्राप्त करना चाहता है।
रचनात्मक कार्यों में आनन्द
बालक को रचनात्मक कार्यों में विशेष आनन्द आता है। वह साधारणतः घर से बाहर किसी प्रकार का कार्य करना चाहता है जैसे- बगीचे में काम करना या औजारों से लकड़ी की वस्तुएं बनाना उसके विपरीत, बालिका घर में ही कोई-न-कोई कार्य करना चाहती है, जैसे-सीना, पिरोना या कढाई करना।
सामाजिक गुणों का विकास
बालक, विद्यालय के छात्रों और अपने समूह के सदस्यों के साथ पर्याप्त समय व्यतीत करता है। अतः उसमें अनेक सामाजिक गुणों का विकास होता है, जैसे- सहयोग सद्भावना, सहनशीलता आज्ञाकारिता आदि।
नैतिक गुणों का विकास
इस अवस्था के आरम्भ में ही बालक में नैतिक गुणों का विकारा होने लगता है। स्ट्रैग (Strang) के मतानुसार - "छ:, सात और आठ वर्ष के बालकों में अच्छे-बुरे के ज्ञान का एवं न्यायपूर्ण व्यवहार, ईमानदारी और सामाजिक मूल्यों की भावना का विकास होने लगता है।"
बहिर्मुखी व्यक्तित्व का विकास
शैशवावस्था में बालक का व्यक्तित्व अन्तर्मुखी (Introvert) होता है, क्योंकि वह एकान्तप्रिय और केवल अपने में रुचि लेने वाला होता है। इसके विपरीत, बाल्यावस्था में उसका व्यक्तित्व बहिर्मुखी (Extrovert) हो जाता है, क्योंकि बाह्य जगत् में उसकी रुचि उत्पन्न हो जाती है। अतः वह अन्य व्यक्तियों, वस्तुओं और कार्यों का अधिक-से-अधिक परिचय प्राप्त करना चाहता है।
संवेगों का दमन व प्रदर्शन
बालक अपने संवेगों पर अधिकार रखना एवं अच्छी और बुरी भावनाओं में अन्तर करना जान जाता है। वह उन भावनाओं का दमन करता है, जिनको उसके माता-पिता और बड़े लोग पसन्द नहीं करते हैं, जैसे- काम-सम्बन्धी भावनाये।
संग्रह करने की प्रवृत्ति
बाल्यावस्था में बालकों और बालिकाओं में संग्रह करने की प्रवृत्ति बहुत ज्यादा पाई जाती है। बालक विशेष रूप से काँच की गोलियों, टिकटों, मशीनों के भागों और पत्थर के टुकड़ों का संचय करते हैं। बालिकाओं में चित्रों, खिलौनों, गुडियों और कपड़ों के टुकड़ों का संग्रह करने की प्रवृत्ति पाई जाती है।
निरुद्देश्य भ्रमण की प्रवृत्ति
बालक में बिना किसी उद्देश्य के इधर-उधर घूमने की प्रवृत्ति बहुत अधिक होती है। मनोवैज्ञानिक बर्ट (Burt) ने अपने अध्ययनों के आधार पर बताया है कि लगभग 9 वर्ष के बालकों में आवारा घूमने, बिना छुट्टी लिए विद्यालय से भागने और आलस्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने की आदतें सामान्य रूप से पाई जाती है।
काम प्रवृत्ति की न्यूनता
बालक में काम प्रवृत्ति की न्यूनता होती है। वह अपना अधिकांश समय मिलने-जुलने, खेलने-कूदने और पढ़ने-लिखने में व्यतीत करता है। अतः वह बहुत ही कम अवसरों पर अपनी काम प्रवृत्ति का प्रदर्शन कर पाता है।
सामूहिक प्रवृत्ति की प्रबलता
बालक में सामूहिक प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है। वह अपना अधिक से अधिक समय दूसरे बालकों के साथ व्यतीत करने का प्रयास करता है।
रॉस (Ross) के अनुसार- "बालक प्रायः अनिवार्य रूप से किसी-न-किसी समूह का सदस्य हो जाता है, जो अच्छे खेल खेलने और ऐसे कार्य करने के लिए नियमित रूप से एकत्र होता है. जिनके बारे में बड़ी आयु के लोगों को कुछ भी नहीं बताया जाता है।"
सामूहिक खेलों में रुचि
बालक को सामूहिक खेलों में अत्यधिक रुचि होती है। वह 6 या 7 वर्ष की आयु में छोटे समूहों में और बहुत काफी समय तक खेलता है। खेल के समय बालिकाओं की अपेक्षा बालको में झगड़े अधिक होते हैं। 11 या 12 वर्ष की आयु बालक दलीय खेलों में भाग लेने लगता है।
स्ट्रेंग (Strang) का विचार है- "ऐसा शायद ही में कोई खेल हो, जिसे दस वर्ष के बालक न खेलते हो।"
रुचियों में परिवर्तन
बालक की रुचियों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। वे स्थायी रूप धारण न करके वातावरण में परिवर्तन के साथ परिवर्तित होती रहती है। कोल एवं ब्रूस (Cole and Bruce) ने लिखा है- "6 से 12 वर्ष की अवधि की एक अपूर्व विशेषता है, मानसिक रुचियों में स्पष्ट परिवर्तन।''
बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप
इस अवस्था में बालक विद्यालय में जाने लगता है और उसे नवीन अनुभव प्राप्त होते हैं। औपचारिक तथा अनौपचारिक शैक्षिक प्रक्रिया के मध्य उसका विकास होता है।
बाल्यावस्था शैक्षिक दृष्टि से बालक के निर्माण की अवस्था है। इस अवस्था में बालक अपना समूह अलग बनाने लगते हैं। इसे चुस्ती की आयु भी कहा गया है। इस अवस्था में शिक्षा का स्वरूप इस प्रकार होता है- ब्लेयर, जोन्स व सिम्पसन ने लिखा है- ''बाल्यावस्था वह समय है जब व्यक्ति के आधारभूत दृष्टिकोणों, मूल्यों और आदर्शों का बहुत सीमा तक निर्माण होता है।"
जिस निर्माण की ओर ऊपर संकेत किया गया है, उसका उत्तरदायित्य बालक के शिक्षक, माता-पिता और समाज पर है। अतः उसकी शिक्षा का स्वरूप निश्चित करते समय उन्हें निम्नांकित बातों को ध्यान में रखना चाहिए-
भाषा के ज्ञान पर बल
स्ट्रग (Strang) के अनुसार - "इस अवस्था में बालकों की भाषा में बहुत रुचि होती है।" अतः इस बात पर बल दिया जाना आवश्यक है कि बालक, भाषा का अधिक-से-अधिक ज्ञान प्राप्त करे।
उपयुक्त विषयों का चुनाव
बालक के लिए कुछ ऐसे विषयों का अध्ययन आवश्यक है, जो उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके और उसके लिए लाभप्रद भी हो इस विचार से निम्नलिखित विषयों का चुनाव दिया जाना चाहिए भाषा, अंकगणित, विज्ञान, सामाजिक अध्ययन, ड्राइंग, चित्रकला, सुलेख पत्र लेखन और निबन्ध रचना ।
रोचक विषय-सामग्री
बालकों की रुचियों में विभिन्नता और परिवर्तनशीलता होती है। अतः उसकी पुस्तकों की विषय-सामग्री में रोचकता और विभिन्नता होनी चाहिए।
इस दृष्टिकोण से विषय सामग्री का सम्बन्ध अग्रलिखित से होना चाहिए- पशु, हास्य, विनोद, नाटक, वार्तालाप, वीर पुरुष साहसी कार्य और आश्चर्यजनक बातें।
पाठ्य विषय व शिक्षण विधि में परिवर्तन
इस अवस्था में बालक की रुचियों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। अतः पाठ्य विषय और शिक्षण विधि में उसकी रुचियों के अनुसार परिवर्तन किया जाना आवश्ययक है। ऐसा न करने से उसमें शिक्षण के प्रति कोई आकर्षण नहीं रह जाता है। फलस्वरूप उसकी मानसिक प्रगति रुक जाती है।
जिज्ञासा की सन्तुष्टि
बालक में जिज्ञासा की प्रवृत्ति होती है। अतः उसे दी जाने वाली शिक्षा का स्वरूप ऐसा होना चाहिए, जिससे उसकी इस प्रवृत्ति की तुष्टि हो।
सामूहिक प्रवृत्ति की तुष्टि
बालक में समूह में रहने की प्रबल प्रवृत्ति होती है। वह अन्य बालकों से मिलना-जुलना और उनके साथ कार्य करना या खेलना चाहता है। उसे इन सब बातों का अवसर देने के लिए विद्यालय में सामूहिक कार्यों और सामूहिक खेलों का उचित आयोजन किया जाना चाहिए।
कोलेसनिक (Kolesnik) के अनुसार- "सामूहिक खेल और शारीरिक व्यायाम, प्राथमिक विद्यालय के पाठ्यक्रम के अभिन्न अंग होने चाहिए।"
रचनात्मक कार्यों की व्यवस्था
बालक की रचनात्मक कार्यों में विशेष रुचि होती है। अतः विद्यालय में विभिन्न प्रकार के रचनात्मक कार्यों की व्यवस्था की जानी चाहिए।
पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं की व्यवस्था
बालक की विभिन्न मानसिक रूचियों को सन्तुष्ट करके उसकी सुप्त शक्तियों का अधिकतम विकास किया जा सकता है। इस कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए विद्यालय में अधिक से अधिक पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का संचालन किया जाना चाहिए।
पर्यटन व स्काउटिंग की व्यवस्था
लगभग 9 वर्ष की आयु में पालक में निरुद्देश्य इधर-उधर घूमने की प्रवृत्ति होती है। उसकी इस प्रवृत्ति को सन्तुष्ट करने के लिए पर्यटन और स्काउटिंग को उसकी शिक्षा का अभिन्न अंग बनाया जाना चाहिए।
संचय प्रवृत्ति को प्रोत्साहन
बालक में संचय करने की प्रवृत्ति होती है। उसे जो भी वस्तु अच्छी लगती है, उसी का वह संचय कर लेता है। उसके माता-पिता और शिक्षक का कर्तव्य है कि वे उसे शिक्षाप्रद वस्तुओं का संचय करने के लिए प्रोत्साहित करें।
संवेगों के प्रदर्शन का अवसर
कोल एवं ब्रूस (Cole and Bruce) ने बाल्यावस्था को ''संवेगात्मक विकास का अनोखा काल" ("A unique stage in emotional development") माना है। यह विकास तभी सम्भव है, जब बालक के संवेगों का दमन न किया जाय, क्योंकि ऐसा करने से उसमें भावना-ग्रन्थियों का निर्माण हो जाता है।
अतः स्ट्रेंग (Strang) का परामर्श है- ''बालकों को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त अपने संवेगों का दमन करने के बजाय तृप्त करने में सहायता दी जानी चाहिए, क्योंकि संवेगात्मक भावना और प्रदर्शन उनके सम्पूर्ण जीवन का आधार होता है।"
सामाजिक गुणों का विकास
किर्कपैट्रिक (Kirkpatrick) ने बाल्यावस्था को "प्रतिद्वन्द्वात्मक समाजीकरण" (Competitive Socializations) का काल माना है। अतः विद्यालय में ऐसी क्रियाओं का अनिवार्य रूप से संगठन किया जाना चाहिए, जिनमे भाग लेकर बालक में अनुशासन, आत्म-नियन्त्रण, सहानुभूति, प्रतिस्पर्धा, सहयोग आदि सामाजिक गुणों का अधिकतम विकास हो ।
नैतिक शिक्षा
पियाजे (Piaget) ने अपने अध्ययनों के आधार पर बताया है कि लगभग 8 वर्ष का बालक अपने नैतिक मूल्यों का निर्माण और समाज के नैतिक नियमों में विश्वास करने लगता है। उसे इन मूल्यों का उचित निर्माण और इन नियमों में दृढ़ विश्वास रखने के लिए नियमित रूप से नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए।
कोलेसनिक (Kolesnik) का मत है- "बालक को आनन्द प्रदान करने वाली सरल कहानियों द्वारा नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए।"
क्रिया व खेल द्वारा शिक्षा
सभी शिक्षा शास्त्री बालक की स्वाभाविक क्रियाशीलता और खेल प्रवृत्ति में विश्वास करते हैं। अतः उसकी शिक्षा का स्वरूप ऐसा होना चाहिए. जिससे वह स्वयं क्रिया (Self- Activity) और खेल द्वारा ज्ञान का अर्जन करे।
प्रेम व सहानुभूति पर आधारित शिक्षा
बालक कठोर अनुशासन पसन्द नहीं करता है वह शारीरिक दण्ड बल-प्रयोग और डॉट-डपट से घृणा करता है। वह उपदेश नहीं सुनना चाहता है। वह धमकियों की चिन्ता नहीं करता है। अतः उसकी शिक्षा इनमें से किसी पर आधारित न होकर प्रेम और सहानुभूति पर आधारित होनी चाहिए।
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उपसंहार
फ्रायड और उसके अनुयायियों ने बाल्यावस्था को बालक का निर्माणकारी काल मानकर इस अवस्था को अत्यधिक महत्व दिया है। उनका कहना है कि इस अवस्था में बालक जिन वैयक्तिक, सामाजिक और शिक्षा सम्बन्धी आदतों एवं व्यवहार के प्रतिमानों का निर्माण कर लेता है, उनको रूपान्तरित करना बहुत कठिन हो जाता है। इस दृष्टि से प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने वाले शिक्षकों पर बालकों का निर्माण करने का महान् उत्तरदायित्व है।
अतः लगभग ऐसे ही विचारों को व्यक्त करते हुए ब्लेयर, जोन्स व सिम्पसन ने लिखा है- "शैक्षिक दृष्टिकोण से जीवन-चक्र में बाल्यावस्था से अधिक महत्वपूर्ण और कोई अवस्था नहीं है जो अध्यापक इस अवस्था के बालकों को शिक्षा देते हैं, उन्हें बालकों का उनकी आधारभूत आवश्यकताओं का, उनकी समस्याओं का और उन परिस्थितियों का पूर्व ज्ञान होना चाहिए, जो उनके व्यवहार को रूपान्तरित और परिवर्तित करती है।"
मनोवैज्ञानिक, बाल्यावस्था को शैक्षिक दृष्टिकोण से विशेष महत्त्व देते हैं। इस अवस्था में शिक्षा का यथार्थवादी स्वरूप, जो उनकी आवश्यकता, प्रकृति तथा मूल प्रवृत्तियों के शोधन पर आधारित हो, वह बालकों के मूलभूत गुणों को विकसित करने तथा उन्हें स्वस्थ, सजग नागरिक बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है।
Asho
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