विश्व व्यापार संगठन का विकासशील देशों पर निहित प्रभाव
(i) विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता से विकासशील देशों को सम्भावित हानियाँ,
(ii) विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता से विकासशील देशों को सम्भावित लाभ।
(i) विश्व व्यापार संगठन की (WTO) सदस्यता से सम्भावित हानियाँ
आलोचकों का मत है कि WTO के सदस्य बनने से भारत जैसे अर्द्ध-विकसित देशों को हानि उठानी पड़ेगी। WTO की सदस्यता से भारत को निम्न खतरे हो सकते हैं-
(1) कृषि क्षेत्र के लिए खतरा
WTO की सदस्यता से भारत को कृषि में इस प्रकार की हानि होने की सम्भावना है।
(i) इससे किसानों को कृषि सम्बन्धी तकनीक एवं उन्नत बीजों के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का मोहताज हो जाना पड़ेगा। किसान फसल से उन्नत बीज का संचय नहीं कर सकेंगे और उन्हें हर बार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से कीटनाशक खाद, कृषि यन्त्र इत्यादि ऊँची कीमतों पर खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। खतरे से सम्बन्धित उन्नत तकनीक का लाभ बड़े कृषक ही उठा पायेंगे। इन सबका सम्मिलित प्रभाव यह होगा कि छोटे किसान जो संख्या में अधिक हैं, अपनी भूमि बेचने को विवश हो जायेंगे और ग्रामीण क्षेत्र में बेरोजगारी की समस्या और भी अधिक बढ़ जायेगी।
(ii) समझौते के बाद कृषि क्षेत्र को मिलने वाली सब्सिडी या ऐसी सहायता कम हो जायेगी जिससे निर्धन किसानों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा।
(iii) खाद्यान्नों की देश की खपत का 3 प्रतिशत अनिवार्य रूप से आयात करने की शर्त लगायी गयी है जिसका देश के भुगतान सन्तुलन पर बुरा प्रभाव पड़ेगा।
(iv) इस समझौते के अनुसार वैज्ञानिक एवं कृषक ब्राण्ड बीजों का प्रयोग व्यापारिक उद्देश्य से नहीं कर सकेंगे, ऐसी स्थिति में विदेशी महेंगे बीजों को किसान ही खरीद सकेंगे। उन्नत किस्म के बीजों का प्रयोग छोटे तथा सीमान्त कृषकों के लिए कठिन होगा। इससे आर्थिक विषमता की खाई बढ़ने की प्रबल सम्भावना है।
(v) पर्यावरण संरक्षण की आड़ में भारत में निर्मित अनेक कृषि पदार्थों का विकसित देशों द्वारा किया जाने वाला आयात कम होगा।
(vi) यदि पर्यावरण सम्बन्धी विनियमों (Environmental Regulations) को गैट में शामिल कर लिया जाता है तो इससे भारत के खाद्य विधायन (Food Processing) तथा बागवानी (Horticulture) जैसे निर्यात प्रधान क्षेत्रों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। भारतीय खाद्य पदार्थों को अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में आसानी से स्वीकार नहीं किया जायेगा। उदाहरणार्थ, अमेरिकी स्वास्थ्य नियमों के अनुसार खाद्य पदार्थों में कीटनाशक के अवशेष का स्तर शून्य होना आवश्यक है लेकिन भारतीय उत्पादन इस शर्त को पूरा नहीं करते।।
(vii) पौधों की किस्म का संरक्षण 'स्वे-जेनेरिस' कानून द्वारा निर्धारित किया गया है। भारत के किसानों को नये तथा उत्तम किस्म के पौधों को प्राप्त करने के लिए काफी धन खर्च करना पड़ेगा तथा उनकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर निर्भरता बढ़ जायेगी।
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(2) व्यापार से सम्बन्धित विनियोग उपाय (ट्रिप्स) के विपक्ष में तर्क
(i) WTO के अनुसार भारत विदेशी विनियोग पर कोई नियन्त्रण नहीं लगा सकेगा। इसके फलस्वरूप बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भारत में अपने उद्योग स्थापित करने के लिए पूर्ण रूप से स्वतन्त्र होंगी। इनका घरेलू उद्योगों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा तथा यह देश की राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित करेगा।
(ii) विदेशी विनियोग की खुली छूट से देश से पूँजी का पलायन होगा और रुपये के मूल्य में गिरावट आने लगेगी। कुल मिलाकर व्यापार सम्बन्धी विनियोग उपायों का समझौता राष्ट्रीय सरकारों की निर्णयात्मक शक्ति को कम कर देगा।
(3) बौद्धिक सम्पदा अधिकारों (ट्रिप्स) का दुष्प्रभाव
(i) यह औषधियों, कृषि, पौधे और पशु आदि सम्बन्धी पेटेण्ट प्रणाली के अन्तर्गत क्षेत्र का विस्तार होगा। विकसित देशों के पास अनुसन्धान और विकास के असीम साधन हैं, इसलिए उन्हें पेटेण्ट करवाने की अधिक सुविधा होगी।
(ii) विदेशी विनियोग की छूट, पेटेण्ट के लिए रॉयल्टी आदि के भुगतान से देश में पूँजी का बहिर्गमन होगा और देश का भुगतान सन्तुलन प्रतिकूल हो जायेगा।
(iii) विकासशील देशों में पेटेण्ट किये हुए कच्चे माल का आयात करना पड़ेगा तथा निर्यात को आघात पहुँचेगा।
(4) सेवाओं के सामान्य समझौते
(गैट्स) से हानि गैट्स समझौता विकसित देशों के अनुकूल है क्योंकि यह उन्हीं सेवाओं के उदारीकरण पर जोर देता है जिनका लाभ विकसित देशों को मिलता है। हमारी बैंकिंग, बीमा, यातायात, शिक्षा तथा होटल आदि व्यवस्थाएँ कम्पनियों की सेवाओं से प्रतियोगिता नहीं कर सकेगी। परिणामस्वरूप धीरे-धीरे इन सेवाओं के क्षेत्र में कार्यरत स्वदेशी संस्थाएँ बन्द हो जायेंगी और हमारी आर्थिक स्वतन्त्रता छिन जायेगी।
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(5) आर्थिक नीतियों के निर्माण में गतिरोध
WTO के बनने से विकासशील देशों की सरकारों को अपनी स्वतन्त्र आर्थिक एवं गैर-आर्थिक नीतियों के निर्माण में गतिरोध आयेगी क्योंकि उदारीकरण के चलते इन देशों को अपनी अर्थव्यवस्था विकसित राष्ट्रों के लिए खोलनी पड़ेगी। सिंगापुर अधिवेशन के निर्णयों ने स्पष्ट कर दिया है कि WTO एक 'धनिकों का क्लब' है जहाँ दो वर्ष पुराना WTO विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों पर प्रमुख का साधन मात्र था, जैसा कि गैट था।
(6) आर्थिक शोषण
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को विकासशील राष्ट्रों में पूँजी विनियोजन की छूट मिलने से इन राष्ट्रों के आर्थिक शोषण में वृद्धि होगी। गैर समझौते में व्यवस्था है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को देशी कम्पनियों के समान ही माना जाना चाहिए। समझौते के इन प्रावधानों से विकासशील राष्ट्रों को अपने उद्योगों को संरक्षण प्रदान में कठिनाई आयेगी।
(7) सामाजिक शोषण
अप्रैल 1994 में मराकेश (मोरक्को, अफ्रीका) में अमेरिका ने अनेक सामाजिक प्रश्नों, जैसे- बल, श्रम, मानवीय अधिकार, बँधुआ श्रम को रोजगार से जोड़ने की बात पर जोर डाला। विकसित देशों को विकासशील राष्ट्रों की नीची मजदूरी दरों के कारण विश्व बाजार में कड़ी प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पड़ता है। विकासशील देशों की वस्तुएँ सस्ती पड़ती हैं। इसी कारण अमेरिका, जर्मनी और फ्रांस जैसे देशों ने भारत के कालीन निर्यात को बाधित करने का प्रयास किया है। आलोचकों का मत है कि वह सामाजिक कण्डिका हारकिन बिल (Harkin Bill) की ही एक कड़ी है जो संयुक्त राज्य के श्रम विभाग पर इस बात के लिए आग्रह करता है कि ऐसी वस्तुओं की हर वर्ष पहचान की जाए तो बाल श्रम (Child Labour) से बनाई जाती हैं और उन देशों की भी पहचान की जाए जो इनका निर्माण करते हैं। इस बिल के पास हो जाने पर संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार ऐसी वस्तुओं के आयात पर प्रतिबन्ध लगा देगी। इस तरह भारत द्वारा निर्यात किये जाने वाले कालीनों, हीरे-जवाहरात, टैक्सटाइल, सिले-सिलाए वस्त्र, चाय आदि के निर्यात पर गहरा दुष्प्रभाव पड़ेगा।
सिंगापुर अधिवेशन (1996) में अमेरिका ने विकासशील राष्ट्रों से आयात किये जाने वाले माल पर बदले से सम्बन्धित शुल्क (Counter Vailing Duty) लगाये जाने का प्रस्ताव किया था जिससे कि इन देशों की निम्न मजदूरी दरों से उत्पन्न प्रतिस्पर्द्धा का सामना किया जा सके। इसके अर्थ को एक उदाहरण द्वारा समझाया जा सकता है। यदि भारत में एक कमीज की कीमत रु.200 तथा अमेरिका में उसकी कीमत रु.500 है तो इसी अन्तर का मुख्य कारण श्रम लागत में अन्तर है। इस तुलनात्मक लाभ को दूर करने के लिए भारत को संयुक्त राज्य अमेरिका को निर्यात पर शुल्क अदा करना होगा ताकि इस लागत लाभ को निष्प्रभावी बनाया जा सके। यदि यह प्रस्ताव पास हो जाता तो भारत तथा अन्य विकसित राष्ट्रों को अपना माल अमेरिका तथा यूरोपीय समुदाय के सदस्य देशों में बेचा जाना कठिन हो जाता लेकिन अमेरिका पर दबाव पड़ने के कारण यह प्रस्ताव पारित नहीं हो सका। यदि विकसित देश अपने इस प्रस्ताव को पास कराने में निकट भविष्य में सफल हो जाते हैं तो विकासशील राष्ट्रों के समक्ष अपनी निर्यात वृद्धि के लिए अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं। विकसित राष्ट्रों का दबाव है कि विकासशील राष्ट्र अपने मजदूरों की मजदूरियों में वृद्धि करें, ताकि उनका माल विश्व बाजारों में प्रतिस्पर्धात्मक नहीं रहे। निर्गुट एवं अन्य विकासशील देशों के श्रम मन्त्रियों के पाँचवें सम्मेलन में जो जनवरी 1995 में दिल्ली में हुआ, सामाजिक कण्डिका को पूर्णतया अस्वीकार कर दिया गया। सम्मेलन में यह बात स्पष्ट रूप से कही गयी कि "प्रस्तावित सम्बन्ध में व्यापार-उदारीकरण के लाभ समाप्त हो जायेंगे और बेरोजगारी एवं वेदना की समस्याएँ बढ़ जायेंगी।" दिल्ली घोषणा ने इस प्रस्तावित सम्बन्ध के दबाव डालने वाले पक्ष की आलोचना की और यह उल्लेख किया-
श्रम मानदण्डों के मुद्दे पर किसी प्रकार का दबाव अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संघ के संविधान का उल्लंघन है। इस घोषणा में इस बात पर बल दिया गया है कि "एकपक्षीय दबाव के आर्थिक उपायों का प्रयोग करके विकसित देश तीसरी दुनिया के देशों से आर्थिक अथवा राजनैतिक लाभ प्राप्त करना चाहते हैं जो स्वीकार्य नहीं है।"
विकसित देशों से समर्थित इस प्रकार सामाजिक कण्डिका के गुहार्थ को समझाते हुए श्रम मानदण्ड और व्यापार में सम्बन्ध का कड़ा विरोध करते हुए भारत के केन्द्रीय वाणिज्य मन्त्री ने स्पष्ट रूप से कहा था- "मैं यह बात बिल्कुल स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूँ कि जहाँ हम अन्तर्राष्ट्रीय श्रम मानदण्डों (International Labour Standard) के लिए पूर्णतया वचनबद्ध हैं, वहाँ हम इस प्रयास को बिल्कुल उचित नहीं मानते जो ऐसे क्षेत्रों में सम्बन्ध स्थापित करने की चेष्टा करते हैं जहाँ वे विद्यमान नहीं हैं। व्यापार नीति को सभी चिन्ताओं का न्यायकर्ता नहीं माना जा सकता। इस सामाजिक कण्डिका को G-15 के देशों के प्रबल विरोध का भी सामना करना पड़ा। इन देशों ने स्पष्ट किया कि प्रस्ताव से इनकी अर्थव्यवस्थाओं पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इससे इनके भुगतान शेष की समस्या और विकट बन जायेगी।"
(8) पर्यावरण मुद्दे
विकसित राष्ट्र विकासशील राष्ट्रों के लिए पर्यावरण सम्बन्धी कुछ कठिनाइयाँ पैदा कर रहे हैं। ये राष्ट्र विकासशील राष्ट्रों से ऐसी वस्तु के आयात पर प्रतिबन्ध लगाने की बात कर रहे हैं जिससे पर्यावरण प्रदूषित होता है। पर्यावरण प्रदूषण से होने वाले नुकसान की क्षतिपूर्ति की माँग भी ये राष्ट्र विकासशील राष्ट्रों से कर रहे हैं। आलोचकों का दृष्टिकोण है कि पिछली दो शताब्दियों में प्रदूषित वातावरण से होने वाले कुल नुकसान का 3/4 नुकसान विकसित राष्ट्रों ने किया है। विकसित राष्ट्र विकासशील राष्ट्रों पर पर्यावरण प्रदूषण को नियन्त्रित करने के लिए नवीन तकनीकी अपनाये जाने का दबाव डाल रहे हैं। अतः ये राष्ट्र प्रदूषण का नया तर्क देकर निर्माताओं को बढ़ाकर विकासशील राष्ट्रों के सामने समस्याएँ पैदा करना चाहते हैं। उदाहरण के लिए, जब भारतीय स्कर्ट संयुक्त राज्य अमेरिका में अत्यन्त लोकप्रिय होने लगी तो यह दुष्प्रचार किया जाने लगा कि ये स्कर्ट ज्वलनशील पदार्थ से बनाये गये हैं। परन्तु ये आरोप मिथ्या सिद्ध हुए जो अमेरिकी नीति निर्धारकों को इस पर लगाये गये प्रतिबन्ध को हटाना पड़ा। इसी प्रकार जर्मनी ने भारत पर एजोरंगों के प्रयोग पर आरोप लगाया। इसी तरह यूरोपीय संघ के देशों ने भारतीय टैक्सटाइल निर्यात पर डम्पिंग विरोधी शुल्क लगा दिया जिससे इन देशों में भारतीय टैक्सटाइल की कीमत बढ़ गई। इससे हमारे निर्यात पर दुष्प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। चूँकि इस क्षेत्र द्वारा कुल निर्यात का लगभग 32 प्रतिशत जुटाया जाता है। संरक्षणवादी नीतियों का टैक्सटाइल उद्योग पर गम्भीर प्रभाव पढ़ेगा और इसके परिणामस्वरूप हमारी कृषि तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर ही पड़ेगा जो इस क्षेत्र से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है।
(ii) विश्व व्यापार की (WTO) सदस्यता से सम्भावित लाभ
भारत को तथा इसी प्रकार के अन्य विकासशील देशों की WTO के सदस्य बनने से मिलने वाले सम्भावित लाभ अग्रलिखित हैं-
(1) निर्यात व्यापार में वृद्धि
(i) WTO का सदस्य बने रहने से भारत के 124 देशों के साथ बहुपक्षीय समझौते सम्भव हो जायेंगे। इन देशों के साथ द्विपक्षीय समझौते नहीं करने पड़ेंगे;
(ii) इसके अलावा सीमा शुल्क की दरों में कमी और मण्डियाँ खुलने से व्यापार में वृद्धि होती है। WTO समझौते के फलस्वरूप विश्व व्यापार में 1994-95 में विश्व व्यापार संगठन की स्थापना से पूर्व, भारत का वार्षिक निर्यात 26.33 अरब डॉलर का था, जो वर्ष 2013-14 में 314.40 अरब डॉलर का रहा। वस्तुओं एवं वाणिज्यिक सेवाओं के कुल वैश्विक निर्यात में भारत का अंश 1995 में 0.61 प्रतिशत था, जो बढ़कर 2013 में 1.7 प्रतिशत हो गया। इसी अवधि में वस्तुओं एवं वाणिज्यिक सेवाओं के वैश्विक आयात में भारत का अंश 0.78 प्रतिशत से बढ़कर 2.5 प्रतिशत हो गया। विश्व व्यापार संगठन के टैक्सटाइल्स सम्बन्धी समझौते से भी भारत पर्याप्त रूप से लाभान्वित हुआ है।
कृषिगत पदार्थों के निर्यात के बढ़ने के भी नये अवसर उत्पन्न हुए हैं क्योंकि विदेशों में कृषि पर सब्सिडी कम होगी, साथ ही कृषिगत निर्यातों पर भी सब्सिडी घटेगी जिससे भारतीय माल के बिकने की सम्भावनाएँ बढ़ेंगी।
(2) वस्त्र एवं सिले-सिलाये कपड़े के निर्यात में वृद्धि
वस्त्रों एवं सिले-सिलाये कपड़ों के बहुतन्त्रीय समझौते के अन्तर्गत 1974 से कपड़ों के व्यापार पर जो कोटा सम्बन्धी प्रतिबन्ध लागू थे, वे अब समाप्त कर दिये गये हैं। कोटा निर्धारण प्रक्रिया समाप्त हो जाने से भारत को अपने वस्त्रों एवं सिले-सिलाये कपड़ों के निर्यात में वृद्धि करने में मदद मिली है।
(3) सेवा क्षेत्र को लाभ
WTO प्रस्ताव के अन्तर्गत सेवा क्षेत्र के व्यापार को शामिल कर लेने से भारत जैसे विकासशील देशों को लाभ प्राप्त होगा। इस प्रस्ताव के अनुसार विकसित देश विकासशील राष्ट्रों में अनेक व्यापारिक एवं सेवा के प्रतिष्ठानों, जैसे- बैंक, यातायात, होटल आदि खोलेंगे। इसके बदले में विकसित राष्ट्र भारत को अपनी वस्तुएं बेचने के लिए व्यापक बाजार उपलब्ध करायेंगे।
(4) व्यापार सम्बन्धित बौद्धिक सम्पदा अधिकार या ट्रिप्स
WTO के बनने से पहले डंकल प्रस्ताव में कॉपीराइट, ट्रेडमार्क, ट्रेड सीक्रेट्स, औद्योगिक डिजाइन, विद्युत आपूर्ति, भौगोलिक संकेतांक और पेटेंट्स को बौद्धिक सम्पदा अधिकार के अन्तर्गत रखा गया है। इस प्रस्ताव से भारत को कोई विशेष हानि होने वाली नहीं है। क्योंकि केवल पेटेंट्स को छोड़ अन्य सभी क्षेत्रों में भारत की न्यायिक और प्रशासनिक पद्धति अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की है।
पेटेंट्स के सम्बन्ध में यह आशंका है कि इससे दवाइयों की कीमत में थोड़ी वृद्धि हो सकती है परन्तु इस सम्बन्ध में भी निम्नलिखित बातें ध्यान देने योग्य हैं-
(i) इस संगठन के तहत दवा में उत्पाद (प्रोडक्ट) पेटेंट होंगे यानि किसी दूसरी उत्पादन प्रक्रिया से बनाकर बेचने की छूट होगी। चौदह वर्षों तक केवल वही कमपनी उस दवा को बनाकर बेच सकेगी जिसने उसकी खोज की हो। अतः हमको चौदह वर्ष (समझौतों की समय सीमा) तक तो नुकसान होगा लेकिन पुरानी अनेक दवाओं के निर्यात से हमें लाभ होगा। इस समझौते से हमें सैंकड़ों वर्षों तक लाभ मिलेगा।
(ii) पेटेंट्स सम्बन्धी दूसरी प्रावधान 10 वर्ष की अवधि के बाद लागू होंगे। यदि भारतीय वैज्ञानिकों को पर्याप्त सुविधा दी जाये तो वे नयी और अच्छी दवाइयों का निर्माण इस अवधि में कर सकते हैं।
(iii) भारत में कुल उपलब्ध दवाइयों में से केवल 10 प्रतिशत से 15 प्रतिशत दवाइयाँ ही पेटेंट सूची के अन्तर्गत हैं। अतएव अत्यधिक आशंकित होने की बात नहीं है।
(5) प्रति राशिपातन से लाभ
गैट समझौते में व्यवस्था की गयी है कि यदि राशिपातन आयात, आयातकर्ता देश के घरेलू उद्योग को हानि पहुँचाता है तो अनुबन्धित सदस्यों को अधिकार है कि वे राशिपातन-विरोधी उपायों को अपनायें। भारत में कई देशों द्वारा अपने उत्पादों का राशिपातन किया जाता है। इन नियमों से यहाँ की सरकार को राशिपातन के खिलाफ नियम बनाने में मदद मिलेगी।
(6) स्वेई-जेनेरिस व्यवस्था से लाभ
पौध प्रजनकों के अधिकारों की व्यवस्था के माध्यम से किसानों को ज्यादा सुधरे हुए और परिष्कृत बीज बाजार में मिल सकेंगे और इससे भारत के कृषि अनुसन्धान संस्थानों को हो ज्यादा लाभ मिलेंगे। 'स्वेई-जेनेरिस' व्यवस्था से कृषि क्षेत्र में अनुसन्धान और विकास निवेश बढ़ेगा और अधिक उपज देने वाली बेहतर किस्मों का विकास होगा।
(7) अन्य व्यवस्था से लाभ
(अ) विदेशी मुद्रा भण्डारों में वृद्धि- भारत के निर्यात एवं विशेषज्ञों कौ सेवाओं के निर्यात से होने वाली वृद्धि से विदेशी मुद्रा की प्राप्ति होगी तथा देश में एक मजबूत विदेशी मुद्रा-कोष बनेगा।
(ब) विदेशी निवेश में वृद्धि - समझौते में विदेशी निवेश कम्पनियों को घरेलू कम्पनियों के बराबर रखे जाने की व्यवस्था है। इससे देश में विदेशी निवेश बढ़ेंगे।
(स) विदेशी वस्तुओं की उपलब्धता- गैर समझौते से उदारीकरण को जो बल मिलेगा, उससे देश में विदेशी वस्तुओं की उपलब्धता बढ़ जायेगी। देश के नागरिकों को अनेक वस्तुएँ सस्ते दामों पर उपलब्ध होने लगेंगी।
(द) रोजगार वृद्धि - भारत के व्यापार वृद्धि के कारण 7 लाख व्यक्तियों के लिए अतिरिक्त रोजगार सृजन को सम्भावना है। निर्यात बढ़ने से रोजगार व आमदनी बढ़ना भी स्वाभाविक है।
निष्कर्ष उपर्युक्त आशंकाएँ वर्तमान की और स्पष्ट संकेत करती हैं कि WTO के अच्छे परिणाम हमारे सामने नहीं आ रहे हैं जैसा कि निम्न विवरण से स्पष्ट हो जायेगा-
1. भारतीय कृषि तथा उद्योग पर अन्तर्राष्ट्रीय दबाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगा है। भारत को टैक्सटाइल वस्तुओं,चमड़े की वस्तुओं, चाय, कॉफी तथा अन्य वस्तुओं के नियत पर विकसित देशों द्वारा किसी-न-किसी प्रकार की बाधाएँ खड़ी की जा रही हैं। विकासशील देशों में कम मजदूरी लागत (Low Wage Cost) पर बनी नीची लागत वाली वस्तुओं को पर्यावरण संरक्षण के नाम पर विदेशी बाजारों में पहुँचने से रोकने का प्रयास किया जा रहा है।
2. विकसित देशों द्वारा उत्पन्न की जाने वाली गैर व्यापारिक बाधाओं का भारत सहित अन्य विकासशील देशों द्वारा विरोध किया जा रहा है। विकासशील देशों की सरकारें तथा कम्पनियाँ पर्यावरण मानक (Environ- mental Standards) हेतु लिये जाने वाले प्रमाण-पत्र ISO 14000 को गम्भीरता से ले रही हैं।
3. सकल राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर में, 80 के दशक की तुलना में, कोई विशेष उन्नति नहीं हुई है।
4. कृषि विकास की दर बढ़ने के बजाय घटी है।
5. विदेश व्यापार का घाटा घटने के बजाय अत्यधिक तेजी से बढ़ा है।
6. सरकारी व्यय और ऋण में तीव्र गति से वृद्धि हुई है।
7. कृषकों और गैर कृषकों के बीच आर्थिक विषमता तेजी से बढ़ी है।
8. गरीबी रेखा से नीचे जीवन निर्वाह करने वालों की संख्या में कमी के बजाय वृद्धि हुई है।
संक्षेप में, कहा जा सकता है कि विश्व व्यापार समझौता राष्ट्रीय अर्थतन्त्र को सुधारने में पूरी तरह विफल रहा है। सुधार के निर्णय, वे चाहे किसी व्यक्ति अथवा राष्ट्र के हों, सफल तभी होते हैं जब वे अपने विवेक से लिये जाते हैं हमारे तथाकथित सुधार थे हैं जो विदेशी शक्तियों ने हमारे ऊपर 'विश्व व्यापार समझौते' के नाम पर थोप दिये है। उनकी रुचि केवल इसमें है कि उनके पूँजी और उत्पादों के लिए भारत के द्वार खुल जायें। उन्हें इसमें कोई रुचि नहीं है कि देश में जनसाधारण की दशा सुधरे, कृषि विकास गतिशील हो और पूरी अर्थव्यवस्था के लिए एक ठोस आधार बन सके।
निराशाजनक परिणामों का मूल कारण यह है कि हमारी प्रतिस्पर्द्धा करने की शक्ति अत्यन्त कम है। अमेरिका जैसे आधुनिकतम जानकारियों और नवीनतम यन्त्रों से सुसज्जित देशों का मुकाबला ऐसे देश नहीं कर सकते जिनमें आधे निरक्षर हों तथा जो अभी भी पुराने यन्त्रों पर निर्भर हों। यह बात न केवल औद्योगिक क्षेत्र के लिए लागू है बल्कि कृषि क्षेत्र पर भी लागू होती है।
समझौता वही सार्थक होता है जो लगभग बराबर शक्ति वालों के बीच होता है। वस्तुतः अति सम्पन्न और अति विपन्न के बीच न तो कोई न्यायसंगत समझौता सम्भव है और न हो उस पर अमल किया जा सकता है।