1980 के दशक से ही सम्पूर्ण विश्व में अत्यधिक बड़ी मात्रा में निजीकरण की प्रक्रिया चल रही है। ब्रिटेन में मार्गेट बैचर के निजीकरण के प्रयासों के बाद पूरे यूरोप, लैटिन अमेरिका, अफ्रीका एवं एशिया में यह प्रक्रिया तीव्र हो गयी है।
निजीकरण का अर्थ
निजीकरण से आशय अर्थव्यवस्था के किसी क्षेत्र में सरकारी सम्बद्धता को किसी भी रूप में वापस लेने से होता है। जब सरकार सार्वजनिक परिसम्पत्ति का विक्रय करती है तो उसे भी निजीकरण कहा जाता है। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का अविनियोग, रुग्ण सार्वजनिक इकाइयों का बन्द कर देना या उनका विक्रय कर देना आदि निजीकरण के अन्तर्गत ही आते हैं।
निजीकरण की परिभाषाएँ
निजीकरण की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नांकित है-
ई. एस. सेवस के अनुसार- "निजीकरण आर्थिक क्रियाओं या सम्पत्तियों के स्वामित्व में सरकार की भूमिका को कम करने या निजी क्षेत्र की भूमिका में वृद्धि करने की क्रिया है।"
प्रो. पीटर वायर के शब्दों में- "सरकारी सहायता आर्थिक विकास के लिए आवश्यक है, यह तथ्य सर्वथा उपयुक्त नहीं है। इसी विचारधारा ने निजीकरण को पर्याप्त बल दिया है, जो आर्थिक विकास का महत्वपूर्ण अंग है।"
प्रो. फ्रेडरिक वान हैबक के अनुसार- "स्वतन्त्र व्यापार व्यवस्था में ज्ञान सर्वोत्तम तरीके से विकसित एवं वितरित होता है। "
वीरेन जे. शाह के अनुसार- "निजीकरण का अर्थ आर्थिक प्रजातन्त्र है। "
उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि निजीकरण आर्थिक प्रजातन्त्र स्थापित करने की वह प्रक्रिया है, जिसके अन्तर्गत सरकारी उद्यमों के स्वामित्व एवं प्रबन्ध में निजी साहसियों को सहभागिता प्रदान की जाती है या सरकारी उद्यमों के स्वामित्व एवं प्रबन्ध को निजी क्षेत्र को हस्तान्तरित किया जाता है। यह आर्थिक क्रियाओं पर सहकारी नियन्त्रण को घटाकर उद्योगों के निजी क्षेत्र को विकसित करने की क्रिया है।
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निजीकरण का क्षेत्र
निजीकरण का अर्थ निजी क्षेत्र को राज्य के स्वामित्व वाले उद्योगों में सम्मिलित करने की सामान्य प्रक्रिया है। निजीकरण के क्षेत्र के अन्तर्गत निम्नलिखित को सम्मिलित किया जाता है-
(1).स्वामित्व
पूर्ण या आंशिक स्वामित्व निजी उद्यम के हाथ देना है। ऐसा निम्न प्रकार से हो सकता है-
पूर्ण विराष्ट्रीकरण
इसका अर्थ लोक उद्यमों के पूर्ण स्वामित्व को निजी हाथों में हस्तान्तरित करना है।
संयुक्त कम्पनी
लोक उद्यम को आंशिक रूप में निजी स्वामित्व में हस्तान्तरित करना है। निजी स्वामित्व 25 से लेकर 50 प्रतिशत तक हो सकता है।
परिसमापन
किसी व्यक्ति के हाथों सरकारी सम्पत्ति को विक्री जिसे जो व्यक्ति खरीदता है वह इसे पूर्व कार्य में लगा सकता है।
प्रबन्धकों द्वारा खरीद
यह विराष्ट्रीकरण का विशेष रूप है। इसका अर्थ कम्पनी को सम्पति को कर्मचारियों के हाथ बेच देना है। इस काम के लिए बैंक से ऋण की व्यवस्था भी की जाती है। कर्मचारियों के स्वामी हो जाने के कारण उन्हें वेतन के साथ-साथ लाभांश में भी हिस्सा मिलता है।
(2).संगठनात्मक
संगठनात्मक क्षेत्र के अन्तर्गत निम्नलिखित को सम्मिलित किया जाता-
होल्डिंग कम्पनी
निर्णय लेने का कार्य सरकार करती है किन्तु दिन-प्रतिदिन का संचालन कार्य स्वतन्त्र रूप से होल्डिंग कम्पनी करती है।
लीज पर देना
स्वामित्व बनाये रखते हुए, लोक उद्यम किसी निजी पार्टी को एक विशेष अवधि के लिए उद्यम को लीज पर दे सकता है।
पुनर्गठन
लोक उद्यम को बाजार के अनुशासन में लाने के लिए दो प्रकार के पुनर्गठन की आवश्यकता होती है-
(a) वित्तीय पुनर्गठन के अन्तर्गत कुल हानि को रद्द कर दिया जाता है और ऋण इक्विटी अनुपात को विवेकपूर्ण बनाया जाता है।
(b) बुनियादी पुनर्गठन के द्वारा वाणिज्यिक क्रियाओं को फिर से परिभाषित किया जाता है, जिन्हें लोक उद्यम को करना है। कुछ पुरानी क्रियाओं को त्याग दिया जाता है तथा नयी क्रियाओं को लिया जाता है।
(3).संचालन
जब पूर्ण विराष्ट्रीयकरण की क्रियाएँ अपनायी नहीं जाती है, संगठन को कार्यक्षमता में वृद्धि के लिए कुछ संचालन सम्बन्धी उपाय किये जाते हैं; जैसे-निर्णय लेने में स्वतन्त्रता, कार्य क्षमता या उत्पादकता में वृद्धि करने के लिए सभी प्रकार के कर्मचारियों को कुछ प्रेरणाएँ, बाजार से कच्ची सामग्री खरीदने की छूट, निवेश की कसौटियों का विकास एवं पूंजी बाजार से फण्ड की उगाही करने की अनुमति आदि।
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निजीकरण की विशेषताएँ
निर्जीकरण के प्रमुख लक्षण या विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) निजीकरण के द्वारा सरकारी क्षेत्र के स्थान पर जनता का क्षेत्र विकसित किया जाता है। यह आर्थिक क्षेत्र में सरकारी प्रभुत्व को कम करता है।
(2) यह आर्थिक प्रजातन्त्र स्थापित करने का साधन है।
(3) निजीकरण एक व्यापक एवं सर्वव्यापी अवधारणा है। यह विश्व के सभी देशों में तथा सभी प्रकार के आर्थिक एवं गैर-आर्थिक क्षेत्रों में अपनायी जा रही है।
(4) यह परिवर्तन की प्रक्रिया का मुख्य अंग है।
(5) निजीकरण का आधुनिक अर्थ सरकार द्वारा अपने आप को विभिन्न आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं मानवीय उत्तरदायित्वों से दूर कर लेना या निषिद्ध कर लेने से भी लिया जाने लगा है।
(6) निजीकरण आज समस्त देशों में सार्वजनिक नीति का एक मुख्य मामला बन गया है।
(7) यह निजी क्षेत्र के व्यावसायिक कौशल, व्यापारिक प्रतिभा, प्रबन्धकीय कुशलता एवं संचालकीय मितव्ययिता के प्रति जनविश्वास की अभिव्यक्ति है।
(8) यह आर्थिक बुराइयों को कुछ सीमा तक दूर करने की एक विशिष्ट दवा है किन्तु यह सम्पूर्ण दोषों के लिए एक रामबाण औषधियाँ सामान्य टोनिक नहीं है।
(9) निजीकरण सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में निजी क्षेत्र के उद्योगों को व्यापक एवं विस्तृत करने प्रयास है।
(10) यह राष्ट्रीयकरण, विनियन्त्रण एवं विनियमन की प्रक्रिया है।
(11) यह अर्थव्यवस्था की आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया है।
(12) यह उत्पादन के साधनों पर सरकार के स्वामित्व एवं नियन्त्रण को कम करना, वापिस लेना या न्यूनतम करना है।
भारत में निजीकरण को प्रेरित करने वाले घटक
भारत में निजीकरण को प्रेरित करने वाले प्रमुख घटक निम्नलिखित हैं-
भारत में विदेशी कम्पनियों एवं विनियोजकों की उत्सुकता
विकसित पूँजीवादी देशों में कम्पनियाँ एवं विनियोजक आर्थिक मंदी के परिणामस्वरूप अति उत्पादन तथा बेरोजगारी की समस्या का सामना कर रहे हैं। अतः इन समस्याओं से निपटने के लिए इनका ध्यान तृतीय विश्व के देशों की ओर गया जहाँ इन्हें विस्तृत बाजार उपलब्ध है तथा कम प्रतियोगिता का सामना करना पड़ेगा। इस दृष्टि से इन्हें भारत सर्वथा उचित नजर आ रहा है। भारत भी विश्व परिवर्तनीय इन आर्थिक घटनाओं से अछूता नहीं रहा है और सरकार ने अन्य विकासशील देशों के विकास से प्रेरित होकर आर्थिक सुधारों एवं उदारीकरण की नीति लागू करके देश में प्रत्यक्ष पूँजी निवेश तथा उद्यम स्थापित करने के द्वार खोल दिये। इससे भारत में निजीकरण को प्रोत्साहन मिला।
आर्थिक सुधार एवं उदारीकरण
सरकार ने 1991 को औद्योगिक नीति में अनेक घोषणाएँ आर्थिक सुधार एवं उदारीकरण हेतु की। इसमें सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित उद्योगों में कमी, लाइसेंस समाप्ति एवं सरलीकरण, बड़े औद्योगिक घरानों को विस्तार की छूट, विदेशी विनियोजकों को उपक्रम में 51 प्रतिशत तक समता पूँजी रखने की छूट, रुपये का अवमूल्यन, रूपये की पूर्ण परिवर्तनीयता, फेरा एवं अन्य एम.पी. आर. टी. पी. अधिनियमों में डील, सीमा एवं उत्पाद शुल्कों में कमी आदि प्रमुख रूप से शामिल हैं। इन सुधारों तथा उदारीकरण नीतियों के परिणामस्वरूप एक ऐसा वातावरण तैयार हुआ है जिसमें निजी उद्यमी अधिक स्वतन्त्रता के साथ कार्य कर सकते हैं।
लाइसेंस की अनिवार्यता वाले उद्योगों की संख्या में कमी
सरकार द्वारा देश में निजीकरण को बढ़ावा देने के लिए लाइसेंस लेने की अनिवार्यता को धीरे-धीरे कम किया जा रहा है। 1991 को औद्योगिक नीति में 18 उद्योग वर्ग ऐसे थे, जिनको प्रारम्भ करने के लिए लाइसेंस लेना अनिवार्य था, किन्तु आज उनकी संख्या को भी घटाकर 5 कर दिया है।
भारतीय उद्योगों की प्रतियोगिता शक्ति में वृद्धि की इच्छा
भारतीय उद्योगों को यह चालीस वर्षों से सरकार ने संरक्षण प्रदान कर रखा था। इससे इन उद्यमों ने न तो लागत कम करने का प्रयास किया और न ही अपनी वस्तु की किस्म में सुधार किया। उदाहरणार्थ, 1956 में स्टील उद्योग की तकनीक हमारे यहाँ विश्व की तुलना में आधुनिकतम थी, परन्तु आज हम स्टील बनाने की तकनीक में 20 वर्ष पीछे है। अतः हमारी स्टील की लागत विश्व के अन्य देशों की लागत से दोगुनी है। हम अपने यहाँ छः कारखानों में जितना उत्पादन करते हैं उतना उत्पादन कोरिया का केवल एक कारखाना करता है।
अतः स्पष्ट है कि यदि हमें अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में अपनी वस्तु बेचनी है तो भारतीय उद्यमों को गुणवत्ता एवं कीमत की दृष्टि से प्रतियोगी बनाना होगा। इसके लिये आवश्यक है कि भारत की औद्योगिक अर्थव्यवस्था का स्वरूप प्रतियोगी हो और यह निजीकरण के द्वारा भी सम्भव है।
सार्वजनिक उपक्रमों की अंश पूँजी का विनिवेश
भारत सरकार ने निजीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम यह उठाया है कि कुछ सार्वजनिक उपक्रमों की अंश पूँजी को जनता में विनिवेश किया है। सर्वप्रथम सरकार ने वर्ष 1991-92 में 30 सार्वजनिक उपक्रमों के अंशों का विनिवेश किया, जिससे 8,721 करोड़ रुपये प्राप्त हुए। इसके बाद से विनिवेश की प्रक्रिया जारी है। 31 मार्च, 2014 के अनुसार कुल 234 सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में वित्तीय निवेश (चुकता पूँजी + लम्बी अवधि के ऋण) 9,92,971 करोड़ रुपये थे।
उत्पादन वृद्धि का व्यापक आधार
भारत में औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि हेतु सभी आवश्यक घटक उपलब्ध हैं। यहाँ तकनीक एवं प्रबन्धकीय कुशलता उपलब्ध है, अपेक्षाकृत सस्ता श्रम है, प्राकृतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। आधारित संरचनाएँ विकसित हो चुकी हैं और सबसे अधिक महत्वपूर्ण तैयार माल की खपत के लिए बड़ा घरेलू बाजार उपलब्ध है। अतः निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने पर उत्पादक कम कीमत पर उच्च किस्म की वस्तु का उत्पादन करने में सक्षम हो जायेंगे। ऐसा होने पर वे न केवल घरेलू बाजार में प्रभुत्व स्थापित कर सकेंगे वरन् विदेशी बाजार में भी अपनी वस्तुओं को बेच सकेंगे।
सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित उद्योग वर्गों की संख्या में कमी
भारतवर्ष की औद्योगिक नीति में सदैव से ही कुछ उद्योगों को सरकारी क्षेत्र के लिए हो आरक्षित किया जाता है। 1956 की नीति में 17 उद्योगों को सरकारी क्षेत्र के लिए आरक्षित किया गया। बाद में इनकी संख्या में कटौती की गयी। 1991 की नीति में इनकी संख्या को घटाकर 8 कर दिया किन्तु 1993 में पुनः इनकी संख्या को घटाकर 6 ही कर दिया गया। अब यह संख्या 2 रह गयी है। इस प्रकार सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के लिए उद्योगों का आरक्षण कुछ ही उद्योगों तक सीमित कर निजीकरण को बढ़ावा दिया है।
निजी क्षेत्र में बैंकों की स्थापना की अनुमति
सरकार ने निजीकरण को बढ़ावा देने के लिए अब निजी साहसियों के बैंकों की स्थापना की छूट दे दी है। इसके साथ ही सरकार ने राष्ट्रीयकृत बैंकों की अंश पूँजी से 70 प्रतिशत पूंजी निजी क्षेत्र के विनियोजकों अर्थात् जनता को जारी करने की व्यवस्था कर दी है।
सरकार पर बढ़ता ऋण भार
सरकार ने 1956 को औद्योगिक नीति के अन्तर्गत सार्वजनिक क्षेत्र को प्राथमिकता के आधार पर विकसित करने का निर्णय लिया था। सातवीं योजना तक हम इसी पर अमल करते रहे। इस समयावधि में इस रणनीति को कार्यरूप देने के लिए सरकार ने अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं एवं विदेशी सरकारों से बड़ी मात्रा में ऋण प्राप्त किये। इन राशियों से यह परियोजनाएँ पूरी हो गयी परन्तु यह ऋण की वापसी करने में सक्षम न हो सकी। अधिकांश सार्वजनिक उपक्रम घाटे में चलते रहे और सरकार उन्हें ऋणों के द्वारा उपलब्ध राशि से सहायता प्रदान करती रही। अत्यधिक ऋण एवं ब्याज हो जाने के कारण सरकार ऋण जाल में प्रवेश कर गयी। इस समस्या का निदान निजीकरण में ही है, इससे इन उद्यमों का कुशलतापूर्वक संचालन हो सकेगा तथा सरकार को ऋण नहीं लेने पड़ेंगे, उसकी देवताएँ कम हो जायेंगी।
निजीकरण के लाभ अथवा पक्ष में तर्क
निजीकरण के लाभ या पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं-
(1) निजी उपक्रम श्रेष्ठ उत्पादन करके सरकारी खजाने के लिए आय में वृद्धि करते हैं। निजी उपक्रमों से सरकार को विभिन्न प्रकार के करों एवं चुंगियों आदि के रूप में आय होने लगती है।
(2) सरकार के उपभोग व्यय में निरन्तर वृद्धि के कारण विकास एवं योजना व्ययों के लिए बहुत कम संसाधन बचते हैं। आप की इस कमी को सरकार लोक ऋणों से पूरा करती है। इन लोक ऋणों के कारण निजी उपक्रमों के लिए उपलब्ध होने वाले वित्त एवं कोषों में कमी हो जाती है।
(3) निजीकरण से नये उद्यमियों एवं साहसियों को प्रोत्साहन मिलता है। पूँजी की माँग बढ़ जाती है। इससे पूँजी बाजार की गतिविधियों में नये रक्त का संचार होता है।
(4) निजीकरण के पश्चात् सरकार उन उपक्रमों के उद्देश्यों, संचालन एवं निष्पादन पर अधिक ध्यान दे सकती है,जो उसके स्वामित्व से बचे रहते हैं।
(5) निजीकरण के फलस्वरूप सरकार के कोष औद्योगिक एवं वाणिज्यिक क्रियाओं से मुक्त हो जाते हैं। फिर उनका उपयोग सामाजिक कल्याण के कार्यों में किया जा सकता है।
(6) निजीकरण से उद्योगों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ जाती है और ये नई किस्मों को बाजारों में लाने के लिए नवीन प्रौद्योगिकी एवं यन्त्र आदि को अपने संयन्त्र में स्थान देते हैं।
(7) निजीकरण से देश में नये-नये उद्यमियों तथा साहसियों का जन्म होता है। उद्यमीय कौशल का राष्ट्र के हित में उपयोग होता है। इससे राष्ट्र का कुल उत्पादन बढ़ जाता है।
(8) निजीकरण से देश में उत्पादन कार्यों में कोषों का अधिक विनियोग होने लगता है। गैर-उत्पादक कार्यों से धन उत्पादक कार्यों की ओर हस्तान्तरण होने लगता है।
(9) निजीकरण के फलस्वरूप देश में कोर्यों, लाभ एवं पूंजी का सृजन होता है। निजी उपक्रमों का प्रमुख उद्देश्य लाभार्जन करना होता है। इस प्रकार निजी उपक्रम अपने विनियोजित धन को शीघ्रता से बढ़ाकर देश में आधिक्य एवं विनियोग हेतु कोष उपलब्ध कराते हैं।
(10) स्व-हित तथा कार्य एवं पुरस्कार में सीधा सम्बन्ध होने के कारण निजी उपक्रमों में संचालकीय कार्यकुशलता बढ़ जाती है।
(11) निजीकरण की प्रक्रिया से लागतों में कमी होगी, अनेक प्रकार की बचतें प्राप्त होंगी, इससे अपव्यय पर रोक लगेगी। इसके साथ ही कार्यकुशलता एवं उत्पादकता में वृद्धि होगी। इससे विकास एवं जन कल्याण के कार्यक्रमों के लिए अधिक राशि उपलब्ध होगी।
(12) राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा बढ़ जाने से प्रबन्धक ग्राहकों की आवश्यकताओं को श्रेष्ठ ढंग से पूरा करने पर ध्यान देंगे तथा सामाजिक उत्तरदायित्वों को कुशलता से पूरा कर सकेंगे।
निजीकरण की हानियाँ अथवा विपक्ष में तर्क
निजीकरण के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं-
(1) सरकार के लिए यह सम्भव नहीं होता है कि वह निजी क्षेत्र में लगे समस्त नियन्त्रणों को हटा ले। राष्ट्र हित में निजी उपक्रमों पर विभिन्न आर्थिक नियन्त्रणों का लगाया जाना आवश्यक होता है।
(2) लोक उपक्रमों के दोष एवं कमियाँ अधिकांशतः संचालकीय है, मूलभूत नहीं। अतः निजी के स्थान पर अन्य विकल्पों के द्वारा वे दूर की जा सकती हैं।
(3) देश में धन लाभ एवं पूँजी के संचय को कुछ ही निजी हाथों में संगृहीत होने से रोकने के लिए लोक उपक्रमों का अत्यधिक विकास आवश्यक है। अतः निजीकरण धन के केन्द्रीकरण एवं आपसी असमानताओं को बढ़ाता है।
(4) निजीकरण की नीति से निजी क्षेत्र को हस्तान्तरित किये जाने वाले उपक्रमों में औद्योगिक सम्बन्ध और अधिक खराब होंगे। इससे देश में औद्योगिक अशान्ति एवं संघर्ष बढ़ेंगे।
(5) जनसामान्य निजीकरण के बाद भी समाजवादी समाज की कामना करता है, जिसकी निजी उपक्रमों से आशा करना व्यर्थ होगा। इससे सामान्य व्यक्ति में असन्तोष कर भावना बढ़ेगी।
(6) निजीकरण की दशा में सार्वजनिक एकाधिकार जो राज्य के पास होता है, वह ज्यों का त्यों निजी क्षेत्र को हस्तान्तरित हो जायेगा। इससे निजी क्षेत्र को अपनी कार्यकुशलता बढ़ाने की कोई प्रेरणा प्राप्त नहीं होगी और इसके विपरीत निजी क्षेत्र जनहित का शोषण करेगा।
(7) निजीकरण की दशा में निजी क्षेत्र अपने वित्तीय संसाधनों एवं कोषों के लिए विदेशी पूँजी पर निर्भर करेगा, जिसके कई दुष्परिणाम राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर पड़ सकते हैं।
(8) निजी क्षेत्र घाटे देने वाले तथा बीमार साजनिक उपक्रमों के शेयर खरीदने में कोई रुचि नहीं दिखाते हैं।
(9) निजीकरण से बड़े औद्योगिक घरानों के हाथों में आर्थिक शक्ति के केन्द्रीकरण तथा एकाधिकार की सम्भावना बढ़ जाती है।
(10) निजी क्षेत्र स्वहित की भावना से कार्य करता है तथा सामाजिक न्याय एवं सार्वजनिक हित को ध्यान में नहीं रखता है।