अभिवृद्धि व विकास का अर्थ
मानव विकास का अध्ययन शिक्षा मनोविज्ञान का एक महत्वपूर्ण अंग है। एक शिक्षक को बालक की अभिवृद्धि (Growth) के साथ-साथ उसमें होने वाले विभिन्न प्रकार के विकास तथा उसकी विशेषताओं का ज्ञान होना आवश्यक है। तभी वह शिक्षा की योजना का क्रियान्वयन विकास तथा अभिवृद्धि के संदर्भ में कर सकता है।
मेरिडिथ (Meredith) के शब्दों में- "कुछ लेखक अभिवृद्धि का प्रयोग केवल आकार की वृद्धि के अर्थ में करते हैं और विकास का प्रयोग विभेद या विशिष्टीकरण के रूप में करते हैं।"
"अभिवृद्धि और 'विकास' का अर्थ समझने के लिए हमें उनके अन्तर को समझ लेना आवश्यक है। सोरेन्सन (Sorenson) के अनुसार- सामान्य रूप से 'अभिवृद्धि' शब्द का प्रयोग शरीर और उसके अंगों के भार और आकार में वृद्धि के लिए किया जाता है। इस वृद्धि को नापा और तोला जा सकता है। 'विकास' का सम्बन्ध 'अभिवृद्धि से अवश्य होता है, पर यह शरीर के अंगों में होने वाले परिवर्तनों को विशेष रूप में व्यक्त करता है, उदाहरणार्थ, हड्डियों के आकार में वृद्धि होती है. पर कड़ी हो जाने के कारण उनके स्वरूप में परिवर्तन भी हो जाता है। इस प्रकार, 'विकास' में 'अभिवृद्धि' का भाव सदैव निहित रहता है। फिर भी, लेखकों द्वारा दोनों शब्दों का प्रयोग साधारणतः एक ही अर्थ में किया जाता है।
'अभिवृद्धि' और 'विकास' की प्रक्रियाएँ उसी समय से आरम्भ हो जाती हैं, जिस समय से बालक का गर्भाधान होता है। ये प्रक्रियाएँ, उनके जन्म के बाद भी चलती रहती हैं। फलस्वरूप वह विकास की विभिन्न अवस्थाओं में से गुजरता है, जिनमें उसका शारीरिक, मानसिक, सामाजिक आदि विकास होता है। अतः हम हरलॉक के शब्दों में कह सकते है-"विकास, अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है। इसके बजाय, इसमें प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है। विकास के परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषतायें और नवीन योग्यतायें प्रकट होती है।"
विकास तथा अभिवृद्धि में अन्तर
सामान्यतः विकास तथा वृद्धि में कोई अन्तर नहीं समझा जाता जबकि इन क्षेत्रों में पर्याप्त अन्तर इस प्रकार है।
अभिबृद्धि
(Growth) |
विकास
(Development) |
1. विशेष आयु तक चलने वाली प्रक्रिया। 2. परिमाणात्मक परिवर्तन की अभिव्यक्ति। 3. वृद्धि, विकास का एक चरण है। 4. परिवर्तनों को देखा तथा नापा जा सकता है। 5. केवल शारीरिक परिवर्तन को प्रकट करता है। |
1. जन्म से मृत्यु
तक चलने वाली प्रक्रिया। 2. गुणात्मक तथा परिमाणात्मक पक्षों की अभिव्यक्ति। 3. विकास में वृद्धि भी सम्मिलित है। 4. परिवर्तनों को अनुभव किया जा सकता है, नापा नही जा सकता 5. सम्पूर्ण पक्षों के परिवर्तनों को संयुक्त रूप से परिवर्तित करता है। |
अभिवृद्धि व विकास के सिद्धान्त
गैरिसन तथा अन्य (Garrison and Others) के अनुसार- "जब बालक, विकास की एक अवस्था से दूसरी में प्रवेश करता है, तब हम उसमें कुछ परिवर्तन देखते हैं। अध्ययनों ने सिद्ध कर दिया है कि ये परिवर्तन निश्चित सिद्धान्तों के अनुसार होते हैं। इन्हीं को विकास के सिद्धान्त कहा जाता है।" हम अधोलिखित पंक्तियों में इनका वर्णन कर रहे है, यथा-1
निरन्तर विकास का सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के अनुसार, विकास की प्रक्रिया अविराम गति से निरन्तर चलती रहती है। पर यह गति कभी तीव्र और कभी मन्द होती है. उदाहरणार्थ, प्रथम तीन वर्षों में बालक के विकास की प्रक्रिया बहुत तीव्र रहती है और उसके बाद मन्द पड़ जाती है। इसी प्रकार शरीर के कुछ भागों का विकास तीव्र गति से और कुछ का मन्द गति से होता है। पर विकास की प्रक्रिया चलती अवश्य रहती है, जिसके फलस्वरूप व्यक्ति में कोई आकस्मिक परिवर्तन नहीं होता है। स्किनर (Skinner) के शब्दों में "विकास प्रक्रियाओं की निरन्तरता का सिद्धान्त केवल इस तथ्य पर बल देता है कि शक्ति में कोई आकस्मिक परिवर्तन नहीं होता है।"
विकास की विभिन्न गति का सिद्धान्त
डगलस एवं हालैण्ड (Douglas and Holland) ने इस सिद्धान्त का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है विभिन्न व्यक्तियों के विकास की गति में विभिन्नता होती है और यह विभिन्नता विकास के सम्पूर्ण काल में यथावत् बनी रहती है. उदाहरणार्थ, जो व्यक्ति जन्म के समय लम्बा होता है, वह साधारणतः बड़ा होने पर भी लम्बा रहता है और जो छोटा होता है, वह साधारणतः छोटा रहता है।
विकास-क्रम का सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के अनुसार बालक का गामक (Motor) और भाषा सम्बन्धी आदि विकास एक निश्चित क्रम में होता है। शर्ले, गेसेल, पियाजे, एमिस (Shirley. Gesell, Piaget, Amis) आदि की परीक्षाओं ने यह बात सिद्ध कर दी है, उदाहरणार्थ- 32 से 36 माह का बालक वृत्त (Circle) को उल्टा (Counter Clock wise), 60 माह का बालक सीधा (Clock Wise) और 72 माह का फिर उल्टा बनाता है। इसी प्रकार, जन्म के समय वह 1 केवल रोना जानता है। 3 माह में वह गले से एक विशेष प्रकार की आवाज निकालने लगता है। 6 माह में वह आनन्द की ध्वनि करने लगता है। 7 माह में वह अपने माता-पिता के लिए 'पा', 'बा', 'दा आदि शब्दों का प्रयोग करने लगता है। 'कुप्पूस्वामी'
विकास दिशा का सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के अनुसार, बालक का विकास सिर से पैर की दिशा में होता है. उदाहरणार्थ, अपने जीवन के प्रथम सप्ताह में बालक केवल अपने सिर को उठा पाता है। पहले 3 माह में वह अपने नेत्रों की गति पर नियंत्रण करना सीख जाता है। 6 माह में वह अपने हाथों की गतियों पर अधिकार कर लेता है। 9 माह में वह सहारा लेकर बैठने लगता है। 12 माह में वह स्वयं बैठने और घिसट कर चलने लगता है। एक वर्ष का हो जाने पर उसे अपने पैरों पर नियंत्रण हो जाता है और वह खड़ा होने लगता है। इस प्रकार जो शिशु अपने जन्म के प्रथम सप्ताह में केवल अपने सिर को उठा पाता था, वह एक वर्ष बाद खड़ा होने और 18 माह के बाद चलने लगता है। 'कुप्पूस्वामी'
एकीकरण का सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के अनुसार, बालक पहले सम्पूर्ण अंग को और फिर अंग के भागों को चलाना सीखता है। उसके बाद, वह उन भागों में एकीकरण करना सीखता है, उदाहरणार्थ, वह पहले पूरे हाथ को फिर उंगलियों को और फिर हाथ एवं उंगलियों को एक-साथ चलाना सीखता है। इस प्रकार, जैसा कि कुप्पूस्वामी (Kuppuswamy) ने लिखा है- विकास में पूर्ण से अंगों की ओर, एवं अंगों से पूर्ण की ओर गति निहित रहती है। विभिन्न अंगों का एकीकरण ही गतियों की सरलता को सम्भव बनाता है।"
परस्पर सम्बन्ध का सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के अनुसार, बालक के शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक आदि पहलुओं के विकास में परस्पर सम्बन्ध होता है, उदाहरणार्थ, जब बालक का शारीरिक विकास के साथ-साथ उसकी रुचियों, ध्यान के केन्द्रीयकरण और व्यवहार में परिवर्तन होते हैं। साथ-साथ उसमें गामक और भाषा सम्बन्धी विकास भी होता है। अतः गैरिसन तथा अन्य (Garrison and Other) का कथन है- "शरीर सम्बन्धी दृष्टिकोण व्यक्ति के विभिन्न अंगों के विकास में सामंजस्य और परस्पर सम्बन्ध पर बल देता है।"
वैयक्तिक विभिन्नताओं का सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक बालक और बालिका के विकास का अपना स्वयं का स्वरूप होता है। इस स्वरूप में वैयक्तिक विभिन्नतायें पायी जाती है। एक ही आयु के दो बालकों, दो बालिकाओं या एक बालक और एक बालिका के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक आदि विकास में वैयक्तिक विभिन्नताओं की उपस्थिति स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। इसीलिए स्किनर (Skinner) का मत है-"विकास के स्वरूपों में व्यापक वैयक्तिक विभिन्नताएँ होती हैं।"
समान प्रतिमान का सिद्धान्त
इस सिद्धान्त का अर्थ स्पष्ट करते हुए हरलॉक (Hurlock) ने लिखा है-"प्रत्येक जाति, चाहे वह पशुजाति हो या मानवजाति अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती है। उदाहरणार्थ, संसार के प्रत्येक भाग में मानव जाति के शिशुओं के विकास का प्रतिमान एक ही है और उसमें किसी प्रकार का अन्तर होना सम्भव नहीं है।
सामान्य व विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के अनुसार बालक का विकास सामान्य प्रतिक्रियाओं की ओर होता है, उदाहरणार्थ, नवजात शिशु अपने शरीर के किसी एक अंग का संचालन करने से पूर्व अपने शरीर का संचालन करता है और किसी विशेष वस्तु की ओर इशारा करने से पूर्व अपने हाथों को सामान्य रूप से चलाता है। हरलॉक (Hurlock) का कथन है- "विकास की सब अवस्थाओं में बालक की प्रतिक्रियायें विशिष्ट बनने से पूर्व सामान्य प्रकार की होती हैं।"
वंशानुक्रम व वातावरण की अन्तःक्रिया का सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के अनुसार, बालक का विकास न केवल वंशानुक्रम के कारण और न केवल वातावरण के कारण, वरन् दोनों की अन्तः क्रिया के कारण होता है। इसकी पुष्टि स्किनर (Skinner) के द्वारा इन शब्दों में की गई है-"यह सिद्ध किया जा चुका है कि वंशानुक्रम उन सीमाओं को निश्चित करता है, जिनके आगे बालक का विकास नहीं किया जा सकता है। इसी प्रकार, यह भी प्रमाणित किया जा चुका है कि जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में दूषित वातावरण, कुपोषण या गम्भीर रोग जन्मजात योग्यताओं को कुंठित या निर्बल बना सकते हैं।"
विकास की जैव-मनोवैज्ञानिक अवधारणा
बालकों के विकास की प्रक्रिया में विद्वानों ने जैव- मनोवैज्ञानिक धारणा का विकास किया है। व्यक्ति केवल हाड़-माँस का पुतला मात्र नहीं है, वह मन, आत्मा, चेतना एवं व्यवहार का समग्र रूप है। यह सत्य है कि व्यक्ति का निर्माण, शारीरिक संयोग एवं मानसिक उद्वेलन से होता है। इसीलिये विकास के विषय में इन विद्वानों ने अनेक धारणायें व्यक्त की है-
एलिजाबेथ हरलॉक
विकास अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है. इसमें प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है। विकास के कारण व्यक्ति में नवीन विशेषताये एवं 6 धरणायें विकसित होती है।
गेसेल
विकास केवल एक प्रत्यय या विचार ही नहीं है। इसे किसी सीमा तक तीन विभिन्न दिशाओं में शरीर अंग विश्लेषण, शरीर ज्ञान तथा व्यवहारात्मक रूप में देखा, जाँचा तथा मापा जा सकता है। इन सबमें व्यवहार ही सबसे अधिक विकासात्मक स्तर तथा शक्तियों को व्यक्त करने का माध्यम है।
इन विचारों में गेसेल ने विकास की जैव-मनोवैज्ञानिक धारणा की ओर संकेत किया है। यह धारणा दो तथ्यों पर आधारित है।
1. शारीरिक (Physiological)- इसके अन्तर्गत व्यक्ति के शरीर का बाह्य तथा आन्तरिक विकास निहित है। गर्भस्थ शिशु का विकास इसी के अन्तर्गत आता है। जन्म के बाद से लेकर प्रौढ़ावस्था तक शरीर के विभिन्न अंगों का विकास होता है।
2. मनोजैविक तथा सामाजिक (Psycho-physical and Social)- विकास का यह पक्ष समग्रवादी विचारधार पर आधारित है। गेसेल ने विकास को अभिवृद्धि से अलग मनोजैविक तथा सामाजिक रूप में अभिव्यक्त किया है।
इरिक्सन (E.H. Erickson) ने विकास का मूल अभिवृद्धि को बताया किन्तु उसने यह भी कहा कि शरीर के आकार के बढ़ने का नाम विकास नहीं है। वह उसका केवल एक पक्ष है। विकास जैविक के साथ-साथ मनोसामाजिक स्थिति होती है। इसमें व्यक्ति का व्यवहार उसके सामाजिक स्वरूप को निर्धारित करता है। विकास की प्रत्येक अवस्था में व्यक्ति को द्वन्द्व (Conflict) की अवस्था से गुजरना पड़ता है। मनोविकास की आठ अवस्थायें इरिक्सन ने बताई है-
1. विश्वास प्रति अविश्वास (Trust Vs. Mistrust),
2. स्वायत्तता बनाम लज्जा एवं शक (Autonomy Vs. Shyness and Doubt
3. पहल प्रति आस्था (Initiative Vs. Guilt),
4. अध्यवसाय प्रति हीन भावना (Industry Vs. Inferiority),
5. पहचान प्रति भूमिका अस्तव्यस्तता (Identity Vs. Role Confusion),
6. घनिष्ठता प्रति एकाकीपन (Intimary Vs. Isolation),
7. जननात्मकता प्रति निष्क्रियता (Generativity Vs. Stagnation),
8. अहं सम्पूर्णता प्रति निराशा (Ego Integrity Vs. Despair) |
प्रत्येक व्यक्ति जैविक, मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक रूप से इन अवस्थाओं से होकर गुजरता है। जैविक विकास भी इरिक्सन ने 8 भागों में बाँटा है- मुखवर्ती संवेदनात्मक (Oral Sensory), पेशीय गुदा (Muscular] Anal), गति जनन (Locomotor Genital), गुप्त (Latency), किशोरावस्था (Adolescence), वयस्कावस्था (Adulthood), प्रौढावस्था (Maturity)।
इरिक्सन ने विकास की धारणा में उन सभी तत्त्वों का समावेश किया है जो मनुष्य को सम्पूर्णता प्रदान करते हैं। यह एक बहुकोणीय दृष्टिकोण है जिसमें विकास का रुख किसी एक तरफ न होकर अनेक दिशाओं में होता है। इससे व्यवहार का विकास होता है और उससे बालक की सामाजिकता विकास की ओर अग्रसर होती है।
विकास की अवस्थायें
विकास की प्रक्रिया में बालक कुछ सोपानों या अवस्थाओं में से गुजरता है। इनके सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिकों में मतभेद है। सामान्य रूप से इनका वर्गीकरण चार भागों में किया जाता है, यथा-
1. शैशवावस्था (Infancy)--------------------जन्म से 5 या 6 वर्ष तक।
2. बाल्यावस्था (Childhood)-----------------5 या 6 वर्ष से 12 वर्ष तक।
3. किशोरावस्था (Adolescence)-------------12 वर्ष से 18 वर्ष तक ।
4. प्रौढ़ावस्था (Adulthood)-------------------18 वर्ष के बाद।
कोल (Cole) ने विकास की अवस्थाओं का वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार से किया है-
1. शैशवावस्था (Infancy)-------------------------------------जन्म से 2 वर्ष तक।
2. प्रारम्भिक बाल्यावस्था (Early Childhood)---------------2 से 5 वर्ष तक।
3. मध्य- बाल्यावस्था (Middle Childhood)------------------बालक 6 से 12, बालिका 6 से 10 वर्ष तक।
4. पूर्व- किशोरावस्था या उत्तर बाल्यावस्था (Pre-Adolescence or Late Childhood)------बालक 13 से 14,बालिका 11 से 12 वर्ष तक।
5. प्रारम्भिक किशोरावस्था (Early Adolescence)---------बालक 15 से 16, बालिका 12 से 14 वर्ष तक।
6. मध्य- किशोरावस्था (Middle Adolescence)-----------बालक 17 से 18, बालिका 15 से 17 वर्ष तक।
7. उत्तर- किशोरावस्था (Late Adolescence)--------------बालक 19 से 20, बालिका 18 से 20 वर्ष तक।
8. प्रारम्भिक प्रौढ़ावस्था (Early Adulthood)----------------21 से 34 वर्ष तक।
9. मध्य-प्रौढ़ावस्था (Middle Adulthood)-------------------35 से 49 वर्ष तक।
10. उत्तर प्रौढ़ावस्था (Late Adulthood)----------------------50 से 64 वर्ष तक।
11. प्रारम्भिक वृद्धावस्था (Early Senescence)----------------65 से 74 वर्ष तक।
12. वृद्धावस्था (Senescence)------------------------------------75 से आगे।
विकास के मुख्य पहलू
विकास की प्रत्येक अवस्था में बालक में अनेक प्रकार के परिवर्तन होते हैं। इस दृष्टि से प्रत्येक अवस्था को निम्नलिखित मुख्य पहलुओं में विभाजित किया जा सकता है-
1. शारीरिक विकास (Physical Development)
2. मानसिक विकास (Mental Development)
3. सामाजिक विकास (Social Development)
4. संवेगात्मक विकास (Emotional Development)
5. चारित्रिक विकास (Character Development)