व्यावसायिक पर्यावरण का अर्थ, विशेषताएँ, वर्गीकरण एवं संघटक

व्यवसाय अपने आस-पास के पर्यावरण अथवा परिवेश का एक अभिन्न अंग होता है। व्यवसाय की क्रियाएँ पर्यावरण की आवश्यकताओं और अपेक्षाओं द्वारा प्रभावित होती हैं। कोई भी व्यवसाय सामाजिक और आर्थिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए ही अस्तित्व में बना रहता है। व्यवसाय के कार्य आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक पर्यावरण से प्रभावित हैं।
    अतः उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने के लिए वस्तुओं और सेवाओं के निर्माण के लिए व्यवसाय को आवश्यक उत्पादन साधनों की आवश्यकता पड़ती है। जैसे- सामग्री, ऊर्जा, धन, मानवीय शक्ति आदि। ये सभी उत्पादन साधन समाज से ही प्राप्त किये जाते हैं। ये साधन उत्पादन अथवा निर्माण की विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजरते हुए उत्पादों और सेवाओं में रूपान्तरित हो जाते हैं और इन्हें उपयोग के लिए समाज के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। 

    समाज को उत्पाद अथवा सेवाएँ निःशुल्क प्राप्त नहीं होती हैं, बल्कि इसके बदले कुछ धन का भुगतान किया जाता है, जिसे कीमत अथवा मूल्य कहते हैं। समाज से प्राप्त कीमत का पुनः उत्पादन साधनों की प्राप्ति हेतु प्रयोग किया जाता है, जिससे कि उत्पादन की प्रक्रियाएँ निरन्तर जारी रहें। व्यवसाय एवं समाज एक-दूसरे के अस्तित्व के आधार होते हैं। किसी व्यवसाय का तब तक अस्तित्व बना रहेगा, जब तक कि समाज द्वारा व्यवसाय के उत्पादों की माँग जारी रहेगी।

    व्यावसायिक पर्यावरण का अर्थ

    व्यावसायिक पर्यावरण दो शब्दों से मिलकर बना है। व्यवसाय शब्द से आशय मनुष्य को व्यस्त रखने वाली आर्थिक क्रियाओं से है। अर्थशास्त्र में व्यवसाय का अर्थ उन सभी मानवीय आर्थिक क्रियाओं से है, जो वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन तथा वितरण के लिए की जाती हैं और जिनका उद्देश्य पारस्परिक हित है। इस तरह मनुष्य के द्वारा धनोपार्जन के लिए की जाने वाली समस्त क्रियाएँ व्यवसाय के अन्तर्गत आती है। किसी भी अनार्थिक क्रिया को व्यवसाय में सम्मिलित नहीं किया जाता है। व्यवसाय में केवल उन्हीं मानवीय क्रियाओं को शामिल किया जाता। है, जो समाज की विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए की जाती हैं। 

    इसी प्रकार पर्यावरण का तात्पर्य उन सभी घटकों से है, जो किसी भी इकाई के चारों ओर विद्यमान रहते हैं और इकाई को इन घटकों में ही कार्य करना पड़ता है। 

    व्यावसायिक पर्यावरण की परिभाषाएँ और अवधारणा 

    व्यावसायिक पर्यावरण की सर्वप्रथम अवधारणा व्यवसाय के लोगों को काम करने के उपयुक्त पर्यावरण से ही लगायी गयी थी। 

    अतः इस आधार पर हम व्यावसायिक पर्यावरण की अवधारणा को निम्नानुसार स्पष्ट कर सकते हैं- 

    (1) रेनकी एवं शॉल के मतानुसार- "यह उन समस्त बाह्य घटकों का योग है, जिनके प्रति व्यवसाय अपने को अनावृत्त करता है तथा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता है।" 

    (2) प्रो. वीमर के अनुसार- "व्यावसायिक पर्यावरण में वह परिवेश अथवा उन आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक या संस्थागत दशाओं का समूह सम्मिलित होता है, जिनके अन्तर्गत व्यावसायिक कार्य-कलापों का संचालन किया जाता है।"

    (3) विलियम एवं लॉरेन्स के शब्दों में- "पर्यावरण उन समस्त बाह्य घटकों को सम्मिलित करता है,जो उपक्रम को अवसरों या जोखिमों की ओर अग्रसर करते हैं। यद्यपि ऐसे कई घटक है तथापि उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक सामाजिक, आर्थिक, प्रौद्योगिकी, आपूर्तिकर्ता, प्रतिस्पर्धा एवं सरकार है।" 

    (4) रॉबिन्स के अनुसार- "पर्यावरण उन संस्थाओं या शक्तियों से बना होता है, जो किसी संगठन के कार्य निष्पादन को प्रभावित करती है किन्तु उस संगठन का उन पर बहुत कम नियन्त्रण होता है।" 

    उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि व्यावसायिक पर्यावरण या परिवेश किसी भी व्यावसायिक इकाई के वे बाहरी तत्व या घटक होते हैं, जिनमें रहकर यह इकाई कार्य करती है और जिनसे उस इकाई की कार्य कुशलता और लाभ प्रभावित होता है। अतः पर्यावरण का उस व्यावसायिक इकाई की सफलता या असफलता में महत्वपूर्ण योगदान रहता है।

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    व्यावसायिक पर्यावरण का महत्व

    व्यवसाय अपने आस-पास के वातावरण से न केवल प्रभावित होता है वरन् स्वयं अपनी गतिविधियों मे पर्यावरण के निर्माण में योगदान भी देता है। जब वैश्वीकरण के युग में जहाँ अनेक आन्तरिक एवं बाह्य घटक व्यवसाय के निर्धारक होते हैं वहाँ पर्यावरण का व्यवसाय में अत्यधिक महत्व है। विश्व आर्थिक परिदृश्य में कुछ राष्ट्र समृद्ध एवं उन्नतशील है और कुछ गरीबी, बेरोजगारी एवं अशिक्षा जैसी समस्याओं से अनवरत संघर्ष कर रहे है। आर्थिक असमानता में व्यावसायिक पिछड़ेपन के जो कारक है उसके मूल में पर्यावरण का अन्तर ही है जो पिछड़े और गरीब राष्ट्रों के व्यावसायिक क्षेत्र में प्रगति को प्रतिबन्धित करता है। व्यावसायिक क्षेत्र में पर्यावरण के महत्व को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-

    (1) समग्र विकास में सहायक,

    (2) सामाजिक परिवर्तनों का महत्व,

    (3) दीर्घकालीन योजना बनाना, 

    (4) बाजार की स्थितियों का ज्ञान,

    (5) तकनीकी परिवर्तनों का महत्व, 

    (6) शासकीय नीतियों का प्रभाव, 

    (7) समस्याओं के विरुद्ध संघर्ष की क्षमता का विकास, 

    (8) अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं का महत्व।

    समग्र विकास में सहायक 

    व्यवसाय के सर्वांगीण विकास में उस क्षेत्र का व्यावसायिक पर्यावरण ही सहायक होता है उत्पादन विनिमय और इनके लिये सभी सहायक सेवाएँ व्यवसाय पर्यावरण से हो ग्रहण करता है। वस्तु की माँग, कच्चे माल की आपूर्ति, श्रमिक, परिवहन साधन एवं संरचनात्मक सुविधाएँ आदि सभी समग्र विकास के सूत्र हैं, जिन्हें व्यवसाय पर्यावरण से ही प्राप्त करता है।

    सामाजिक परिवर्तनों का महत्व 

    व्यवसाय की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि वह समाज की बदलती हुई परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को परिवर्तित करे समाज में उपभोग प्रवृत्ति, उदय और अन्य सांस्कृतिक पर्यावरण में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। व्यवसाय आदि इन सामाजिक पर्यावरण पर सतत् ध्यान देते हैं और इसके अनुरूप अपने व्यवसाय में आवश्यक समायोजन भी करते हैं, तभी इसमें दीर्घजीवी तथा उत्तरोत्तर उन्नति करने की सम्भावनाएँ बनी रहती हैं।

    दीर्घकालीन योजना बनाना 

    व्यवसाय अपनी भावी दीर्घकालीन योजनाएं बनाने के लिए पर्यावरण पर अवलम्बित रहता है। यह पर्यावरण योजनाओं के निर्माण के विभिन्न स्तरों जैसे- अनुसन्धान एवं प्रोजेक्ट निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाता है। योजनाओं की अभिकल्पना पर्यावरण से प्राप्त पूर्वानुमानों से ही प्रस्तुरित होती है। व्यापक अनुसन्धान तथा विश्लेषण के माध्यम से ही व्यवसाय अपनी दीर्घकालीन योजनाओं का निर्माण करता है। 

    बाजार की स्थितियों का ज्ञान

    प्रत्येक व्यवसाय को अपने आस-पास के पर्यावरण से ही बाजार की बदलती हुई स्थितियों का ज्ञान होता है। उपभोक्ताओं को रुचि, फैशन, नये व्यवसायी, उत्पादन लागत में परिवर्तन, माँग का रुझान, ज्ञान पूर्ति के स्रोत एवं अवरोध आदि स्थितियां  पर्यावरण से होही पूर्वानुमानित की जाती हैं। यह पर्यावरण वास्तव में व्यवसायी के लिए विभिन्न निर्माण हेतु आधार प्रस्तुत करते हैं। 

    तकनीकी परिवर्तनों का महत्व 

    आधुनिक तकनीक व्यवसाय की प्रगति की धुरी है आधुनिक विश्व व्यवस्था में तकनीक में नवीनतम परिवर्तन अत्यन्त कम समय में संसार के कोने-कोने में पहुँच जाता है। संसार में हो रहे तकनीकी परिवर्तनों का भी प्रभाव व्यवसाय पर पड़ रहा है। ई-कॉमर्स एवं ई-बैंकिंग आदि इसी परिवर्तन का परिणाम है।

    शासकीय नीतियों का प्रभाव

    व्यवसाय के परिणाम अपने विशुद्ध आर्थिक स्वरूप से ही निर्धारित न होकर विभिन्न शासकीय नीतियों से भी महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित होते हैं। सरकार की कर नीति, वित्तीय नीति, आयात-निर्यात नीति, औद्योगिक नीति, मौद्रिक नीति, लाइसेंसिंग नीति आदि व्यवसाय के अनुकूल पर्यावरण का निर्माण करती है तभी व्यवसाय प्रगति कर पाते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अब व्यवसाय के अनुकूल पर्यावरण बनाने के लिए शासकीय नीतियों में आमूल-चूल परिवर्तन किये जा रहे हैं।

    समस्याओं के विरुद्ध संघर्ष की क्षमता का विकास

    व्यवसाय में चुनौतियाँ तथा समस्याएँ निरन्तर आती रहती हैं। बाजार अर्थव्यवस्था में जो सबसे शक्तिशाली है, वही संघर्ष में अपना अस्तित्व बनाये रखते हैं। पर्यावरण की परिस्थितियों से व्यवसाय अपनी समस्याओं के समाधान के रास्ते खोजते हैं। व्यवसाय माँग, उत्पादन लागत, प्रतिस्पर्धा, वित्त सम्बन्धी एवं कार्मिक समस्याओं के विरुद्ध संघर्ष कर इन पर विजय प्राप्त करने के लिए अपने ही पर्यावरण से ऊर्जा एवं सहयोग प्राप्त करता है।

    अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं का महत्व 

    व्यवसाय का स्वरूप अब इस तरह का हो गया है कि उस पर केवल स्थानीय तत्वों का ही प्रभाव नहीं पड़ता है वरन् अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी होने वाली घटनाओं का प्रभाव भी पड़ता है। विश्व व्यापार संगठन के अस्तित्व में आने पर हमारे घरेलू व्यवसाय भी इसके अन्तर्गत आने वाले समझौतों से प्रभावित हो रहे हैं। इस प्रकार अब व्यवसाय के लिए अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं का भी व्यापक महत्व है।

    अतः उपर्युक्त विवरण से यह निष्कर्ष निकलता है कि व्यवसाय का उसके पर्यावरण से अत्यधिक घनिष्ठ सम्बन्ध है। व्यवसाय के विकास की अवस्था से उस स्थान के पर्यावरण का सहज ही आकलन किया जा सकता है। समाज एवं शासन मिलकर यदि व्यवसाय का अनुकूल पर्यावरण सृजित कर पाते हैं तो उन राष्ट्रों की प्रगति में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती है। व्यावसायिक पर्यावरण के महत्व को देखते हुए अब सुनियोजित ढंग से इसे विकसित करने के प्रयत्न किये जाते हैं, तभी अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में व्यवसाय का अस्तित्व बचा रह सकता है।

    व्यावसायिक पर्यावरण की विशेषताएँ

    व्यावसायिक पर्यावरण बहुत ही जटिल, गतिशील एवं व्यापक प्रभाव रखने वाला बहु-आयामी परिदृश्य होता है, जो भिन्न-भिन्न व्यावसायिक संस्थाओं को भिन्न-भिन्न ढंग से प्रभावित करता है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

    पर्यावरण के तत्वों की जटिलता

    व्यावसायिक पर्यावरण में शामिल भिन्न-भिन्न तत्व जैसे- आर्थिक एवं राजनीतिक तत्व परस्पर इस प्रकार जुड़े होते हैं कि एक में परिवर्तन स्वयं दूसरे में परिवर्तन कर देता है और दूसरे में परिवर्तन लौटकर पुनः पहले में या किसी तीसरे में परिवर्तन कर देता है। जैसे सरकार में समाजवादी विचार के राजनेताओं का शासन उन्हें समाजवादी आर्थिक नीतियाँ बनाने के लिए प्रोत्साहित करेगा और समाजवादी नीतियों का अर्थ है, व्यवसाय संचालन में सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र की व्यावसायिक संस्थाओं की प्रभुता इससे सरकार की प्रशासनिक व्यवस्था प्रभावित होगी, अधिकांशतः अधिकारी तन्त्र और पुनः इससे सरकारी कम्पनियों की प्रबन्ध व्यवस्था अत्यधिक नियमों और कानूनों में बंध जायेगी।

    पर्यावरण की गतिशीलता तथा अनिश्चितता 

    व्यवसाय का पर्यावरण निरन्तर बदलता भी रहता है। जैसे- 'कार बाजार' को ही ले लीजिये। सन् 1991 के उदारीकरण के परिणामस्वरूप अनेक नयी भारतीय तथा विदेशी कम्पनियों ने नये-नये मॉडल की कारों की लाइन लगा दी। परिणामस्वरूप, लाइसेन्स राज में संरक्षित बाजार वाली हिन्दुस्तान मोटर की एम्बेसडर तथा प्रीमियर कम्पनी की फियट गाड़ियाँ इसके सामने नहीं टिक सकीं और कालान्तर में सबसे अधिक लोकप्रिय कार मारुति का बाजार का नेतृत्व भी डगमगाने लगा। फलस्वरूप, एक ओर मारुति ने भी नये मॉडल निकाले, प्रक्रिया प्रौद्योगिकी में सुधार किये और बाजार में अपनी पकड़ मजबूत की और दूसरी ओर अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में अनेक कार कम्पनियाँ जैसे डैवू का अनेक कारणों से दिवाला निकल गया। परिणामस्वरूप डी. सी. एम. डैवू कम्पनी कठिनाई में आ गयी। इस उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि व्यावसायिक उपक्रम को प्रभावित करने वाला राजनीतिक, आर्थिक तथा प्रौद्योगिक पर्यावरण लगातार बदलता रहता है।

    व्यवसाय पर पर्यावरण का व्यापक प्रभाव 

    व्यावसायिक पर्यावरण प्रायः सम्पूर्ण व्यवसाय को व्यापक रूप से प्रभावित करता है। जैसे- आर्थिक मन्दी, राजनीतिक अस्थिरता, सरकारी कानूनों तथा कराधान व आयात-निर्यात नीतियों में रोज नये परिवर्तन सभी व्यवसायों को कम या अत्यधिक रूप से प्रभावित करते है उनकी भविष्य की योजनाएं अपनी धुरी से हिल जाती हैं तथापि इनका प्रभाव भिन्न-भिन्न व्यवसायों पर भिन्न-भिन्न होता है। विलासिता की वस्तुएँ निर्मित करने वाले उद्योग जैसे- कार उद्योग लोचदार माँग के कारण मन्दी से अत्यधिक प्रभावित होते हैं, तो निर्यात और विदेशी सहयोग पर आश्रित उद्योग जैसे नियत के लिए तैयार वस्त्र निर्मित करने वाले उद्योग विदेशों में होने वाले परिवर्तनों से अधिक प्रभावित होते हैं।

    बहु-आयामी वातावरण 

    व्यावसायिक पर्यावरण अनेक तत्वों, शक्तियों तथा दशाओं से प्रभावित होता है;  जैसे इसे प्रभावित करने वाले अनेक तत्व है राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, नियामक तथा प्रौद्योगिकी तत्व जिनमें स्वयं अनेक उपतत्व भी शामिल हैं। इन्हें प्रभावित करने वाली कुछ शक्तियाँ जैसे- सरकार, प्रतियोगिता, विदेशी पूँजी, प्रौद्योगिकी, बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ, तेल कार्टेल, आदि हैं। इसी प्रकार इसको प्रभावित करने वाली कुछ दशाएँ भी हैं। उदाहरण के लिए विश्व बाजार में तेजी अथवा मंदी, विश्व पटल पर युद्ध व आतंक के बादल, आदि। इन सबसे अधिक प्रभावित व्यवसायकर्ता का भविष्य में अपनी योजनाओं की सफलता में विश्वास होता है।

    व्यवसायकर्ता के नियन्त्रण से बाहर

    सामान्यतया व्यवसाय के पर्यावरण पर किसी भी एक व्यावसायिक उपक्रम का नियन्त्रण नहीं होता है। वे सब मिलकर भले ही इस पर कुछ प्रभाव डाल सकते हैं, उदाहरण के लिए व्यवसाय संघों के द्वारा सरकार को आर्थिक नीतियों के बारे में सुझाव देना। तथा उन्हें इन पर विचार-विमर्श करने के लिए मनवाना या विश्वव्यापी कार्टेल बनाकर जैसे तेल  उत्पादक देशों का कार्टेल, तेल की कीमतों को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावित करना परन्तु मूल रूप से इन पर एकाकी व्यवसायी का कोई नियन्त्रण स्थापित नहीं होता है।

    व्यावसायिक पर्यावरण का वर्गीकरण

    व्यवसाय को अपने उस वातावरण पर ध्यान देना पड़ता है, जिसमें उसका अस्तित्व होता है। एक व्यवसाय तभी सफलता प्राप्त कर सकता है जब वह प्रचलित परिस्थिति तथा वातावरण पर पूरा-पूरा ध्यान दे तथा उसके अनुरूप अपने कार्य में समायोजन कर ले।

    व्यावसायिक वातावरण अत्यन्त जटिल एवं विस्तृत होता है। यह विभिन्न घटकों से प्रभावित होता है व्यावसायिक वातावरण निरन्तर परिवर्तनशील है क्योंकि अनेक तत्व इसको प्रभावित करते हैं। व्यावसायिक वातावरण आर्थिक, भौगोलिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, तकनीकी, वैधानिक एवं अन्तर्राष्ट्रीय घटकों से प्रभावित होता है। 

    अतः व्यावसायिक वातावरण को दो भागों में बाँटा गया है-

    (1) आन्तरिक वातावरण, (2) बाह्य वातावरण ।

    (1) आन्तरिक वातावरण 

    आन्तरिक घटक ऐसे घटक या तत्व होते हैं, जिन्हें व्यवसाय ने प्राप्त कर लिया है अथवा अपनी आवश्यकताओं और क्षमता के अनुसार प्राप्त कर सकता है। आन्तरिक घटक क्रियाशीलता के स्तर को निर्धारित करते हैं जिसे एक व्यवसाय प्राप्त कर सकता है। आन्तरिक घटकों के अन्तर्गत निम्नांकित घटकों को सम्मिलित किया जाता है -

    (i) वित्तीय संसाधन 

    प्रत्येक प्रकार के व्यवसाय को अपने क्रियाकलापों को संचालित करने के लिए एक कोष की आवश्यकता होती है। उत्पादन का स्तर क्या हो ? यह कोष की उपलब्धता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता है। सर्वप्रथम प्रत्येक उपक्रम को अपनी वित्तीय आवश्यकताओं का निर्धारण करना पड़ता है और इसके पश्चात् उसे उन स्रोतों का चुनाव करना पड़ता है जिनसे ये कोष एकत्रित किये जायेंगे। अगर अपेक्षित कोष प्राप्त नहीं किये जा सकते हैं तो व्यावसायिक क्रियाकलापों को संशोधित करना पड़ता है जो व्यवसाय के लिए अधिक उपयुक्त हो।

    किसी भी व्यवसाय को वित्तीय संसाधनों के सर्वोत्तम प्रयोग करने के लिए हर सम्भव प्रयास करना चाहिए। अगर किसी एक क्रिया में कोषों का मितव्ययिता एवं लाभदायकता के साथ प्रयोग नहीं किया जाता है तो इन्हें किसी अन्य उपयुक्त क्रिया में स्थानान्तरित कर दिया जाता है। कभी-कभी कुछ क्रियाओं में सम्भावित जोखिम को पूरा करने के लिए निवेश में बदलाव कर दिया जाता है। व्यवसाय को किसी एक क्रिया में हुई हानि की दूसरी क्रिया में हुए लाभ से क्षतिपूर्ति की जा सकती है। व्यवसाय को उपलब्ध संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग करना चाहिए अन्यथा स्थिति उसके अस्तित्व के लिए खतरनाक साबित हो सकती है।

    (ii) भौतिक संसाधन 

    व्यवसाय के भौतिक संसाधनों में सम्पत्तियों सम्मिलित होती है; जैसे- प्लान्ट एवं मशीनरी, भूमि और भवन तथा कच्ची सामग्री आदि एक व्यावसायिक उपक्रम की 'स्थापना करने के पूर्व यह सुनिश्चित कर लिया जाता है कि कच्ची सामग्री की निरन्तर उपलब्धता बनी रहेगी। कारखाना भी ऐसे स्थान पर स्थापित किया जाता है, जहाँ भौतिक संसाधन आसानी से प्राप्त हो सकें तथा उनका उचित ढंग से उपयोग किया जा सके। 

    (iii) प्रौद्योगिकीय संसाधन 

    वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करने के लिए प्रौद्योगिकी के प्रयोग को आवश्यकता होती है। एक व्यावसायिक उपक्रम यह निर्धारित करता है कि उसे किस स्तर की प्रौद्योगिकी की आवश्यकता है ? व्यावसायिक उपक्रम स्वयं की प्रौद्योगिकी विकसित कर सकता है। अथवा उसे बाजार से प्राप्त कर सकता है। प्रतिस्पर्धात्मक व्यवसाय में अपना दीर्घकाल तक अस्तित्व बनाये रखने के लिए व्यवसाय को नवीनतम प्रौद्योगिकी को प्राप्त करना नितान्त आवश्यक होता है।

    (iv) मानवीय संसाधन 

    किसी संगठन के कार्य संचालन को मानवीय संसाधन प्रभावित करते हैं। यदि व्यावसायिक उपक्रम में अत्यधिक सुयोग्य एवं कार्यकुशल व्यक्तियों की नियुक्ति की गयी है तो स्वाभाविक है कि व्यवसाय सुचारु और प्रभावी ढंग से संचालित किया जा सकेगा। प्रत्येक व्यवसाय के संचालन में विविध अनुभव वाले व्यक्तियों को आवश्यकता होती है। उत्पादन के लिए नियुक्त किये जाने वाले श्रमिकों में कुशल, अर्द्ध-कुशल या अकुशल श्रमिक सम्मिलित हो सकते हैं। प्रबन्धकीय स्तर पर ऐसे विशिष्ट योग्यता प्राप्त व्यक्तियों की आवश्यकता होती है, जो विभिन्न प्रबन्धकीय कार्य सम्पन्न करने की सामर्थ्य रखते हो। जैसे- तकनीकी योग्यता प्राप्त व्यक्ति की आवश्यकता हो सकती है, जो उत्पादन विभाग को वैज्ञानिक ढंग से संचालित कर सकता हो; एक विपणन विशेषज्ञ बाजार के कार्य के लिए उपयुक्त चयन हो सकता है; एक वित्तीय विशेषज्ञ अधिक उपयुक्त ढंग से वित्तीय कार्य की योजना बनाने एवं उसे मूर्तरूप प्रदान करने में समक्ष हो सकता है, आदि। मानवीय संसाधनों की उपलब्धता एक संगठन के कार्य संचालन को अत्यधिक प्रभावित करता है।

    (2) बाह्य पर्यावरण

    एक व्यवसाय को बाह्य पर्यावरण के साथ भी व्यवहार करना पड़ता है। आन्तरिक तत्वों की भाँति बाह्य तत्व भी व्यवसाय के लिए महत्वपूर्ण होते हैं। बाह्य तत्वों या घटकों में ग्राहक प्रतिस्पर्धी, सरकारी नीतियाँ, समाज आदि सम्मिलित किये जाते हैं। बाह्य पर्यावरण में निम्नलिखित घटकों को सम्मिलित किया जाता है-

    (i) ग्राहक (Customer) 

    उत्पादों और सेवाओं की माँग पर ग्राहकों की प्रतिक्रिया का गहरा प्रभाव पड़ता है। व्यवसाय और ग्राहक एक-दूसरे पर आश्रित रहते हैं। समस्त व्यावसायिक क्रियाओं का आशय ग्राहकों द्वारा उत्पन्न माँग को सन्तुष्ट करना है। व्यवसाय को वस्तुओं की माँग, ग्राहकों की पसन्दगी और नापसन्दगी, वस्तु के विषय में उनकी अपेक्षाओं, ग्राहकों की क्रय शक्ति आदि के बारे में नियमित रूप से सूचना एकत्रित करनी चाहिए। ये सूचनाएँ व्यवसाय को अपना उत्पादन कार्यक्रम आदि को व्यवस्थित करने में सहायक सिद्ध होगी। व्यवसाय को सदैव उत्पादन कार्यक्रम के अनुरूप कार्य करना चाहिए एवं व्यवसायों को ग्राहकों की आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। ग्राहक व्यवसाय के विकास में सहायक होता है।

    (ii) प्रतिस्पर्धी (Competitor) 

    एक ही प्रकार के उत्पादों अथवा सेवाओं में व्यापार करने वाले अनेक उपक्रम होते हैं। उनमें से प्रत्येक का प्रयास बाजार के अधिक से अधिक हिस्से पर अधिकार करना होता है। स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था में विभिन्न उत्पादकों में अत्यधिक प्रतिद्वन्द्विता होती है। बाजार में स्वयं का आस्तित्व बनाये रखने के लिए प्रतिस्पर्धियों की शक्तियों और कमजोरियों की जानकारी होना आवश्यक होता है। जैसे- किसी एक प्रतिस्पर्धी द्वारा अपनाये गये विपणन व्यूह रचना किसी दूसरे व्यावसायिक उपक्रम को अपनी बिक्री योजना बनाने में सहायक होनी चाहिए। किसी एक व्यावसायिक उपक्रम को अपनी नीतियों का निरूपण करते समय अपने प्रतिस्पर्धी द्वारा निर्धारित मूल्य, विक्रम की शर्तें एवं नियम, ग्राहकों को प्रदान की जाने वाली सेवाओं अथवा उत्पादों की गुणवत्ता, आदि बातों पर सम्पर्क विचार-विमर्श करना चाहिए।

    (iii) सरकार (Government) 

    सरकार की नीतियों और योजनाओं का व्यवसाय के कार्य संचालन पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। सरकार के विभिन्न नियन्त्रण सम्बन्धी विधान एवं आर्थिक नीतियाँ ऐसे क्षेत्रों का निर्धारण करती हैं, जिनमें निजी क्षेत्र प्रवेश कर सकता है एवं विकास का परिमाप भी नियत करती है। सरकार विशेष स्थानों और विशिष्ट क्षेत्रों में अधिक-से-अधिक व्यावसायिक इकाइयों की स्थापना करने के लिए करों में राहत, आर्थिक सहायता और वित्तीय प्रेरणाएँ स्वीकृत कर सकती हैं। 

    (iv) समाज (Society)

    व्यवसाय सामान्य रूप से समाज की सेवा के लिए कार्य करता है। व्यावसायिक उपक्रम को उपभोक्ताओं की पसन्द के अनुरूप वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन एवं सृजन करना पड़ता है। व्यवसाय को सामाजिक मूल्यों एवं आचार नीति का भी पालन करना पड़ता है। व्यवसाय के प्रति समाज के व्यक्तियों की प्रवृत्ति इसके कार्य संचालन को प्रभावित करती है। अतः व्यवसाय को समाज की अपेक्षाओं तथा आशाओं के अनुसार कार्य करना पड़ता है।

    पर्यावरण सम्बन्धी अथवा परिवेशी संघटक

    पर्यावरण सम्बन्धी तत्व या घटक व्यावसायिक योजनाओं और नीतियों पर अत्यधिक प्रभाव डालते हैं। अर्थव्यवस्था की संरचना, सामाजिक रचना, राजनीतिक प्रणाली, उपभोक्ता की माँग, प्रौद्योगिकी की स्थिति, बाजार में प्रतिस्पर्धा आदि वातावरण या परिवेश के संघटक या आधारभूत अंग होते हैं। इनमें से कुछ संघटक निम्नलिखित है-

    1. आर्थिक पर्यावरण 

    एक व्यावसायिक उपक्रम समाज से उत्पादन के लिए विभिन्न आदान प्राप्त करता है और निर्मित उत्पाद के रूप में समाज को वापस लौटा देता है। आर्थिक पर्यावरण या परिवेश में निम्नांकित कारक सम्मिलित किये जाते हैं-

    (i) आदानों के आपूर्तिकर्ता  (Suppliers of Inputs)

    प्रत्येक व्यावसायिक संगठन को अपने उत्पादों के निर्माण के लिए अपने परिवेश से हो भौतिक, मानवीय एवं वित्तीय संसाधनों की आवश्यकताएँ पूरी करनी होती हैं। एक व्यावसायिक संगठन को संचालित करने के लिए इन आदानों की आपूर्ति आवश्यक होती है। 

    व्यवसाय को कच्ची सामग्री की नियमित आपूर्ति की आवश्यकता होती है। कच्ची सामग्री उचित मूल्य पर उपलब्ध होनी चाहिए तथा गुणवत्तायुक्त सामग्री का होना भी आवश्यक है। कच्ची सामग्री की पूर्ति अनेक आपूर्तिकर्ताओं द्वारा की जाती है। यह व्यवस्था एक अथवा दो आपूर्तिकर्ताओं पर आश्रित रहने से बचाती है, क्योंकि एक अथवा दो आपूर्तिकर्ताओं पर कच्ची सामग्री की निर्भरता के परिणामस्वरूप निकट भविष्य में आपूर्तिकर्ता शोषण या दोहन की नीति का सहारा ले सकते हैं।

    मानवीय संसाधन व्यावसायिक उपक्रम का एक अन्य महत्वपूर्ण आदान होता है। व्यवसाय को विभिन्न कार्यों के लिए अनेक व्यक्तियों की नियुक्ति करनी पड़ती है। व्यावसायिक संगठन अपने साधनों अथवा बाह्य सेवायोजन एजेन्सियों के माध्यम से व्यक्तियों की नियुक्ति कर सकता है। इन मानवीय संसाधनों की पूर्ति के अलावा नियुक्त किये जाने वाले व्यक्तियों की उपयुक्तता भी एक महत्वपूर्ण विचारणीय विषय है। सुयोग्य कर्मचारियों को कार्य के लिए आकर्षित करने एवं व्यावसायिक उपक्रम की सेवा में बने रहने की दृष्टि से संगठन में आकर्षक मजदूरी नीतियाँ एवं उत्तम कार्य दशाएँ होनी चाहिए। श्रम बाजार में माँग एवं पूर्ति घटक की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यदि माँग की अपेक्षा पूर्ति अधिक है तो श्रमिकों की उपलब्धता आसान होगी और विपरीत अवस्था में श्रम की उपलब्धता कष्टसाध्य होगी।

    अंशों व ऋणपत्रों के निर्गमन द्वारा, बैंक तथा अन्य वित्तीय संस्थाओं से ऋण लेकर व्यावसायिक उपक्रम वित्तीय संसाधन जुटाते हैं। वित्तीय बाजार में भी माँग एवं पूर्ति घटक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। तेजी या उत्कर्ष वाली अर्थव्यवस्था में जबकि अच्छी लाभदायकता की स्थिति होती है तथा निवेशक भी वृद्धिगत प्रतिफल के लिए आश्वस्त होते हैं, कोष या वित्त जुटाने में कोई समस्या नहीं आती है। इसके विपरीत जब मंदी अर्थात् अवसाद का बाजार पर आघात लगता है तब ऐसी स्थिति में अनिश्चित प्रतिफल की सम्भावना के कारण कोष एकत्रित करना आसान नहीं होता है।

    व्यावसायिक उपक्रम में विभिन्न साधनों की आपूर्ति इस बात से प्रभावित होती है कि आपूर्तिकर्ताओं पर निर्भरता अथवा उन पर आश्रित रहने का क्या स्तर है ? यदि संगठन की अपेक्षा आपूर्तिकर्ताओं का प्रभुत्व है तो यह निश्चित है कि कीमतों के निर्धारण में व्यवसाय की शर्तें निर्धारित करने एवं सुपुर्दगी कार्यक्रम बनाने में उनकी उच्चतर स्थिति होगी। दूसरी ओर यदि व्यावसायिक संगठन की आपूर्तिकर्ताओं को तुलना में श्रेष्ठतर स्थिति है तो वह अपनी शर्तों पर आपूर्ति प्राप्त कर सकेगा।

    (ii) ग्राहक (Customer) 

    एक व्यावसायिक उपक्रम ग्राहकों के उपयोग के लिए वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करता है। व्यवसाय में माँग और पूर्ति की स्थिति ग्राहकों के साथ सम्बन्ध का निर्धारण करती है। अगर बाजार में अन्य उत्पादकों के साथ प्रतियोगिता की स्थिति है तो बाजार द्वारा निर्धारित मूल्यों पर वस्तुओं की पूर्ति करनी पड़ेगी। बिक्री में वृद्धि करने के लिए व्यावसायिक उपक्रम को मूल्यों में कमी करना, क्रय पर प्रोत्साहन राशि प्रदान करना, विक्रय उपरान्त सेवा में सुधार करना, विक्रेताओं को अधिक रियायत देना एवं व्यापक विज्ञापन करना, जैसे- कदम उठाने पड़ते हैं। व्यवसाय में एकाधिकार की स्थिति में ग्राहक उत्पादकों की दया पर आश्रित होते हैं। मूल्य निर्धारण, पूर्ति कार्यक्रम निर्धारित करने आदि में उत्पादकों का प्रभुत्व होता है। इसी प्रकार यदि बिक्री वाली वस्तुओं का कोई स्थानापन्न उपलब्ध है तो व्यावसायिक उपक्रम को उचित मूल्य निर्धारण करना पड़ता है एवं वस्तुओं की गुणवत्ता स्तर को भी बनाये रखने का प्रयास करना पड़ता है। व्यवसाय में गुणवत्ता स्तर में गिरावट होने पर ग्राहक स्थानापन्न वस्तुओं को क्रय करना प्रारम्भ कर देते हैं। 

    2. राजनीतिक पर्यावरण 

    किसी देश का राजनीतिक परिवेश व्यावसायिक क्रियाओं की दिशा को प्रभावित करता है। यह अपेक्षा की जाती है कि प्रत्येक व्यवसाय विभिन्न राजनीतिक प्रणालियों के अन्तर्गत और उनके माध्यम से संचालित हो। सरकार की कार्यप्रणाली एवं राजनीतिक व्यवस्था एक-दूसरे पर प्रभाव डालने के लिए प्रयास करती है।

    राजनीतिक पर्यावरण का सर्वाधिक महत्वपूर्ण संघटक केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकार एवं स्थानीय सरकारें होती हैं। राजनीतिक दलों की विचारधारा का व्यवसाय पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। राजनीतिक दलों की विचारधारा द्वारा मतदाताओं की आवश्यकताओं, प्राथमिकताओं और मनःस्थिति द्वारा प्रभावित होती है। इसलिये व्यवसाय की कार्यप्रणाली राजनीतिक दलों एवं मतदाताओं को चिन्तन शैली के अनुरूप होनी चाहिए। 

    सरकारी नीतियों एवं कार्यक्रमों में दीर्घकालीन एवं मध्यकालीन परिवर्तन हो सकते हैं। दीर्घकालीन परिवर्तन मतदाताओं के रुख में परिवर्तन के प्रमुख कारण होते हैं। मतदाता सरकार से ऐसी नीतियों एवं कार्यक्रमों की अपेक्षा करते हैं जो बेरोजगारी मिटाने, प्रदूषण पर नियन्त्रण स्थापित करने, आर्थिक सुरक्षा उत्पन्न करने, उपभोक्ताओं की रक्षा करने आदि में सहायक सिद्ध हों। अल्पकालीन परिवर्तन आसन्न चुनाव अथवा अदृश्य कारणों जैसे- भूकम्प, सूखा एवं बाढ़ आदि के परिणामस्वरूप हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में सरकार लोकप्रिय अभिमत और समय की आवश्यकता के प्रति अधिक उत्तरदायी होती है। किसी भी प्रकार की अनिश्चितता का व्यवसाय पर पड़ने वाले आघात के विषय में व्यावसायिक जगत् केवल अनुमान लगा सकता है।

    3. सामाजिक पर्यावरण

    सामाजिक पर्यावरण एक व्यवसाय के कार्य संचालन को अत्यधिक प्रभावित करता है। व्यवसाय समाज से अपने आदान प्राप्त करता है और समाज को उसकी आवश्यकतानुसार उत्पाद के रूप में वापस कर देता है। देश में जनसंख्या की प्रवृत्तियाँ, व्यक्तिगत आवश्यकताएँ एवं सांस्कृतिक घटक सामाजिक पर्यावरण के अंग होते हैं। इन्हें निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-

    (i) जनसंख्या की प्रवृत्तियाँ ( Population Trends ) 

    किसी भी देश में जनसंख्या की प्रवृत्तियों का आयु वर्ग, शिक्षा, आय स्तर एवं गतिशीलता के सन्दर्भ में अध्ययन किया जा सकता है। किसी व्यावसायिक संगठन में कार्यरत लोगों की आयु, वर्ग उत्पादकता एवं लाभप्रदता को बहुत प्रभावित करता है। यदि वरिष्ठता को महत्व दिया जाता है तो उससे बड़े स्पष्ट लाभ प्राप्त होते हैं। आयु के साथ अनुभव का सम्बन्ध होता है, कार्य में युवा को अपेक्षा अधिक आयु वाले व्यक्ति अधिक सुयोग्य एवं प्रवीण होते हैं। अधिक आयु वाले श्रमिक अधिक विश्वसनीय या भरोसेमन्द, उत्तरदायी, व्यावसायिक संगठन के प्रति समर्पित एवं निष्ठावान होते हैं। लेकिन उच्चतर आयु वर्ग के कुछ दोष भी होते हैं। इस वर्ग के व्यक्ति सुस्त, दुर्घटना उन्मुख, परिवर्तन के विरोधी और अधिक सुरक्षित कार्य की और प्रवृत्त होते हैं।

    जनसंख्या का शैक्षिक स्तर भी सामाजिक पर्यावरण को अत्यधिक प्रभावित करता है। शिक्षा एवं व्यक्तियों का प्रशिक्षण का स्तर के पेशेवर वरीयताओं का निर्धारण करता है। शहरी क्षेत्रों में जहाँ शैक्षिक एवं व्यावसायिक या पेशेगत अवसर उपलब्ध होते हैं, जनसंख्या में औद्योगिक श्रमिक, इन्जीनियर, डॉक्टर, वकील एवं सफेदपोश कार्य अर्थात् बाबूगीरी वाले कर्मचारी पाये जाते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ अपर्याप्त शैक्षिक एवं प्रशिक्षण सुविधाएँ उपलब्ध होती है, जनसंख्या में किसान, कृषि श्रमिक, परम्परागत कार्य करने वाले दस्तकार एवं कारीगर पाये जाते हैं। 

    देश के निवासियों की आय स्तर का सम्बन्ध शिक्षा, अनुभव और प्रशिक्षण आदि से होता है। चूँकि शहरी क्षेत्र में व्यक्ति अधिक शिक्षित होते हैं, इसलिये उन्हें ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करने वाले व्यक्तियों की तुलना में बेहतर कार्य के अवसर प्राप्त होते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में व्यक्तियों का आप स्वर भी निम्न होता है। पिछले कुछ वर्षों में व्यक्तियों के आय स्तर में हुए विकास ने व्यावसायिक उपक्रमों को श्रेष्ठतर क्रय क्षमता का लाभ उठाने के लिए अपनी विपणन व्यूह-रचना में परिवर्तन करने के लिए बाध्य किया है।

    देश में हो रहे तीव्र उद्योगीकरण के कारण नये कार्यों को करने के लिए अधिक शिक्षित एवं प्रशिक्षित व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। औद्योगिक विकास के इस क्रम में व्यक्तियों का एक स्थान से दूसरे स्थान एवं एक कार्य से दूसरे कार्य पर स्थानान्तरित होना आवश्यक हो जाता है। जनसंख्या के निम्न तथा उच्चतर स्तरों में अपेक्षाकृत गतिशीलता की दर उच्च होती है।

    (ii) व्यक्तिगत आवश्यकताएँ (Individual Needs ) 

    देश के निवासियों द्वारा कार्य करने का प्राथमिक कारण उनको दैहिक आवश्यकताओं जैसे भोजन, वस्त्र, आश्रय और भौतिक आवश्यकताओं जैसे आर्थिक सुरक्षा की सन्तुष्टि होती है। जैसे-जैसे एक व्यक्ति कार्य के बारे में पूर्व की अपेक्षा अच्छी जानकारी प्राप्त करता है. उसको प्रवीणता और योग्यता में वृद्धि होती जाती है। व्यक्ति अपनी आधारभूत आवश्यकताओं की सन्तुष्टि से अधिक की आकांक्षा करता है। व्यक्ति अपने कार्य के नियोजन में अधिक सहभागिता चाहता है और उसकी इच्छा होती है कि निर्णयन प्रक्रिया में उसको सहभागी बनाया जाय।

    परम्परागत व्यवसाय में समस्त निर्णयन-कार्य उच्चस्तरीय प्रबन्ध पर केन्द्रित होने की प्रवृत्ति होती है। ऐसी व्यवस्था में योग्य एवं पहल करने वाले कर्मचारी घुटन का अनुभव करते हैं। इसलिये व्यवसाय को निर्णय लेने की प्रक्रिया में कर्मचारियों एवं श्रमिकों का भी सहयोग लेना चाहिए तथा निम्नतर स्तरों पर अधिकारों का प्रत्यायोजन करना चाहिए। यदि ऐसा नहीं करते हैं तो गतिशील कर्मचारियों की सेवाओं को व्यवसाय में बहुत दिनों तक बाँध कर नहीं रखा जा सकता है और ऐसे कर्मचारी अन्यन्त्र कार्य की खोज करते हैं। वेतन और अन्य भत्तों में वृद्धि के साथ कर्मचारी या श्रमिक अधिक अच्छा जीवन व्यतीत करने की कल्पना करते हैं। कर्मचारी अधिक आराम जैसे सप्ताह में पाँच दिवसीय कार्य और कार्य के घण्टों में कमी की माँग करते हैं।

    (iii) सांस्कृतिक तत्व (Cultural Factors)

    सांस्कृतिक तत्व का आशय समूह अथवा वर्ग की रचना करने वाले व्यक्तियों की सामान्य विशेषताओं से है। उदाहरण के लिए- भाषा, मूल्य व्यवस्था, धार्मिक आस्था, पूर्वग्रह, प्राथमिकताएँ इत्यादि। सांस्कृतिक तत्वों में व्यवसाय के कार्य संचालन को आसान बनाने अथवा उसमें रुकावट उत्पन्न करने की क्षमता होती है। इसलिये व्यक्तियों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का अध्ययन करना अत्यन्त आवश्यक होता है।

    सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का अध्ययन राजनीतिक, वैधानिक, आर्थिक एवं सामाजिक पक्षों पर विचार-विमर्श करने से सम्भव हो पाता है। प्रत्येक देश के विधान की एक व्यवस्था होती है, जो व्यक्तियों के जीवन तथा व्यवसाय को भी विनियमित करती है; जैसे- भारत में जाति, पंथ, लिंग, धर्म आदि के आधार पर लोगों में विभेद न हो, इस सम्बन्ध में वैधानिक प्रावधान है। इसी प्रकार न्याय की दृष्टि में समानता, समान कार्य के लिए समान वेतन, प्रदूषण नियन्त्रण, मुट्ठी भर व्यक्तियों के हाथों में आर्थिक शक्ति के केन्द्रीकरण को रोकने आदि से भी सम्बन्धित वैधानिक व्यवस्थाएँ की गयी हैं।

    किसी देश के आर्थिक नियम व्यवसाय के कार्य संचालन को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं; जैसे- औद्योगिक नीति में लघु स्तर के औद्योगिक क्षेत्र को प्रोत्साहन एवं सन्तुलित क्षेत्रीय विकास को प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए समुचित व्यवस्थाएं की गयी है एवं कुछ निर्दिष्ट क्षेत्रों जैसे सुरक्षा क्षेत्र में निजी क्षेत्र के प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगाया गया है। एकाधिकार एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापार व्यवहार अधिनियम अनुचित व्यापारिक व्यवहारों को विनियमित करता है। इसी प्रकार विभिन्न ऐसे कानून प्रचलन में हैं, जो व्यवसाय के क्रियाकलापों को विनियमित करते हैं।

    देश में सामाजिक तत्व व्यक्तियों के व्यवहार या आचरण के स्वरूप को अत्यधिक प्रभावित करते हैं; जैसे जापान और जर्मनी में कार्य को पूजा माना जाता है। द्वितीय विश्वयुद्ध में हुई क्षति और बर्बादी के पश्चात् इन देशों में पुनर्वास और पुनरोद्धार इनके निवासियों के परिश्रम का ही परिणाम है। अन्य देशों में जहाँ व्यक्ति कार्य की अपेक्षा आराम को वरीयता प्रदान करते हैं, वहाँ व्यावसायिक क्रियाओं पर प्रतिकूल प्रभाव दिखायी पड़ता है।

    4. वैधानिक पर्यावरण 

    व्यवसाय में वैधानिक पर्यावरण राजनीतिक पर्यावरण की शाखा अथवा अंकुर होता है। सत्तापक्ष वाली राजनीतिक पार्टी की विचारधारा पर आधारित अथवा जनसमाज के दबाव के कारण व्यवसाय के प्रत्येक पहलू के विनियम एवं नियन्त्रण के लिए अनेक विधान पारित किये गये हैं। ये वैधानिक उपाय व्यवसाय के दीर्घकालीन उद्देश्यों का मार्गदर्शन करते हैं। देश में व्यवसाय का निम्नलिखित विधानों की सहायता से विनियम किया जाता है-

    • प्रसंविदा अधिनियम
    • कम्पनी अधिनियम 
    • विदेशी विनियम प्रबन्धन अधिनियम 
    • कारखाना अधिनियम 
    • औद्योगिक विवाद अधिनियम
    • श्रमिक क्षतिपूर्ति अधिनियम, 
    • औद्योगिक विकास एवं विनियम अधिनियम, 
    • न्यूनतम मजदूरी अधिनियम,
    • आवश्यक वस्तु अधिनियम, 
    • आयकर, आबकारी या उत्पादन कर, सीमा शुल्क, विक्री कर, आदि से सम्बन्धित कर विधान,  
    • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 
    • कर्मचारी भविष्य निधि अधिनियम, 
    • कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 
    • पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 
    • रुग्ण औद्योगिक कम्पनी अधिनियम। 

    इन उपर्युक्त अधिनियमों के अतिरिक्त आवश्यकता एवं नियमन और नियन्त्रण में आने वाली  कठिनाइयों के अनुरूप नये अधिनियमों का निर्माण होता है। तदानुसार वर्तमान नियमों में परिवर्तन होता रहता है। व्यवसाय और समूचा अर्थतन्त्र राष्ट्रीय विकास के अनुरूप विकसित हो तथा वह राष्ट्र एवं समाज तथा व्यक्ति के हितों पर आघात न करे इस हेतु कानून बनाना अपरिहार्य है किन्तु यदि ये कानून तथा उसकी जटिलताएँ व्यवसाय के सामान्य संचालन में बाधक हो तो न केवल व्यवसायियों का मनोबल गिरता है वरन् वे कानून तोड़ने के नये-नये उपाय ढूंढ़ते हैं। इससे भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा मिलता है। भारत में व्यावसायिक जगत् का कानूनी पर्यावरण इसी समस्या से ग्रसित है। इससे समानान्तर अर्थव्यवस्था पनपी है। विगत एक दशक में अपनायी गयी नयी आर्थिक नीतियों में कानूनी पर्यावरण को ठीक करने के अनेक उपाय किये गये है तथा व्यवसाय को अनेक प्रतिबन्धों से मुक्त किया गया है। यह प्रक्रिया अभी भी चल रही है। कानूनी पर्यावरण में यह रियायतें तभी सहायक होंगी, जब व्यवसाय स्वयं राष्ट्र तथा समाज के प्रति अपना उत्तरदायित्व समझे।

    व्यवसाय एवं पर्यावरण संरक्षण

    अस्तित्व को बनाये रखने के लिए अति आवश्यक होते हैं। मानव प्राणी, एवं पौधों को स्वयं जीवित रहने के लिए प्रदूषित पर्यावरण की आवश्यकता होती है। वातावरण में किसी भी प्रकार का प्रदूषण जीवन को जटिल बना देता है। 

    किसी भी देश में वायु, जल और भूमि पर्यावरण के अंग एवं तत्व होते हैं। पर्यावरण के ये तत्व पृथ्वी पर जीवन के प्रदूषण का आशय वायु, जल और भूमि की भौतिक, रासायनिक अथवा जैविक विशेषताओं में होने वाले अवांछनीय परिवर्तन से है, जो मनुष्य, पशु तथा पौधों के जीवन को हानिकारक ढंग से प्रभावित करता है। यद्यपि किसी देश के आर्थिक विकास के लिए औद्योगीकरण अति आवश्यक होता है, लेकिन यह अनेक प्रकार की समस्याएँ भी उत्पन्न करता है। उद्योगों ने वायु, जल, भूमि तथा शोर सम्बन्धी प्रदूषण को जन्म दिया है। तीव्र औद्योगीकरण ने पर्यावरण को प्रतिकूल ढंग से प्रभावित किया है। औद्योगीकरण के प्रतिकूल प्रभावों में पेशेगत बीमारियाँ, प्राकृतिक संसाधनों के क्षयपूर्ण प्रयोग एवं मनो-सामाजिक पर्यावरण सम्मिलित हैं। औद्योगीकरण की बढ़ती हुई प्रवृत्ति ने सभी प्रकार की अशुद्धियों को जन्म दिया है। पर्यावरण में गैस, रसायन और रेडियोधर्मी सामग्री, तेल का छलकना, भूमि पर मिट्टी का क्षरण जैसे भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रदूषण फैलाने वाले तत्व जीवित प्राणियों को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। प्रदूषण ने न केवल वर्तमान वरन् आने वाली पीढ़ी के लिए भी विकराल आकार धारण कर लिया है जो घातक सिद्ध होगा।

    प्रदूषण के नियन्त्रण हेतु उठाये जाने वाले कदम 

    भारत सरकार ने प्रदूषण के नियन्त्रण और पर्यावरण के संरक्षण के लिए निम्नलिखित कदम उठाये हैं- 

    1. प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड 

    भारत सरकार ने वायु, जल और शोर प्रदूषण को रोकने तथा नियन्त्रित करने के लिए प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड की स्थापना की है।

    2. प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों की पहचान करना 

    भारत सरकार ने खाद, लौह व इस्पात, कीटनाशक, आदि जैसे बहुत अधिक प्रदूषण उत्पन्न करने वाले सत्रह प्रकार के उद्योगों की पहचान की है।

    3. प्रदूषण फैलाने वाले क्षेत्रों की पहचान करना 

    सरकार ने देश में 24 गम्भीर रूप से प्रदूषित क्षेत्रों की पहचान की है, जिसमें प्रदूषण के नियन्त्रण के लिए विशेष ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता है।

    4. प्रदूषण रोकने एवं पर्यावरण में सुधार करने हेतु उपाय 

    पर्यावरण में सुधार करने के लिए निम्नलिखित उपाय किये गये हैं-

    (i) पर्यावरण की गुणवत्ता के लिए मानक निर्धारित करना। 

    (ii) विभिन्न स्रोतों से पर्यावरणीय प्रदूषण उत्पन्न करने वाले घटकों से इनके विसर्जन के लिए मानक निर्धारित करना।

    (iii) ऐसे क्षेत्रों पर प्रतिबन्ध लगाना जिसमें कोई भी उद्योग, परिचालन या प्रसंस्करण नहीं चलाये जायेंगे अथवा कुछ निश्चित सुरक्षा के उपायों के साथ चलाये जा सकेंगे।

    (iv) खतरनाक द्रव्य पदार्थों के रख-रखाव के लिए प्रक्रिया तथा सुरक्षा के उपाय निर्धारित करना।

    (v) ऐसी निर्माण करने वाली प्रक्रियाओं, सामग्रियों एवं द्रव्य पदार्थों का परीक्षण करना जिनसे पर्यावरणीय प्रदूषण उत्पन्न होने की सम्भावना होती है। 

    उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि व्यवसाय को आर्थिक एवं गैर-आर्थिक घटक पर्यावरण को गम्भीरता से प्रभावित करते हैं। इसके अतिरिक्त भौगोलिक, विश्वशान्ति की स्थिति, प्राकृतिक पर्यावरण एवं विपदाएँ आदि गैर-आर्थिक घटक भी व्यावसायिक पर्यावरण को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। इन सभी तत्वों का पूर्ण सन्तुलन किसी भी अर्थव्यवस्था में प्राप्त होना सम्भव नहीं है फिर भी साम्य का प्रयास आर्थिक उपलब्धियों को सही दिशा प्रदान करने में समर्थ होगा। व्यक्ति, समाज, व्यवसायी एवं सरकार इन तत्वों को अधिकतम उपयोगी बनाने के लिए अपने-अपने स्तर पर प्रयत्नशील रहते हैं। अब व्यावसायिक पर्यावरण को समग्र रूप से लाभकारी बनाने के लिए विश्व स्तर के माध्यम से स्थिर विकास के सूत्र खोजे जा रहे हैं, जिससे व्यावसायिक पर्यावरण को दोष रहित बनाये रखा जा सके।




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